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लंका की आग

लंका की आग

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राम: विभीषण...आओ लंका के सिंघासन पर बैठो और लंका का भविष्य बनाओ।

विभीषण: जो आपकी आज्ञा प्रभू।

विभीषण सिंघासन पर बैठता है और राम उसे तिलक लगा कर मुकुट पहनाते हैं।

राम: विभीषण मैं आज से आपको लंका का राजा घोषित करता हूँ।

सभी: राजा विभीषण की जय...राजा विभीषण की जय...।

राम: हम सभी को आशा है की आप लंका वासियों पर न्याय से उनकी भलाई और उन्नति के लिए राज्य करेंगे...।

विभीषण: मैं प्रतिज्ञा करता हूँ के न्याय और उन्नति के लिए लंका पर राज्य करूँगा।

तभी कुछ औरतों की मंच के पीछे से आवाज आती हैं, न्याय महाराज हमें न्याय चाहिए हमें न्याय चाहिए।

विभीषण: इन सब को अन्दर बुलाओ हम अपनी प्रजा को न्याय दिलाएंगे।

सभ औरतें मंच पर आतीं हैं और कहती हैं महाराज विभीषण की जय हो...महाराज हमें न्याय चाहिए।

विभीषण: बताइए किसने आप लोगों को दुखी किया है...हम आपको न्याय दिलाएंगे।

एक औरत: इस बन्दर ने हमारा घर जला दिया है...हमारे पति युद्ध मैं मारे गए...हमारे पास कोई घर नहीं है अब कौन बनाएगा हमारे बच्चों के लिए घर।

सुग्रीव: मैं तो सुग्रीव हूँ...मैंने थोड़ी ना लंका जलाई थी...वो तो हनुमान ने जलाई थी।

औरत: हमें क्या पता...तुम सारे बन्दर एक से तो लगते हो।

विभीषण: ठीक है ठीक है...हनुमान तुम पर आरोप है की तुमने इन लोगों के घर जला दिए हैं तुम अपने बचाव मैं क्या कहना चाहते हो।

हनुमान: इसमें मेरी कोई गलती नहीं है महाराज...रावण ने मेरी पूँछ मैं आग लगाई थी...लंका मैं इसी लिए आग लगी।

औरत: हमारे घरों मैं इसकी पूंछ से आग लगी...हमें इससे शिकायत है...न्याय महाराज हमें न्याय चाहिए।

हनुमान: मैं रावण से पूछना चाहता हूँ उसने मेरी पूँछ मैं आग लगाईं क्यों थी।

विभीषण: रावण से अब कैसे पूछोगे वो तो युद्ध मे मारा गया।

हनुमान: रावण क्यों नहीं आ सकता...प्रभु चाहें तो सब हो सकता है...प्रभु (राम से) कुछ करिए न प्रभु।

राम: हाँ हाँ...न्याय के लिए यह हो सकता है।

विभीषण: जैसी प्रभु की इच्छा...रावण को बुलाया जाए।

रावण प्रस्तुत हों...।

रावण: देशद्रोही मेरे साथ गद्दारी कर के मेरे ही सिंघासन पर बैठा है तुझे लज्जा नहीं आती...।

रावण विभीषण की तरफ जाता है और विभीषण राम के पीछे छुप जाता है।

विभीषण: मुझे बचाइए प्रभु।

रावण को सुग्रीव और पहरेदार पकड़ते हैं।

सुग्रीव: महाराज विभीषण वापस आ जाइये अब यह आपका कुछ नहीं बिगाड़ सकते।

विभीषण: एक क्षण ठहरो।

विभीषण सिंघासन के पीछे से एक तलवार निकलते है।

विभीषण: अब ठीक है।

पहरेदार: महाराज रावण शिव जी पर हाथ रखके कहिये जो कहेंगे सच कहेंगे और सच के सिवा कुछ नहीं कहेंगे।

रावण: ठीक है हम सच कहेंगे और सच के आलावा कुछ नहीं कहेंगे।

हनुमान: हे रावण आपको याद है कुछ दिन पहले आपने यहीं पर मेरी पूँछ जलाई थी ?

रावन: हाँ जलाई थी।

हनुमान: महाराज विभीषण देखिये महाराज रावन मानते हैं की इन्हों ने ही मेरी पूँछ जलाई थी और इसी लिए लंका जली।

विभीषण: लंका वासियों महाराज रावन अब आपके गवाह हैं पूछिए क्या पूछना है।

औरत: महाराज रावन बताइए आपने हनुमान की पूँछ क्यों जलाई थी ?

