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वड़वानल - 8

वड़वानल - 8

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ऑपरेशन रूम में गुरु के साथ यू.एस. नेवी का मायकेल भी ड्यूटी पर था। इस छोटे–से कमरे में विशाल देश के भिन्न–भिन्न मोर्चों से संदेश आ रहे थे। वैसे ट्रैफिक ज्यादा नहीं था। गोरा–गोरा, तीखे नाक–नक्श वाला, दुबला–पतला, मायकेल साफ–हृदय का था। हिन्दुस्तान के बारे में उसके मन में उत्सुकता थी।

वह हमेशा सवाल पूछा करता, ‘‘क्या हिन्दुस्तान में अभी भी शेर–सिंह रास्ते पर घूमते हैं ? क्या घर–घर में साँप होते हैं ? क्या बंगाली जादूगर आदमियों को भी गायब कर देते हैं ? क्या सुभाषचन्द्र बोस जादू जानते हैं ?’’ गुरु को इन सवालों पर हँसी आती। मगर उस दिन मायकेल के सवालों ने उसे बेचैन कर दिया।

ट्रैफिक नहीं था, इसलिए मायकेल गुरु की मेज के पास आया। इधर–उधर की बातें करने के बाद उसने धीरे से गुरु से पूछा, ‘‘क्या तुमने गाँधी को देखा है ?’’

गुरु ने गर्दन हिला दी।

''He is a great man. मेरे मन में उनके लिए आदर है, मगर एक बात मैं समझ नहीं पाता कि यह आदमी बिना अस्त्र उठाए, बिना बारूद–गोले का इस्तेमाल किए अंग्रेज़ों से लड़ कैसे रहा है ?’’ वह भावना विवश होकर बोला।

''I Like Indians. They are terrors; तुम हिन्दुस्तानियों की एक बात मैं समझ नहीं पाता, तुम्हारे यहाँ इतने शूरवीर लोग होते हुए भी तुम सौ–सवा सौ सालों से गुलाम क्यों हो ?’’

गुरु को मायकेल की बात पर हँसी आ गई। ‘‘हँसते–हँसते फाँसी चढ़ने वाले राजगुरु, भगत सिंह, चाफेकर, अंग्रेज़ी सत्ता के विरोध में खड़े होने वाले सुभाषचन्द्र बोस जैसे मुट्ठीभर नरकेसरियों को देखकर कितनी गलतफहमी हो जाती है लोगों को। जब पूरा हिन्दुस्तान भड़क उठेगा तभी अंग्रेज़ों को भगाना सम्भव हो पाएगा।

वाकई, क्या अहिंसा के मार्ग से आजादी मिलेगी ?’’ गुरु सोच रहा था।

‘‘अरे, सोच क्या रहा है ? मुझे पक्का विश्वास है कि सुभाषचन्द्र बोस ही तुम्हें आजादी दिलवाएँगे। क्या आदमी है! बिजली है, बस! वे जब बोलने लगते हैं तो मुर्दों में भी जान आ जाती है, रे!’’ मायकेल मंत्रमुग्ध हो गया था।

‘‘तुझसे कहता हूँ, तुम सबको सुभाषचन्द्र बोस को ही एक दिल से अपना नेता मानना चाहिए। वे एक अच्छे सेनानी हैं। अपने सैनिकों का और युद्धभूमि का उन्हें अच्छा ज्ञान है। शत्रु की व्यूह रचना कैसी होगी इसका अचूक अन्दाज उन्हें रहता है। अगर जर्मनी के पास सुभाषचन्द्र बोस जैसे दो–चार सेनापति भी होते ना, तो पूरे महायुद्ध की तस्वीर ही बदल गई होती।’’

गुरु मायकेल की बातों पर विचार कर रहा था। ‘‘युद्ध काल में हिन्दुस्तानी नौसेना के सैनिक पढ़े–लिखे थे। उनमें विचारों की प्रगल्भता थी। उम्र में वे बड़े थे। इन सैनिकों में कुछ सैनिक केवल पेट के लिए काम नहीं करते थे। उनमें से अनेक लोग नौसेना में भर्ती होने से पूर्व अलग–अलग संगठनों में, दलों में या आन्दोलनों में काम किया करते थे।

‘दत्त...’’ दत्त को आवाज जानी–पहचानी लगी। मगर आवाज देने वाले व्यक्ति को वह पहचान नहीं पा रहा था।

‘‘इम्फाल जैसी अनजान जगह पर मुझे पुकारने वाला सिविलियन कौन हो सकता है ?’’

