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महातीर्थ

महातीर्थ

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मुंशी इन्द्रमणि की आमदनी काम थी और खर्च ज़्यादा। अपने बच्चों के लिए दाई का खर्च न उठा सकते थे। लेकिन एक तो बच्चे की सेवा-सुश्रुषा की फ़िक्र और दूसरे अपने बराबर वालों में हेठे बनकर रहने का अपमान; इस खर्च को सहने पर मजबूर करता था। बच्चा दाई को बहुत चाहता था' हरदम उस के गले का हार बना रहता था। इसलिए दाई और भी ज़रूरी मालूम होती थी, पर शायद सबसे बड़ा कारण यह था कि वह मुरौवत के वश दाई को जवाब देने का साहस नहीं कर सकता थे। बुढ़िया उसके यहाँ तीन साल से नौकर थी। उसने उसके इकलौते लड़के का लालन-पालन किया था। अपना काम बड़ी मुस्तैदी और परिश्रम से करती थी। उसे निकालने का कोई बहाना नहीं था और व्यर्थ खुचड़ निकालना इन्द्रमणि जैसे भले आदमी के स्वभाव के विरुद्ध था, पर सुखदा इस सम्बन्ध में पति से सहमत न थी। उसे संदेह था की दाई हमें लूट लेती है। जब दाई बाज़ार से लौटती तो वह दालान में छिपी रहती कि देखूं आटा कहीं छिपाकर तो नहीं रख देती, लकड़ी तो नहीं छिपा देती। उसकी लाइ हुई चीज़ों को घंटों देखती, पूछताछ करती, क्यों? दाई कभी तो इन संदेहास्पद प्रश्नों का उत्तर नम्रतापूर्वक देती किन्तु जब कभी बहु जी ज़्यादा तेज़ हो जाती तो वह भी कड़ी पड़ जाती। शपतें खाती। सफ़ाई की शहादतें पेश करती। वाद-विवाद में घंटों लग जाते। प्रायः नित्य ही यही दशा रहती और प्रतिदिन यह नाटक दाई के अश्रुपात के साथ समाप्त होता था। दाई का इतनी सख़्तियाँ झेल कर पड़े रहना सुखदा के संदेह को और भी पुष्ट करता था। उसे कभी विश्वास नहीं होता था कि यह बुढ़िया केवल बच्चे के प्रेमवश पड़ी हुई है। वह बुढ़िया को इतनी बाल-प्रेम-शीला नहीं समझती थी।  

संयोग से एक दिन दाई को बाज़ार से लौटने में ज़रा देर हो गयी। वहाँ दो कुँजड़िनों में देवासुर संग्राम मच गया था। उनका चित्रमय हाव-भाव, उनका आग्नेय तर्क-वितर्क, उनके कटाक्ष और व्यंग्य सब अनुपम थे। विष के दो नद थे या ज्वाला के दो दो पर्वत, जो दोनों तरफ़ से उमड़ कर आपस में टकरा गये थे। क्या वाक्य-प्रवाह था, कैसी विचित्र विवेचना! उनका शब्द-बाहुल्य, उनकी मार्मिक विचारशीलता, उनके अलंकृत शब्द-विन्यास और उपमाओं की नवीनता पर ऐसा कौन-सा कवि है जो मुग्ध न हो जाता। उनका धैर्य, उनकी शान्ति विस्मयजनक थी। दर्शकों की एक खासी भीड़ थी। वह लाज को लज्जित करने वाले इशारे, वह अश्लील शब्द जिनसे मलिनता के भी कान खड़े होते, सहस्त्रों रसिकजनों के लिए मनोरंजन की सामग्री बने हुए थे। दाई भी खड़ी हो गई कि देखूँ क्या मामला है? तमाशा इतन मनोरंजक था कि उसे समय का बिलकुल ध्यान न रहा। यकायक जब नौ के घंटे की आवाज़ कान में आई तो चौंक पड़ी और लपकी हुई घर की ओर चली। 

सुखदा भरी बैठी थी। दाई को देखते ही त्योरी बदल कर बोली - क्या बाज़ार में खो गई थी?

