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अमलतास तुम फूले क्यों ?

अमलतास तुम फूले क्यों ?

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‘महिला सुझाव मंच’ संस्था का उद्घाटन शकुन सहाय के हाथों होना था| अभी मैं अपनी सीट पर बैठी ही थी कि कुणाल का फोन आ गया| रिसीव करने के लिए मैं हॉल से बाहर निकल आई|

      “क्यों बता देती हो कनु पापा को सब कुछ? तुम्हारा फ़ोन आते ही वे कितने डिस्टर्ब हो गये| ज़िद्द करने लगे..... “कनु का फोन था अभी टी.वी. ऑन करो और मुझे तकियों के सहारे बैठा दो| शकुन के प्रोग्राम की लाइव टेलीकास्टिंग है|”

      मेरे अंदर भी कुछ टूट गया शायद गोविन्द सहाय को लेकर या शायद कुणाल के प्रति मेरे मन में जड़ें जमा रहे एहसास को लेकर.....

      “सॉरी कुणाल..... मेरा इरादा उन्हें चोट पहुँचाने का न था| मैंने सोचा था अगर उन्हें पल भर की ख़ुशी मिल सकती है तो क्यों न पहल करूँ|”

      “हाँ कनु..... मैं भी यही सोचता हूँ..... और वे खुश भी हुए थे मम्मी को देखकर, उनकी आवाज़ सुनकर..... बाद में उनके आँसू निःशब्द बहते रहे|”

कुणाल की आवाज़ भी भीग गई थी..... मेरा मन भी| गोविंद सहाय ने खुद को पूरा ख़र्च कर डाला था शकुन के लिए..... इसीलिए बार-बार टूटे हैं वे..... ढहे हैं वे.....

मैं लॉन में लगे अमलतास के छतनारे दरख़्त के नीचे रखी पत्थर की बैंच पर बैठ गई| हॉल में माइक पर संचालक की आवाज़ यहाँ तक आ रही थी – शकुन सहाय यानी हम सबकी ताई आ चुकी हैं| आप सभी जानते हैं गाँव, क़स्बों, बीहड़ों की ख़ाक छानकर शकुन सहाय ने महिलाओं को जागरूक किया है और इस अभियान में अपने विद्रोही तेवरों की वजह से वे हम सबकी चहेती हो गई हैं..... आज.....

डूब गई है आवाज़| लॉन पर फैले सूखे पत्ते हवा में करवट लेने को बेचैन थे| कैसे होंगे गोविंद सहाय? अपने हाथों से सरकती ज़िन्दग़ी के सिरे को रेशा-रेशा होते खुली आँखों से देख रहे होंगे| काले गहरे समुद्र पर हलके पीले बादलों की तरह उन अँधकार भरे दिनों की यादें थम गई होंगी उनकी आँखों में| ..... ज़िन्दगी यूँ हुई बसर तन्हा | काफिला साथ और सफ़र तन्हा |

क्या गुनाह था उनका? यही कि इंजीनियरी की पढ़ाई ख़त्म कर वे शकुन को दिल दे बैठे थे| उन्होंने टूट कर चाहा शकुन को| तमाम विरोधों के बावजूद उन्होंने मंदिर में जाकर शकुन की माँग में सिन्दूर भर दिया था| चिन्गारी भड़क कर शोले उगलने लगी| गोविंद जहाँ पेइंग गेस्ट थे उस फ्लैट के सामने की गली में चाय की दुकान पर पड़ी बैंचपर शकुन के दोनों भाई छुरे की नोक गड़ाकर बैठ गए कि फ़्लैट से बाहर आते ही काट डालेंगे दोनों को|..... “उसकी ये मज़ाल कि सामंतों की इज़्ज़त दाँव पर लगा दे? भाईयों की आँखें शोले सी लग रही थीं लेकिन न फ्लैट का दरवाज़ा खुला, न मेज पर से चाकू हटा..... यार दोस्तों के समझाने पर वे दोनों घर जाने के लिए मुड़े ही थे कि गोविंद शकुन को साईकल पर बैठा कर वाकोला में शेखर की चॉल में ले आये| वैसे भी गोविंद समेत चार लड़के बतौर पेइंग गेस्ट रूम शेयर कर रहे थे| वहाँ शकुन को लेकर रहना नामुमकिन था| ..... “तू दो महीने आराम से चॉल में रह यार..... तब तक कहीं बंदोबस्त हो ही जाएगा| मैं बनारस से दो महीने बाद लौटूँगा|” शेखर का फोन था बनारस से|

