बंद पड़ी पुरानी घड़ी
बंद पड़ी पुरानी घड़ी
मैं बंद पड़ी पुरानी घड़ी हूँ, किसी घर के दीवार पर चुपचाप स्थिर सहमा लटका हूँ। हर किसी का अपना नज़रिया है मुझे देखने का। दोस्तों, कोई मुझे पसंद करता तो कोई नापसंद।
कोई कहता कि यह बहुत अच्छी घड़ी है, इसे यूं बन्द न रहने दो !लगाओ इसमें कोई बैटरी और चालू कर दो इसे फिर से...।
कोई मुझे देख कहता अब क्या इसे लटका रखा है ! ये पुरानी हो चुकी है, अब इसमें नई ऊर्जा को भरना निरर्थक है। उतार दो इसे !
मैं ये सुनकर डर जाता हूँ !
कभी - कभी तो हद हो जाती है मित्रों, जब कोई मुझे अपशगुन का कारण तक बता देता है। मैं निराश होता हूँ पर रो नहीं पाता, निर्जीव और ऊर्जाविहीन हूँ न।
मैं खुद को अब उद्देश्यविहीन महसूस करता हूँ।
एक समय था, मैं भी जवान था। मेरी अपनी एक अहमियत थी लोगों के बीच। मुझे देख लोग सुबह की शुरुआत करते, हर काम की अनुमति मुझे देखकर होती थी। शगुन - अपशगुन का निर्धारण मेरी अवस्था से होता था।
कभी - कभी तो भरोसा नहीं होता कि क्या मैं वही हूँ ? किसे ज़िम्मेदार कहूँ इस सब के लिए ? खुद को ? या उनको जिनकी सभी यादों को मैंने संभालकर रखा है ? जिनके बीते हुए पल का मैं सबूत हूँ !
छिपकलियाँ अक्सर आज कल कीटों को मार मेरे पीछे छिप जाती हैं। मुझे ये ठीक न लगता कि कोई हिंसा कर मेरे पीछे छिपे ! पर क्या करूँ, ऊर्जाविहीन हूँ तो बोल नहीं सकता।
कल एक नई घड़ी आई है। उसे बड़ा मान - दान मिल रहा है। वो बहुत इतरा रही है।
पर ये सब देखकर मैं हँसता हूँ। मेरे साथ भी ऐसा ही हुआ था। मेरे आने पर, पर आज क्या बीत रहा मुझ पर ये मैं ही जानता हूँ। बस एक ही अब आरज़ू है मेरी, मानता हूँ कि अब किसी काम का नहीं बचा मैं पर कुछ नहीं तो एक जगह दे दो मुझे। वहाँ मैं चुपचाप लटका रहूँगा। बदकिस्मती से ही सही, पर दो दफा सही वक्त बता दूंगा।
यूं उतार मत फेंको मुझे तुम लोग कचरों के ढेर में। कोई जगह न सही तो मुझे उस बूढ़े बाप या माँ के बिस्तर के ऊपर ही टाँग दो ए ज़माना, जिसकी हालत भी कुछ मेरी तरह हो रखी है।
हम दो एक दूसरे की बदकिस्मती देख न हँसते तो रोते सही पर जी लिया करेंगे।