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Amit Soni

Comedy Drama Others

1.7  

Amit Soni

Comedy Drama Others

होशियारी पड़ी भारी

होशियारी पड़ी भारी

13 mins
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बात हमारे कॉलेज के दिनों की है। मेरे एक घनिष्ठ मित्र को हर काम अनावश्यक बुद्धिमानी से करने की बड़ी विचित्र आदत पड़ गयी थी। उन्होंने कहीं पढ़-सुन लिया था कि स्मार्ट वर्क इज बैटर दैन हार्ड वर्क मतलब बुद्धिमत्ता से किया गया कार्य कठिन श्रम से बेहतर है। भाईसाहब पर उस बात का इतना गहरा असर पड़ा कि हर बात में स्मार्टनैस बताने लगे। उन छोटे-मोटे सामान्य कामों में भी जहॉं बुद्धि लगाने की कोई आवश्यकता बिल्कुल नहीं होती थी। कई बार तो उनकी स्मार्टनैस हम पर बड़ी भारी पड़ती थी और हमारी कहासुनी भी हो जाती थी। सब उसे समझा-समझा के परेशान हो चुके थे, पर उसकी आदत नहीं सुधरती थी। ऐसी ही एक घटना तब हुई जब हम जबलपुर से मैहर गये थे। सुबह वाली पैसेंजर गाड़ी से बिना किसी समस्या के आराम से मैहर पहुँच गए। प्लेटफार्म पर उतरते ही उसने कहा-”लौटने की टिकट अभी ले लेते हैं, फिर दर्शन करने चलेंगे। बाद में भीड़ हो जाती है।” सबको ये बात सही लगी। संयोग से उस समय टिकट काउंटर पर ज्यादा भीड़ भी नहीं थी। इसलिए हम टिकट लेकर देवी धाम की तरफ रवाना हो गए। उसी वर्ष नीचे मंदिर क्षेत्र से ऊपर पहाड़ी पर स्थित मंदिर तक आने-जाने के लिए केबल ट्राली की सुविधा चालू हुई थी।

उसने सुझाव दिया कि ट्राली से ही आना-जाना करते हैं। समय बच जाएगा। ये बात भी सबको सही लगी। हम ट्राली से ही गए और दर्शन करके नीचे वापिस आ गए। खाना हम साथ ही लाए थे और ऊपर मंदिर क्षेत्र में ही भोजन कर लिया था। प्रसाद वाली दुकान से अपना बाकी सामान उठा करके चलने को हुए तो ध्यान आया कि हमारे पास पीने का पानी खत्म हो चुका था। पर उसने कहा कि पानी स्टेशन से ले लेंगे। हमारे पास सुपरफास्ट के टिकट हैं। जो गाड़ी मिलेगी, उसमें चढ़ जायेंगे। उसकी ये बात मुझे नहीं जमी। मैंने कहा भी कि पानी भरने में कितना समय लग रहा हैं। गर्मी का मौसम है। पर उसने जोर देकर कहा कि पानी तो ट्रेन में भी मिल जाता है, समय बच जाएगा। बाकी मित्रों को उसकी बात सही लगी। हम ऑटो से स्टेशन को चल दिए।