उस रात चॉल के फर्श पर अख़बार बिछाकर जब दोनों लेटे तो गोविंद की आँखें छलक आई थीं| सामंती घराने की शान शौकत छोड़कर शकुन इस हाल में उनके साथ! वो जो अब उनकी शरीक-ए-हयात है, वो जो तमाम रुसवाईयों के बावजूद उनके साथ है| भींच लिया गोविंद ने शकुन को अपने सीने में|

“इस वक्त सिर्फ प्यार है मेरे पास तुम्हें देने को|”

“और प्यार है तो हौसला है मेरे पास..... तुम साथ हो गोविंद..... तो फिर क्या ग़म कि सूरज रोशनी न दे..... हम जुगनुओं की रोशनी में अपनी तकदीर खुद लिखेंगे..... क्या तुम भी सुन रहे हो?”

“क्या?”

“प्यार के अदम्य साहस की हुंकार..... मैं सुन रही हूँ| मैंने अपने जीवन में इसे पहली बार सुना है|” गोविंद चॉल की पीली मरियल सी रोशनी में लाख दिलासाओं के बावजूद देख पा रहे हैं अपने प्यार की बुनियाद पर रखा ज़िन्दगी का पेचीदा महल..... एक ताजमहल जो शीशे से बना था और पत्थरों की दीवार से सट कर खड़ा था| उन्होंने अपनी हथेलियाँ फैलाईं..... हथेलियों पर पसीने की चिपचिपाहट भीतर तक महसूस की| वे कमज़ोर क्यों हो रहे हैं?

चॉल में जैसे अजूबा आ गया हो| पास ही कुकरमुत्तों सी फैली झोपड़पट्टी के बच्चे झाँक-झाँक कर शकुन को देख रहे थे| शकुन बाहर निकल आईं – “पढ़ते हो?” बच्चों का झुंड खी-खी कर हँस पड़ा| धीरे-धीरे बच्चे उनकी देहरी से कोठरी में अंदर आने लगे| शकुन उन्हें पढ़ाने लगीं| माँओं के झगड़े फ़साद निपटाने लगीं| शकुन को बहुत मज़ा आता इन कामों में..... सब कुछ बहुत दिलचस्प लगता| वे अपने होने का अर्थ जानती हैं..... अगर सार्थक जीवन जीना है तो सार्थकता के सुर पहचानने होंगे..... उन अनसुनी आवाज़ों को सुनना होगा जो संसार के शोर में दब जाती हैं|

नवम्बर के गुलाबी जाड़ों में शेखर अपनी पत्नी उषा को लेकर लौटा| एक ही कमरे की खोली..... किराए का घर मिलना सबसे बड़ी फ़जीहत संकोच में डूब गये गोविंद और शकुन| शेखर बाज़ार से मटन ले आया..... साथ में दारू की बोतल..... “भाभी, आज आपके हाथ से बना मटन खाना है..... यार गोविंद मुझे तो इस छोटी सी कुठरिया में चार लोगों के समाने से ज़्यादा फिकर तेरी हो रही है| भाभी तो बन गई है सोशल वर्कर..... अब तेरा क्या होगा?”

