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पिछली खिड़की

पिछली खिड़की

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दूरदर्शन पर अपना कविता पाठ करके लौट रहा था। राजधानी से प्रकाशित होने वाला राष्ट्रीय दैनिक मेरे हाथों में था। रेलगाड़ी छूटने के इंतज़ार में अखबार के पन्ने पलटता हुआ अंतिम पृष्ठ तक पहुंच गया। आचार्यजी कला प्रदर्शनी का उद्घाटन करते नज़र आए। साथ में आचार्यजी की चित्रकार की तारीफ और चित्रों पर उनकी टिप्पणी भी प्रकाशित हुई थी। समाचारों में ऐसा डूब गया कि पता ही नही चला कब गाड़ी ने सीटी दी और कब स्टेशन पीछे छूट गया।

बहुत दिनों से प्रयास में था कि किसी तरह दूरदर्शन पर रचना पाठ कर आऊँ। इधर देख रहा था हर ऐरा-गैरा रंगीन बूशर्ट पहन कर अपने चुटकुले छोटे पर्दे की कवि गोष्ठी सुनाकर ऐंठ रहा था। ऐसा नही है कि ऐसे जुगाडू कवियों के प्रति कोई द्वेष भाव रहा था किंतु यह शायद मेरी ही कमज़ोरी या मेरी कविता में कोई कमी थी जिस वजह से मैं ऐसा नही कर पा रहा था। हाँलाकि रेडियो पर कई बार अपनी लम्बी-लम्बी कविताएँ सुना आया था लेकिन रेडियो का स्वांत: सुखाय प्रसारण वह सुख नही दे रहा था जो टीवी का रंगीन स्क्रीन दे पाता है। ऐसी हताशा के समय आचार्यजी का सहयोग मुझे मिला। हालांकि आचार्यजी से मेरा कोई सीधा परिचय कभी नही रहा। मेरा मित्र मुकेश माथुर राजधानी के महाविद्यालय में प्रोफेसर था जिसने किसी तरह आचार्यजी के माध्यम से दूरदर्शन केन्द्र से मेरा कांट्रेक्ट लेटर निकलवाया था। दरअसल आचार्यजी महानगर के विशिष्ठ व्यक्तियों में से एक हैं। राजधानी आनेवाला शायद ही कोई बुद्धिजीवी ऐसा रहा हो जो आचार्यजी का आशीर्वाद लिए लौट गया हो।

मैं मुकेश के घर ही ठहरा था। उसकी बहुत इच्छा थी कि जब यहाँ आया हूँ तो आचार्यजी से अवश्य मिलता जाऊँ। आचार्यजी देश के जाने-माने विचारक, संस्कृति मर्मज्ञ और प्रतिष्ठित साहित्यकार तो थे ही, राजनीतिक क्षेत्रों में भी उनकी खासी पूछ-परख और घुसपैठ थी। नए रचनाकार के लिए उनसे मिलना लगभग किसी साहित्यिक तीर्थ पर होकर आने जैसा था। उन्होने कई नवोदित रचनाकारों की पुस्तकों के फ्लेप लिखकर उपकृत किया था। साहित्य के क्षेत्र में यह गहरी मान्यता रही है कि उनके लिखे फ्लेप और ब्लर्व के बाद पुस्तक की आधी समालोचना सम्पन्न हो जाती है और पुरस्कार प्राप्ति की सम्भावनाएँ बढ़ जाया करती हैं। पिछले दिनों लेखक संघ की एक गोष्ठी में युवा कवियत्री की नितांत अचर्चित कविताओं पर उसकी प्रतिभा पर अपनी बात कही तभी लोगों को विश्वास हो गया था कि सेठ वैभवदास की स्मृति में दिया जाने वाला अगला साहित्य सम्मान उसे ही प्राप्त होगा। और यह हुआ भी। आचार्यजी के आशीर्वाद से कई रचनाकारों को अपनी सही दिशा प्राप्त हुई थी। उनसे मिलना मेरे लिए सचमुच सौभाग्य की बात थी।

दूरदर्शन की कवि गोष्ठी मे भाग लेने के बाद अगले दिन हम आचार्यजी के दर्शन करने और उनका आशीर्वाद लेने हम उनके निवास पर जा पहुंचे थे। उनके भवन के आगे छोटा-सा खूबसूरत उद्यान था। उसमे अधिकांश वे पेड़-पौधे लगे हुए थे जिनका उल्लेख अक्सर प्रेम गीतों और फिल्मी नगमों में बहुतायत से होता रहा है। ऐसा आभास होता था जैसे उनके हिस्से की धरती ने गुलमोहर और पलाश के रंगों की चुनरी ओढ़ रखी हो। उनके आँगन में इन पेड-पौधों के सौन्दर्यपूर्ण उपस्थिति से आचार्यजी की सुरुचि और उनके दिव्य व्यक्तित्व का अनुमान लगाते हुए हमने चौकीदार से अपने आने का प्रयोजन कहा। उसने हमें भवन की ऊपरी मंजिल पर बने उस कक्ष तक पहुंचा दिया जहाँ आचार्यजी अगंतुकों से भेंट किया करते थे।  आचार्यजी का वह कक्ष बहुत ही तरतीब से संवारा गया था। जिस ओर से हमने प्रवेश किया था,अर्थात मुख्य द्वार की ओर दो खिड़कियाँ थीं। एक दरवाजा बाहर की ओर खुलता था,जहाँ छत थी। सामनेवाली दीवार पर मकबूल फिदा हुसैन द्वारा माधुरी दीक्षित की तस्वीर लगी थी, जिसमें वह किसी आदिवासी औरत की तरह अपने खूबसूरत दांतों का प्रदर्शन करते दिखाई दे रही थी। कक्ष के एक कोने में तिपाही पर एक सितार रखा हुआ था, हालांकि किसी ने आचार्यजी को सितार बजाते कभी रूबरू देखा नही था।

