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इण्डियन फ़िल्म्स 2.10

इण्डियन फ़िल्म्स 2.10

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मेरे नानू...



मैं और तोन्या नानी धीरे-धीरे अपनी मरीना रास्कोवाया स्ट्रीट पर वापस लौट रहे हैं।जब हम अपने पोर्च तक आ गए, तो मैंने कहा, “चल, पर्तोस का इंतज़ार करते हैं।”जब से टी।वी। पर फिल्म “डी’अर्तन्यान एण्ड थ्री मस्केटीर्स” दिखाई गई, मैं अपने नानू को इसी नाम से बुलाने लगा। नानू की शकल पर्तोस से बहुत मिलती है और अगर उसे किनारे से पोनीटेल बांध दी जाए, तो बिल्कुल दूसरा पर्तोस लगेगा! और वैसे, मैं समझता हूँँ, कि नानू को अच्छा लगता है, कि मैं उसे इस नाम से बुलाता हूँँ, उन्हें तो मालूम है कि उस फ़िल्म में मुझे पर्तोस कितना अच्छा लगा था।

“ठीक है, इंतज़ार कर लेते हैं,” तोन्या ने जवाब दिया। “मगर, सिर्फ हमारे नानू का, न कि पर्तोस का।”

“अरे, वो पर्तोस ही तो हैं!”

“उसे इस नाम से बुलाने की ज़रूरत नहीं है,” नानी शांति से बात करती है, मगर इसी शांति के कारण समझ में आता है, कि उसे कितना बुरा लगता है – वो ये समझती है, कि मैं नानू को चिढ़ा रहा हूँँ, जबकि मैं चिढ़ाने की बात सोचता भी नहीं हूँँ। “वो कल मुझसे कह रहे थे, कि इलीच आया था, उनका बहुत पुराना दोस्त, और तुमने सीधे इलीच के ही सामने नानू को पर्तोस कह दिया।नानू ऐसे बड़े ओहदे पर हैं, इत्ते सारे लोगों को जानते हैं।और फिर वो हमारे पालनहार भी तो हैं, न कि पर्तोस।”

“ये पालनहार क्या होता है?” मैं पूछता हूँँ।          

“वो हमारे खाने के लिए लाते हैं। “सर्कस” कार मैंने तुम्हारे लिए खरीदी। नौ रूबल्स की है। और मुझे पैसे किसने दिए, क्या ख़याल है, अगर नानू ने नहीं, तो किसने दिए?”

और तभी नानू दिखाई देते हैं। अपने पुराने कत्थई सूट में, जैकेट खुला है, क्योंकि शायद पेट पर नहीं बैठता होगा; फीकी-पीली कैप नहीं थी, और नानू के बचे खुचे भूरे बाल किनारों पर हवा के कारण उड़ रहे थ; गंदे, शायद सूट से भी पुराने जूतों में नानू आ रहे हैं; चेहरे पर मुस्कुराहट है (उन्होंने दूर से ही मुझे और नानी को देख लिया था), जो अक्सर, दूसरे (लगभग सभी) लोगों के लिए होती थी, जो इस समय कम्पाऊण्ड में हैं और नानू से नमस्ते कह रहे हैं।

और मुझे अचानक इतनी ख़ुशी होने लगती है, कि मेरे नानू आ रहे हैं, और अब हम घर जाएँगे, और, हो सकता है, व्लादिक आ जाए, और नानू हमारे साथ ताश का खेल “बेवकूफ़” खेलेंगे! मतलब, मैं पूरे कम्पाऊण्ड में भागता हूँँ और पूरी ताकत से चिल्लाता हूँँ:

“ना-आ-नू!! पा-आ-लन-हार!!!पा-आ-आ-लनहार!”

कम्पाऊण्ड में मौजूद सारे लोग मुड़ते हैं; मैं नानू के कंधे पर उछलकर चढ़ जाता हूँ, और वो सिर्फ इतना ही दुहराते हैं: “अरे, शोर क्यों मचा रहा है? लोग हैं! लोग हैं! क्यों शोर मचा रहा है?!” (नानू न जाने क्यों हमेशा “शोर मचा रहा है” ही कहते हैं, तब भी, जब “चिल्ला रहा है” या “चिंघाड़ रहा है” कहना बेहतर होता।)     

फिर, जब हम सीढ़ियाँ चढ‌ रहे होते है, नानी नानू को समझाती है, कि उसीने मुझसे कहा था, कि नानू पालनहार हैं, न कि पर्तोस, मगर नानू अपनी ही स्टाइल में क्वैक-क्वैक करते हैं, कि “नानी के पास कोई काम-धाम नहीं है”।

और सुबह तो, आह सुबह! आख़िरकार वो हो जाता है,जिसका मैं कब से इंतज़ार कर रहा हूँ, मतलब, जिसका मुझसे काफ़ी पहले वादा किया गया था।

