हथेली में सुराख
हथेली में सुराख
कविता खाना बनाने के लिए सब्ज़ी काट रही थी। वह अपने ख्यालों में उलझी हुई थी। कई महीनों से उसका पति प्रकाश बीमार था। वो सरकारी अस्पताल में उसका इलाज करा रही थी। पर प्रकाश की हालत में कोई सुधार नहीं हो रहा था।
उसका पति एक प्राइवेट स्कूल में चपरासी था। पर बीमारी के कारण उसकी नौकरी छूट गई थी। अब घर और दवाइयों का खर्च उसकी कमाई पर ही चल रहा था। वह कुछ घरों में खाना बनाने का काम करती थी। उससे जो भी कमाई होती थी उससे खर्चे निपटाना मुश्किल हो रहा था।
आज जब उसने पैसों वाले डब्बे में हाथ डाला तो सिर्फ सौ रुपए ही बचे थे। वह यही सोंच रही थी कि अब इनके दम पर बाकी के दिन कैसे कटेंगे। कोई बचत भी नहीं थी। ज़रूरत पड़ने पर किसके सामने हाथ फैलाएगी।
"मम्मी देखो पापा को क्या हो गया ?"
अपनी बेटी का घबराया हुआ स्वर सुन कर कविता अपने ख्यालों से बाहर आई। बेटी रो रही थी। कविता भाग कर अपने पति के बिस्तर के पास गई। प्रकाश का मुंह खुला था। प्राण निकल चुके थे।
कविता की चीख सुनकर आस पड़ोस के लोग आ गए। सब सांत्वना दे रहे थे। पर पति की मौत के दुख से बड़ी कविता की चिंता थी।
अब कुछ ही देर में पति की अर्थी की तैयारी करनी पड़ेगी। पर घर में तो इतने पैसे ही नहीं थे।
आस पड़ोस वाले सांत्वना तो दे सकते थे पर पैसे नहीं। सभी की हथेली में सुराख था।