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हिम स्पर्श - 37

हिम स्पर्श - 37

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37

एक सुंदर प्रभात के प्रथम प्रहर ने सो रहे जीत को जगा दिया। वह झूले से उठा, गगन को देखा। अभी भी थोड़ा अंधकार वहाँ रुका हुआ था। चंद्रमा स्मित कर रहा था। जीत ने चंद्रमा को स्मित दिया, जीत को अच्छा लगा। जीत ने चिंता नहीं की कि चंद्रमा ने उसके स्मित का क्या उत्तर दिया। वह सीधे चित्राधार के समीप गया और अपूर्ण रहे चित्र को पूरा करने में व्यसत हो गया।

“क्या तुम अपूर्ण हो ?” जीत ने चित्र को पूछा।

“थोड़े से रंग भर दो मुझ में, मैं पूर्ण हो जाऊँगा।“ जीत उसमें रंग भरने लगा।

समय के अनेक बिन्दु बरस गए। गगन में चंद्रमा कहीं नहीं था, ना अंधकार था। सूर्य उदय होने को तैयार था। प्रकाश अपने किरणों से धरती को देदीप्यमान करने को उत्सुक था।

जीत चित्राधार को छोड़कर झूले पर जा बैठा। अपने इस चित्र को अपनी कल्पना से भी अधिक सुंदर बनाने के विचार करने लगा। वह अपने विचारों में खो गया, कोई भिन्न जगत में चला गया।

वफ़ाई ने जागकर जब घड़ी देखी तो समय था 8:49। वह घर से बाहर आई।

जीत अभी भी अपने विश्व में था। उसने वफ़ाई की समीपता पर ध्यान नहीं दिया।

“श्रीमान चित्रकार, आप किस विश्व में हो ? विलंब के लिए क्षमा चाहती हूँ, तुम्हारा नींबू पानी तैयार है।“ वफ़ाई ने नींबू पानी भरे दोनों गिलास जीत के सामने रखे।

“ओ...ह...।” जीत अपने कल्पना के विश्व से लौटने का प्रयास करने लगा, सफल हुआ। उसने वफ़ाई पर तथा नींबू पानी पर एक दृष्टि डाली।

“ओह, पर्वत सुंदरी। नींबू रस लाने में आज पूरी सेंतालीस मिनिट का विलम्ब हुआ है।“

वफ़ाई ने कोई प्रतिभाव नहीं दिया। उसने जीत को एक गिलास दिया, स्मित भी। दूसरा गिलास उसने अपने अधरों से मिला दिया।

जीत ने वफ़ाई को ऊपर से नीचे तक देखा।

“वफ़ाई, तुम आज भिन्न दिख रही हो। क्या तुम अभी अभी जागी हो ? तुमने प्रभात की नमाज अदा नहीं की ? तुम्हें जगाने में अधिक विलंब हो गया...।“

“मुझे देखने वाली तुम्हारी आँखें बड़ी तेज है। मान गए जी।“ वफ़ाई ने जीत को छेड़ा।

“प्रशंसा करने के लिए धन्यवाद किन्तु मेरे प्रश्नों के तुमने उत्तर नहीं दिये।“

”देती हूँ ना मैं सारे प्रश्नों के उत्तर, मैं अभी अभी जागी हूँ। मैंने आज प्रभात वाली नमाज अदा नहीं की है। मैंने तुम्हारे सारे प्रश्नों के उत्तर दे दिये हैं, श्रीमान जीत जी।“ वफ़ाई हँसने लगी।

“अवश्य दिये हैं, किन्तु मेरे प्रश्न के अंदर छिपे प्रश्न के उत्तर नहीं दिये हैं तुमने। तुम मेरी बात समझ रही हो ना ?” जीत गंभीर था।

“प्रश्न के अंदर छिपे प्रश्न को मैं पढ़ सकती हूँ।“ वफ़ाई एक क्षण रुकी, गहन साँस ली, बोली,”कल रात्रि से मैं विचलित हूँ। पूरी रात्रि मैं उन बातों पर विचार करती रही जो हमने धर्म के विषय में की थी। रात्रि भर मैं जागती रही। रात्रि के अंतिम प्रहर होने पर मुझे निद्रा आई। यही कारण है कि मैं विलंब से जागी। मैं ...।” वफ़ाई रुकी। जीत उसे ध्यान से सुन रहा था। जीत की आँखें वफ़ाई को पूछ रही थी कि उसके पश्चात क्या हुआ ?

