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Vandana Singh

Tragedy

1.5  

Vandana Singh

Tragedy

मेरा पहला प्यार

मेरा पहला प्यार

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पहला प्यार

ये शब्द जब कानों में पड़ते हैं तो अनायास ही एक आकृति आँखों के सामने घूमने लगती है और फिर धुँधली परछाई सी कहीं खो जाती है।

"पहला प्यार"

वो पहला एहसास जिसके स्मरण मात्र से रोम-रोम खिल उठता है, मेरे जीवन में एक अजीब सा,नहीं जानती कैसा ? अच्छा या बुरा, पर कुछ ऐसा मोड़ ले कर आया जिसने मेरे सोचने-समझने की शक्ति को झकझोर के रख दिया।

बात उन दिनों की है जब मैं अपनी दसवीं की पढ़ाई गाँव में पूरी कर आगे की पढ़ाई के लिय शहर, बड़े पापा जिन्हें हम बाबूजी कहते थे, के पास गई।

गाँव में उन दिनों कोई बड़ा कॉलेज नहीं था और मुझे पढ़ने का बड़ा शौक था। मेरी जिद और बाबूजी के बोलने पर मेरे पिताजी मान गए और मैं बड़े अरमानों को संजो गाँव से शहर, पटना आ गई। बाबूजी उन दिनों पटना हाई कोर्ट के नामी वकील हुआ करते थे तो मेरा दाखिला भी बड़ी आसानी से वहाँ के नामी कॉलेज में हो गया। घर से कॉलेज तक की बस सुविधा थी तो आने-जाने में कोई असुविधा भी ना हुई।

सब कुछ बड़ी आसानी से होता गया और फिर दिन आया मेरे कॉलेज जाने का। बड़े सवेरे ही उठकर नहा-धोकर, पूजा-पाठ कर के कॉलेज के लिय तैयार हुई तो बाबूजी ने स्नेह भरे स्वर में कहा, "बिटिया, आज कॉलेज का पहला दिन है चलो मैं छोड़ देता हूँ, वापिस आते वक़्त ले भी आऊँगा। कल से खुद बस से आना-जाना करना।"

मैं ख़ुशी-ख़ुशी उनकी मोटर बाइक पर सवार हो गयी। और बाबूजी कॉलेज ले जाते वक़्त कई स्थानों के विषय में बताते गए। कॉलेज के गेट पर उतारते हुए बड़े ही स्नेह से आशीर्वाद दिया और चले गए।

अब यहाँ से मेरी अकेले की यात्रा प्रारंभ होती है। बड़े सहमे कदम से मैं आगे बढ़ने लगी और अन्दर दाखिल हो गई। हिंदी विषय की क्लास ढूंढते एक कमरे में बैठ गई। प्रेमचन्द की गोदान की चर्चा चल रही थी। मैं ऐसी खोई की समय का पता भी ना चला और करीब आधे घंटे के बाद एक युवक दौड़ता हुआ आया और मेरे बगल में बैठ गया।

वो बुरी तरह हाँफ रहा था तो मैंने बिना देखे अपनी पानी की बोतल उसकी ओर बढ़ा दिया और उसने भी बिना संकोच किये मेरे हाथ से बोतल ले कर गटकने लगा। फिर थैंक्स बोलते हुए प्रोफेसर की बातें सुनने लगा। क्लास ख़त्म हुई और मैं उठकर जाने लगी तो उसने टोका, "तुम कौन हो ? पहले तो कभी नहीं देखा ?नई हो ?"

मैंने मुड़ कर उसे जवाब देना चाहा तो नज़रें ठिठक गयी। साँवला रंग, हँसमुख चेहरा, बड़ी-बड़ी काली आँखें, मानो खुद में एक इतिहास कहती हो।

लम्बा, छरहरा सुन्दर सा युवक मेरे सामने खड़ा था। पल भर में किसी को भी आकर्षित कर लेने वाला वो युवक मुझे किसी कहानी का हीरो प्रतीत हो रहा था। मैं ध्यान मग्न उसे घूरती रही कि अचानक फिर वो बोल पड़ा, "घूरती रहोगी कि कुछ बोलोगी भी।"

मैं झेंप गयी। हाँ सच ही तो था। वो मेरे सामने था और मैं उसे घूर रही थी। ऐसे जैसे मैंने कभी किसी को ना देखा था। मैं हकलाते हुए बोली,

"हाँ, मैं नई आई हूँ, पटना मेरे बाबूजी के पास मतलब बड़े पापा के यहाँ।"

ओ, तो तुम्हारा नाम क्या है।" उसने पूछा।

मैंने उत्तर दिया, "स्मृति,स्मृति सिंह।और तुम्हारा ?"