गोविंद ने दोनों हाथ ऊपर किये – “वही होगा जो मंज़ूरे खुदा होगा|”

वह एक रात हँसी, ठहाकों में बीती तो फिर हर रात गुज़रनी आसान हो गई| शादी के बाद शकुन का ही घर नहीं छूटा था गोविंद का भी छूट गया था| माँ बाप ने ऐलान कर दिया था..... “जिसने ज़िन्दग़ी के इतने बड़े फैसले में हमें दरकिनार कर दिया हम उसे अपनी ज़िन्दग़ी से दरकिनार करते हैं|”

सूर्यास्त के बाद सुरमई अँधेरा समँदर को अपनी गिरफ़्त में ले रहा था| वे दोनों किनारे पर बिछी रेत पर टहल रहे थे| पैरों के नीचे रेत में जीवन की धड़कन थी| शकुन देख रही थी..... गोविंद के चेहरे की संजीदगी..... कहना चाहती थी..... भूल जाओ सब कुछ गोविंद..... केवल प्यार को जियो| उस मधुर छुअन को जो हम दोनों के क्लांत जीवन में अमृत बन बरसी है..... आओ जितना भर सकते हैं भर लें अपनी अंजलि में इस अमृत बारिश को.....

जाना चाहा था गोविंद ने अँधेरी एम आई डी सी के हॉस्पिटल क्वार्टर्स में..... “पागल हो गया है क्या? कितनी दूर पड़ेगा तेरा ऑफ़िस?”

“तो?”

“तो क्या? लोन के लिए एप्लाई कर और बढ़िया सा फ़्लैट ख़रीद ले|”

उषा और शकुन ने भी शेखर की हाँ में हाँ मिलाई| गोविंद ने शकुन की वो अनकही आवाज़ सुनी| ज़िन्दग़ी को सही अर्थों में जीने की आवाज़..... शरीर को ढोना नहीं है मृत्यु पर्यंत, जीना है..... जीना है ज़िन्दग़ी को प्यार करते हुए..... गोविंद का मन उमड़ा और बह चला शकुन की ओर..... शकुन जो अब उसकी आराधना भी है आराध्य भी जीवन भी है निमित्त भी.....

चारों तरफ़ धुआँधार बारिश थी| तेज़ हवाएँ बारिश की फुहार को हर तरफ़ उड़ाये लिए फिर रही थीं और नदी में पानी के तेज़ रेले की आवाज़ नदी के जोश का एहसास दिला रही थी| श्रावण मास की यह कैसी कठिन रात थी|दोने में दीप जलाए माँ हथेली की ओट किसे प्रतीक्षारत थी..... कब हवाएँ थमे कब दीप नदी में प्रवाहित हो..... यह दीप गोविंद के अफ़सर होने का..... बँगले, गाड़ी..... क्या क्या, उफ़ आँखें मूँदे हैं माँ.....

“गृहप्रवेश का मुहूर्त गुड़ी पाड़वा का निकल रहा है|” शकुन ने पंडित जी के फोन को कट करते हुए कहा..... गोविंद शून्य में ताक रहे थे..... “कहाँ हो हुज़ूरऽऽऽ.....”

गोविंद ने पलक झपकाई..... जब से लोन लेकर फ़्लैट ख़रीदा है बहुत डिस्टर्ब हैं गोविंद..... माँ का सपना सच हो रहा है और माँ नहीं हैं पास में..... कैसे, क्या करें कि माँ साथ हों| वो देख रहे हैं शकुन का उत्साह..... नये घर के लिए किस रंग के परदे होंगे..... सोफ़े की गद्दियाँ, कुशन, चादरें..... शो केस..... गृहप्रवेश के दिन का भोज..... शेखर और उषा भी जुटे हैं..... “पार्टी में क़रीबी दोस्त ही आएँगे और भाभी आप मेहंदी लगाएँगी उस दिन और महाराष्ट्रियन नथ पहनेंगी|”

शकुन हँसने लगी – “नथ..... क्यों भई?”

