मन्नू
मन्नू
मौसम सर्द था। हवायें ठंड को और बढ़ा रही थीं। रात अपने सियाह पैरहन से उजाले को पूरी तरह ढंक चुकी थी। पूरा शहर एक रहस्यमयी खामोशी में गर्क था। चाँद भी दूर बादलों में कहीं छुप गया था। ठीक ठीक समय याद नहीं, बारह बज रहे होंगे।
सोने जा रहा था सोचा फोन कर लूं।
चूंकि शाम को मन्नू को मैंने फोन किया था पर उसने फोन नहीं उठाया था। सुबह बात हुई थी तो बतायी तबीयत कुछ ठीक नहीं है। सो हमने फिर फोन किया। कॅाल रिसीव हुआ। कुछ बोलता इससे पहले मेरे कान में रोने की आवाज़ उतरी। कुछ अजीब सा लगा। पहले तो विश्वास ही नहीं हो रहा था कि मन्नू ही है। मै सन्न रह गया था।
उसे मै दो सालों से जानता था। इन दो सालों में मैंने उसके चेहरे पर शिकन तक नहीं देखी थी। सेमेस्टर के पेपर में कभी कभी हम लोगों को बहुत ज्यादा टेंशन हो जाता था पर वो बिल्कुल समान्य मानो उसे पेपर देना ही न हो।
मैनें कई बार उससे पूछा-"तुम्हें टेंशन नहीं होती?"
हर बार एक ही जबाव मिलता- "टेंशन लेने से क्या सबकुछ ठीक हो जायेगा। अधिकतम क्या होगा कम नंबर मिल जायेगा। ज्यादा नंबर पाकर भी क्या कर लोगे? बस कहने को हो जायेगा इतना नंबर पाये हैं। नंबर कम आ जायेंगे तो इसका मतलब ये तो हुआ नहीं कि हमें कुछ नहीं आता।"
जब पूछता कुछ ऐसा ही जबाव मुझे हर बार मिलता सो मै पूछना ही छोड़ दिया।
कभी कभी कहती "क्यों इतनी परेशान होते हो आगे बहुत पेपर आयेंगे ये आखिरी तो है नहीं।"
वही मन्नू आज रो रही थी। पहले तो लगा, तबीयत खराब है इस वजह से रो रही है। लेकिन जिस वजह से रो रही थी उसकी वजह तबीयत खराब होने से कहीं अधिक ज्यादा थी।
रोग का इलाज है पर इस समस्या का इलाज क्या है आज तक हमारा समाज ढूंढ नहीं पाया है।
ये मन्नू ही नहीं हर एक उस लड़की के साथ होता है जो कुछ करना चाहती हैं, स्वतंत्र होना चाहती, अपनी अलग पहचान बनाना चाहती हैं। इस रास्ते में अवरोध बनते हैं उनके खुद के घरवाले मेरा तो यही अनुभव है।
ऐसा नहीं था कि ये पहली बार उसके साथ हुआ हो पर आज उसे ये बात लग गयी थी।
लगे भी क्यों नहीं। जिसके खातिर दो महीने से तैयारी कर रही थी वो सारी तैयारियाँ दो सेकेंड में सिर्फ एक "नहीं" शब्द से जमींदोज कर दी गयीं।
क्यों? क्योंकि वो एक लड़की थी। हमारा समाज
इतना खूबसूरत है कि इसकी इज्जत, मान-सम्मान के सारे खम्भे औरतों पर टिके हैं। इस खूबसूरती से भी बड़ी खूबसूरती ये है कि ये समाज औरतों को कमजोर समझता है। मन्नू के साथ भी कुछ ऐसा ही हुआ। उसके घर की सारी इज्जत मानो उसके ही भरोसे हो पर वो कहीं जा नहीं सकती।
घूमने, फिल्म देखने जाने के बारे में सोचना तो मानो एक सपने जैसा है। जाना था शोध पत्र प्रस्तुत करने। लंदन नहीं बल्कि हिंदुस्तान में ही। चेन्नई में। जब से इस सेमिनार के बारे में उसे पता चला था। उस दिन से लाइब्रेरी में बहुत कम जाने वाली मन्नू का अधिक से अधिक समय लाइब्रेरी में ही बीतता। जब मिलो एक ही बात "बस पेपर सेलेक्ट हो जाये।"
ऐसा लग रहा था जैसे ये आखिरी मौका है और इस मौके को वो गंवाना नहीं चाहती हो।