पुकारने वाला व्यक्ति शीघ्रता से आगे आया, ‘‘मुझे नहीं पहचाना? मैं - भूषण।’’

भूषण... दत्त के गाँव के क्रांतिकारी युवकों में से एक। दत्त की आयु के नौजवानों को इकट्ठा करके उन्हें आजादी की घुट्टी पिलाने वाला, अंग्रेज़ों के अत्याचारों के किस्से सुनानेवाला भूषण।

‘‘अरे, कैसे पहचानूँगा ? तेरा ये दाढ़ी–मूँछों का जंगल...बदली हुई वेशभूषा... तू यहाँ कैसे ?’’

‘‘बहुत सारी बातें करनी हैं। किसी गोरे कुत्ते ने अगर तुझे सिविलियन से बात करते हुए देख लिया तो मुसीबत हो जाएगी...काफी फ़ासला रखकर मेरे पीछे आ।’’ दत्त काफ़ी अन्तर रखकर उसके पीछे जाने लगा।

भूषण एक घर में घुसा। कोई देख तो नहीं रहा है, ये सावधानी रखते हुए दत्त भी उस घर में घुसा।

‘आ, बैठ!’’ एक छोटी–सी कोठरी में कुर्सी की ओर इशारा करते हुए भूषण ने कहा।

‘‘तू यहाँ कैसे ?’’ दत्त ने पूछा।

‘‘अपने गाँव में पुलिस चौकी पर जो हमला हुआ था उसके बारे में शायद तुम्हें मालूम हो। उस हमले में आठ बन्दूकें और काफी गोला–बारूद हाथ आए। मगर चार कॉन्स्टेबल मारे गए। मेरे खिलाफ़ गिफ्तारी का वारण्ट निकला, मगर मैंने पुलिस को चकमा दिया और आजादी के प्रयत्न जारी रखने के उद्देश्य से आसाम से होते हुए इम्फाल आ गया। यहाँ मेरे जैसे क्रान्तिकारियों और हिन्दुस्तान की आजादी के लिए सहायता करने वाले व्यापारियों का संगठन स्थापित किया। पिछले ढाई सालों से में यहाँ पर हूँ। तुम नौसेना में भर्ती हो गए, अच्छा किया।

‘‘मुझे तो असल में क्रान्तिकारी संगठन में शामिल होना था। देश की आजादी के लिए अपना सर्वस्व कुर्बान करना था, मगर गाँव के क्रान्तिकारी रामकिशन और लालसिंह की सलाह के अनुसार नौसेना में भर्ती हो गया। मगर अब पछता रहा हूँ। कुछ भी करना सम्भव नहीं है। सारे अन्याय, अत्याचार ख़ामोशी से सहने पड़ते हैं। ऐसा लगता है जैसे हम गूँगे जानवर हैं। ऐसा लगता है कि नौसेना के सारे बन्धन तोड़कर बाहर आ जाऊँ और देश के लिए कुछ करूँ।’’

‘‘ऐसी गलती हरगिज न करना। तुम्हें नौसेना में रहकर बहुत कुछ करना है। समान विचारों वाले सैनिकों का संगठन स्थापित कर सकते हो। याद रखो, सन् 1857 के स्वतन्त्रता संग्राम में सैनिकों ने नेतृत्व किया था, मगर सामान्य जनता इससे दूर थी, सन् 1942 में परिस्थिति इसके ठीक विपरीत थी। ये आन्दोलन सर्व सामान्य जनता का था, मगर सैनिक इससे दूर रहे। सन् 1942 के आन्दोलन में यदि सैनिकों को अपने हथियार डालकर आन्दोलन में शामिल होने का आह्वान किया जाता तो निश्चित रूप से स्वतन्त्रता प्राप्त हो गई होती। जब सभी, चाहे वो सैनिक हों या नागरिक, गुलामी के विरुद्ध खड़े होंगे तभी ये जंजीरें टूटकर गिर पड़ेंगी। और इसीलिए लालसिंह, रामकिशन जैसे दूरदर्शी नेताओं ने तुम जैसे नौजवानों को सेना में भर्ती होने की सलाह दी।’’

‘‘मगर मैं अकेला क्या कर सकता हूँ ?’’

