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हाशिया

हाशिया

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घंटी की आवाज़ सुनकर मनीषा ने दरवाज़ा खोला...अरे, तुम लोग कब आये, कहाँ रूके हो ? बहुत दिनों से कोई समाचार भी नहीं मिला।’ सामने महेश और नीता को देखकर मनीषा आश्चर्यचकित रह गई तथा मुँह से अनायास ही निकल पड़ा।

 ‘दीदी, काफी दिनों से आपसे मिली नहीं थी। इन्हें दिल्ली एक सेमिनार में जाना है। आपसे मिलने की चाह लिये मैं भी इनके साथ चली आई। ब्रेक जरनी की है, शाम को छह बजे की ट्रेन पकड़नी है। यद्यपि समय कम है पर मेरी आपसे मिलने की इच्छा तो पूरी हो ही गई।’ नीता ने उनके चरणस्पर्श करते हुए कहा।

‘अच्छा किया, सच में काफी दिनों से मिले नहीं थे पर कुछ और समय लेकर आते तो और भी अच्छा लगता।’ मनीषा ने नीता को उठाकर गले लगाते हुए कहा। मन ही मन उसका अपने प्रति प्रेम देखकर गदगद हो उठी। आवाज़ सुनकर सुरेन्द्र भी बाहर निकल आये, महेश को पहचानते ही गर्मजोशी से स्वागत करते हुए वे दोनों भूत और वर्तमान की बातों में मशगूल हो गये। नीता तो जब तक रही उसके ही आगे पीछे घूमती रही, मानो वह उसकी छोटी बहन हो। बार-बार अपने सुखी जीवन के लिये उसे धन्यवाद देती हुई। अनेकों बार की तरह ही उसने अब भी उससे यही कहा था, इंसान अपना भविष्य स्वयं ही बनाता बिगाड़ता है अन्य तो निमित्त मात्र ही होते हैं। यह तुम्हारा बड़प्पन है कि तुम अभी तक उस समय को नहीं भूली हो।’

‘ दीदी, बड़प्पन मेरा नहीं आपका है, आप उन लोगों में से हैं जो किसी के लिये बहुत कुछ करने के पश्चात् भूल जाने में विश्वास रखते हैं। वास्तव में आप ही थीं जिसने मेरी टूटी नैया को पार लगाने में मदद की थी, आपने ही मुझे जीने की नई राह दिखाई, मेरी जिंदगी को नया आयाम दिया वरना पता नहीं आज मैं कहाँ होती ?’

 जाते-जाते समय नीता और महेश ने कहा कि उन्हें कभी भी कोई आवश्यकता पड़े तो उन्हें अवश्य याद कीजिएगा वे तुरंत आ जायेंगे। उन्हें इस बात का बहुत ही अफसोस था कि सुरेंद्र की बीमारी की सूचना उन्हें नहीं दी गई यद्यपि वे सुनील और प्रिया के विवाह में आये थे तथा घर के सदस्य की तरह नीता ने विवाह की पूरी जिम्मेदारी संभाल ली थी।

महेश और नीता के जाने के पश्चात् सुरेन्द्र इंटरनेंट खोल कर बैठ गये, शाम को उनकी यही दिनचर्या बन गई थी, देश विदेश की खबरों को इंटरनेट के जरिये जानना या अपने अपने विदेशवासी पुत्र सुनील तथा पुत्री प्रिया से चेटिंग करना, अगर वह भी नहीं तो कंप्यूटर पर ही घंटों बैठे चैस खेलना। उन्हें सास बहू वाले सीरियलस में बिल्कुल दिलचस्पी नहीं थी। मनीषा ने टी.वी. खोला पर उसमें भी उसका मन नहीं लगा। बंद करके पास पड़ी मैगजीन उठाई, वह भी उसकी पढ़ी हुई थी। आँख बंद करके सोफे पर ही रिलैक्स होना चाहा पर वह भी नहीं संभव हो पाया, उसके मन में पिछले बाइस वर्ष पूर्व की घटनायें चलचित्र की भांति मंडराने लगी।

 

