शूरिक नाना के गाँव में
शूरिक नाना के गाँव में
गर्मियों में मैं और शूरिक नाना के गाँव गए। शूरिक – मेरा छोटा भाई है। वो अभी स्कूल नहीं जाता, और मैं तो पहली क्लास में भी चला गया। मगर वो ज़रा भी मेरी बात नहीं सुनता है...ख़ैर, कोई बात नहीं, नहीं सुनता तो न सुने! जब हम यहाँ पहुँचे, तो हमने फ़ौरन सारा आंगन छान मारा, सारे शेड्स और एटिक्स ढूँढ़ लिए। मुझे जैम की खाली काँच की बोतल और बूट-पॉलिश वाली लोहे की गोल डिब्बी मिली। और शूरिक को मिला दरवाज़े का पुराना हैंडिल और दाहिने पैर का बड़ा गलोश। फिर हम दोनों फिशिंग-रॉड (बंसी) के कारण शेड में ही एक दूसरे से उलझ पड़े। पहले मैंने देखा बंसी को और कहा:
”छोड़, मेरी है!”
शूरिक ने भी देखा और लगा चीख़ने:
“छोड़, मेरी है! छोड़, मेरी है!”
मैंने बंसी को पकड़ लिया, और वह भी उससे चिपक गया और लगा मुझसे छीनने। मुझे गुस्सा आ गया – कैसे खींचा मैंने बंसी को!...वो एक किनारे को उड़ा और गिरते-गिरते बचा। फिर बोला:
“तू क्या सोचता है, जैसे मुझे तेरी बंसी की बड़ी ज़रूरत है! मेरे पास तो गलोश है। ”
“बैठा रह अपने गलोश के साथ, पप्पी ले ले उसकी,” मैंने कहा, “ मेरे हाथ से बंसी खींचने की कोई ज़रूरत नहीं है। ”
मैंने शेड में फ़ावड़ा ढूँढ़ निकाला और चला ज़मीन से कीड़े निकालने, जिससे कि मछलियाँ पकड़ सकूँ, और शूरिक पहुँचा नानी के पास और माचिस माँगने लगा।
“तुझे क्यों चाहिए माचिस?” नानी ने पूछा।
“मैं,” वो बोला, “आँगन में आग जलाऊँगा, गलोश को उस पर रखूँगा, गलोश पिघल जाएगा, और उससे रबड़ मिलेगा। ”
“ये तूने कहाँ की सोची है!” नानी हाथ हिलाते हुए बोली। “तू अपनी शरारतों से पूरे घर को ही आग लगा देगा। नहीं, मेरे प्यारे, पूछ भी मत। ये आग से खेलना कहाँ का खेल है! मैं तो इस बारे में कुछ सुनना ही नहीं चाहती। ”
तब शूरिक ने दरवाज़े का हैंडिल लिया, जो उसे शेड में मिला था, उस पर एक रस्सी बांधी और रस्सी के दूसरे सिरे पर गलोश को बांध दिया। आँगन में घूमता है, रस्सी को हाथ में पकड़ता है, और गलोश उसके पीछे-पीछे ज़मीन पर चलता है। जहाँ वो – वहीं गलोश। मेरे पास आया, देखा कि मैं खोद कर कीड़े निकाल रहा हूँ, और बोला:
“कोशिश करने की कोई ज़रूरत नहीं है: वैसे भी कुछ मिलने वाला नहीं है। ”
“ऐसा क्यों?” मैंने पूछा।
“मैं मछली पर जादू कर दूँगा। ”
“प्लीज़, शौक से कर ले अपना जादू। ”
मैंने खोद-खोद कर कीड़े जमा किए, उन्हें डिबिया में रखा और तालाब की ओर चल पड़ा। तालाब आँगन के पीछे ही था – वहाँ, जहाँ कोल्ख़ोज़ का बाग़ शुरू होता है। मैंने काँटे पर एक कीड़ा लगाया, किनारे पर आराम से बैठ गया और बंसी को पानी में फेंका। बैठा हूँ और पानी की सतह पर नज़र रखे हुए हूँ। और शूरिक चुपके से पीछे से आया और गला फ़ाड़ कर चिल्लाने लगा:
जादू कर, जादूगरनी, जादू कर, ऐ जादूगर,
भूरे भालू, जादू कर!