“आपको अभी तक पता क्यों नहीं चला कि गोविंद को वैसी मोती वाली नथ बहुत पसंद है|”

“हम क्या जानें..... गले, नाक, कान सूने ही अच्छे लगते हैं गोविंद को|”

“अबतुम्हें गहनों की क्या ज़रुरत? तुम तो वैसे ही गज़ब ढाती हो|”

“क़सम से..... इस बात पे आप हलके से सिर हिलातीं और नथनी का मोती हाले रे..... आई मीन हिलता तो क्या गज़ब ढाता|”

उषा चाय बना लाई थी| गोविंद भी अब सहज थे|

कुणाल के जन्म के बाद शकुन को मायके में प्रवेश मिल गया| मौसम जैसे गमक उठा हो| हर फूल के खिलने की ख़बर लेकर हवाएँ शकुन के घर के खिड़की दरवाज़ों पर दस्तक देने लगीं| गोविंद ने माँ को बतलाना चाहा..... माँ, तुम दादी बन गई हो| फोन पिताजी ने उठाया..... पापा, आप बाबा..... लेकिन उधर से फोन कट गया| गोविंद का आहत मन टीस उठा| वे बुझने लगे| चरम तक बुझ गये| वे बुक्का फाड़कर रोना चाहते थे पर ज़िन्दग़ी के तक़ाज़ों ने उन्हें रोने न दिया| वे बुझे ज़रूर पर अपने अंदर समाई आग की राख को उन्होंने गरम रखा| यह बात दीगर है कि बाहर न धुआँ था न लपट|

होलिकाष्टक लगते ही शकुन ढेर सारे पकवान बनाकर डिब्बों में भरकर गोविंद के साथ पहुँच गई गोविंद के पैत्रिक निवास| गोविंद की गोद में दस महीने का कुणाल था|

“किसलिए आए हो? कोई क़सर बाकी रह गई क्या?”

“हम कसूरवार हैं..... हमें क्षमा कर दीजिए पिताजी|”शकुन उनके चरणों पर गिर पड़ी| उन्होंने पैर पीछे खींच लिए| कुणाल की किलकारियाँ सुन माँ का दिल पिघल गया| वैसे भी औरत का दिल मोम का होता है, ज़रासी आँच दिखाओ पिघलने लगता है|

दिन भर की मान मनौवल से पिताजी भी नरम पड़े| मान तो रहे हैं दोनों अपनी ग़लती..... “बच्चों से ग़लती हो ही जाती है| उन्हें तो अपना बड़प्पन रखना चाहिए|

नहीं..... सब कुछ सामान्य नहीं हुआ है| पिताजी की ख़ामोशी चीख़ रही है..... माँ का पिघलना सुलगते रहने का सफर तय कर रहा है| गोविंद ने महसूस किया है उस पल के हज़ारवें हिस्से को जो साक्षी है कि माँ पिताजी के मन में चुभा काँटा और गहरे धँसा है| वे उस पल के नन्हे टुकड़े को जी कड़ा करके नँगी आँखों से पूरा का पूरा देख रहे हैं|..... फिर उसी पल से शकुन का चेहरा झाँका है..... वे हाथ ऊपर कर ईश्वर से दुआ माँगते हैं..... अपने प्यार के लिए दुआ जो उम्र भर का साथ निभा ले|

रंग से सराबोर शकुन हाथ में गुझिया और भाँग का गिलास लिए सामने है – “लो मेरे भोलेनाथ|”

“तुम ले रही हो क्या भाँग.....”

“पी रही हूँ..... जिज्जी ने क़सम दी थी..... इसलिए|” गोविंद ने देखा गोबर लिपे आँगनमें जगह जगह रंग गुलाल बिखरा है..... भौजी इशारा कर रही हैं – “आओ न देवर जी.....”

पिताजी ने शाम को कुछ चुनिंदा लोगों को दावत दे डाली| होली मिलन की भी और नई बहू के आगमन की भी| सारी रस्मों की अदायगी बाक़ायदा हो रही है| शकुन से खीर का कलछुल छुआया गया है..... नई बहू के हाथ की पहली रसोई| नई बहू जो अब माँ है कुणाल की..... गोविंद के अंदर का पिता मुस्कुराए या रोये?.....