स्टेशन पहुँचे तो देखा कि एक ट्रेन जबलपुर की दिशा में जाने के लिए प्लेटफार्म पर खड़ी थी। मित्र का चेहरा खिल गया और बड़े उत्साह से उसने कहा-”मैंने कहा था ना। अब जल्दी से गाड़ी में चढ़ जाते हैं। आज तो जल्दी घर पहुँच जायेंगे।” सब खुश हो गये। चूंकि उसकी बात मानकर हमने सुपरफास्ट के अनारक्षित टिकिट लिए थे, इसलिए सब बिना सोचे तुरंत गाड़ी की तरफ तेजी से चल दिए। पर हम जैसे ही ओवरब्रिज की सीढ़ियों से ऊपर पहुँचे कि गाड़ी ने चलना चालू कर दिया। वो चिल्लाया-”दौड़ो सब। किसी भी डिब्बे में चढ़ जायेंगे। बाकी बाद में देखेंगे।” और उसने दौड़ना चालू कर दिया। सब इतनी तेजी से हुआ कि मैं या और कोई उससे कुछ कह भी नहीं पाए और सबने उसके पीछे दौड़ना चालू कर दिया। जब तक ब्रिज से नीचे आए, गाड़ी की गति बढ़ गई थी और गाड़ी के अंतिम डिब्बे हमारे सामने थे। “जल्दी-जल्दी दौड़ो और चढ़ जाओ”-वो फिर चिल्लाया और दौड़कर एक डिब्बे में चढ़ गया और धक्का-मुक्की करके लोगों को पीछे करने लगा।

उसके पीछे-पीछे हम भी एक-एक करके उसी डिब्बे में चढ़ गए। डिब्बे में बहुत भीड़ थी। हमारे इस धक्का-मुक्की करके डिब्बे में चढ़ने से वहॉं पहले से खड़े यात्री नाराज हो गए। “ये कौन सा तरीका है?, मरने की जल्दी है क्या?, कोई ऐसे चलती गाड़ी में चढ़ता है?, आज-कल के लड़कों को तो बस !”- ऐसी बातें सुनने को मिलीं। हम सबको बुरा तो बहुत लगा पर हम बात बढ़ाना नहीं चाहते थे। तिस पर इस भागा-दौड़ी में हम हॉंफने भी लगे थे। हमने भी-“सॉरी, जल्दी है, जरुरी जाना है”-कहकर मामला शांत किया। हम गेट के पास वॉश बेसिन के सामने खड़े थे। उसने कहा-”अंदर की तरफ निकल चलते हैं।

शायद जगह मिल जाए।” तुरंत एक यात्री ने कहा-”कहॉं जाओगे? कहीं जगह नहीं है। हम लोग भी कितने घटों से यहीं खड़े हैं। पैर भी नहीं हिला पा रहे हैं।”उस यात्री की बात सही थी। डिब्बे में बहुत ही ज्यादा भीड़ थी। “तो हम किसी दूसरे डिब्बे में चले जायेंगे”-मेरे उस मित्र ने थोड़ा झल्लाकर कहा। पास खड़े एक बुजुर्ग मजाकिया अंदाज में बोले-”बेटा, चलती गाड़ी में चढ़ तो गये, पर एक डिब्बे से दूसरे में कैसे जाओगे?” मेरे मित्र को और बुरा लग गया। पर खुद को संयत करके वो बोला-”अंकल जी, स्लीपर कोच अंदर से आपस में जुड़े हुए होते हैं। हम चले जायेंगे। आप निकलने के लिए थोड़ी जगह तो दो।” इस बार अंकल जी बिना व्यंग्य किए बोले-”बेटा, ये जनरल बोगी है।” ये सुनके हम लोगों के चेहरे का रंग उड़ गया। भागा-दौड़ी में ये हमने ध्यान ही नहीं दिया कि हम किस डिब्बे में चढ़ गए।

हम जहॉं खड़े थे, वहॉं नीचे फर्श पर तक बैठने की गुंजाइश नहीं थी। डिब्बा ठसाठस भरा हुआ था। हमें बहुत थकान लग रही थी और बैठने का बहुत मन कर रहा था। पर क्या करते? सुबह से पहली बार अपने मित्र की समझदारी पर अब हमें गुस्सा आया। हमारे चेहरों से वो ये बात भॉंप गया और डिब्बे के अंदर जगह देखने की बात कहकर सबके बीच से निकलने की कोशिश करने लगा। अनमने मन से लोगों ने उसे निकलने दिया पर महज सीटों की पहली पंक्ति से ही वापस लौट आया। “अंदर जा ही नहीं सकते। यहॉं से भी ज्यादा भीड़ है।”- उसकी आवाज निराशा और आश्चर्य से भरी थी।