“स्वयं के साथ हुए संघर्ष के अंत में मैंने निश्चय कर लिया कि मैं अल्लाह की बंदगी नहीं करूँगी, मैं इस्लाम को नहीं मानूँगी। मैं किसी भी धर्म को नहीं मानूँगी। मैं अब नास्तिक हूँ...।”

“रुको, क्षण भर के लिए रुको।“ जीत ने वफ़ाई को रोका,”तुम जो कह रही हो उसका अर्थ तुम जानती हो ?”

“हाँ, मैं तुम्हारे विचारों से सहमत हूँ। मैं मेरा धर्म छोड़ रही हूँ। वास्तव में मैं सभी धर्म को छोड़ रही हूँ। अब मैं भी मुक्त आत्मा हूँ। मैंने उचित निर्णय लिया न, जीत ?’ वफ़ाई के अधरों पर शाश्वत स्मित था।

“नहीं, तुम पुन; असत्य के मार्ग पर हो। तुमने धर्म को बिना तर्क के धारण किया था। वह तुम्हारी प्रथम भूल थी। आज तुम धर्म को छोड़ रही हो, बिना किसी तर्क के, बिना किसी विश्लेषण के, बिना तुम्हारे धर्म के सिद्धांतों का अभ्यास किए। यह तुम दूसरी भूल करने जा रही हो। दोनों निर्णय अनुचित है। तुम्हें ऐसी भूल नहीं करनी चाहिए।“

“तुम्हारे विचार, तुम्हारे शब्द सुनने के पश्चात मैंने यह निर्णय लिया है। क्या मेरा यह निर्णय अनुचित है?”

“बिलकुल अनुचित है।“

“तुम कैसे कह सकते हो।”

“तीन कारण है। एक, क्या तुम्हें पूरा विश्वास है कि मेरे विचार सत्य है ? दो, यदि वह पूर्ण सत्य भी हो तो भी वह विचार तुमने मुझ से उधार लिए हैं। तुमने उस विचार को अपनी कसौटी पर कसा नहीं है। तीन, तुम्हारे धर्म के प्रति तुम्हारी आस्था क्या इतनी दुर्बल है कि मेरे कुछ शब्दों से वह क्षण में ही टूट जाए ?”

“तो मैं क्या करूँ ? इस क्षण तक मैं दृढ़ थी कि मुझे धर्म को छोड़ना है। अब, तुमने पुन: कुछ शब्द कह दिये और मैं दुविधा में पड़ गई। मेरी धारणा अनुचित हो गई। मैं क्या करूँ ? जीत, मेरा मार्गदर्शन करो।“ वफ़ाई ने करुणा व्यक्त की।

“वास्तविक समस्या यह है कि हमें कभी विचार करने की, प्रश्न करने की, संवाद करने की, तर्क रखने की, अपने मन से किसी बात का विश्लेषण करने की तथा स्वतंत्र रूप से निर्णय करने की शिक्षा नहीं दी गई। हमारे लिए यह सब कोई ओर कर रहा है और हम उसका अंधा अनुसरण करते हैं। बात धर्म की हो अथवा जीवन की, हमें यही सीखाया जाता है। हमें स्वतंत्र विचार करने की अनुमति नहीं है। हम किसी भीड़ का हिस्सा बनकर रह जाते हैं। भीड़ के पास ना तो विवेक होता है ना बुद्धि। तुम यह बात जानती हो ना ? हमें व्यक्ति बनना होगा, भीड़ का हिस्सा नहीं।“ जीत ने उत्साह से कहा।

“तुम चाहते क्या हो, जीत ?”