केतकी के जन्म के बाद शकुन का मन मुश्किल से घर में लग रहा है| जैसे तैसे कुछ साल निकले| शकुन सामाजिक कार्यों में हिस्सा लेने के लिए बेताब थी| एक तो उसका रुआबदार व्यक्तित्व और फिर शब्दों में इतना अपनापन कि सामने वाले को लगे जैसे वह उसके लिए ही इस दुनिया में आई है|वह जो भी काम हाथ में लेती उस पर स्वीकृति की मोहर लग जाती| अब उसने अपना अलग एन जी ओ स्थापित कर लिया था जिसके सचिव पद के लिए चुने गये शहर के प्रतिष्ठित व्यापारी नरेन्द्र चौहान के सम्मान में शकुन ने एक पार्टी रखी| पार्टी में मुम्बई की कुछ नामी हस्तियाँ शामिल हुईं| दूसरे दिन अखबारों में इसकी ख़बर छापी गई| शकुन की संस्था अब चर्चा का विषय थी| शकुन और नरेन्द्र की नज़दीकियाँ भी अब चर्चा का विषय थीं| शुरूआती दौर में गोविंद पर इन चर्चाओं का कोई असर नहीं हुआ पर हालात चुगली कर रहे थे|अब की बार मानसून बाहर नहीं बरसा गोविंद के अंदर बरसा..... पूरे अरब सागर की शक्ल में..... और लहरें उनका दम घोंटने पे आमादा थीं| कहाँ जाएँ वे? जहाँ भी जाएँगे ये मानसून और लहरें तो साथ जायेंगी ही..... तब?

लेकिन शकुन के लिए मानसून रोमांटिक था| भीगी ठंडी हवाएँ उसके बालों से अठखेलियाँ कर रही थीं| भीगे बालों से पानी की बूँदें चू रही थीं| चेहरा बिना बिंदी-काजल के धुला-धुला सा जैसे बारिश की रिमझिम में भीगा गुलाब.....

“अरे नरेन्द्र, अचानक?” दरवाज़ा खोलते ही खिल पड़ी थी शकुन|

“माशाअल्लाह!”

“क्या?”

“नहीं, कुछ नहीं..... इधर से गुज़र रहा था तो सोचा.....” शकुन दो गिलासों में कोल्ड ड्रिंक ले आई..... “अगर आप कहते कि आज मिलने का मन था हमसे तो अच्छा लगता|” नरेन्द्र की आँखों में शकुन का अक्स था| शकुन जैसी शख्सियत को लेकर वह बहुत उलझ जाता था..... आजशायद सुलझाव का दिन था| ख़ामोशी तारी थी| हवा चलती तो परदे पे टँगी नन्ही-नन्ही घंटियाँ रुनझुना जातीं| कोल्ड ड्रिंक ख़त्म कर नरेन्द्र संस्था से जुड़ी बातें करता रहा| कुणाल तो रात नौ बजे कोचिंग से लौटता है लेकिन केतकी और गोविंद के लौटने का समय हो गया था| शकुन अनमनी हो उठी|

“देखो, सुबह से हथेली खुजा रही है| अब मुहावरा बदलना पड़ेगा| पैसे नहीं प्रिय मिलता है हथेली खुजाने से..... लो चूम लो ज़रा|”

और नरेन्द्र ने बड़ी बेबाकी से हथेली शकुन के होठों पर रख दी| शकुन के होंठ काँपे थे लेकिन हथेली का दबाव भारी था| एक नागवार लम्हा गोविंद के घर में दाख़िल हो चुका था और सब कुछ लड़खड़ा उठा था|

