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चौपाल

चौपाल

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अ – क्या हुआ, क्यूँ गुमसुम सी हो ?

ब – कुछ नहीं, बस ऐसे ही, चौपाल जाना चाह रही थी पर चौपाल पर तो पहेरेदारी है, उन्होंने कुछ मानक तय कर लिए हैं, जो उसे साध ले वही जा पाए। हम तो अछूत जैसे हो गये।

अ- ऐसी कैसी चौपाल, चौपाल तो सबकी है, ये कौन है जो ऐसे कानून बनाये है ? तू मुझे पूरी बात बता हुआ क्या था ?

ब – लघुकथा के लिए बुलावा था, साथ में फरमान था कि मीन मेख निकालने के बाद ही चौपाल पर जगह मिलेगी, मैंने भी सोचा बहुत बड़े करतार हैं जो नियम बनायें होंगे भले के लिए होंगे और मुझे शैशव से यौवन की ओर ले जाने में मददगार होंगे। मैं चली तो गई, गेट पर जब तलाशी हुई तो उन्होंने बताया कि तू तो लघुकथा कम लगती है, कहानी जैसी ज़्यादा लग रही है। मैंने खूब परहेज़ किया - ठानी जो थी चौपाल पर जाने की, पर इस बार उन्होंने ये कह कर टाल दिया कि – बात कुछ बन नहीं रही है। ऐसे में मैं क्या बोलती ?

अ – फिर ?

ब – फिर क्या, मन में तो चौपाल पर जाने की उमंग लगी ही थी, जो वहां पहुंची, वहां हर शनिवार को एक नयी लघुकथा आती है, उनको निहारा कि ऐसा क्या है जो मुझमें ना दिखा विद्वान् पुरुष को ? उन पर की गई टिका - टिप्पणी को भी टटोला, मन में मेरे भी आया यहीं कुछ लिख दूँ पर हिम्मत दिखा ना पायी, ना जाने किस हीन भाव से ठहर गई ? वहां सब चौपलदार के हाँ में हाँ मिलाने वाले ज्यादा थे, सो डर गई जब उन्होंने ही टोक दिया तो यहाँ कुछ ऐसा वैसा हो गया तो। बड़े -बड़े आलोचक आते हैं इस चौपाल पर !

अ – अच्छा, क्या टिका -कटाक्ष करते हैं सब ?

ब – ज्यादातर तो तारीफ ही करते हैं शुरुआत में, फिर कोई तीखा बोल आता है...

अ - चौपालदार का ..

ब – उनका भी आ जाता है, फिर तो आगाज हो ही जाता है, कुछ नयापन नहीं है, भाषा की कसावट की कमी है, अंत और भी बेहतर हो सकता था, बीच में भटक सी गई ये लघुकथा, व्याकरण की विसंगति...

अ – बस भी कर, साहित्यक -विमर्श होता है वहां पर, ऐसा बोल देती...

ब – मैं क्या जानूंं साहित्य को ? मैं तो खुद को अभिव्यत करना ही सार्थक लेखन मानूं , जो है मेरे अन्दर, मेरे इर्द -गिर्द वो ही तो शब्दों में समेटूंं, अगर बुरा बन पड़े तो ये तो मेरे समाज, मेरी अंतस का बिम्ब है, जो है सो दिखे ! और एक बात क्यूँ पैवंद लगाकर वास्तविकता को समेटूं, मेरे चश्मे से जो दिखेगा वो किसी ना किसी विधा में तो आएगा ही !

अ – बहुत बड़बोला हो गई है, तू चौपाल का किस्सा सुना रही थी वो ही बता।

ब – मैं फिर गई थी चौपाल, इस बार पहले से सतर्क थी, नए कथानक के साथ और कुछ सिमटी सी गई।

अ- इस बार बात बनी !

ब – कुछ सकारात्मक ही नहीं लगा उनको इसमें, ना कुछ नया।मैंने अपनी बात रखी पर उन्होंने टिप्पणी दी कि ये सब मेरी रचना में उभर कर नहीं आ रहा है, और काम करो।

अ - साहित्य की दुनिया में प्रवेश ऐसे ही थोड़े हो जायेगा...

ब – साहित्य...! कबीर साहित्यकार ना थे, मंटो का क्या ? संस्कृत की गत देख लो, उर्दू भी उसी ढाल हो ली है, इनके जानिब हिंदी को हिन्दुस्तानी ने बचा लिया, अंग्रेजी ने भी थोड़ा सर क्या झुकाया आज सबके मत्थे चढ़ी है...!

अ - कहना क्या है वो बोल ज्यादा लाग लपेट मत !

ब - ये जो छुआछूत फ़ैल रहा है कि ये लिबास ना चलेगा, ये रंगत ना फबेगी इसको छोड़ना होगा, नहीं तो ये वैमनस्यता तो वजूद ही खतरे में डाल देगी...

अ - मतलब नए को हाथ आजमाने दो, पैतरें धीरे - धीरे ही धारधार होंगे पर कोई चौपाल ना मिलेगी तो कैसे !

ब – हाँ , हाँ यही मैं कहना चाहती हूँ।

अ - तू रहने दे, चौपालदार की मूछें ताव खा जाएँगी, फिर दोबारा उधर झाँकने की भी हिम्मत ना होगी।

ब - लिखो कि असर हो, आज़ादी से लिखो, जो द्रष्टा है पलकों में, उस सपने को लिखो, चौपाल मिले तो सही, ना मिले। फिर भी खुद को ज़ाहिर करने को लिखो !

अ – तो लिख, देखें क्या बदलेगी इस जड़ दुनिया को ? चौपाल को तो तू रहने ही दे !


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