दाई विनयपूर्ण बोली - एक जान-पहचान की महरी से भेंट हो गयी। वह बातें करने लगी। 

सुखदा इस जवाब से और भी चिढ़कर बोली - यहाँ दफ़्तर जाने को देर हो रही है और तुम्हें सैर-सपाटे की सूझती है। 

परन्तु दाई ने इस समय दबाने में ही कुशल समझी, बच्चे को गोद में लेने चली, पर सुखदा ने झिड़क कर कहा - रहने दो तुम्हारे बिना वह व्याकुल नहीं हुआ जाता। 

दाई ने इस आज्ञा का मानना आवश्यक नहीं समझा। बहू जी का क्रोध ठंडा करने के लिए इससे उपयोगी कोई और उपाय न सूझा। उसने रुद्रमणी को इशारे से अपने पास बुलाया। वह दोनों हाथ फैलाए लड़खड़ाता हुआ उसकी ओर चला। दाई ने उसे गोद में उठा लिया और दरवाज़े की तरफ़ चली। लेकिन सुखदा बाज की तरह झपटी और रुद्र को उसकी गोद से छीन कर बोली - तुम्हारी ये धूर्तता बहुत दिनों से देख रही हूँ। यह तमाशे किसी और को दिखाइये। यहाँ जी भर गया। 

दाई रूद्र पर जान देती थी और समझती थी कि सुखदा इस बात को जानती है। उसकी समझ में सुखदा और उस के बीच एक ऐसा मजबूत सम्बन्ध था, जिसे साधारण झटके तोड़ न सकते थे। यही कारण था कि सुखदा के कटु वचनों को सुन कर भी उसे यह विशवास न होता था कि मुझे निकालने पर प्रस्तुत है। सुखदा ने यह बातें कुछ ऐसी कठोरता से कही और रुद्र को ऐसी निर्दयता से छीन लिया की दाई को सहन न हो सका! बोली- बहू जी! मुझ से कोई बड़ा अपराध तो नहीं हुआ, बहुत तो पाव घंटे की देरी हुई होगी। इस पर आप इतना बिगड़ रही हैं तो साफ़ क्यों नहीं कह देती कि दूसरा दरवाज़ा देखो। नारायण ने पैदा किया है तो खाने को भी देगा। मजदूरी का अकाल थोड़े ही है। 

सुखदा ने कहा - तो यहाँ तुम्हारी परवाह ही कौन करता है? तुम्हारे जैसी लौंडिनें गली-गली ठोकरें खाती हैं। 

दाई ने जवाब दिया - हाँ, नारायण आपको कुशल से रखे। लौंडिनें और दाइयां आपको बहुत मिलेंगी। मुझ से जो कुछ अपराध हुआ हो, क्षमा कीजियेगा। मैं जाती हूँ। 

सुखदा - जाकर मरदाने में अपना हिसाब कर लो। 

दाई - मेरी तरफ से रुद्र को मिठाइयां मंगवा दीजियेगा। 

इतने में इन्द्रमणि भी बाहर आ गए, पूछा - क्या, है क्या?

दाई ने कहा कुछ नहीं। बहू जी ने जवाब दिया है, घर जाती हूँ। मनुष्य काँटों से बचे उन्हें सारे दिन एक ही जगह खड़े रहना मंजूर था, पर काँटों में पैर रखने की हिम्मत न थी। खिन्न होकर बोले - बात क्या हुई? 

सुखदा ने कहा - कुछ नहीं। अपनी इच्छा, जी नहीं चाहता नहीं रखते। किसी के हाथों बिक तो नहीं गये। 

इन्द्रमणि ने झुंझला कर कहा - तुम्हें बैठे-बैठे एक-न-एक खुचड़ सूझती रहती है। 

सुखदा ने तिनक कर कहा - हाँ, मुझे तो इसका रोग है। क्या करूँ स्वाभाव ही ऐसा है। तुम्हें यह बहुत प्यारी है तो ले जाकर गले में बाँध लो, मेरे पास यहाँ ज़रुरत नहीं। 