“यही कि तुम स्वयं विचार करो, अभ्यास करो, समझो और जो तुम समझी हो उस पर अपने ही तर्क से कसौटी करो। तत्पश्चात कोई निर्णय करो। यदि तुम्हें किसी ओर के विचार प्रभावित करते हैं तो उसका अर्थ है कि तुम मुक्त आत्मा नहीं हो, तुम स्वतंत्र नहीं हो। सबसे प्रथम स्वतंत्र बनो।“

“किन्तु यह तो अत्यंत लंबी प्रक्रिया है।“

“यह लंबी है क्यों कि हमें युगों से जमी हुई परतों को तोड़ना पड़ता है। यह कठिन है किन्तु असंभव नहीं।“

“तब तक क्या किया...?”

“यदि तुम अनिर्णायक हो तो जो स्थिति है उसे बनाए रखो। जब तक तुम नए विचारों से पूर्णत: संतुष्ट ना हो तब तक कुछ भी बदलना नहीं है। तुम्हें धर्म का व्यसन हो गया है। जन्म से जो व्यसन लागू हो गया है उसे ऐसे नहीं छोड़ सकते। तुम व्यसन बादल सकते हो किन्तु उसे छोड़ नहीं सकते। यह व्यसन तुम्हारे जीवन का हिस्सा बन चुका है। धर्म भी ऐसा ही हिस्सा है तुम्हारे जीवन का। व्यसन से सहज मुक्ति नहीं मिलती किन्तु तुम प्रयास कर सकते हो।“

“जीत, तुमने मेरे मन को अनेक विचारों से भर दिया है। मैं दुविधा से घिर गई हूँ।“ वफ़ाई ने घड़ी देखी,”नमाज का समय तो बीत गया। यह सब तुम्हारे कारण हुआ है, जीत।“

“नमाज से क्या तात्पर्य है तुम्हारा ? नमाज का उद्देश्य क्या है ?”

“अल्लाह की प्रार्थना करना, उसका धन्यवाद करना।“

“तो तुम्हारे अल्लाह अभी कोई अन्य कार्य में व्यस्त होंगे।”

“क्या ?”

“पूजा एवं प्रार्थना का कोई नियत समय नहीं होता। अत; तुम्हारी प्रथम नमाज का भी कोई विशेष समय नहीं होता। तुम अपनी प्रथम नमाज रात्रि में सोने से पहले भी अदा कर सकती हो।“

“मैं जब जब तुम्हारे शब्द सुनती हूँ, अधिक से अधिक दुविधा होती है और मैं अपनी मान्यताओं से दूर चली जाती हूँ। तुम विचार भंजक हो। तुमने मेरे धर्म के क़िले को नष्ट कर दिया है।”

“यदि ऐसा हुआ है तो मुझे मौन रहना होगा। मैं अब धर्म के विषय में कोई बात नहीं करूँगा।“

जीत मौन हो गया। वफ़ाई ने कुछ क्षण प्रतीक्षा की किन्तु जीत ने स्वयं के मौन को नहीं तोड़ा।

दुविधा के साथ वफ़ाई प्रथम नमाज अदा की। जीत उसे देखता रहा। वफ़ाई अधिक सुंदर, अधिक पवित्र, अधिक शाश्वत लग रही थी। नमाज के समय की प्रत्येक प्रक्रिया एवं प्रत्येक भावों में सुंदरता थी।

जीत वफ़ाई को पूर्ण राग से देखता रहा। वफ़ाई की प्रत्येक मुद्रा अनुपम थी, अनुराग से भरी थी। अपने मन में जीत ने वफ़ाई की अनेक आकृतियाँ रच दी, ह्रदय में बंद करके रख ली।

वफ़ाई ने नमाज पूर्ण की। उसने देखा कि जीत झूले पर मौन बैठा था। वफ़ाई ने उस मौन को भंग करने की चेष्टा नहीं की।


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