बड़े बोझिल थे वे चार साल| शकुन और नरेन्द्र के रिश्तों की खलबलाहट ने गोविंद का दिल चाक़ कर दिया था| वे खुद को खँगालने लगे| कहाँ चूक हो गई शकुन को समझने में| ये कैसे हुआ? क्यों हुआ? वे भीतर ही भीतर छीजने लगे|उनके मन में रोपे प्यार के हरे भरे दरख़्त की जड़ों को दीमक आहिस्ता आहिस्ता खोखला करने लगी| पहले फूल जले गोविंद की रिपोर्ट में डायबिटीज़ कदम बढ़ा चुकी थी| फिर डालियाँ गिरीं..... हाई ब्लड प्रेशर, बेड कोलेस्ट्रॉल हाई लेवल पर और पिछले कुछ दिनों से डिप्रेशन भी..... पूरा दरख़्त धराशायी हो चुका था| वे खुली आँखों देख रहे थे अपनी बरबादी का मंज़र| वे मरना चाहते थे| उन्होंने सारी रिपोर्ट्स छुपा लीं| लेकिन कुणाल की नज़रों से कुछ छिपा न था|वह गोविंद का मानो प्रतिबिम्ब ही था| स्वभाव से संजीदा और ज़िन्दग़ी की हर धड़कन पहचानने वाला|वह गोविंद को डॉक्टर के पास ले गया| ढेरों दवाईयाँ, परहेज़..... ताक़ीद – “किसी भी तरह के तनाव, अप्रिय वातावरण से दूर रखें इन्हें..... अभी शुरुआत है, गंभीर रूप लेते देर नहीं लगेगी|”

घर लौटते ही वे बिस्तर पर ढह गये| अन्दर ही अन्दर कितना कुछ ढह गया था| रात को शकुन लौटी..... “क्या हुआ? गोविंद.....”

गोविंद ने शकुन की ओर देखा, हलके से मुस्कुराए| तीर चलाकर पूछती हो क्या हुआ? घायल परिंदे को कम-से-कम पंख फड़फड़ा लेने की आज़ादी तो दो|”

“मम्मी, पापा बीमार हैं|” कुणाल ने औपचारिक सी सूचना दी|गोविंद ने डीटेल्स बताने को मना किया था| शकुन ने टेबिल पर रखी दवाईयाँ, प्रेस्क्रिप्शन देखा – “इतना कुछ हो गया गोविंद और मुझे बताया तक नहीं|”

“क्या फ़र्क़ पड़ता अगर बता देता.....” कहना चाहा गोविंद ने..... कहना चाहा कि बहुत नाजुक होता है मोहब्बत का रिश्ता इसमें बेवफ़ाई को वफ़ा साबित करने के लिए किसी भी तर्क की गुंजाइश नहीं..... पर गोविंद को तो लब सीने थे सो सी लिए.....

गोविंद की ख़ामोशी ने कुणाल को भीतर तक झँझोड़ डाला| वह तुरन्त चला गया वहाँ से|

उस साल एक साथ तीन घटनाएँ घटीं| बहुत कोशिशों के बाद गोविंद को बैंगलोर तबादले की रज़ामंदी मिल गई| केतकी दो दिनों से घर से ग़ायब थी यह कहकर कि वह सहेलियों के साथ गोवा घूमने जा रही है लेकिन गोवा पहुँचकर उसने माइकल से कोर्ट मैरिज कर ली और एक संक्षिप्त सी सूचना शकुन को दे दी|अब अहसास हुआ है इस तरह की करतूतों का माँ बाप पर क्या असर होता है| ऐसा ही कचोटा होगा माँ पिताजी का दिल..... ऐसे ही रातों की नींद दिन का चैन खो चुके होंगे वे..... ऐसे ही रुसवाई की वजह से ज़माने को मुँह दिखाने लायक नहीं रहे होंगे वे जब उन्होंने गोविंद की शादी की सूचना सुनी होगी| तड़प उठे थे गोविंद..... देर तक रोते रहे थे और तभी ख़बर आई माँ सीरियस हैं| तो क्या माँ भी साथ छोड़ रही हैं?जिन्होंने अपने खून, माँस, पूरी ऊर्जा से उन्हें जन्म दिया..... उसके पहले तो कहीं न थे वे..... माँ के स्नेह, तप और समर्पण की गर्मी पा वे नन्ही कोंपल बन फूटे थे और आँखें मिचमिचा कर देखा था..... इतने बड़े विश्व में केवल माँ को.....लेकिन वे उन आवाज़ों का क्या करें? वे आवाज़ें जो उनका पीछा नहीं छोड़ रही हैं..... वे आवाज़ों के गूँजलक में गिरफ़्त हैं..... क्यों कराया तबादला बैंगलौर का? बसा बसाया घर अपनी ज़िद्द में उजाड़ रहे हो? नहीं बाँध पाये न शकुन का मन खुद से..... अब ये पलायन? नहीं फर्ज़ अदा कर पाये केतकी के प्रति अपना..... क्यूँ भटकी वह? एक विजातीय से शादी करने को क्यों मजबूर हुई वो..... हाँ, उसने देखा होगा शकुन का भटकाव..... उसने देखा होगा उनकी निरुपायता..... क्या करें वे? कैसे इन आवाज़ों से पीछा छुड़ाएँ? कैसे निराकार हो जाएँ..... माँ..... हाँ माँ ही हैं जो उन्हें बचा सकती हैं| वे गुण और सूत्र के रूप में तब्दील होकर उनके गर्भ में बैठ जाएँ..... वहाँ तो कुछ भी सुनाई नहीं देगा न! माँ का गर्भ होगा और वे गर्भ की दीवारों में कितनी शांति पाएँगे?..... उनमें है कूबत कि वे अपने धड़कते दिल को थाम लें ताकि उनकी धड़कनें उनके हिसाब से धड़कें और वक़्त उन धड़कनों के हिसाब से आगे बढ़े|