दाई घर से निकली तो आँखें डबडबाई हुई थी। हृदय रुद्रमणि के लिय तड़प रहा था। जी चाहता था कि बालक को लेकर प्यार से चूम लूँ, पर यह अभिलाषा लिये हुए ही उस घर से बाहर निकालना पड़ा था। 

रुद्रमणि दाई के पीछे-पीछे दरवाज़े तक आया, पर दाई ने जब दरवाज़ा बाहर से बंद कर दिया तो वह मचल कर ज़मीन पर लेट गया और अन्ना-अन्ना कह कर रोने लगा। सुखदा ने चुमकारा, प्यार किया, गोद में लेने की कोशिश की, मिठाई देने का लालच दिया, मेला दिखाने का वादा किया, इससे जब काम न चला तो बंदर, सिपाही, लू लू, और गोवा की धमकी दी; पर रुद्र ने वह रौद्र भाव धारण किया, कि किसी तरह चुप न हुआ। यहाँ तक कि सुखदा को क्रोध आ गया, बच्चे को वहीँ छोड़ दिया और घर के धंधे में लग गयी। रो-रो कर रुद्र का मुनःऔर गाल लाल हो गये, आँखें सूज गयी। निदान वह वहीं ज़मीन पर सिसकते-सिसकते सो गया। 

सुखदा ने समझ कि बच्चा थोड़ी देर में रो-धो कर चुप हो जायेगा। रुद्र ने जागते ही अन्ना की रट लगायी। तीन बजे इन्द्रमणि दफ़्तर से आये और बच्चे यह दशा देखि तो स्त्री पर कुपित नेत्रों से देख कर उसे गोद में उठा लिया और बहलाने लगे। जब अंत में रुद्र को यह विश्वास हो गया की दाई मिठाई लेने गई है तो उसे संतोष हुआ। 

परन्तु शाम होते ही उसने फिर चीखना शुरू किया - अन्ना मिठाई लाओ। 

इस तरह दो-तीन दिन बीत गए। रुद्र का अन्ना की रट लगाने और रोने के सिवा और कोई काम न था। वह शांत प्रकृति कुत्ता, जो उसकी गोद से एक क्षण के लिए भी उतरता न था, वह मौन व्रतधारी बिल्ली जिसे ताख पर देख कर वह ख़ुशी से फूला न समाता था, वह पंखहीन चिड़िया जिस पर वह जान देता था, सब उसके चित्त से उत्तर गये। वह उन की तरफ़ आँख उठा कर भी न देखता। अन्ना जैसी जीती-जागती, प्यार करने वाली, गोद में लेकर घुमाने वाली, थपक-थपक कर सुलाने वाली, गा-गाकर खुश करने वाली चीज़ का स्थान उन निर्जीव चीज़ों से पूरा न हो सकता था। वह अकसर रट-रट चौंक पड़ता अन्ना-अन्ना पुकार कर हाथों से इशारा करता, मानो उसे बुला रहा है। अन्ना की खाली कोठारी में घंटों बैठा रहता। उसे आशा होती कि अन्ना यहाँ आती होगी। इस कोठारी का दरवाज़ा खुलते सुनाता तो अन्ना! कह कर दौड़ता। समझता की अन्ना आ गयी। उसका भरा हुआ शरीर घुल गया, माँ और बाप उसकी मोहनी हंसी के लिए तरस कर रह जाते थे। यदि बहुत गुदगुदाने या छेड़ने से हँसता भी तो ऐसा जान पड़ता कि दिल से नहीं हँसता, केवल दिल रख लेने के लिए हंस रहा है। उसे अब दूध से प्रेम था, न मिश्री से, न मेवे से न मीठे बिस्कुट से, न ताज़ी इमरती से। उनमे मज़ा तब था, जब अन्ना अपने हाथों से खिलाती थी। अब उसमें मज़ा नहीं था। दो साल का लहराता हुआ सुन्दर पौधा मुरझा गया। वह बालक जिसे गोद में उठाते ही नरमी, गर्मी और भारीपन का अनुभव होता था, अब सूख कर काँटा हो गया। सुखदा अपने बच्चे की यह दशा देख कर भीतर-ही-भीतर कुढ़ती, अपनी मूर्खता पर पछताती। इन्द्रमणि जो शांतप्रिय आदमी थे, अब बालक को गोद से अलग न करते थे, उसे रोज़ हवा खिलाने ले जाते थे। नित्य नए खिलौने लाते थे, पर मुरझाया हुआ पौधा किसी तरह भी न पनपता था। दाई उसके लिए संसार का सूर्य थी। उस स्वाभाविक गर्मी और प्रकाश से वंचित रहकर हरियाली को कैसे बाहर दिखाता? दाई के बिना उसे अब चारों ओर सन्नाटा दिखाई देता था। दूसरी अन्ना तीसरे ही दिन रख ली गई थी। पर रुद्र उसकी सूरत देखते ही मुहं छिपा लेता था मानो वह कोई डायन या चुड़ैल हो।  

