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अनोखा प्यार

अनोखा प्यार

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बयालीस पतझड़ देख चुकी एक थकी हारी सी मैं, भावना। माता पिता ने भी नाम क्या खूब दिया था भावना। सबके मन को पढ़ लेने वाली पर खुद के लिए मूक बेजान सी भावना। अपनी जिंदगी की किताब के पन्ने जब टटोलती हूँ तो कितना कुछ दोबारा से घटित हो जाता है मेरे जीवन में। लगता है मानो कल की ही बात थी। बारहवीं की परीक्षा का परिणाम आया था। बहुत खुश थी मैं, अच्छे नंबरों से उत्तीर्ण हुई थी। परिणाम लेकर घर वापिस आ ही रही थी कि रास्ते में पड़ोस का लड़का मोनू मिला। बहुत बदहवास सा भागता आ रहा था। उत्तम नगर की गलियों में कोई जानकार इस तरह से भागता नजर आए और उससे माजरा न पूछा जाए, ऐसा हो ही नहीं सकता, मैंने भी वो ही किया--“मोनू ! अरे मोनू ! रुक कहाँ भागा चला जा रहा है। तुझे पता है मुझे सेवंटी फाइव परसेंट नंबर आए हैं बारहवीं में। शाम में आ जाना पार्टी दूँगी।”

बिना उससे कुछ सुने मैं बोलती चली गई। उसने मेरा हाथ कस कर पकड़ा और बोला-

“दीदी जल्दी चलो। आपके पापा को दिल का दौरा पड़ा है, अस्पताल लेकर गए हैं उन्हें।”

इतना कहकर बस मेरा हाथ पकड़ा और मेरी पथराई देह को घसीटते हुए भागने लगा। घर पहुँची तो सबके रोते और परेशान चेहरे देखकर खुद को संभाला। माँ तो पड़ोस के सोनू भैया के साथ बाइक पर बैठकर अस्पताल चली गई थी और मेरे ऊपर अपनी तीन छोटी बहनों की जिम्मेदारी थी। मेरी तीन छोटी बहनें- कल्पना, सूलोचना और कीर्ती। सबको गले लगा लिया और चुप करवाने लगी। उसी एक पल मेरे आंसू जैसे मानो आंखों में से सदा के लिए सूख गए थे। पापा के इलाज में उनकी सारी सेविंग्स, पी•एफ• सब खत्म हो गया। घर भी किराए का था, तो ऐसे हालात में उन्होंने भी अपना विकराल रूप दिखा दिया। अब तो मुसीबतों का पहाड़ और मेरे कंधे यही नजर आ रहा था परंतु मैंने धीरज नहीं छोड़ा और अगर छोड़ देती तो कैसे चलता। अपने एरीया के मंदिर के पंडित जी से बात की, उन्होंने एक जगह रहने का इंतजाम किया।

मैंने भी अपनी सहेली के साथ मिलकर ब्यूटीशियन का काम सीखा और एक पार्लर में नौकरी करने लग गई। रोज उत्तम नगर से विकास पुरी तक का सफर होता था महंगा भी पड़ता था पर क्या कर सकती थी। ऐसे ही एक सफर पर अनिल से मुलाकात हुई। अनिल तीन बहन भाइयों में से सबसे बड़े थे। बहुत अच्छी नौकरी नहीं थी। सामान्य सी नौकरी पर फिर भी मेरी तरह परिवार के लिए समर्पित थे।उनके पिता मध्यप्रदेश में काम करते थे। परंतु यहाँ अपने परिवार में उन्हें अपने लिए हमेशा उपेक्षा और उलाहना का ही समावेश मिला। पता नहीं क्यों पर पहली नजर में कुछ अपने से लगे थे वह।

तब मैं थी बाइस की और वो थे सत्ताइस के। यूँ ही समय बीतता चला गया। मैंने पूर्णरूपेण खुद को परिवार नामी अग्नि कुंड में खुद को स्वाहा कर दिया। तीनों बहनों की शादी की, जैसे-तैसे करके मम्मी-पापा के लिए खुद की छत का बंदोबस्त किया। ऐसे ही अब मैं चालीस की हो चली थी। मम्मी पापा मेरी शादी के बारे में सोच रहे थे। परंतु बहनें यह नहीं चाहती थीं क्योंकि माँ-बाप की जिम्मेदारी कौन निभाये। अनिल ने भी अपने छोटे बहन-भाई को पढ़ा लिखा कर उनकी गृहस्थी जमा दी थी परंतु एकमात्र अपने प्रशंसक अपने हितैषी अपने पापा को खो बैठे थे। अब तो उनकी स्थिति में और भी दयनीय हो गई थी। किसी से बात नहीं करते थे वह। परंतु मेरे मन तो उनका एक स्थान नीहित हो चुका था। बहुत समय बाद एक दिन वह मुझे मंदिर में मिले। उनको देख उनसे बात करने की इच्छा हुई, उनके पास जाकर खुद ही बात शुरू की मैंने-

“जी नमस्ते ! मैं भावना। आप मुझे नहीं जानते पर मैं आपके बारे में बहुत कुछ जानती हूँ। मैं यह भी जानती हूँ कि आपकी विधवा माँ आपकी शादी करवाना चाहती हैं। मैं यह भी जानती हूँ की आपकी उम्र अब शादी की उम्र पार कर गई है। परंतु मेरी उम्र भी शादी की उम्र पार कर गई है। अगर आप….”

इतना कहकर वहाँ से चली आई और सोचने लगी, अरे ! क्या सोचते होंगे कैसी निर्लज्ज है। खुद ही विवाह प्रस्ताव ले आई। परंतु क्या कर सकते हैं, कहते हैं न ज़बान से निकली बात और कमान से निकला तीर कभी वापिस नहीं आता। पर शायद नियति को कुछ और ही मंजूर था, सुबह पार्लर के लिए निकलने से पहले अनिल और उनकी माताजी दरवाजे पर खड़ीं थीं। रिश्ता लेकर आए थे दोनों। सब बातें तय हो गईं परंतु शायद यह बात उन अपनों के हलक से नीचे नहीं उतरी जिनके लिए हम दोनों ने अपनी जवानी खाक कर दी थी। दो साल लग गए सबको मनाने में। आज अनिल मेरे संग इस अनोखे प्रेम पर दुनिया की मोहर लगाने के लिए बारात लिए घर के दरवाजे पर खड़े हैं और मैं उन्हें बिना इंतज़ार करवाए जयमाला लिए उनका अपने मन-मंदिर में प्रवेश करवाने के लिए स्टेज पर खड़ी हूँ।।


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