“पापा, टिकट कन्फ़र्म हो गई हैं|” सिरहाने कुणाल था| कुणाल ठीक उस पॉइंट पर उनके सामने आ जाता है जब दर्द हद से गुज़र जाता है| कुणाल की हथेली पे उनके लिए दवा और पानी का गिलास है|

“एक बात कहूँ पापा..... केतकी को माफ़ कर दीजिए| उसका चुनाव अच्छा है| माइकल डिज़र्व करता है केतकी के लिए..... करोड़पति, खुद का बिज़नेस..... बेहद शिष्ट.... शालीन|”

उनकी आँखें मूँदने लगी हैं| अपनी प्राणों से प्यारी बेटी को वे क्यों नहीं करेंगे क्षमा..... ज़रूर करेंगे क्षमा..... पहले उन्हें महसूस तो करने दो, पोर पोर टूटने तो दो, क़तरा क़तरा बिखरने तो दो..... जैसे माँ बिखरी हैं उनके लिए..... जैसे पिताजी टूटे हैं उनके लिए|

पल, दिन, सप्ताह..... बीत गया मानो ज़िन्दग़ी का पुरसुकून हिस्सा..... छूट गया सब कुछ..... ऋषिकेश हरिद्वार में माँ की अस्थियाँ विसर्जित कर उन्होंने खुद को भी विसर्जित कर दिया| लौटे एक महाशून्य बनकर..... अब उस शून्य में कुछ भी समाता न था|

और इन्हीं दिनों मैं मुम्बई आई पत्रकारिता के क्षेत्र में खुद को आज़माने| वे मेरे संघर्ष के दिन थे| एक स्थानीय पत्रिका की कव्हर स्टोरी तैयार करने का ज़िम्मा सम्पादक ने मुझे सौंपा था|पूरा अंक मशहूर समाज सेविका शकुन सहाय पर केन्द्रित था| शकुन के घर रोज़ ही जाना पड़ता| वे एक-एक बात बारीकी से बतातीं, पूरा सहयोग देतीं|गोविंद सहाय बैंगलोर जा चुके थे..... कुणाल घर बेचने के लिए एड़ी चोटी एक किये था ताकि बैंगलोर जाकर पूरी तरह बस सकें| उसका जॉब भी वहीँ लग गया था| मैं कुणाल के संग अक़्सर थियेटर या समँदर के किनारे खुद को पाती..... शकुन के जीवन के कितने अनखुले अध्याय वहाँ खुले थे| अब मैं बाक़ायदा घर की सदस्य मान ली गई थी| यही तो सबसे बड़ी खूबी है शकुन में..... वे सबको समँदर की लहरों की तरह अपने में समेट लेती हैं|फिर कब किसको अपनी गहराई में उतार लें और कब किनारे छिटक दें..... पता थोड़ी चलता है|

मकान बिकते-बिकते अरसा बीत गया| बीच-बीच में शकुन बैंगलोर हो आतीं| महीना दो महीना रह आतीं..... कुणाल सब संभाले था वहाँ का| शकुन घर के बहाने मुम्बई में जमी रहीं..... अब घर का एक कमरा बाक़ायदे नरेन्द्र के लिए रिज़र्व था| मैं जब भी जाती नरेन्द्र और शकुन को उस कमरे में पाती.....