प्रत्यक्ष रूप से दे को न देख कर वह रुद्र अब उसकी कल्पना में मग्न रहता था। वहां उसकी अन्ना चलती फिरती दिखाई देती थी। उसकी वही गोद थी, वही स्नेह, वही प्यारी-प्यारी बातें, वही प्यारे गाने, वही मज़ेदार मिठाइयाँ, वही सुहावना संसार, वही आनंदमय जीवन। अकेले बैठ कर कल्पित अन्ना से बातें करता, अन्ना कुत्ता भौंका! अन्ना, गाय दूध देती। अन्ना उजला-उजला घोड़ा दौड़े। सवेरा होते ही लोटा लेकर दाई की कोठारी में जाता और कहता - अन्ना पानी। दूध का गिलास लेकर कोठारी में रख आता और कहता - अन्ना दूध पिला। अपनी चारपाई पर तकिया रख कर चादर से ढांक देता और कहता - अन्ना सोती है। सुखदा जब खाने बैठती तो कटोरे उठा-उठाकर अन्ना की कोठारी में जाता और कहता - अन्ना खाना खायेगी। अन्ना अब उसके लिए एक स्वर्ग की वस्तु थी, जिसके लौटने की अब उसे बिलकुल आशा न थी। रुद्र के स्वभाव में धीरे-धीरे बालकों की चपलता और सजीवता की जगह एक निराशाजनक, धैर्य का आनंदविहीन शिथिलता दिखाई देने लगी। इस तरह तीन हफ़्ते गुज़र गये। बरसात का मौसम था। कभी बेचैन करने वाली गर्मी, कभी हवा के ठण्डे झोंके। बुख़ार और ज़ुकाम का ज़ोर था। रुद्र की दुर्बलता इस ऋतु परिवर्तन को बर्दाश्त न कर सकी। सुखदा उसे फलालैन का कुर्ता पहनाए रखती थी। उसे पानी के पास न जाने देती थी। पर सर्दी लग ही गई। रुद्र को खाँसी और बुख़ार आने लगा।           प्रभात का समय था। रुद्र चारपाई पर आँख बंद किये पड़ा था। डाक्टरों का इलाज निष्फल हुआ। सुखदा चारपाई पर बैठी उसकी छाती में तेल की मालिश कर रही थी औए इंद्रमणि विषाद की मूर्ति बने हुए करुणापूर्ण आँखों से बच्चे को देख रहे थे। इधर सुखदा से बहुत काम बोलते थे। उन्हें उससे एक तरह से घृणा-सी हो गई थी। वह रुद्र की बीमारी का एकमात्र कारण उसी को समझते थे - वह उनकी दृष्टि में बहुत नीच स्वभाव की स्त्री थी। सुखदा ने डरते-डरते कहा -आज बड़े हकीम साहब को बुला लेते; शायद उसकी दवा से फ़ायदा हो। इन्द्रमणि ने काली घटाओं की ओर देखकर रुखाई से जवाब दिया - बड़े हाकिम नहीं, यदि धन्वन्तरि भी आवें तो भी उसे कोई फ़ायदा न होगा। 

सुखदा ने कहा - तो क्या अब किसी की दवा न होगी?