उस समय वह बलिया में थी, पड़ोस में एक महेश यादव नामक एस.डी.एम. रहते थे। वे अक्सर उनके घर आते रहते थे। जब भी वह उनसे विवाह के लिये कहती तो मुस्कराकर रह जाते। एक दिन उसने देखा कि एक बुजुर्ग व्यक्ति एक बच्चे को लेकर घूम रहे हैं, नौकर से पता चला कि वह एस. डी. एम. साहब के पिताजी है जो उनकी पत्नी और बच्चे को लेकर आये हैं। नौकर की बात सुनकर अजीब लगा , महेश अक्सर उनके घर आते थे लेकिन उन्होंने कभी उनसे अपनी पत्नी और बच्चे का जिक्र ही नहीं किया। हो सकता है उनका बचपन में विवाह हो गया हो लेकिन अगर वह विवाहित थे तो वह बताना क्यों नहीं चाह रहे थे ? उन्होंने नहीं बताया तो हो सकता है उनकी कोई मजबूरी रही हो, सोचकर मनमस्तिष्क में चल रही उथल-पुथल पर रोक लगाई। जब तक महेश के पिताजी रहे तब तक तो सब ठीक चलता रहा किंतु उनके जाते ही दिलों में बंद चिंगारी भभकने लगी। दोनों घरों के बीच की दीवार एक होने के कारण कभी-कभी उनके असंतोष की आग का भभका हमारे घर भी आ जाता था। मन करता कि वह जाकर उनसे बात कर असंतोष का कारण जानने का प्रयत्न करे, हमारे भी बच्चे हैं उनके झगड़े का असर हमारे ऊपर भी पड़ रहा है पर दूसरों के आंतरिक मामले में दखलंदाजी न करने के स्वभाव के कारण चुप रही।

 एक दिन बच्चों के स्कूल तथा सुरेंद्र के आँफिस जाने के पश्चात् वह बरामदे में बैठी अखबार पढ़ रही थी कि घंटी बजी। दरवाज़ा खोला तो सामने एक युवती को देखकर चौंक गई, उसने उसे देखकर अपना परिचय देती हुई बोली, ‘दीदी, आप हमें पहचानत नहीं हो, हमार नाम नीता है, हम आपके पड़ोसी है। आपके अलावा हम किसी और को नहीं जानत हैं इसीलिए आपके पास आये हैं। हम बहुत दुखी है। समझ में नहीं आ रहा क्या करब?’

‘क्यों क्या बात है? हमसे जितनी मदद होगी हम करेंगे।’ उसे दिलासा देते हुए मनीषा ने उसे अंदर बुलाकर बिठाते हुये पूछा।

‘यह कहत हैं कि हम तोय से तलाक ले लेव, लड़का को तू ले जाना चाह तो ले जाव। तेरे साथ हमारा निबाह संभव नहीं, हम दूसर विवाह करना चाहत हैं।’ कहते हुए उसकी आँखों से बड़े-बड़े आँसू निकलने लगे थे।

‘ ऐसे कैसे दूसरा विवाह कर लेंगें ? सरकारी नौकरी में एक पत्नी के होते हुए दूसरा विवाह करना संभव ही नहीं है, फिर तलाक की प्रक्रिया इतनी आसान थोड़े ही है कि मुँह से निकला नहीं और तलाक मिल गया।’ पानी का गिलास पकड़ाते हुए उसे समझाते हुए मनीषा ने कहा।

अनजान शहर में किसी के मीठे बोल सुनकर उसका रोना रूक गया। मनीषा के आग्रह करने पर उसने पानी पीया। उसके सहज होने पर मनीषा ने उससे पुनः पूछा, ‘लेकिन वह तलाक क्यों लेना चाहते हैं ?’

‘ कहत हैं, तू पढ़ी लिखी नहीं है। हमारी सोसाइटी के लायक नहीं है। दीदी, आज हम उन्हें अच्छे नहीं लग रहे हैं लेकिन जब हम इनके माय बाप के साथ खेतन में काम करत रहें, गाँव की गृहस्थी को संभालत रहें तब इन्हें यह सब नहीं सूझ रहा था। आज जब डिप्टी बन गये हैं तब कह रहे हैं कि हम इनके लायक नहीं रहे। दस बरस के थे जब हमारा इनसे ब्याह हुआ था। गाँव के एक स्कूल से ही चार जमात तक पढ़े हैं। ये तो हमें गाँव से लाना ही नहीं चाह रहे थे। वह तो इनकी आनाकानी देखकर एक दिन ससुरजी स्वयं ही हमें यहाँ छोड़ गये थे लेकिन यह तो हमसे ढंग से बात भी नहीं करते।’ कहते हुए उसकी आँखों से आँसू निकलने लगे थे।