हम सब कुछ कहना तो चाहते थे उसे पर किसी ने कुछ कहा नहीं। ”चल यार, कोई नहीं। हो जाता है कभी-कभार। लाओ पानी दो। गला सूख रहा है।”-वो थोड़ा मुस्कुराकर बोला। शायद उसने ये बात हमारा खराब मूड देखकर माहौल हल्का करने के लिए कही थी, पर अब मुझसे नहीं रहा गया। “पानी मंदिर में ही खत्म हो गया था। और कर लो जल्दी।”-मैंने चिढ़कर कहा। थकान के कारण हम सबको प्यास लग आई थी। उसको मिलाकर हम पॉंच लोग थे और सबकी पानी की बोतलें खाली थीं। हम चारों उसे गुस्से से देख रहे थे। कुछ पल चुप रहकर वो बोला-“सॉरी यार। अब मैंने जान-बूझ कर तो ऐसा नहीं किया ना। तुम लोग इस बात का इतना इश्यू मत बनाओ। थोड़ी देर में कोई वेंडर आएगा यहॉं पर। उससे खरीद लेंगे।” वही अंकल जी फिर से बोल पड़े-”बेटा, मैं सतना से आ रहा हूँ।

अभी तक कोई वेंडर इस डिब्बे में नहीं आया। हम लोग भी परेशान हैं।” अंकल जी की बातें हमें जले पर नमक की तरह लगीं। मेरा बुद्धिमान मित्र तो बहुत जमकर चिढ़ गया पर अपने गुस्से को काबू में करके हमसे बोला-”चलो कोई बात नहीं। मान लेते हैं कि आज किस्मत ही खराब है। गाड़ी कटनी पर तो रूकेगी ही। वहॉं से पानी ले लेंगे। तब तक प्यास सहन करो। थोड़ी देर की ही तो बात है।” मुझे उसकी ये बात बिल्कुल अच्छी नहीं लगी। “कटनी आने में लगभग एक घंटा लगेगा”-मैंने झल्ला कर कहा। “अरे भाई नाराज मत हो। हम सबको प्यास लगी है। सब यार-दोस्त किस लिए साथ हैं? बातें करते-करते कटनी कब आ जाएगा, पता भी नहीं चलेगा। तू ज्यादा टेंशन मत ले।”-उसने हंसकर कहा, पर कोई भी उसके इस तर्क से खुश नहीं हुआ। इससे पहले कि हम चारों उससे कुछ कहते या वो हमसे कुछ कहता, वही अंकल जी फिर से बोल पड़े-”बेटा, ये गाड़ी कटनी नहीं रूकती।” ये सुनकर हम स्तब्ध रह गए। मैंने तुरंत कहा-”ऐसा कैसे हो सकता है?

कटनी बड़ा जंक्शन है। हर गाड़ी कटनी रूकती है।” एक यात्री ने अंकल जी की बात का समर्थन करते हुए कहा-”भैया, ये गाड़ी कटनी नहीं रूकती। सीधा जबलपुर रूकेगी, उसके बाद इटारसी। आप लोगों को जाना कहॉं है?” हमारे आश्चर्य का ठिकाना नहीं था। वो यात्री फिर बोला-”भाई साहब, ये लंबी दूरी की सुपरफास्ट गाड़ी है। इसके स्टॉपेज बहुत कम हैं। आप लोगों को कहॉं उतरना है?” मुझे अभी भी उसकी बात पर विश्वास नहीं हो रहा था। ”हमें जाना तो जबलपुर है पर जब ये गाड़ी कटनी जैसे जंक्शन पर नहीं रूकती तो मैहर कैसे रूक गयी?”-मैंने बड़ी हैरानी से उससे पूछा।