इन्द्रमणि - बस इसकी एक ही दवा है और अलभ्य है। 

सुखदा - तुम्हें तो बस एक ही धुन सवार है। क्या बुढ़िया आ कर अमृत पिला देगी?

इन्द्रमणि - यदि नहीं समझती हो और अब तक नहीं समझती, तो रोओगी। बच्चे से हाथ धोना पड़ेगा। 

सुखदा - चुप भी रहो, क्या अशुभ मुँह से निकालते हो। यदि ऐसी ही जली-कटी सुनानी है तो बाहर चले जाओ। 

इन्द्रमणि - मैं तो जाता हूँ। पर याद रखो यह हत्या तुम्हारी ही गर्दन पर होगी। यदि लड़के को तंदरुस्त देखना चाहती हो, तो उसी दाई के पास जाओ और प्रार्थना करो, क्षमा मांगो। तुम्हारे बच्चे की जान उसकी दया के अधीन है। सुखदा ने कुछ उत्तर नहीं दिया। उसकी आँखों से आँसू जारी थे। 

इन्द्रमणि ने पूछा - क्या मर्ज़ी है, जाऊँ उसे बुला लाऊँ?

सुखदा - तुम क्यों जाओगे, मैं आप ही चली जाऊंगी। 

इन्द्रमणि - नहीं, क्षमा करो। मुझे तुम्हारे ऊपर विश्वास नहीं है। न जाने तुम्हारी ज़ुबान से क्या निकल पड़े कि जो वह आती भी हो तो न आवे। 

सुखदा ने पति की ओर फिर तिरस्कार की दृष्टि से देखा और बोली - हाँ,और क्या मुझे बच्चे की बीमारी का शौक थोड़े ही है। मैंने लाज के मारे तुमसे कहा नहीं, पर मेरे हृदय में यह बात बार-बार उठी है। यदि मुझे दाई के मकान का पता मालूम होता, तो मैं अब ही उसे मन लायी होती। वह मुझ से कितनी भी नाराज़ हो,पर रूद्र से उसे प्रेम था। मैं आज ही उसके पास जाऊँगी। तुम विनती करने को कहते हो, मैं उसके पैरों पड़ने को तैयार हूँ। उसके पैरों को आंसूओं से भिगोऊँगी और जिस तरह राजी हो राजी करूँगी। 

सुखदा ने बहुत धैर्य धर कर यह बातें कही, परन्तु उमड़े हुए आंसू न रुक सके। इन्द्रमणि ने स्त्री की ओर सहानुभूतिपूर्वक देखा और लज्जित होकर बोले - मैं तुम्हारा जाना उचित नहीं समझता। मैं ख़ुद ही जाता हूँ।  

कैलाशी संसार में अकेली थी। किसी समय उसका संसार गुलाब की तरह फूला हुआ था, परन्तु धीरे-धीरे सब पंक्तियाँ गिर गयी। अब उसकी सब हरियाली नष्ट-भ्रष्ट हो गयी और अब वह एक सूखी हुई टहनी, उस हरे-भरे पेड़ की चिह्न रह गई थी। 

परन्तु रुद्र को पाकर इस सूखी हुई टहनी में जान पड़ गई थी। इसमें हरी-भरी पत्तियां निकल आई थी। वह जीवन, जो अब तक नीरस और शुष्क था, अब सरस और सजीव हो गया था। अँधेरे जंगल में भटके हुए पथिक को प्रकाश की झलक आने लगी। अब उसका जीवन निरर्थक नहीं बल्कि सार्थक हो गया था।                कैलाशी रुद्र की भोली-भाली बातों पर न्यौछावर हो गयी; पर स्नेह सुखदा से छिपाती थी, इसलिए कि माँ के हृदय पर द्वेष न हो। वह रुद्र के लिए माँ से छिपा कर मिठाइयां लाती थी और उसे खिलाकर प्रसन्न होती। वह दो-तीन बार उसे उबटन मलती की बच्चा खूब पुष्ट हो। वह दूसरों के सामने उसे कोई चीज़ न खिलाती कि उसे नज़र लग जाएगी। सदा वह दूसरों से बच्चे के अल्पाहार का रोना रोया करती। उसे बुरी नज़र से बचाने के लिए तावीज़ और गंडे लाती रहती। यह उसका विशुद्ध प्रेम था। उसमे स्वार्थ की गंध न थी। 