नानू मुझे सुबह छह बजे जगाते हैं और पूछते हैं कि क्या मैं उनके साथ उनके ऑफ़िस जाना चाहता हूँँ ,या अभी और सोना चाहता हूँँ। बेशक, मैं जाना चाहता हूँँ, फिर जब नानू ऑफ़िस जाने के लिए तैयार हो रहे होते है, तो मैं वैसे भी उठ ही जाता हूँँ, भले ही वो मुझे अपने साथ न ले जाएँ। और अब तो – ओहो! मैं बिस्तर से उठता नहीं , बल्कि उछलता हूँँ और तीन ही मिनट में मैं किचन में बैठ जाता हूँँ, इसलिए भी कि नानू को दिखाना चाहता हूँँ, कि जब समय आएगा और मुझे रोज़ ऑफ़िस जाना पड़ेगमैं सब कुछ ठीक-ठाक कर लूँगा, बगैर किसी परेशानी के।

हमारे लोकल स्मोलेन्स्क रेडियो के प्रोग्राम एक के बाद एक चलते रहते हैं, ऐसे जैसे “अनाज काफ़ी मात्रा में होगा”, "बच्चे पहले के मुकाबले ज़्यादा अच्छी तरह आराम करते हैं"; फ्राइंग पैन पर हर तरफ़ मक्खन चटचटा रहा है और उड़ रहा है। फ्रिज में से हर चीज़ बाहर निकाल ली गई है , क्योंकि नानी को लगता है, कि हम शायद वो चीज़ भी चखना चाहेंगे, जिससे इन्कार कर चुके हैं (हालाँकि उसे ये भी मालूम है, कि हमारी 13 नंबर की बस पंद्रह मिनट बाद जाने वाली है), - ये मैं और नानू नाश्ता कर रहे हैं। मुझे अचरज होता है, कि नानी इसी फ्राइंग पैन पर हर चीज़ कैसे कर सकती है , जहाँ से चारों तरफ़ और उसके हाथों पर भी गरम मख्खन उछल रहा है,और वो ऐसा भी नहीं दिखाती कि उसे डर लग रहा है या दर्द हो रहा है, और फिर मैं फ्राइड अण्डा खाता हूँँ, ठीक उसी तरह, जैसे नानू अण्डे की ज़र्दी फ़ैलाते हैं , जिससे बाद में उसे ब्लैक-ब्रेड के टुकडे से प्लेट से इकट्ठा कर सकें। 

और बस में, और ट्राम में नानू अपने परिचितों से मिलते हैं और मेरी तरफ़ इशारा करते हुए सबको बताते हैं: “ये मेरा छोटा वाला है”।

एक तरफ़ से तो मुझे फ़ार्मास्यूटिकल गोदाम काफ़ी गंदा, बिखरा-बिखरा और जर्जर लगता है, मगर दूसरी तरफ़ मुझे ये भी लगता है – यही बिखरापन, इधर-उधर पडी हुई इंजेक्शन की छोटी-छोटी बोतलें, चीथड़े , कागज़ और हर तरह का कचरा, ये ही तो आपको सोचने पर मजबूर करता है, कि फ़ार्मास्यूटिकल-गोदाम में गंभीर किस्म का काम होता है।

ज़रूरी फ़ोन करने के बाद , नानू मुझे अपने साथ ये चेक करने के लिए ले जाते हैं, कि ट्रक्स ठीक से तो काम कर रहे हैं। मज़दूर लोग किसी इवान का इंतज़ार कर रहे हैं जिसके बगैर काम शुरू नहीं हो सकता, और जब नानू को ये पता चलता है कि इवान अभी तक नहीं आया है, अपने मातहतों को समझाते हैं कि असल में ये इवान कौन है। वो ऐसे शब्दों से समझाते हैं, जिनको मुझे अपने नानू से सुनने की ज़रा भी उम्मीद नहीं थी। मगर पहली बात , मज़दूर राज़ी हो जाते हैंऔर दूसरी बात, मुझे ख़ुद को भी अच्छा लगता है , कि मेरे नानू ऐसे शब्दों का इस्तेमाल भी कर सकते हैं। मैं तो, ईमानदारी से, काफ़ी पहले से उन्हें जानता हूँँ।

और आख़िर में जब मैं फ़ार्मास्यूटिकल-गोदाम में थक जाता हूँ तो इस गोदाम के डाइरेक्टर, याने कि मेरे नानू, मुझे ट्राम में बिठाकर घर भेज देते हैं। उसमें क्या है? “जुबिली” स्टॉप तक जाऊँगा, और वहाँ से पाँच मिनट पैदल – बस, मैं घर पहुँच जाऊँगा।


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