माथे पर बड़ी सी गोल बिंदी, गले में चाँदी की मोटी हँसुली, बालों में रच-रचकर लगाया तेल, मोटी गूँथी चोटी में चटक लाल रंग की रिबन तथा वैसी ही चटक रंग की साड़ी, गाँव वाला ढीला ढाला ब्लाउज में वह ठेठ गंवार तो लग रही थी लेकिन उसके सांवले रंग में भी एक कशिश थी। उसकी बड़ी-बड़ी आँखें अनायास ही किसी को भी अपनी ओर आकर्षित करने में समर्थ थी, लंबी सुतवां नाक, गठीला बदन, ढीले-ढाले ब्लाउज से झाँकता यौवन किसी को मदहोश करने के लिये काफी था। अगर वह अपने पहनने ओढ़ने के ढंग तथा बातचीत करने के तरीके में थोड़ा सुधार ले आये तो निश्चय ही उसके व्यक्तित्व का कायाकल्प हो सकता है।

‘यदि तुम उनके हृदय में अपनी जगह बनाना चाहती हो तो तुम्हें अपनी पढ़ाई फिर से प्रारंभ करनी होगी तथा अपने पहनने, ओढ़ने तथा बातचीत के लहजे में भी परिवर्तन लाना होगा।’ मनीषा ने उसे सांत्वना देते हुए कहा।

 ‘दीदी, आप जैसा भी कहब हम वैसा करने को तैयार हैं। बस हमारी जिंदगी संवर जाये।’ उसने उसके पैर छूते हुए कहा।

  ‘अरे, यह क्या कर रही हो ? बड़ी हूँ इसलिये बस इतना चाहूँगी कि तुम्हारा जीवन सुखी रहे। मैं तुम्हें सहयोग अवश्य दे सकती हूँ पर प्रयास तुम्हें स्वयं ही करना होगा। पहला तो यह कि वह चाहे कितना भी गुस्सा हों तुम चुप रहो। वह एक बच्चे का पिता है। वह स्वयं अपने बच्चे को स्वयं से दूर नहीं करना चाहेगें। यदि तुम स्वयं में परिवर्तन ला पाओ तो कोई कारण नहीं कि वह तुम्हें स्वीकार न करें।’

 ‘आप ठीक कहत हैं दीदी, वह अनूप को बेहद चाहत हैं। उन्होंने उसका एक अच्छे स्कूल में नाम भी लिखा दिया है। कल से वह स्कूल भी जाने लगा है। तभी आज हम समय निकाल कर आपके पास आये हैं।’

 ‘तुम्हें अक्षरज्ञान तो है ही, अतः कुछ किताबें मैं तुम्हें दे रही हूँ , इन्हें तुम पढ़ो, यदि कुछ समझ में न आये तो इस पेंसिल से वहाँ निशान बना देना, मैं समझा दूँगी, सुबह ग्यारह से एक बजे तक फ्री रहती हूँ। कल आ जाना।’ कुछ पारिवारिक पत्रिकायें पकड़ाते हुए मनीषा ने नीता से कहा।

‘दीदी, अब हम चलें, अनूप स्कूल से आने वाला होव।’ कहते हुए उसके चेहरे पर संतोष की छाया थी ।

‘ ऐसे कैसे ? रूको मैं चाय लाती हूँ।’

 ‘अब चलत हैं चाय फिर कभी।’ कहते हुये एक बार फिर उसने उसके पैर छू लिये थे। मनीषा के प्यार भरे वचन सुनकर वह काफी व्यवस्थित हो गई थी किंतु फिर भी मन में भविष्य के प्रति अनिश्चितता थी।

नीता के चेहरे पर छिपी व्यथा ने मनीषा का मन कसैला कर दिया था। पहली मुलाकात में महेश उन्हें अत्यंत भले, हाज़िर जबाब तथा मिलनसार लगे थे किंतु पत्नी के साथ ऐसा दुर्व्यवहार, यहाँ तक कि दूसरे विवाह में कोई बाधा उत्पन्न न हो इसलिये अपने पुत्र से भी निजात पाना चाहते हैं। कैसे इंसान है वह ? सच है दुल्हन वही जो पिया मन भाये, किंतु विवाह कोई खेल तो नहीं, फिर इसमें इस मासूम का क्या दोष ? अपने छोटे मासूम बच्चे के साथ अकेले वह अपनी जिंदगी कैसे गुजारेगी, आखिर एक पुरूष यह क्यों नहीं सोच पाता ?

