मुसलसल
मुसलसल
एक दराज़ में कोई तस्वीर पड़ी मिली, देखकर लगा मानो एक अरसा बीत गया हो उसको याद किए हुए।
यहीं मिला था वह, बच्चों जैसा था, मासूम - सा। बहुत ज़्यादा बोलता था। अपनी बारहवीं की कहानियां, घर की कहानियां, दोस्तों के किस्से और जाने क्या - क्या बड़े चाव से सुनाता था। दादाजी, शर्मा अंकल, शिल्पा दी, सबको परेशान करता था। सबका लाडला बन गया था अाखिर इतना प्यारा जो था !
जाने कौन था, बस उसकी आँखों की चमक देखकर एक सुकून -सा मिलता था। एक बार डांटा भी था उसे, पढ़़ने नहीं दे रहा था। फिर बहुत मनाना पड़ा था भाई उसे, उसके नखरें, माय गॉड !
पर बहुत समझदार था, मानो बचपन में ही बड़ा हो गया हो।
एक दिन बेहद खुश था, शायद हीरा मिल गया था। ज़्यादा कुछ बोला नहीं, बहुत शरमा रहा था। मेरे पास आया, बहुत ज़्यादा पूछने पर एक लड़की के बारे में बताया, उसके पड़ोस में ही रहती थी।
उसके बाद डेढ़ साल तक उससे मुलाकात नहीं हो पाई। कुछ महीनों पहले बड़ी याद आई थी उसकी, सोच रहे थे कि इस बार घर जाके पक्का मिलेंगे। बहुत ढू़ँढा, पूछा भी, उस दिन के बाद से किसी ने उसे कभी देखा ही नहीं था। पता नहीं अचानक कहाँ गुम हो गया था वह !
देखा है, उसे कभी अापने क्या ?
मिले हैं कभी ?
वही जिसकी आँखों में एक अलग - सी चमक होती थी।
वही जो खुद से ज़्यादा दूसरों में खुशियां बांटता था।
वही जो हर मोहब्बत की बात पर बहुत शरमाता था।
वही जो उस लड़की के लिए कुछ भी कर जाने की बात करता था।
वही जिसको अपनी चोट पर रंगीन पट्टियां बांधने का मौका ही नहीं मिला।
वही जिसके अाखिरी शब्द थे,
"वह मेरी 'ज़ोया' नहीं बन पाई तो क्या हुआ, हम ही उसके 'कुंदन' बन जाते हैं...।"