नीलकंठ
नीलकंठ
“बेटी, जा... तेरे बापू के आने का समय हो गया ,जल्दी से एक ग्लास शर्बत बना कर रख दे।”
“ ठीक है, माँ..।”
“बेटी, शर्बत में ज्यादा बर्फ नहीं डालना, बापू को जुकाम होते देर नहीं लगती।” किचन से ही प्रभा ने आवाज़ लगाई।
“अरे, माँ...बापू का तुम इतना ख्याल रखती हो...फिर आज चार लोगों के सामने बापू को खरी-खोटे तुमने क्यूँ सुनायी ? मुझे अच्छा नहीं लगा।”
“चुप रहो दीदी। बड़ी आई... बापू की सिफारिश करने, बापू भी माँ को कब छोड़ते ! जब देखो, लोगों के सामनेउसको डांटेते रहते हैं।” प्रशांत ने बड़ी बहन को पलटकर जवाब दिया।
“अरे.... फिर ! तुम दोनों भाई-बहन आपस में लड़ने लगे। जा..जल्दी से बापू को शर्बत लाकर दे। वो देख, बापू आ गये। “ पति को दरवाजे पर खड़े देखकर, प्रभा आहिस्ता से बोली।
“हाँ..हाँ.. मैंने सारी बातें सुन ली, बाहर तक सभी बातें स्पष्ट सुनाई दे रही थी। तुमलोग इतना भी नहीं सोचते, घर की बातें घर तक ही रहे।” मोहनलाल ऑफिस का बेग पत्नी के हाथ में थमाते हुए बोले।
“क्रोध में होश कहाँ रहता है किसी को !” प्रभा झट से बेग खोल, टिफिन बॉक्स निकाल, किचन की ओर जाने लगी।
"अरे,रुको भी...| बच्चों के साथ कुछ बातें हो जाय।" मोहनलाल, प्रभा का हाथ पकड़ कर बोले।
“देखो बच्चों, गृहस्थी की बातों को लेकर, पति-पत्नी के बीच नोकझोंक चलते रहता है। जिंदगी के सफर में सभी को नीलकंठ समान एक साथी की जरूरत पड़ती है। जहाँ हम बेहिचक मन की भरास निकाल कर खुद को हल्का महसूस कर सके।” मोहनलाल पत्नी की नजरों में झांकते हुए बोले।