दो महीने की अथक मेहनत से उसने पहली बार पेपर लिखा था। और ये बहुत बड़ी बात थी हम सबके लिए और उसके लिए भी। जिस दिन उसे ई-मेल आया कि उसका पेपर सेलेक्ट हो गया है, इतनी खुश थी जैसे उसे सब कुछ मिल गया हो जो उसे चाहिए था।
पहले तो ऐसा लगा जैसे मुझे बोलना ही नहीं आता हो या यूँ कहें कि क्या बोलूँ मुझे समझ नहीं आ रहा था। काफी देर मतिष्क पर जोर डालता रहा। बहुत कुछ सोचने के बाद एक ही सूझा। अपनी बनावटी बातों से मै उसे बार बार समझाता रहा कि मेरे साथ भी ऐसा होता है। लेकिन सारी बातें बेअसर साबित होती रहीं। हर बात का जबाव मिलती सिर्फ सिसकियाँ।
"मै एलएलबी कर रही हूँ मै छोटी नहीं कि भूल जाऊंगी।"
"मै भी जब तुम्हारी तरह था तो कहीं जाने नहीं दिया जाता था।"
"तुम तो कहते थे कि खूब घूमते थे। कोयम्बटूर भी गये थे इंटरव्यू देने।"
"मुझे जाने नहीं दिया जा रहा था। जाने के लिए तो मै बहुत रोया था।"
"पर गये थे ना। यहाँ अगर "ना" हो गया तो ना का मतलब ना है। कुछ भी कर लो नहीं जाना है तो नहीं जाना है।"
मेरे हर बनावटी बातों को मन्नू झूठी साबित करती रही। बातें बनाता रहा झूठा साबित होता रहा। अब तो मै खूद को अपराधी महसूस करने लगा था। ऐसा लग रहा था कि मै कटघरे में खड़ा हूँ बस फैसला सुनाया जाना बाकी है।
"तुम लड़के हो मै लड़की हूँ" ये वाक्य मै बहुतों बार सुना और जब सुनता तो ये वाक्य मेरे कान में उतरते ही सारे शरीर को कंपा देता।
अंततः मैने मन्नू की ही कही बात को ही उससे कहा
"आगे बहुत मौके आयेंगे ये आखिरी तो है नहीं।"
"हर बार यही होगा। बचपन से अब तक यही होता आया है। चलो अगली बार चली जाना वो अगली बार आया नहीं। क्या क्या प्लॅान किया था मैने। सब खत्म हो गया।"
तीन घण्टे तक बात चली। मै बस सुन सकता था। मेरे पास कहने के लिए कुछ नहीं था। कहता भी क्या सच्चाई को अगर तर्क के साथ कोई कह रहा हो तो आपके लाखों झूठ उसे सच साबित नहीं कर सकते। मै खुद ही सोच रहा था "उसके पढ़ने का क्या फायदा है?"
सुबह के तीन बज चुके थे। आज मेरी आँखों ने नींद को निगल लिया था।
हफ्तों बीत गये मै मन्नू से नहीं मिला। पता नहीं क्यों मुझे ऐसा लग रहा था कि उससे कैसे मिलूंगा। क्या कहूंगा। कॅालेज जाता और चुपचाप वापस कमरे पर चला आता। एक दिन कॅालेज से लौट रहा था। मन्नू ने पुकारा। मै बिल्कुल खामोश था पर उसके चेहरे पर थोड़ी भी शिकन नहीं थी। उसने ज्यादा कुछ नहीं बस कहा "शाम को आना।"
शाम को हम मिले। सारे दोस्त इकट्ठे हुए। इधर उधर की बातें होती रही। किसी ने पूछ लिया "तुम तो चेन्नई गयी थी क्या हुआ?"
"घर वाले जाने ही नहीं दिये।" मन्नू ने हंसकर जबाब दिया।
बातचीत में घंटों बीत गये। आठ बज गया तो मन्नू ने कहा "तुम लोग बात करो मै जा रही हूँ नहीं तो हॅास्टल का गेट बंद हो जायेगा।"
और वो चली गयी और मेरे हाथ में कुछ पन्ने थमा गयी। कमरे पर आकर पढ़ने लगा तो पता चला वो मन्नू का लिखा पेपर था जो "स्त्रियों की सामाजिक स्थिति" पर लिखा गया था।