”शायद पासिंग सिग्नल नहीं मिला होगा।”-वो बोला। “पर गाड़ी प्लेटफार्म पर क्यों थी? मैन लाईन से क्यों नहीं गई?”-मेरा एक अन्य मित्र बोल पड़ा। भीड़ में से किसी यात्री ने उत्तर दिया-”भाई, उस तरफ एक माल गाड़ी खड़ी थी मैहर पे।” ये बात सुनकर मुझे याद आया कि जब हम स्टेशन पहुँच कर मैन गेट से प्लेटफार्म नंबर एक पर आए थे, तब एक माल गाड़ी जिसमें डिब्बे कम थे, जबलपुर तरफ वाली मेन लाईन पर खड़ी थी, जिसके कारण प्लेटफार्म नंबर दो पर खड़ी ये गाड़ी हमें लगभग आधी ही दिखाई दी थी। स्लीपर कोच देखकर हमने अंदाजा लगाया था कि ये एक्सप्रेस होगी। पर अपने बुद्धिमान मित्र की गाड़ी पकड़ने की जल्दबाजी में हमने गाड़ी के नाम पर ध्यान ही नहीं दिया। अब हम पॉंचों एक-दूसरे की सूरत देख रहे थे।

किसी ने भी नहीं सोचा था कि ऐसा भी हो सकता है। ”यार, अब ये गाड़ी जबलपुर कितनी देर में पहुँचेगी?”-एक मित्र ने बड़े बैचेन स्वर में कहा। “लगभग दो या ढाई घटे में”-बड़ी निराशा भरी आवाज में दूसरे मित्र ने कहा। “मर गए तब तो। जान निकली जा रही है प्यास से। इतना टाइम कटेगा कैसे।”-तीसरे मित्र ने खिझियाकर कहा। बुद्धिमान मित्र ने फिर से बात संभालने की कोशिश की-”रिलैक्स यार। पंद्रह-बीस मिनट तो हो ही गए हैं गाड़ी को मैहर से चले। थोड़ी देर की ही तो बात है। फिर तो ...” मैने उसकी बात बीच में ही काटकर कहा-“तेरे लिए डेढ़-दो घटा थोड़ी देर है। समझ में आ जाएगा अभी। कहा था कि पानी भर लेते हैं। पर तू और तेरी चतुराई।” हम सबने उसकी तरफ गुस्से से देखा। ”क्यों तुम लोग बात का बतंगड़ बना रहे हो यार”-उसने भी झुंझलाकर उत्तर दिया-”मैंने जान-बूझ कर ये सब तो नहीं किया ना। हो गया बस।” बात बिगड़ते देखकर एक मित्र ने कहा। “चलो अब जो हो गया सो हो गया। आपस में मत लड़ो।” फिर सब चुप हो गए।

सबने अपने-अपने मोबाइल निकाल लिए। कोई हेडफोन लगाकर गाने सुनने लगा, कोई गेम खेलने। पर मन किसी का नहीं लग रहा था। एक तो इतनी भीड़ में खड़े रहना भी मुश्किल था। पैर का पंजा तक अपनी जगह से मोड़ने में दिक्कत थी। उस पर गर्मी का मौसम और प्यास के मारे हमारा बुरा हाल हो रहा था। हद तो ये थी कि हमारे बीच इतने सवाल-जवाब और बहस बाजी हुई पर किसी यात्री ने हमसे ये नहीं कहा कि थोड़ा पानी हमसे ले लेना। हम सबका मूड बहुत खराब था। सब बार-बार घड़ी देख रहे थे। दस मिनट बाद मुझसे रहा नहीं गया। मैंने उन अंकल से पूछा-”थोड़ा सा पानी है क्या आपके पास?” धीमे निराश स्वर में उन्होंने उत्तर दिया-”नहीं बेटा।” मैंने वहॉं खड़े अन्य यात्रियों से भी पूछा, पर ज्यादातर ने ना में जवाब दिया। कुछ ने ये कहा कि उनके पास पानी है तो पर कम है और उन्हे लंबा सफर तय करना है, इसलिए नहीं दे सकते क्योंकि गाड़ी के स्टॉपेज कम हैं और वेंडर कोई आ नहीं रहा। मेरी इस पूछताछ के कारण बाकी चारों मित्र मेरी तरफ आशा से देखने लगे थे कि शायद कहीं से थोड़ा तो पानी मिलता पर सबके मुँह उतर गए। ”ये कटनी नहीं निकला क्या अभी?”-एक मित्र ने पूछा। ”नहीं भाई।” किसी यात्री ने उत्तर दिया-”गाड़ी पता नहीं कौन सी रफ्तार से चल रही है।” और कई यात्रियों ने भी उसकी इस बात का समर्थन किया। हम सब चौंक गए। ध्यान दिया तो वास्तव में गाड़ी एक्सप्रेस ट्रेन की सामान्य गति से भी धीमी चल रही थी। हम सबने एक-दूसरे की तरफ शिकायती लहजे में देखा। ”ये ही और होना बाकी था।”-मैंने मन ही मन सोचा।