उसने जवाब दिया, "विवेक, विवेक पाण्डेय।"

और कहते-कहते मेरी तरफ हाथ बढ़ा दिया, "दोस्त ?"

मैंने भी स्वीकारते हुए हाथ मिला लिया। फिर हम क्लास से बाहर आ गए। विवेक अपने दोस्तों के पास चला गया और मैं दूसरी क्लास में। दिन बीत गया और शाम को बाबूजी लेने आ गए,

"तो कैसा रहा आज का दिन ?"

मैंने हाँ में सिर हिला दिया। सारे काम निपटाकर रात में जब सोने गई तो ना जाने नींद कहाँ गायब थी। 10 बजते-बजते सो जाने वाली मैं आज रात के 1 बजे भी तारे गिन रही थी। विवेक का चेहरा मेरी आँखों के सामने नाच रहा था। ये मुझे क्या हो रहा था ? नहीं जानती। हाँ, पर बैचैनी बहुत हो रही थी। करवटें बदलते किसी तरह रात बीत गयी। सुबह फिर जल्दी से तैयार हो कर चौराहे पर खड़ी हुई ही थी कि बस आ गयी। आनन-फानन में कॉलेज भी पहुँच गयी पर आज मैं वो पुरानी स्मृति में ना थी,बदल गई थी।

मेरी नज़रें चारों ओर विवेक को खोज रही थी पर वो कहीं दिखाई नहीं दे रहा था। अभी कल ही तो पहली बार मिली थी पर ऐसा प्रतीत हो रहा था कि जन्मों से उसे जानती हूँ और कई दिनों से उसे ना देखा हो सी तड़प हो रही थी।

इसी उधेड़बुन में थी कि पीछे से आवाज़ आई,

"हाय ! स्मृति, कैसी हो ?"

पीछे मुड़ के देखा तो विवेक काले रंग के टी-शर्ट और जीन्स में खड़ा मुस्कुरा रहा था। आज तो वो कल से भी ज्यादा खुबसूरत लग रहा था। जी कर रहा था कि बस उसे देखती जाऊँ पर ये मुमकिन कहाँ था ? खैर, थोड़ी-बहुत बातचीत के बाद वो फिर दोस्तों के साथ कही गुम हो गया और मैं खोई-खोई सी वही बैठी रही।

ऐसे ना जाने कितने दिन बीत गए। हम दोस्त से बहुत अच्छे दोस्त बन गए। पढ़ाई-लिखाई भी चलती रही। विवेक बहुत ही सुलझा हुआ और समझदार इंसान था। जैसे-जैसे मैं उसे जानती गई वैसे-वैसे वो मेरे और भी करीब आ गया। और शायद मैं उससे बेइंतहा मोहब्बत करने लगी। कभी-कभी जब वो मेरी फिक्र करता था तो लगता था जैसे वो भी मुझसे प्यार करता है। पर ना उसने कभी सामने से कुछ कहा ना मैंने।

एक वर्ष बीत गया। कॉलेज में यूथ फेस्टिवल का समय था। ऐसे तो मैं 4-4.30 तक घर आ जाती थी पर कार्यक्रम के वजह से लेट भी होने लगी। वो अगस्त का महिना, शाम को मुसलाधार बारिश हो रही थी। कॉलेज की बस जा चुकी थी और शाम के 6 बज चुके थे और मैं अभी तक कॉलेज में ही थी। इतने में विवेक ने कहा,

"कब तक बारिश रुकने का इंतज़ार करोगी ? चलो मैं घर छोड़ देता हूँ।"

मैंने थोड़ी देर तो आनाकानी की फिर मान गई। उस दिन पहली बार मैं किसी और के बाइक पर बैठी थी। बाहर जोरों की बरसात हो रही थी और अन्दर मेरा कलेजा जोरों से धड़क रहा था।