जादू कर, जादूगरनी, जादू कर, ऐ जादूगर,
भूरे भालू, जादू कर!
मैंने फ़ैसला कर लिया कि ख़ामोश रहूँगा और कुछ भी नहीं कहूँगा, क्योंकि उसके साथ हमेशा ऐसा ही होता है: अगर कुछ कहने जाओ तो और भी बुरा हो जाता है।
आख़िर में उसका जादू पूरा हुआ, उसने तालाब में गलोश छोड़ी और लगा रस्सी से उसे खींचने। फिर उसने एक नई बात सोची: गलोश को तालाब के बीचोंबीच में फ़ेंकता है और उस पर पत्थर मारता है, जब तक कि वह डूब नहीं जाता, और फिर उसे तालाब की तली से रस्सी से बाहर खींचने लगता है।
पहले तो मैं चुपचाप बर्दाश्त करता रहा, मगर फिर मुझसे और बर्दाश्त नहीं हो सका:
“भाग जा यहाँ से!” मैं चिल्लाया। “तूने सारी मछलियों को डरा दिया!”
और वह जवाब देता है:
“फिर भी तू कुछ भी पकड़ नहीं पाएगा: मछली पर तो जादू हो चुका है। ”
और उसने फिर से गलोश तालाब के बीचोंबीच फेंका! मैं उछला, एक टहनी उठाई और उसकी ओर लपका। वो भागने लगा, और गलोश उसके पीछे-पीछे रस्सी से घिसट रहा है। मुश्किल से मेरे हाथ से छूट के भागा।
मैं वापस तालाब की ओर लौटा और फिर से मछली पकड़ने लगा। पकड़ रहा हूँ, पकड़ रहा हूँ...सूरज आसमान में ऊपर चढ़ गया, मगर मैं बस बैठा हूँ और पानी की सतह पर देखे जा रहा हूँ। मछली कीड़े को खाने के लिए मुँह ही नहीं खोलती, चाहे बंसी को कितना ही हिलाओ! शूरिक पर भुनभुनाता हूँ, उसे धुनकने का मन हो रहा है। ये बात नहीं कि मैंने उसके जादू पर विश्वास कर लिया, बल्कि मैं जानता हूँ कि अगर मैं मछली के बगैर गया तो वो मुझ पर हँसेगा। मैंने कितनी ही कोशिश कर ली: किनारे से दूर बंसी फेंकी, पास में भी फेंकी, गहराई में कांटा डाला...मगर कुछ भी नहीं मिला। मुझे भूख लगने लगी, मैं घर गया, अचानक सुनता हूँ कि कोई गेट पर कुछ ठोंक रहा है: बूम्-बूम्! बाख्-बाख्!”
गेट के पास जाता हूँ, देखता क्या हूँ कि ये तो शूरिक है। कहीं से हथौड़ा उठा लाया, कीलें भी लाया और फाटक पर दरवाज़े का हैंडिल ठोंक रहा है।
“ये तू किसलिए ठोंक रहा है?” मैंने पूछा।
उसने मुझे देखा, ख़ुश हो गया:
“हि-हि! मच्छीमार आ गया। तेरी मछली कहाँ है?”
मैंने कहा:
“ ये तू हैंडिल क्यों ठोंक रहा है? यहाँ तो एक हैंडिल पहले से ही है। ”
“कोई बात नहीं,” वो कहता है, “दोनों रहने दो। अचानक एक टूट जाए तो?”
हैंडिल ठोंका, मगर उसके पास एक कील बच गई। वो बड़ी देर तक सोचता रहा, कि इस कील से किया क्या जाए, उसे फाटक में यूँ ही ठोंक देने का मन किया, मगर उसने फिर से सोचा: गलोश को फाटक पे रखा, उसके तलवे को फाटक से चिपकाते हुए, और लगा उसे कील से मारने।
“और ये किसलिए?” मैंने पूछा।
“यूँ ही। ”
“बिल्कुल बेवकूफ़ी है,” मैंने कहा।
अचानक हम देखते क्या हैं --- नाना जी काम से लौट रहे हैं। शूरिक घबरा गया, वो गलोश को उखाड़ने लगा, मगर गलोश था कि उखड़ ही नहीं रहा था। तब वह उठा, गलोश को अपनी पीठ से छुपाते हुए खड़ा हो गया।
नाना जी नज़दीक आए और बोले:
“शाबाश, बच्चों! जैसे ही आए--- फ़ौरन काम पे लग गए ...ये फ़ाटक पे दूसरा हैंडिल ठोंकने की बात किसने सोची?”