पर कहते हैं कि मुसीबत कभी अकेले नहीं आती। गाड़ी की गति तेजी से कम होने लगी और वो अंततः रूक गयी। बाहर की तरफ देखा तो कोई गॉंव था। ”अब यहॉं क्यों रूक गयी ये?”-मेरे एक मित्र ने क्रोध मिश्रित चिढ़चिढ़े स्वर में कहा। ”गाड़ी लूप लाईन पर लगी है। किसी गाड़ी को पासिंग देना होगी शायद।”-दूसरे दरवाजे की ओर खड़े किसी यात्री ने कहा। ”पर ये तो कम स्टॉपेज वाली सुपरफास्ट ट्रेन है ना? इसे कौन सी गाड़ी पीटेगी?”-मेरे मित्र ने आश्चर्यचकित स्वर में कहा। इस बार फिर उन्हीं बुजुर्ग अंकल ने उत्तर दिया-”अब वो तो रेल्वे वाले जानें। पर कई बार मालगाड़ी भी एक्सप्रेस गाड़ियों के आगे निकाली जाती हैं।”

अंकल का जवाब हमें बिच्छू के डंक की तरह लगा। पर हमने उनसे कुछ नहीं कहा। ऐसा नहीं था कि वो हमारा उपहास कर रहे थे। प्यास के मारे हमारी बैचेनी और गुस्सा बढ़ते जा रहे थे। ”मतलब मान के चलो कि लगभग आधा घंटा गाड़ी यहॉं खड़ी रहेगी।”-मैंने कहा। ”यार एक काम हो सकता है”-अचानक मेरा बुद्धिमान मित्र गंभीर चिंतन की मुद्रा में बोला-”क्यों ना हम उतर के स्लीपर कोच में चलें। वहॉं बैठने की जगह भी मिल जाएगी और पानी भी।

वहॉं तो कोई वेंडर भी जरूर होगा।” उसने सवालिया अंदाज में हमारी तरफ देखा। उसकी ये बात मेरे बाकी मित्रों को सही लगी। सबके चेहरे खिल गए और सब उसके प्रति अपना गुस्सा भूल गए, सिर्फ मुझे छोड़ कर। मैं उसे संदेह भरी दृष्टि से देख रहा था। वो मुझसे कुछ कहने ही वाला था कि अंकल जी एक बार फिर बोल पड़े-”बेटा आप लोगों ने टिकट मैहर से ही ली थी क्या?” ये बात सुनकर मुझे डर लगा कि अब अंकल जी हमें कोई और मनहूस खबर सुनाने वाले हैं। ”जी हॉं।”-मैंने उन्हें सशंकित भाव से देखते हुए उत्तर दिया। ”तब फिर स्लीपर में मत जाओ। वहां चैकिंग चल रही है। आप लोग बिना टिकिट माने जाओगे। सतना से जबलपुर तक का जुर्माना बना देगा टीटीई।” ये बात सुनकर मेरे सारे मित्रों के चेहरे की खुशी गायब हो गयी। इस बात पर तो हम में से किसी ने ध्यान ही नहीं दिया था।

