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mona kapoor

Drama

5.0  

mona kapoor

Drama

स्वप्ना का स्वप्न

स्वप्ना का स्वप्न

3 mins
486


“स्वप्ना बेटा,स्वप्ना बेटा, उठ जा मेंरी बच्ची देख घड़ी का अलार्म भी बज बज कर बंद हो गया। अब जल्दी से उठो नहीं तो ऑफिस के लिए लेट हो जाओगी। फिर डांट पड़ेगी, इसीलिए उठो फटाफट” अपनी बहू स्वप्ना को सुबह उठाते हुए कविता जी बोली।


“माँ प्लीज माँ, थोड़ी देर और सोने दो ना, बस पांच मिनट बाद खुद उठ जाऊँगी पक्का”


“अच्छा जी,जानती हूं मैं तेरे पांच मिनट चुपचाप उठो और देखो तुम्हारी बेड टी भी लायी हूं क्योंकि मुझे पता है कि चाय पिए बिना तुम्हारी आंख नहीं खुलती। इसीलिए जल्दी से चाय पिओ और रेडी होकर बाहर नाश्ते की टेबल पर आ जाओ। आज मैंने तुम्हारे पसंद के आलू के परांठे बनाये है”


अपने मनपसंद आलू के परांठो का नाम सुनते ही स्वप्ना ने एक सेकंड नहीं लगाया बिस्तर छोड़ने में और जल्दी से तैयार हो कर नाश्ते की टेबल पर आगयी और गर्मागर्म परांठों का स्वाद लेने लगी। स्वप्ना को अपने हाथों के बने आलू के परांठों से भी ज्यादा कविता जी के हाथों से बनाकर प्यार से परोसे गए परांठे बहुत पसंद थे क्योंकि उसके मायके में उसकी माँ उसे बड़े ही लाड़ प्यार से परांठे बना कर खिलाती, तो कविता जी में उसे माँ की ही छवि दिखती। अभी स्वप्ना नाश्ता कर ही रही थी कि अचानक से बाहर के मेंन गेट को ज़ोर ज़ोर से बजाने की आवाज आई। इससे पहले स्वप्ना देखने जाती कविता जी ने उसे नाश्ते की टेबल से उठने के लिए मना कर खुद देखने चली गई।


कुछ देर बाद कविता जी की आवाज़ आयी “स्वप्ना, स्वप्ना, स्वप्ना”


“क्या हुआ माँ? कौन है? माँ, कौन है?”


“क्या कौन है कौन है लगा रखा है लगता हैं उठी नहीं अभी तक। सो रही हैं क्या जो नींद में बड़बड़ा रही हैं। चल जल्दी उठ जा सुबह के छः बज गए हैं और अभी सारा चूल्हे चौके का काम पड़ा है। फिर दस बजे तक तेरे दफ्तर जाने का टाइम हो जाएगा तो जल्दबाजी में सारा काम गलत शलत कर देगी और हाँ, आलू उबालने रख दिये हैं परांठे बना दियो मैं जा रही हूं अपने कमरे में आराम करने” कहते हुए कविता जी चली गई।


कविता जी के दरवाजे को ज़ोर ज़ोर से पीटने के बाद दिए गए प्रवचन सुनने के बाद स्वप्ना की नींद कुछ ही सेकण्ड्स में छू मंतर हो गयी, मानों यू लग रहा हो कि किसी ने आसमान में उड़ते हुए पंछी के पर काटकर ज़मीन पर गिरा दिया हो। सपने में ही सही पहली बार कविता जी के रूप में स्वप्ना को अपनी माँ की छवि दिखाई तो दी परन्तु वो कब धूमिल हो गयी पता ही नहीं चला।


बेफिक्र सी बिस्तर पर सो रही स्वप्ना सपनों की दुनिया से निकलकर, अपनी सास की सारी कटाक्ष रूपी बातें सुन, उठकर तैयार हो कर लग गई रसोई घर में खाना बनाने। लेकिन जहन में बार बार एक ही बात आ रही थी कि शायद कुछ सपने ऐसे होते हैं जो कभी हकीकत नहीं बन सकते। इसीलिए कुछ रिश्तों से अपेक्षा रखना शायद खुद का दिल दुःखाने के लिए काफी होता है।


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