‘‘तुम अकेले नहीं हो। ध्यान से चारों ओर देखो। तुम्हें अपने साथी मिल जाएँगे। उन्हें इकट्ठा करो। और यदि अकेले भी हो तो भूलो मत कि एक चिनगारी दावानल भड़का सकती है। अपने भीतर की ताकत को पहचानो। गुलामों को उनकी गुलामी का एहसास दिलाओ, वे दासता के खिलाफ खड़े हो जाएँगे।’’

और फिर वे काफी देर तक चर्चा करते रहे देश, क्रान्ति, गाँव की परिस्थिति आदि के बारे में।

गुरु के मन में हमेशा यह ख़याल आता कि ‘‘हम अमेरिका, ऑस्ट्रेलिया, चीन आदि विभिन्न राष्ट्रों के कंधे से कंधा लगाकर लड़ते हैं और किसी भी बात में उनसे कम नहीं हैं, उल्टे ज्यादा ही योग्य साबित होते हैं। ऐसा होते हुए भी हम क्यों गुलामी की जंजीरों में जकड़े रहें ? अंग्रेज़ों को यह इजाजत क्यों दें कि हमारा उपयोग बलि के बकरे जैसा करें ? उनके विरुद्ध बगावत क्यों न करें ?’’

दूसरा मन उससे पूछता, ‘‘मेरे जैसे ही सभी बेचैन होंगे–––पहचानूँ कैसे ? या सिर्फ मैं ही भावनाप्रधान होने के कारण ऐसा....किसी के चेहरे पर कुछ भी क्यों नहीं दिखाई देता ? कोई भी कुछ कहता क्यों नहीं ? राख का पुट चढ़े दिल प्रज्वलित होने चाहिए। ये चिंगारियाँ धधकनी चाहिए। मगर इन्हें इकट्ठा कौन करेगा ? मौत का डर नहीं, मगर यदि हमारे बीच कोई चुगलखोर हुआ तो सब कुछ मिट्टी में मिल जाएगा।

बर्मा की लड़ाई अंग्रेज़ों के अनुमान से काफ़ी ज़्यादा समय चली। जापानियों और आज़ाद हिन्द सेना को चुटकी भर में मसल देंगे यह अंदाज़ ग़लत निकला। आज़ाद हिन्द सेना का हर सैनिक अंग्रेज़ों के ख़िलाफ़ जान की बाजी खेलते हुए लड़ रहा था। उनका जागृत हो चुका स्वाभिमान, ब्रिटिशों के ऊपर का गुस्सा और आज़ादी के प्रति प्रेम - यही उनकी ताकत थी। मार्च से लेकर मई 1944 तक, यानी पूरे तीन महीने आज़ाद हिन्द सेना जीती हुई भूमि पर मजबूती से पैर जमाए खड़ी थी। बारिश, भूख, शत्रु के आक्रमण इनका सामना करते–करते कम से कम चार हजार सैनिक वीरगति को प्राप्त हुए, पन्द्रह सौ युद्धबन्दी बनाए गए और वह घनघोर लड़ाई थम गई।

‘‘आज की खबरें सुनीं ?’’ दास गुरु से पूछ रहा था।

‘‘सुनी, आज़ाद हिन्द सेना के पन्द्रह सौ जवानों और अधिकारियों को अंग्रेज़ी सेना ने कैद कर लिया है।’’ गुरु की आवाज में निराशा थी।

‘‘अब आगे क्या करेंगे ?’’

‘‘इन सैनिकों को इंग्लैंड अथवा हिन्दुस्तान ले जाएँगे, युद्ध की अदालत में इन पर मुकदमे चलाएँगे, जाँच का नाटक करेंगे। कुछ को फाँसी पर चढ़ाएँगे। अनेक को उम्रकैद हो जाएगी।’’ गुरु के शब्दों में गुस्सा था। दास अस्वस्थ हो गया।

‘‘मालिकों के ख़िलाफ दण्ड पेलते हुए खड़े होना - बेईमानी है। गुलामों को आजादी का अधिकार नहीं होता। स्वतन्त्रता के लिए लड़ने वाले उपनिवेशों को गुलामों   को   साम्राज्यवादी   ब्रिटिश,   इंग्लैंड   के   राजद्रोही   कहेंगे।’’

‘‘युद्धबन्दी बनाए  गए आज़ाद    हिन्द सेना के  सैनिक    सच्चे    वीर हैं हम    नपुंसक हैं... हिम्मत हार चुके...’’   गुरु   अपने   आप   से   पुटपुटा   रहा   था।