रावण: इस प्रश्न का उत्तर देने के लिए में हनुमान से कुछ प्रश्न करूँगा...हनुमान बताइए आप लंका निवासी हैं।

हनुमान: नहीं।

रावण: आपने लंका मैं आने से पहले किसी की अनुमति ली थी ?

हनुमान: अनुमति तो नहीं ली थी।

रावण: लंका का यह नियम है की कोई यहाँ बिना अनुमति के आये उसे दो साल काराग्रह मैं बंद करते हैं...पर हमारे काराग्रह का यह नियम भी है की जिसके पूँछ हो उसे वहाँ नहीं रखते...हमने इसीलिए इनकी पूँछ जलाई...पूँछ जलने के बाद इन्हें काराग्रह मैं ले जाना था पर यह हमारी सेना को चकमा दे कर भाग गए।

औरत: तो देखिये महाराज हनुमान की गलती की वजह से उनकी पूँछ मैं आग लगायी गयी और इसी लिए लंका मैं आग लगी हमें न्याय दिलाईये महाराज न्याय।

विभीषण: हनुमान आपको अपनी रक्षा में अब क्या कहना है।

हनुमान: मैं एक और गवाह बुलाना चाहता हूँ।

विभीषण: महाराज रावन आपका बहुत-बहुत धन्यवाद अब आप जा सकते हैं।

रावन: ठीक हैरावन जाने से पहले विभीषण की ओर देखता है और विभीषण भागने के लिए तैयार होता है पर पहरेदार उसे बाहर कर देते हैं।

हनुमान: अब में पांडवों की माँ कुंती को बुलाना चाहता हूँ।

विभीषण: अब कुंती कैसे आ सकती है…कुंती तो महाभारत में थीं उन्हें रामायण में कैसे ला सकते हैं।

हनुमान: प्रभु...।

राम: ठीक है न्याय के लिए यह भी हो सकता है।

विभीषण: जैसी प्रभु की इच्छा...कुंती को बुलाया जाए।

पहरेदार: कुंती प्रस्तुत हों...।

कुंती: प्रणाम श्री राम चन्द्र जी मेरे अहो भाग्य आपके दर्शन हुए।

पहरेदार: आप शिव जी पर हाथ रख कर कहिये जो कहेंगी सच कहेंगी और सच के सिवा कुछ नहीं कहेंगी।

कुंती: में सच कहूँगी और सच के सिवा कुछ नहीं कहूँगी।

हनुमान: माता कुंती आपका बहुत धन्यवाद आप यहाँ आईं...।

कुंती: जहाँ राम चन्द्र जी साक्षात् हों आप मुझे कभी भी बुला सकते हैं पवन पुत्र।

हनुमान: आपको याद है जब आप अपने बेटों के साथ वरनावत मेले में गयीं थीं।

कुंती: हाँ हाँ बिलकुल याद है...हमारे समय में वर्नावत विश्व का सबसे सुंदर शहर था।

हनुमान: सबको बताइए वहाँ क्या हुआ था।

कुंती: हम वर्नावत के सबसे सुंदर घर में ठहरे थे क्या भव्य महल था...सब तरह के सुख थे उसमें...लेकिन एक रात पुरोचन ने दुर्योधन के कहने पर उस घर में आग लगा दी।

हनुमान: आपको आग लगने से कुछ नुकसान हुआ।

कुंती: नहीं हमें तो बुद्धिमान विदुर ने पहले से सतर्क कर दिया था जब वो घर जला था हम उसमें थे ही नहीं।

हनुमान: आपने दुर्योधन को घर जलने का कोई दंड दिया था।

कुंती: मेरा महान बेटा युधिष्टिर बहुत दयालु था वो कभी किसी का बुरा नहीं सोच सकता था...नहीं उसने दुर्योधन को इसका कोई दंड नहीं दिया था।

हनुमान: इस बात पर ध्यान दिया जाये की दुर्योधन को कोई दंड नहीं मिला था और लंका में भी केवल घर जले थे किसी को कोई चोट नहीं लगी थी।

विभीषण: लंका वासियों माता कुंती अब आपकी गवाह हैं पूछिए क्या पूछना है।

औरत: माता कुंती, दुर्योधन ने जो घर जलाया था वो क्या आपका और आपके बेटों का था ?

