भीड़ में तन्हाई
भीड़ में तन्हाई
कोई भी कार्य करने के पीछे किसी किसी न किसी की प्रेरणा जरूर रहती है। बिना किसी प्रेरणा के किया गया कार्य सार्थक नहीं रहता। लिखने का शौक शुरू से रहा। हमेशा अपनी भावनाओं को पन्नों पर उतारने की कोशिश की। सही मायने में अपनी पहली रचना की प्रेरणा मुझे प्रकृति और आधुनिक माहौल से मिली। शाम में अक्सर वॉक पर जाती हूँ। बहुत सुहाना मौसम था। आसमान में बादल सूरत से आँख मिचौली खेल रहे थे।
ठंडी ठंडी हवा चल रही थी, पेड़ पौधे अपनी रौं में झूल रहे थे। मैं इस दृश्य का आनंद ले रही थी। सभी ले रहे थे, पर मैंने देखा मुझमें और सब में एक फर्क है। सभी मोबाइल के कैमरे से इस दृश्य का आनंद ले रहे थे और मैं अपनी नंगी आँखों से। पहले हम आँखों से देखते थे और यादों के लिए तस्वीर लेते थे, पर अब मोबाइल से देखते हैं और यादों के लिए शायद आँखों से खुद को तसल्ली देने के लिए देख लेते हैं कि आए हैं तो चलो देख भी ले।
वरना हमेशा फोन से क्लिक, क्लिक। जहाँ भी जाओ सभी पिक्चर लेने में व्यस्त रहते हैं पर जो दृश्य आँखों से देख कर खुशी को सहेजने में है क्या वह कैमरे से मिलेगी ? डिजिटल वस्तुओं का इस्तेमाल करते करते हम भी डिजिटल हो गए हैं। तुरंत घर आकर मैंने अपने विचारों और भावनाओं को पन्ने पर उतार डाला।
मौसम सुहाना था, दिल को बहलाना था,
सोचा थोड़ा घूम लूँ, प्रकृति को निहार लूँ,
चारों तरफ फूल खिले थे,आसमां में बादल थे,
सभी अपनी रौं में, खुद में पागल थे।
अचानक लगा जैसे, प्रकृति को छोड़ सभी,
मुझे ही निहार रहें हो,
मैंने भी एकबारगी खुद को देखा,
पर मैंने तो खुद को सही पाया,
तभी मुझे एहसास हुआ,
ये मैं क्या कर रही हूँ,
अरे ! सभी तो प्रकृति को ,
अपने मोबाइल में कैद करने में लगे थे,
और मैं प्रकृति को,
अपनी आँखों और अपने,
दिल में उतार रही थी,
अजीब है, पर आज की सच्चाई है,
अपनों के होते हुए भी,
अजीब सी तन्हाई है।