जब  नौसैनिक  हिन्दुस्तान  वापस  आए  तो  परिस्थिति  काफी  बदल  चुकी  थी।

राज्य करने वालों की लापरवाही के कारण बंगाल को भीषण अकाल का सामना  करना  पड़  रहा  था।  इस  अकाल  में  हजारों  लोग  मौत  के  मुँह  में  समा गए   थे।   यह   संकट   आसमानी   नहीं   था,   बल्कि   सुल्तानी   था।

वाइसरॉय लॉर्ड लिनलिथगो इंग्लैंड वापस लौट चुका था। उसके स्थान पर अब वाइसरॉय था लॉर्ड वेवल। लॉर्ड वेवल का झुकाव पूरी तरह से लीग की ओर था।

सन् 1942 के ‘भारत छोड़ो’ आन्दोलन का ज़ोर समाप्त हो गया था। जेल में ठूँसे गए नेताओं को छोड़ा जाने लगा था। जापान अभी भी युद्ध कर ही रहा था। रणनीति–विशेषज्ञों का अनुमान था कि एशिया में युद्ध कम से कम सालभर और चलेगा। अंग्रेज़ हिन्दुस्तान पर अपनी पकड़ ढीली नहीं करना     चाहते थे,     इसीलिए चर्चा समिति, योजना आदि का भ्रम पैदा करते हुए वे समय ले रहे थे। आज़ाद हिन्द सेना की स्थापना से जो आशा की किरण दृष्टिगोचर हुई थी वह भी अब धूमिल  पड़  गई  थी।  बर्मा  में  इकट्ठा  हुए  नौसैनिक  अलग–अलग  जहाजों  पर  बिखर गए   थे।

गुरु HMIS बलूचिस्तान पर आया था। यह एक मध्यम आकार का युद्ध पोत था। जहाज़ के सैनिकों में अधिकांश हिन्दुस्तानी थे। अधिकारी और दो–चार वरिष्ठ सैनिक हिन्दुस्तानी थे। जहाज़ की क्षमता दो सौ सैनिकों की होने पर भी वहाँ  तीन  सौ  सैनिक  थे  और  इसलिए  वहाँ  काफी  भीड़  हो  गई  थी।  मेस  डेक पर्याप्त  नहीं  थी  और  इस  कारण  कनिष्ठ  सैनिकों  को  काफी  कष्ट  उठाने  पड़ते थे।   उन्हें   जहाँ   जगह   मिली  उसी कोने में आश्रय लेना पड़ता था.

गोरे अधिकारियों एवं सैनिकों के लिए अलग राशन, अलग कुक्स, लम्बी– चौड़ी  मेस डेक,  बढ़िया सस्ती शराब,  बढ़िया  किस्म  की  सिगरेट्स  की  व्यवस्था थी। हिन्दुस्तान से वसूल किए गए पैसों पर ये गोरे ऐश करते थे। बंगाली भाई अकाल में झुलस रहे थे। बंगाल की रसद तोड़कर इन साँड़ों को पाला जा रहा था। गुरु को इस बात से बहुत गुस्सा आता, मगर एकाध गुलाम का क्रोध क्या कर सकता था ? जहाज़ का जीवन वैसे भी कष्टप्रद था, परन्तु युद्धकाल में वह और भी भाग–दौड़ भरा हो गया था। हैंड्स कॉल से - सुबह उठने से – बिलकुल पाइप डाउन - रात को सोने के समय तक भाग–दौड़ चलती रहती। कभी–कभी एक्शन अनाउन्स होता और फिर आधी नींद में जल्दी–जल्दी कपड़े पहनते हुए, कमर से बेल्ट कसते हुए भागना पड़ता। पूरी रात आँखों में तेल डाले अँधेरे में कोई चीज नजर तो नहीं आ रही यह देखना पड़ता। उफनते हुए समुद्र में ‘सी–सिक’ होने पर भी सामने पड़ी बाल्टी में उल्टियाँ करते हुए काम करना पड़ता। मेसेज रिसीव करने पड़ते, ट्रान्समिट करने पड़ते, हर उल्टी के साथ आँतें निकलने को होतीं, माँ याद आती, मगर मुक्ति नहीं थी। गुरु अपने आप से कहता, ''You have Signed your death warrant, now you have no other go."

इस सब में भी एक उत्तेजना थी, यह जीवन मर्दों का जीवन प्रतीत होता।


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