इस घर से निकल कर कैलाशी की वह दशा थी, जो थियेटर में यकायक बिजली लैम्पों के बुझ जाने से दर्शकों की होती है। उसके सामने वाही सूरत नाच रही थी। कानों में वही प्यारी-प्यारी बातें गूँज रही थी। उसे अपना घर काटे खाता था। उस काल कोठारी में दम घुट जाता था। 

रात ज्यों-त्यों कर कटी। सुबह को वह घर में झाड़ू लगा रही थी। बाहर ताज़े हलवे की आवाज़ सुनकर बड़ी फुर्ती से निकल आयी। तब तक याद आ गया , आज हलवा कौन खायेगा? आज गोद में बैठ कर कौन चहकेगा? वह मधुर गान सुनने के लिए जो हलवा खाते समय रुद्र की आँखों से, होठों से और शरीर के एक-एक अंग से बर्स्टक, कैलासी का हृदय तड़प गया। वह व्याकुल होकर घर से बाहर निकली कि चलूँ रुद्र को देख आऊँ। पर आधे रास्ते से ही लौट गयी। 

रुद्र कैलाशी के ध्यान से एक क्षण भर के लिए भी नहीं उतरा। यह सोते-सोते चौंक पड़ती, जान पडत कि रुद्र डंडे का घोड़ा दबाये चला आता है। पड़ोसियों के पास जाती तो रुद्र की ही चर्चा करती। रुद्र उसके दिल और जान में बसा हुआ था। सुखदा के कठोरतापूर्ण कुव्यवहार का उसके हृदय में ध्यान नहीं था। वह रोज़ इरादा करती कि आज रुद्र को देखने चलूँगी। उसके लिए बाज़ार से मिठाइयाँ और खिलौने लाती, घर से चलती पर रास्ते से लौट आती। कभी भी दो-चार कदम से आगे नहीं बढ़ा जाता। कौन मुंह लेकर जाऊं? कभी सोचती यदि रुद्र ने मुझे न पहचान तो? बच्चों के प्रेम का ठिकाना ही क्या? नई दाई से हिल-मिल गया होगा। यह ख़्याल उसके पैरों में जंजीर का काम करता। 