“कनु, मेरे साक्षात्कार में एक प्रश्न यह भी शामिल करो कि क्या इन्सान एक ही वक़्त में एक साथ दो को प्यार कर सकता है?”

मैंने महसूस किया..... कगार टूट रहे थे|

गोविंद ने खुद को पूरी तरह शराब में डुबो लिया था| शाम होते ही वे पैग बना लेते| कुणाल टोकता – “पापा प्लीज़..... क्यों ख़त्म कर रहे हैं खुद को? हमारे लिये ज़िन्दा रहिए| हम क्या कुछ नहीं हैं आपके?” वे गिलास सरका कर खिड़की के सींखचे पकड़ खड़े हो जाते| नहीं, ये कैद उनकी रची नहीं है| उनकी बेगुनाही को जुर्म बना दिया गया है| दिल बुरी तरह से टूटा है पर शकुन को आवाज़ तक न आई| टूटे दिल की सदाएँ उन्हें ही झकझोरती रहीं| कुणाल ने देखा उनकी आँखों का बियाबान..... अपने हाथों पैग बनाया, उनकी ओर बढ़ाया – “पापा, अपना ग़म ग़लत करिये|”

उन्होंने कुणाल की ओर डबडबाई आँखों से देखा..... कई पल गुज़र गये| गिलास ख़ाली हो गया| कुणाल फिर भर लाया – “तुम शादी क्यों नहीं कर लेते कुणाल?”

“नहीं पापा..... मुझे इस झंझट में फँसना ही नहीं है| प्यार किसी से हुआ नहीं और हो भी जाता तो..... गोविंद की पलकें झुक गईं|

“सॉरी पापा.....”

गोविंद तड़प उठे..... देर तक बियाबान में सूखे पत्ते खड़कते रहे| शकुन भी कहाँ रुक पाई? उसकी आँखों के अँधे सैलाब ने सब कुछ तो निगल लिया| सुनसान किनारों पर सहमे समँदर की लहरें हैं जो इस बरबादी पर सिर धुनती बार-बार किनारों से टकरा रही हैं|

डॉक्टरआए हैं..... लीवर ख़राब हो गया है गोविंद का| सारी शामत पैरों पर..... चलने से लाचार हो गये हैं| बिस्तर पर पड़े-पड़े अपनी, कुणाल की, केतकी की बरबादी का आलम देख रहे हैं| नहीं शायद वे ग़लत हैं| केतकी यू.के में माइकल के साथ खुश है| बरबाद कुणाल हुआ है..... वे गुनाहगार हैं उसके|

कार्यक्रम समाप्त हो चुका है| मैं शकुन से मिलने उनके नज़दीक गई| उन्होंने मुझे गले से लगा लिया – “कैसी हो कनु?”

“अच्छी हूँ दी..... गोविंदजी कैसे हैं?”

“बस अभी फ्लाइट पकड़ रही हूँ बैंगलोर की| जैसे तैसे कुणाल के हवाले करके आई हूँ| एक मिनट मेरे बिना नहीं गुज़ारते|”

और वे अपनी चिरपरिचित मोहक मुस्कान सहित कार की ओर बढ़ गईं| कार में ड्राइवर ई सीट पर नरेन्द्र चौहान बैठा था| दूर तलक गोविंद सहाय के बेइन्तहा प्यार की बरबादी का समँदर ठाठें मार रहा था|

कार सर्र ऽऽ से सड़क पर बिखरे अमलतास के फूलों को कुचलती आगे बढ़ गई|


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