हम दोनों ही चुप थे। मेरी साँसे जोर से चल रही थी और मैं विवेक के भीतर के कम्पन को भी महसूस कर पा रही थी। अजीब सी स्थिति थी। हम चुप थे पर मन में ढेरों बाते थी। खैर, मेरा घर आ गया और बाहर गेट पर वो मुझे छोड़ कर चला गया। मैं उसे जाते, बारिश में खोते, धुंधली आँखों से देखती रही। उस रात मुझे नींद ना आई। बैचैन सी मैं अपने कमरे में टहलती रही। सुबह निर्णय किया कि कुछ भी हो मैं विवेक को अपने दिल का हाल बता के ही रहूँगी वरना मेरा जीना दुश्वार हो जायगा।

ये निर्णय लेते ही अजीब सी फुर्ती आ गयी। एक अजीब सी उमंग थी। आज मैं तैयार होकर आईना निहार रही थी। विवेक के पसंदीदा गुलाबी रंग की सूट पहने मैं आज अलग, निखरी स्मृति लग रही थी। समय से आधे घन्टे पहले ही बस-स्टैंड पर खड़ी हो गई। समय काटना पहाड़ सा हो गया था। बार-बार घड़ी देखती मैं विवेक से मिलने को आतुर हो रही थी। इतने में बस भी आ गयी और मैं खिड़की वाली सीट पर बैठकर बाहर निहारती रही। करीब आधे घंटे के बाद बस कॉलेज पहुँच गई तो जल्दी से बाहर निकल कर मैं सीढ़ियों से होते हुए सीधी ऑडिटोरियम में पहुँची, जहाँ हम रोज रिहर्सल किया करते थे। विवेक अभी तक नहीं आया था। कल भीग गया था तो शायद बीमार ना पड़ गया हो सोचकर मैं घबराई सी बाहर निकल गयी।

उसके दोस्तों से पूछा पर किसी को भी कुछ ज्ञात ना था। इतने में पुलिस की जीप कॉलेज में आकर रुकी। ऑफिसर सीधा प्रिंसिपल के केबिन में गए फिर कुछ देर के बाद दोनों बाहर आये और खड़े होकर बातें करने लगे। हम दूर से ही सब देख रहे थे। फिर प्रिंसिपल सर ऑडिटोरियम में आये और कहा,

"हमे खेद है कि हम इस बार यूथ फेस्टिवल में हिस्सा नहीं ले पायेंगे, हमने अपना एक होनहार स्टूडेंट खो दिया है।"

सारी नज़रें अब भी उन्हें ही देख रही थी।

"यस, वी हैव लॉस्ट विवेक। कल शाम को ही 7 बजे के आस-पास बाइक दुर्घटना में उसकी मौत हो गयी। स्पॉट डेथ।"

मुझे काटो तो खून नहीं। मूक सी वहीं की वहीं गिर पड़ी। आँख खुली तो खुद को हॉस्पिटल में पाया। बाबूजी और अन्य परिवार के लोग घेरे खड़े थे। मुझे कुछ समझ में ही नहीं आया कि मेरे साथ ये हुआ क्या ? सपना था या हकीक़त। 4 दिन अस्पताल में बिताने के बाद मैं घर आ गई पर अकेली गुमसुम रहने लगी। रोना चाहती थी पर रो नहीं पाती थी। घरवालों को लगा कि विवेक मेरा दोस्त था और उसके जाने से मुझे धक्का लगा है तो कई प्रकार से वे मुझे समझाते रहे। पर मैं ही केवल जानती थी कि मैंने क्या खोया था। मेरा अनकहा,अनसुना प्यार। मेरा पहला,सच्चा प्यार अधुरा रह गया था।

दुःख इस बात का भी था कि मैं अपने दिल की कह ना पाई,उसके दिल की सुन ना पाई। वो रेत सा हाथों से फिसल गया और मैं उसे रोक ना पाई। वो दूर बहुत दूर जा चूका था मुझसे पर आज भी उसकी वो हँसी, वो साँवला चेहरा मेरे स्मृतिपटल पर नाचता रहता है। और जब भी बारिश होती है अगस्त के महीने में तो अन्दर से टिस मारती है। यूँ लगता है जैसे वो आज भी बाइक लिये मेरा इंतज़ार कर रहा है और फिर उसी धुन में मैं हज़ारों बार अपने दिल का हाल उसे कह देती हूँ और वो क्या करता है ? बस मुझे देख मुस्कुराता है......


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