कुछ देर बाद आचार्यजी ने कक्ष में प्रवेश किया। उनके साथ जैसे कोई प्रभामंडल चल रहा था, उसी के तिलस्म से हमारे हाथ बरबस नमस्कार की मुद्रा में जुड़ गए। सफेद ढीला कुर्ता और चुस्त पायजामा धारण किए आचार्यजी ने मैदानी क्षेत्र में पैदा होने बावजूद सिर पर हिमाचली टोपी लगाई हुई थी। आचार्यजी की उपस्थिति वातावरण में विशिष्ठ गरिमा घोल रही थी। अनके आते ही जैसे केवड़े की मीठी खुशबू बिखर गई थी। ध्यान से सुनने पर भीतर वाले कक्ष से आती बाँसुरी की मद्धम-मद्धम धुन सुनाई पड़ रही थी। उनके ललाट पर अद्भुत तेज दिखाई दे रहा था। लगता था उनकी आँखें छलछला रही हों। जैसे प्रेम का कोई सागर उन आँखों में लहरा रहा  हो। आत्मीय मुस्कान और महर्षि की धीर-गम्भीर वाणी लिए उनके मुख से शब्दों की गंगा प्रवाहित हुई- ‘बैठिए! बैठिए!!,परिचय चाहूंगा मैं आपका!’

मुकेश को वे थोड़ा-बहुत जानते थे, लेकिन वे इतने विराट थे कि छोटी पहचान को याद रखा जाना उनके लिए सहज नही था।

‘जी, मैं ब्रजकिशोर यादव, मध्यप्रदेश की कन्नौद तहसील के स्कूल में अध्यापक हूँ। दूरदर्शन पर कविता पढने आया था, सोचा आपके दर्शन भी करता चलूँ।’ किसी तरह मैं तिलस्म से बाहर आने का प्रयास करके बोला।

वे मुस्कुराए, जैसे आशीर्वाद दे रहे हों।

‘आपका लेख क्रांतिवीर में पढ़ा था, बहुत सटीक टिप्पणी की है आपने नई पीढ़ी पर।’ मैने बातचीत का सिलसिला शुरू करने की गरज से कहा। मैं जानता था विद्वानों के समक्ष एक बार प्रश्न रखकर चुप हो जाना ही उचित होता है। उसके बाद तो वे स्वयं ही हमें उपकृत करने लगते हैं। हुआ भी यही। आचार्यजी ने हमें सम्बोधित करना शुरू कर दिया था।

आराम कुर्सी को पिछली खिड़की के पास खींचकर बैठते हुए वे बोले-‘ आज का युवा भटकाव के रास्ते पर है, हमारे संस्कार, हमारे आदर्श मूल्यहीन हो रहे हैं।’ आचार्यजी ने अपनी कुर्सी पिछली खिड़की के और नज़दीक खिसकाते हुए आगे कहा-‘देश और समाज की चिंता छोड़ युवा पीढ़ी पतन की राह पर दौड़ रही है।’ आचार्यजी ने हमारी ओर से नजरें पूरी तरह हटा कर खिड़की के बाहर देखते हुए कहा- ‘नशा उनकी रगों मे समाता जा रहा है..पश्चिम की गन्दगी उनके भविष्य को चौपट कर रही है’ कहते कहते आचार्यजी खड़े हो गए, ‘पोर्न फिल्मों और घटिया साहित्य उन्हे जकड़ता जा रहा है’ कहते कहते आचार्यजी खिड़की के बाहर एकटक देखने लगे। हमने महसूस किया, आचार्यजी हमसे ज़्यादा पिछली खिड़की के बाहर देखने में अधिक दिलचस्पी ले रहे थे। बातचीत करते समय उनके वाक्य जैसे टूट रहे थे। तभी पास वाले कमरे में टेलीफोन की घंटी घनघनाई। बेमन से वे फोन सुनने भीतर चले गए।

उत्सुकतावश मैने उठकर पिछली खिड़की से बाहर देखा। सामने से बेहद खूबसूरत दिखाई देने वाले आचार्यजी के प्रासाद के पिछ्वाड़े झुग्गी-झोपड़ियों का घना जंगल था। पिछली दीवार के समीप कुछ सार्वजनिक नल लगे थे, जहाँ गरीब बस्ती की औरतें अपनी देह और कपड़ों का मैल बहाने में व्यस्त थीं।

मैं पुन: सोफे पर आ बैठा। अन्दर वाले कमरे से आचार्यजी की आवाज सुनाई दे रही थी। शायद किसी कला प्रदर्शनी के उद्घाटन करने का निमंत्रण उन्होने स्वीकार कर लिया था।

हम लौट आए थे। उनके भवन की तरह ही उनके व्यक्तित्व की भी कुछ खिड़कियाँ पीछे की ओर खुलती थीं।

मैने रेलगाड़ी की खिड़की से बाहर देखा, दृश्य बदल चुका था। कंक्रीट के विराट जंगल बहुत पीछे छूट चुके थे। नीले आकाश के तले काम करती औरतों की रंग बिरंगी ओढ़नियाँ हरे भरे खेतों की पृष्ठभूमि में लहरा रही थीं। यह वह चित्र था जिसे किसी आचार्य की समीक्षा की कोई दरकार नही थी। 


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