कहीं महेश का किसी और के साथ चक्कर तो नहीं है, एक आशंका मन में उमड़ी, नहीं-नहीं महेश ऐसे नहीं हो सकते। अगर ऐसा होता तो अनूप का दाखिला यहाँ नहीं करवाते, शायद अपनी अनपढ़, गंवार बीबी को देखकर वह हीन भावना के शिकार हो गये हैं और हीन भावना से उपजी कुंठा उनसे वह सब कहलवा देती है जो शायद सामान्य रूप से वह न कहते लेकिन अगर ऐसा है तो वह स्वयं कुछ प्रयास कर उसमें परिवर्तन ला सकते हैं...स्वयं उसे पढ़ा सकते हैं। कई अनुत्तरित प्रश्न लिये वह किचन में चली गई क्योंकि बच्चों का स्कूल से आने का समय हो रहा था। उनके लिये उसे खाना बनाना था।  

        

दूसरे दिन नीता आई तो अत्यंत उत्साहित थी। उसने एक कहानी पढ़ी थी, यद्यपि वह उसे पूरी तरह समझ नहीं पाई थी पर उसके लिये इतना ही काफी था कि उसने पढ़ने का प्रयत्न किया। कुछ शब्द या भाव जो वह समझ नहीं पाई थी वहाँ उसने मनीषा के कथनानुसार पेंसिल से निशान बना दिये थे। उन्हें मनीषा ने उसे समझाया। नीता के सीखने की उत्कंठा देख मनीषा स्वयं आश्चर्यचकित थी। कुछ ही दिनों में बातचीत में परिवर्तन स्पष्ट नजर आने लगा था, थोड़ा आत्मविश्वास भी उसमें झलकने लगा था। एक दिन मनीषा उसको साथ लेकर ब्यूटी पार्लर गई तथा कुछ साड़ियाँ खरीदवा कर ब्लाउज सिलने दे आई । कुछ आर्टीफीशियल ज्वैलरी भी खरीदवाई। मेकअप का भी सामान खरीदवाने के साथ उन्हें उपयोग करने के साथ साड़ी बाँधने का तरीका बताया। बाल लंबे थे अतः जूड़ा बाँधने का तरीका बताते हुए तेल कम लगाने का सुझाव दिया। खुशी तो इस बात की थी कि वह उसके सारे सुझावों को ध्यान से सुनती तथा तद्नुसार आचरण करती। वैसे भी अगर शिष्य को सीखने की इच्छा है तो गुरू को भी उसे सिखाने में आनंद आता है।

        

एक दिन वह आई तो बेहद खुश थी। कारण पूछा तो बोली,‘ दीदी, कल हम आपकी खरीदवाई साड़ी पहनकर इनका इंतजार कर रहे थे। ये घर के अंदर घुसे तो पहली बार हमें देखते ही रह गये तथा हमसे पूछा कि इतना परिवर्तन तुम्हारे अंदर कैसे आया? जब हमने आपका नाम बताया तो गदगद हो उठे। कल इन्होंने हमें प्यार भी किया।’ कहते-कहते वह शर्मा उठी थी। नैननक्श तो कंटीले थे ही, हल्के मेकअप तथा सलीके से पहने कपड़ों में उसके व्यक्तित्व में लगातार निखार आता जा रहा था। महेश भी उसमें आते परिवर्तन से खुश था। वह भी शाम को ढंग से सजसंवर कर उसका इंतजार करती। यही कारण था कि जहाँ पहले वह उसकी ओर ध्यान ही नहीं देता था अब उसने भी उसके लिये अनेकों साड़ियाँ खरीदवा दी थी। एक बार महेश स्वयं मनीषा के पास आकर कृतज्ञता जाहिर करते हुए उसे धन्यवाद देते हुए बोला था,‘ दीदी, मैं आपका एहसान जिंदगी भर नहीं भूलूँगा। मैं तो सोच भी नहीं सकता था कि किसी इंसान में इतना परिवर्तन आ सकता है।’

‘ महेश भाई, वस्तुतः मुझसे ज्यादा धन्यवाद की पात्र नीता है। उसने यह सब तुम्हें पाने के लिये किया है,वह तुम्हें बहुत चाहती है।’

इसके बाद दोनों के बीच की दूरी घटती गई। कभी-कभी वे दोनों घूमने भी जाने लगे थे। मनीषा यह सब देखकर बहुत खुश थी। एक दिन अपने पुत्र अनूप की अंग्रेजी की पुस्तक लाकर बोली,‘ दीदी, इनसे पूछने में शर्म आती है, यदि आप थोड़ी देर पढ़ा दिया करें तो। ’उसके हाँ कहने पर वह प्रसन्नता से पागल हो उठी, बोली,‘ दीदी, आपने मेरे जीवन में ख़ुशियाँ ही ख़ुशियाँ बिखेर दी हैं। न जाने आपकी गुरूदक्षिणा कैसे चुका पाऊँगी ?’

