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सुनहरे कुंडल

सुनहरे कुंडल

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इशोरी ने जैसे ही मनिहार (चूड़ियाँ बेचने वाले) की आवाज़ सुनी तो वो मन ही मन भगवान को अपनी गरीबी के लिऐ कोसने के साथ-साथ, मनिहार को भी इस वक़्त आ धमकने के लिऐ दो चार मोटी मोटी गाली देना नहीं भूली। “इस नासपीटे को भी आज ही मरना था? और चार-पाँच दिन न आता तो क्या बिगड़ जाता” कई महीनों से इशोरी अपनी छोटी बेटी काली को टाल रही थी कि अगले महीने कुंडल दिला देगी। “नाश जाऐ उस आवारा सुमन का, ना वो अपने सुनहरे कुंडल काली को इतरा इतरा कर दिखाती न काली कुंडल ख़रीदने की ज़िद पकड़कर बैठती।” काली का भी क्या दोष? बच्ची है बेचारी, ग्यारह साल कोई उम्र है समझदारी दिखाने की? हालाँकि घर की हालत उससे छुपी न थी लेकिन वो ये समझने के लिऐ अभी छोटी थी कि पिछले साल बड़ी बहन सावित्री के ब्याह के लिऐ लिया गया कर्ज़ा, अभी तक उतरना भी शुरू नहीं हुआ था और पाँच दिन बाद सावित्री के गोने की रस्म के लिए उसकी विधवा माँ ने किस तरह से पाँच सौ रुपये का उधार जुटाया है। सपने चादर के हिसाब से अपने पैर नहीं फैलाते, ये अलग बात है कि ज़रूरतें हमेशा सपनों के मुँह पर तमाचा मारती हैं। अब ऐसे में अगर काली कुंडल के लिऐ अड़ गई तो पचास साठ रुपये का चूना लग जायेगा। और काली की ज़िद? इसकी बात न मानी जाऐ तो पूरा गाँव सर पे उठा लेगी ये लड़की.. मनिहार ने घर आगे आकर ज़ोर से आवाज़ दी “चूड़ियाँ, कुंडल, बिछुए, बिंदी, लिपस्‍टिक कुछ लेना है बहन जी”? इशोरी घर से नहीं निकली, हाँ ये अच्छा तरीका है घर से निकलो ही मत। काली घर में है नहीं थोड़ी देर में ये मनिहार नाम की आफ़त अपने आप दफ़ा हो जाऐगी। तभी इशोरी ने ये देखकर माथा पीट लिया कि काली सुमन के साथ मनिहार के पास खड़ी कुंडल देख रही थी। अब तो तय था कि अगर नया बखेड़ा नहीं खड़ा करना है तो कुंडल दिलाने ही होंगे। लेकिन तभी बाहर की तरफ़ बढ़े इशोरी के कदम काली की ये आवाज़ सुनकर ठिठक गऐ कि “नहीं भैया कुछ नहीं चाहिऐ तुम जाओ” सुमन ने आश्चर्य से और इशोरी ने गर्व से काली को देखा। बुरा वक़्त इंसान को कितना समझदार और संतोषी बना देता है। घर के अन्दर ज़रूरतों के बोझ से दबा एक आँसू ज़मीन में छुपने की जगह तलाश रहा था और घर के बाहर एक जोड़ी पलकों की नमीं ललचाई नज़रों से पल पल दूर जाते, मटकते हुऐ सुनहरे कुंडल देख रही थी।


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