इस तरह दो हफ़्ते बीत गये। कैलासी का जी उचटा रहता, जैसे उसे कोई लम्बी यात्रा करनी हो। घर की चीज़ें जहाँ की तहाँ पड़ी रहती, न खाने की सुधि थी, न कपड़े की। रात-दिन रुद्र के ध्यान में डूबी रहती। संयोग से इन्हीं दिनों बदरीनाथ की यात्रा का समय आ गया। मुहल्ले के कुछ लोग यात्रा की तैयारियां करने लगे। कैलासी की दशा इस समय उस पालतू चिड़िया की-सी थी जो पिंजड़े से निकल कर फिर किसी कोने की खोज में हो। उसे विस्मृति का यह अच्छा अवसर मिल गया। यात्रा के लिए तैयार हो गई।                  आसमान पर काली घटाएं छायी हुई थी और हल्की-हलकी फुहारें पड़ रही थी। दिल्ली स्टेशन पर यात्रियों की भीड़ थी। कुछ गाड़ियों में बैठे थे, कुछ अपने घर वालों से विदा हो रहे थे। चारों तरफ हलचल-सी मची थी। संसार-माया आज भी उन्हें जकड़े हुए थी। कोई स्त्री को सावधान कर रहा था कि धान काट जावे तो तालाब वाले खेत में मटर बो देना और बाग़ के पास गेहूँ। कोई अपने जवान लड़के को समझा रहा था, असामियों पर बकाया लगान की नालिश में देर न करना और दो रुपये सैंकड़ा सूद ज़रूर काट लेना। एक बूढ़े व्यापारी महाशय अपुन मुनीम से कह रहे थे कि माल आने में देरी हो तो खुद चले जाइयेगा और चलतू माल लीजियेगा, नहीं तो रूपया फँस जायेगा। पर कोई- कोई ऐसे श्रद्धालु मनुष्य भी थे जो धर्म-मग्न दिखाई देते थे। वे या तो चुपचाप आसमान की ओर निहार रहे थे, या माला फेरने में तल्लीन थे। कैलाशी भी एक गाड़ी में बैठी सोच रही थी, इन भले आदमियों को अब भी संसार की चिंता नहीं छोड़ती। वही बनिज-व्यापार लेन-देन की चर्चा। रुद्र इस समय यहाँ होता, तो बहुत रोता मेरी गोदी से कभी न उतरता। लौटकर उसे अवश्य देखने जाऊँगी। या ईश्वर किसी तरह गाड़ी चले, गर्मी के मारे जी व्याकुल हो रहा है। इतनी घटा उमड़ी हुई है किन्तु बरसने का नाम नहीं लेती। मालूम नहीं, यह रेलवाले क्यों देर कर रहे हैं। झूठ-मूठ इधर-उधर दौड़ते फिरते हैं। यह नहीं कि झटपट गाड़ी खोल दें। यात्रियों की जान में जान आये। एकाएक उसने इंद्रमणि को बाइसिकल लिए प्लेटफार्म पर आते देख। उसका चेहरा उतरा हुआ और कपड़े पसीने से तर थे। वह गाड़ियों में झाँकने लगा। कैलाशी केवल यह जताने के लिए कि मैं भी यात्रा करने जा रही हूँ, गाड़ी से बाहर निकल आयी। और इंद्रमणि उसे देखते ही लपक कर क़रीब आ गए और बोले - क्यों कैलाशी तुम भी यात्रा को चली?

कैलाशी ने सगर्व दीनता से उत्तर दिया - हाँ, यहां क्या करूँ, ज़िन्दगी का कोई ठिकाना नहीं, मालूम नहीं कब आँखें बंद हो जायें, परमात्मा के यहाँ मुँह दिखाने का कोई उपाय होना चाहिए। रुद्र बाबू अच्छी तरह हैं?

इंद्रमणि - वह तो उसी दिन से बीमार है जिस दिन तुम वहां से निकलीं। दो हफ़्ते तक अन्ना-अन्ना की रट लगायी। अब एक हफ़्ते से खांसी और बुख़ार में पड़ा है। सारी दवाइयाँ करके हार गया, कुछ फ़ायदा न हुआ। मैंने सोचा कि चल कर तुम्हारी अनुनय-विनय करके लिवा लाऊंगा। क्या जानें तुम्हें देख कर उसकी तबियत संभल जाये। पर तुम्हारे घर पर आया तो मालूम हुआ कि तुम यात्रा करने जा रही हो। अब किस मुँह से चलने को कहूँ? तुम्हारे साथ सलूक ही कौन-सा अच्छा किया था जो इतना साहस करूँ। फिर पुण्य कर्म में विघ्न डालने का भी दर है। जाओ, उसका ईश्वर मालिक है। शेष आयु है तो बच ही जायेगा। अन्यथा ईश्वरी गति में किसी का क्या वश। कैलाशी की आँखों के सामने अँधेरा छ गया। सामने की चीज़े तैरती हुई मालूम होने लगीं। हृदय भावी अशुभ की आशंका से दहल गया। हृदय से निकल पड़ा -'या ईश्वर मेरे रुद्र का बाल बांका न हो।' प्रेम से गला भर आया। विचार किया मैं कैसी कठोर हृदया हूँ। प्यार बच्चा रो-रोकर हलकान हो गया और मैं उसे देखने तक नहीं गयी। सुखदा का स्वभाव अच्छा नहीं, न सही किन्तु रुद्र ने मेरा क्या बिगाड़ा था कि मैंने माँ का बदला बेटे से लिया! ईश्वर मेरा अपराध क्षमा करो। प्यारा रुद्र मेरे लिये हुड़क रहा है। (इस ख़्याल से कैलाशी का कलेजा मसोस उठा और आँखों से आंसू बह निकले) मुझे क्या मालूम था की उसे मुझ से इतना प्रेम है? नहीं मालूम बच्चे की क्या दशा है? भयातुर हो बोली - दूध तो पीते हैं न?