 ‘अरे पगली, यदि सचमुच मुझे अपना गुरू मानती है तो अपनी पढ़ाई पर ध्यान लगा, एक गुरू के लिये यही काफी है कि उसका शिष्य जीवन में सफल रहे।

        

सचमुच ही छह महीने के अंदर ही उसने सामान्य बोलचाल के शब्द लिखना पढ़ना सीख लिया था। कहीं-कहीं अंग्रेजी शब्दों तथा वाक्यों का प्रयोग भी करने लगी थी, वैसे भी भाषा निरंतर उपयोग से ही सजती, संवरती और निखरती है। तभी सुरेंद्र का ट्रान्सफर हो गया, पत्रों के माध्यम से संपर्क सदा बना रहा। वह बराबर लिखती रहती थी। अपने बेटे अनूप के विवाह में हफ्ते भर पहले आने का आग्रह उसका सदा रहा है, बेटी रिया का कन्यादान भी वह उसके हाथों से कराना चाहती है। उसके पत्रों में छिपी भावनायें उसे भी पत्र का उत्तर देने के लिये प्रेरित करती रही थीं, यही कारण था कि पिछले दस वर्षो से मिल न पाने पर भी उसके परिवार की एक-एक बात उसे पता थी। आज के युग में लोग अपनों से भी इतनी आत्मीयता, विश्वास की कल्पना नहीं कर सकते, फिर वह तो पराये थे।

‘ सुनो, कहाँ हो सुनील का मैसेज आया है।’ सुरेंद्र ने उसे पुकारते हुए कहा।  

‘ सुनील का मैसेज, क्या लिखा है ? सब ठीक तो है न।’ विचारों के चक्रव्यूह से बाहर निकलते हुए मनीषा ने अंदर जाते हुए पूछा। वस्तुतः पिछले पंद्रह दिनों से उसका कोई समाचार न आने के कारण वे चिंतित थे, एक दो बार फोन किया पर किसी ने भी नहीं उठाया। आनसरिंग मशीन पर मैसेज छोड़ने के पश्चात् भी हफ्ते भर से किसी ने कान्टेक्ट करने का प्रयत्न नहीं किया था।

लिखा है, हम कल ही स्विटजरलैंड से लौटे हैं। प्रोग्राम अचानक बना इसलिये सूचित नहीं कर पाये। इस बार भी शायद हमारा इंडिया आना न हो पाये। बार-बार छुट्टी नहीं मिल पायेगी। अगर आप लोग आना चाहें तो टिकट भेज दें।

इसके बाद उससे कुछ भी सुना नहीं गया, सब बहाना है। बाहर घूमने के लिये छुट्टी तो मिल सकती है पर माता-पिता से मिलने के लिये नहीं। दरअसल वे यहाँ आना ही नहीं चाहते हैं। माँ बाप के प्यार की उनके लिये कोई कीमत ही नहीं रही है। पिछले चार वर्षो से कोई न कोई बहाना बनाकर आना टाल रहे है, उस पर भी एहसान दिखा रहे हैं, अगर आना चाहे तो टिकट भेज दें। एक बार तो जाकर देख ही आये हैं, सोचकर बड़बड़ा उठी थी मनीषा।

पर तुरंत ही उसने अपने नकारात्मक विचारों को झटका, उसको यह क्या होता जा रहा है? वह पहले तो कभी ऐसी नहीं थी। बच्चों के अवगुणों में गुण ढूँढना ही तो बड़प्पन है, हो सकता है कि सच में उसे छुट्टी न मिल रही हो। वह स्वयं नहीं आ पा रहा है तो उन्हें बुला तो रहा है। बात तो एक ही है, मिलजुलकर रहना, वहाँ का जीवन ही इतना व्यस्त है कि लोगों के पास अपने लिये ही समय नहीं है तो उसमें उनका क्या दोष ?

इस सबके बावजूद न जाने क्यों कुछ दिनों से उसे ऐसा लगने लगा था कि सच में कभी-कभी कुछ लोग अपने न होते हुए भी बेहद अपने बन जाते हैं और अपने, कर्तव्यों की आड़ में अपनों को ही हाशिये पर खिसकाते जा रहे हैं। उसने कभी किसी की हाशिये पर खिसकती जिंदगी को नया आयाम दिया था, चाहे कुछ भी हो जाये वह अपनी जिंदगी को हाशिये पर खिसकने नहीं देगी। वक्त ज़रूर बदल गया है, वक्त के साथ लोग भी और शायद जिंदगी के अर्थ भी, पर बदलते वक्त के साथ स्वयं को बदलते हुए उसी अंदाज़ में अपनी बाकी जिंदगी गुजारेगी जिस अंदाज़ में आज तक रहती आई है। इस विचार ने उसे तनावमुक्त कर दिया, माथे पर लटक आई लट को झटका, पास पड़ा रिमोट उठाया और टी.वी. आन कर दिया।


 

 


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