कुंती: नहीं वो घर तो दुर्योधन का ही था।

औरत: तो दुर्योधन ने अपना ही घर जलवाया था।

कुंती: हाँ।

औरत: दुर्योधन को दंड नहीं दिया गया क्योंकि उसने अपना घर जलाया था...पर हनुमान ने तो हमारा घर जला दिया...उसे अवश्य दंड मिलना चाहिए।

विभीषण: हनुमान आपको माता कुंती से कुछ और पूछना है।

हनुमान: नहीं महाराज।

विभीषण: माता कुंती अब आप जा सकती है...तो हनुमान अब तुम अपनी रक्षा में क्या कहना चाहते हो।

हनुमान: मैं अब क्या करूँ समझ नहीं आता...प्रभु बचाइए मुझे।

राम: क्या यह प्रभु प्रभु लगा रखा है पवन पुत्र...आरोप तुम पर लगा है सोचो कुछ।

सीता: महाराज विभीषण में भी इस विषय में पवन पुत्र से कुछ पूछना चाहती हूँ।

विभीषण: पूछिए देवी सीता क्या पूछना चाहती है।

सीता: पवन पुत्र...एक बात बताइए...जब आपकी पूँछ में आग लगाईं गई तो आपने क्या किया।

हनुमान: करता क्या पूँछ में आग लगते ही इतना दर्द हुआ की में यहाँ से भागा।

सीता: आप भाग कर कहाँ जाना चाहते थे।

हनुमान: और कहाँ...मैं नदी में जाना चाहता था पूँछ की आग बुझाने।

सीता: यहाँ से नदी कितनी दूर है।

हनुमान: बहुत दूर है और आपने देखा होगा कितनी गलियों से जाना होता है।

सीता: आपको नदी तक पहुचने में बहुत देर लगी होगी।

हनुमान: हाँ देर तो लगी।

सीता: रास्ते में क्या हुआ बताइए सब को।

हनुमान: होता क्या गलियों में इतने लोग थे में सब से बचता हुआ जा रहा था की कुछ घरों में आग लग गई और देखते ही देखते महल के आस पास के सब घर जल गए।

सीता: महाराज विभीषण ध्यान दिया जाये की पवन पुत्र ने जान के आग नहीं लगाईं थी उनसे अनजाने में गलती हुई थी।

विभीषण: लंका वासियों आखिर हनुमान से गलती हुई थी...आपको अब भी उनसे शिकायत है।

औरत: किसी ने गलती ही हुई हो…पर महाराज हमारे घर तो फिर भी जले न...हमारे बच्चों को रहने को तो जगह चाहिए...यह मनहूस लंका में आया ही क्यों था।

हनुमान: मैं तो माता सीता की खोज में आया था महाराज।

औरत: पर आपको भेजा किसने था सीता को ढूँढने।

हनुमान: मुझे मेरे प्रभु ने लंका भेजा था और उनके लिए में कुछ भी कर सकता हूँ।

औरत: तो महाराज इस सब के जिम्मेदार श्री राम चन्द्र जी हुए...दंड उन्हे ही मिलना चाहिए।

सीता: लेकिन पवन पुत्र को इस लिए भेजा गया था क्योंकि रावन मुझे चुरा कर यहाँ ले आया था...न रावन मुझे चुराता और न ही पवन पुत्र यहाँ आते और न ही उनकी पूँछ जलाई जाती और न ही लंका में आग लगती।

विभीषण: और महाराज रावन तो चल बसे...।

सीता: पर महाराज जैसे आप रावन के वारिस हैं...वैसे उनकी गलतियों के जिम्मेदार भी आप ही हैं।

विभीषण: आखिर सारा आरोप न्यायधीश पर ही आ गया...ठीक है…हम भी पीछे नहीं रहेंगे....लंका की जितनी सेना बची है हम उन्हें आदेश देते हैं की वो हर जला हुआ घर जल्द बनायें।

औरतें: महाराज विभीषण की जय हो…महाराज विभीषण की जय हो।

सुग्रीव: महाराज में भी अपनी सारी वानर सेना को लंका के घर बनाने का आदेश देता हूँ...जब तक हर जला हुआ घर नहीं बन जाता कोई भी वापस आपने घर नहीं जायेगा।

औरतें: कपिराज सुग्रीव की जय...कपिराज सुग्रीव की जय।


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