इंद्रमणि- तुम दूध पीने की कहती हो। उसने दो दिन से आँख नहीं खोली। 

कैलाशी - या परमात्मा! अरे कुली! कुली! बेटा, जाकर मेरा सामन गाड़ी से उतार दे। अब मुझे तीर्थ जाना नहींसूझता, हाँ बेटा, जल्दी कर, बाबूजी देखो कोई इक्का हो तो ठीक कर लो।               

इक्का रवाना हुआ। सामने सड़क पर बग्गियां खड़ी थी। घोड़ा धीरे-धीरे चल रहा था। कैलाशी बार-बार झुंझलाती थी और इक्कावान से कहती थी, ए बेटा जल्दी कर। उसका जी चाहता था कि घोड़े के पर लग जाते, लेकिन इंद्रमणिका मकान करीब आ गया था तो कैलाशी का हृदय उछलने लगा। बार-बार हृदय से रुद्र के लिये आशीर्वाद निकलने लगा। ईश्वर करे सब कुछ कुशल-मंगल हो। इक्का इंद्रमणि की गली की ओर मुड़ा। अकस्मात कैलाशी के कान में रोने की ध्वनि पड़ी। कलेजा मुंह को आ गया। सर में चक्कर आ गया। मालूम हुआ नदी में डूबी जाती हूँ। जी चाहा कि इक्के पर से कूद पडूँ। पर थोड़ी देर में मालूम हुआ कि कोई स्त्री मइके से विदा हो रही है, संतोष हुआ। अंत में इंद्रमणि का मकान आ पहुंचा। कैलाशी ने डरते-डरते दरवाज़े की तरफ ताका। जैसे कोई घर से भागा हुआ अनाथ लड़का शाम को भूखा-प्यासा घर आये, दरवाज़े की ओर सटी हुई आँखों से देखे कि कोई बैठा तो नहीं। दरवाज़े पर सन्नाटा छाया हुआ था। महाराज बैठा सुरति मल रहा था। कैलाशी को ज़रा ढाढस हुआ। घर में बैठी तो नहीं, दाई पुल्टिस पका रही है। हृदय में बल का संचार हुआ। सुखदा के कमरे में गई तो उसका हृदय गर्मी के मध्याह्नकाल के सदृश काँप रहा था। सुखदा रुद्र को गोद में लिए दरवाज़े की ओर एकटक ताक रही थी। शोक और करुणा की मूर्ती बनी थी।      

कैलाशी ने सुखदा से कुछ नहीं पूछा। रुद्र को उसकी गोद से लिया और उसकी तरफ सजल नयनों से देखकर कहा - बेटा रूद्र आँखें खोलो।  

रुद्र ने आँखें खोली, क्षण भर दाई को चुपचाप देखता रहा, तब यकायक दाई के गले से लिपटकर बोला - अन्ना आई! अन्ना आई!!

रुद्र का पीला मुरझाया हुआ चेहरा खिल उठा, जैसे बुझते हुये दीपक में तेल पड़ जाये। ऐसा मालूम हुआ मानो वह कुछ बढ़ गया है। एक हफ्ता बीत गया। प्रातः काल का समय था। रुद्र आँगन में खेल रहा था। इंद्रमणि ने बाहर आकर उसे गोद में उठा लिया और प्यार से बोले - तुम्हारी अन्ना को मार कर भगा दें?

रुद्र ने मुंह बना कर कहा - नहीं रोयेगी। 

कैलाशी बोली - क्यों बेटा तुमने तो मुझे बदरीनाथ नहीं जाने दिया। मेरी यात्रा का पुण्य कौन देगा?

इंद्रमणि ने मुस्कराकर कहा - तुम्हें उससे कहीं अधिक पुण्य हो गया। यह तीर्थ महातीर्थ है।                                       

  


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