मिर्ज़ा के नाम ख़त
मिर्ज़ा के नाम ख़त
मिर्ज़ा, तुम कितनी अच्छी कवितायेँ, गजलें,और नज्में लिखा करते थे। तुम्हारी रचना जो अखबारों में छपती थी, मैं उसे अपने दिल के कोनों में इस कदर छुपा लेती थी, मानो वह मेरे दिल का ही अधूरा हिस्सा हो। तुम्हारी सारी रचनायें मैंने आज भी अपने पास रखीं है, मुझे न तो कविता पसंद थी और न हीं गज़लें या शायरी। मुझे तो ये सब लिखना भी नहीं आता था, एक विज्ञान की छात्रा थी इसलिए शायद कभी समझ ही नहीं पाई पर सिर्फ तुमने हीं मेरी जिंदगी बदल दी।
जब मैंने तुम्हें पहली बार देखा था, उस वक़्त तुम भीड़ से घिरे थे और अपनी कवितायेँ सुना रहे थे और सारी भीड़ वाह, वाह, सुभान अल्लाह किये जा रही थी। तुम हमेशा खुश रहते थे, रौनक और तुम्हारा ख़ास रिश्ता था। तुम जहां रौनक वहां, मैं तो हमेशा खुद में ही सिमटी रहती थी। तुम्हे देखकर और सुनकर मैंने लिखना शुरू किया था। पर मुझे कभी हिम्मत नहीं हुई कि मैं किसी को भी सुनाऊ, सच कहूँ तो मन करता था कि अपनी सारी रचनायें तुम्हें दिखाऊ और अपनी तारीफ़ सुनु। पर अपनी सारी कवितायेँ, गज़लें आदि मैं अलमारी के सबसे नीचे वाले जगह में छिपाकर रखती थी ताकि किसी की भी नज़र न पड़े क्योंकि मुझे लिखना ही नहीं आता था।
उस दिन मैं कैंटीन में बैठकर कविता लिख रही थी तो तुम्हारे मुंह से वाह सुनकर मैं सचमुच घबरा गई थी, पर अपनी तारीफ़ तुमसे सुनकर, जिससे मैं बेईंतहा मोहब्बत करने लगी थी, मैं शर्मा भी गई थी बिलकुल गुलाबी-सी।
उसके बाद ही हमारी बातों का सिलसिला शुरू हुआ था, मैं तुम्हें दिनभर सुनती थी और मेरी लेखनी, सिर्फ तुम्हारी बदौलत ही सुधरने लगी थी। छंद-अलंकार, रचना सभी की समझ मुझे तुमसे मिली, मुझे ये पल बहुत भा रहे थे। जब मेरी कविता अख़बार में आई,तो मैं दावे के साथ कह सकती थी , की सबसे ज्यादा ख़ुशी तुम्हें ही हुई थी और तुमने मुझसे कहा था,”श्रद्धा अभी तो तुम्हे और आगे जाना है”।
तुम्हारे साथ जीवन बिताने का निर्णय मैं ले चुकी थी, सबसे बगावत करके आखिरकार मैंने तुम्हें अपना जीवन साथी बना ही लिया था। हमारा जीवन मखमली चादर के तरह था, जिसमे कोई सिलवट या दाग नहीं थे। मुझे तुमसे एक प्यारा उपहार मिला ”दुआ” हमारा बेटा जिसने हमें जीने का एक नया नज़रिया दिया। सबकुछ कितना अच्छा चल रहा था, मानो एक सुंदर ख़्वाब। पर ख्वाबों के तकदीर में टूटना ही लिखा होता है क्योंकि उनका कोई वजूद नहीं होता।
हर रोज़ की तरह आज भी तुम अपने काम पर गये थे, अपने बेटे को दुलार कर और वापस आने का वादा देकर। पर तुमने अपना वादा पूरा नहीं किया, तुम नहीं आए और आए भी तो बेजान, निढाल जिस मिर्ज़ा को मैं जानती थी वह वो मिर्ज़ा नहीं था। जिसके आते ही चारों ओर खुशहाली होती थी। वहां आज खामोशी थी। तुम्हारे दोस्त ने बताया, कि कैसे तुमने दूसरे राहगीरों को बचाने के लिए अपनी जान दे दी। क्यों मिर्ज़ा क्यों, क्या तुम्हारी जान की कोई कीमत नहीं थी? तुम्हें हमारा ख्याल नहीं आया, पर तुमने अस्पताल में बेहोश हालत में भी अपनी जिंदगी की जंग जीतने की कोशिश की होगी, ये मैं जानती हूँ क्योंकि तुम भागने वालों में से नहीं थे। जब हमारे प्यार पर सवाल खड़े किये जा रहे थे तब तुम भी मेरे साथ खड़े थे, तुम भागे नहीं थे। पर किस्मत, शायद हर ख़ुशी का हिसाब मांग रही थी और तुम चले गये, मैं तुम्हे रोक नहीं पाई मिर्ज़ा...
तुम्हारे गुजरे आज दो साल हो गये, सच कहूँ तो मेरी भी जीने की कोई चाहत नहीं थी, पर तुम्हारे यादों के सहारे धीरे-धीरे जीना सीख रही हूँ। तुम पर गुस्सा भी करती हूँ कि जीवन भर साथ देने का वादा तुमने बीच में हीं क्यों तोड़ा। हर रोज़ दुआ के सवालों का जवाब देती हूँ और आंसुओं के सैलाब को बहने से रोक लेती हूँ, मैं दुआ के सामने मजबूत रहना चाहती हूँ।
मेरी रचना के हर शब्द में तुम हो, मिर्ज़ा हर साँस, हर पल तुम्हारा है और तुम्हारा ही रहेगा। मैं तुम्हे अपने अंदर महसूस करती हूँ और लिखती हूँ। तुम्हारी बात मुझे आज भी याद है ”तुम्हे और आगे जाना है”। एक वह दिन था और एक आज का दिन है, वही हवाएँ हैं, वही सूरज है अगर कुछ बदला है तो वह वक़्त है। वक़्त का तो काम ही बदलना है।
मैं तुम्हे ख़त लिखती रहूंगी की शायद तुम्हारा जवाब आ जाए या तुम वापस आ जाओ। लेखक कभी मरते नहीं, उनके शब्द उन्हें अमर बना देते है मिर्ज़ा....
ख़ुशियों के पल कम हैं, आओ उन्हें समेट लेते हैं
वक़्त को न कोस कर, सारा जहाँ ख़ुशियों से भर देते है
प्यार की शमा जलाए, ये जीवन तुम्हारी याद में गुजार देते है।