मैहर से जबलपुर तक अनारक्षित सुपरफास्ट टिकिट से स्लीपर में चलने पर बनने वाले जुर्माने के लिए तो हम तैयार थे। पर ये बिना टिकिट का सतना से जबलपुर तक का जुर्माना हमारे बजट के बाहर था। ”मर गए।”-मेरे एक मित्र ने सिर पकड़ते हुए कहा। ”क्या पड़ी थी तुझे बिना गाड़ी का पता किए गाड़ी में चढ़ने की।-उसने गुस्से से मेरे बुद्धिमान मित्र से कहा-”ऐसी क्या जल्दी थी घर पहुँचने की? कौन से बड़े तीर मारने थे जल्दी घर जाके। आराम ही तो करना था ना बस। अब भुगतो।” ये बात मेरे बुद्धिमान मित्र को बुरी लग गयी। ”तो फिर तुम लोगों ने मेरी बात मानी ही क्यों? जल्दी घर तो सब पहुँचना चाहते थे ना।”

मेरे बुद्धिमान मित्र ने भी चिढ़कर उत्तर दिया-”जब सब सही होता है, तब तुम लोगों को बड़ा अच्छा लगता है। जरा सा कुछ गलत क्या हो जाए फिर देखो।” उसके इस जवाब से मेरे उस मित्र को और बुरा लग गया। पर इससे पहले कि वो कुछ बोलता, मैंने उसे चुप रहने का इशारा करते हुए अपने बुद्धिमान मित्र से कहा-”देख भाई, बाकी सब बातों पर हम सहमत थे सिवाय इसके कि तूने बिना गाड़ी का पता किए उसे देख के दौड़ लगा दी।

हमें कुछ बोलने का मौका ही नहीं मिला। अपनी गलती मानने से कोई छोटा नहीं हो जाता। और तुम लोग...”-मैं अपने बाकी तीन मित्रों की तरफ देखकर बोला-”जब मैंने कहा था कि पानी भर लेते हैं, तब तो तुम सबको भी बड़ी जल्दी पड़ी थी। इसलिए अब ये झगड़ना बंद करो। गलती हम सबकी है। हमने भी इसे रोकने की कोशिश नहीं की और इसके पाछे दौड़ पड़े गाड़ी पकड़ने को।” सबने मुँह बिचका कर इस बात पर सहमति जताई। ”चलो वो सब तो ठीक है, पर क्या हम में से कोई एक सिर्फ पानी लेने भी नहीं जा सकता क्या?”-एक मित्र ने कहा। हमारे कुछ कहने से पहले ही दरवाजे की तरफ खड़े एक यात्री ने कहा-”भाई आप लोग रहने दो। मैं जा रहा हॅूं स्लीपर कोच में पानी लेने। मिला तो आप लोगों के लिए भी ले आऊंगा।” ये बात सुनकर हम सबने थोड़ी राहत महसूस की। ”बहुत धन्यवाद आपका”-मैंने कहा-”पानी, कोल्ड ड्रिंक, चाय, दूध, लस्सी, नमकीन, बिस्किट, जो कुछ भी मिले, ले आना आप तो। कुछ तो जाए पेट में।” मेरी इस बात पर सब हॅंस पड़े। उस यात्री ने भी हँसते हुए कहा-”ठीक है।” फिर वो जाने लगा। ”पैसे ले जाओ।”-मैंने कहा। तब उसने कहा-”पैसे बाद में हो जायेंगे, पहले कुछ मिल तो जाने दो।” मैंने बिना कुछ कहे हॉं में सिर हिला दिया। 

यह कहानी बहुत ही लम्बी है। पूरी कहानी यहाँ प्रकाशित करना संभव नहीं है। पूरी कहानी कृपया मेरी पुस्तक "कयामत की रात" में पढ़ें जो कि एमाज़ॉन किंडल पर उपलब्ध है।




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