“ये,” मैंने कहा, “शूरिक की हरकत है। ”
नाना जी बस बुदबुदाए।
“चलो, कोई बात नहीं,” उन्होंने कहा, “अब हमारे यहाँ दो-दो हैंडिल होंगे : एक ऊपर और एक नीचे। मान लो, अचानक कोई छोटा-सा आदमी आ जाता है। उसका हाथ ऊपर वाले हैंडिल तक नहीं पहुँचता, तो वो नीचे वाला हैंडिल पकड़ लेगा। ”
अब नाना जी की नज़र गलोश पर पड़ी:
“अब, ये और क्या है?”
मैं फी-फी करने लगा। ‘अच्छा हुआ,’ मैंने सोचा, ‘ अब शूरिक को नाना जी से डांट पड़ेगी। ’
शूरिक लाल हो गया, वो ख़ुद भी नहीं जानता था कि क्या जवाब दे।
और नानाजी ने कहा:
“ये क्या है? ये, शायद, लेटर-बॉक्स है। पोस्टमैन आयेगा, देखेगा, कि घर में कोई नहीं है, ख़त को गलोश में घुसा देगा और आगे बढ़ जाएगा। बड़ी अकलमन्दी का काम किया है। ”
“ये मैंने अपने आप ही सोचा!” शूरिक ने शेख़ी बघारी।
“क्या सचमुच?”
“बिल्कुल, क़सम, से!”
”शाबाश!” नाना जी ने हाथ हिलाए।
खाना खाते समय नानाजी हाथ हिला हिलाकर नानीजी को इस गलोश के बारे में बता रहे थे:
“मालूम है, कितना ज़हीन बच्चा है! इसने ऐसी बात सोची, जिस पर तुम यक़ीन ही नहीं करोगी! मालूम है, गलोश को फाटक पे, हाँ? मैं कब से कह रहा हूँ कि एक लेटर-बॉक्स ठोंकना चाहिए, मगर मैं इस बारे में सोच ही नहीं सका कि बस, सिर्फ़ एक गलोश ठोंक दो। ”
“बस, अब बस हो गया,” नानी हँसने लगी। “मैं लेटर-बॉक्स खरीद ही लूंगी, तब तक गलोश को ही वहाँ लटकने दो। ”
खाने के बाद शूरिक बाग में भाग गया, और नाना जी ने कहा:
“तो, शूरिक ने तो कमाल कर दिया, और निकोल्का, तूने भी शायद कुछ किया है। तू बता दे जल्दी से और नाना को ख़ुश कर दे। ”
“मैं,” मैंने कहा, “मछली पकड़ रहा था, मगर मछली फंसी ही नहीं। ”
“और तू कहाँ पकड़ रहा था मछली?”
“तालाब में। ”
“ए-ए-ए-,” नाना जी ने कहा,” वहाँ कहाँ से आई मछली? ये तालाब तो अभी हाल ही में खोदा गया है। उसमें अभी तक मेंढक भी नहीं आए हैं। और तू, मेरे प्यारे, आलस न कर, फ़ौरन नदी पर जा। वहाँ पुल के पास बहाव तेज़ है। इस तेज़ बहाव वाली जगह पे ही पकड़। ”
नानाजी काम पर चले गए, और मैंने बंसी उठाई और शूरिक से कहा:
“चल, नदी पे जाएँगे, मिलकर मछली पकडेंगे। ”
“आहा,” वह बोला, “डर गया! अब मक्खन लगा रहा है!”
“मैं क्यों मक्खन लगाने लगा?”
“जिससे कि मैं और जादू न कर दूँ। ”
“कर ले जादू,” मैंने कहा, “शौक से कर ले। ”
मैंने कीड़ों वाली डिब्बी ली, जैम वाली बोतल भी ली जिससे कि मछली उसमें डाल सकूँ, और चल पड़ा। शूरिक पीछे-पीछे आ रहा था।
हम नदी पर आए। मैं किनारे पर बैठ गया, पुल से कुछ ही दूर, जहाँ बहाव कुछ ज़्यादा तेज़ था, बंसी पाने में फेंकी।
और शूरिक मेरे आस-पास मंडरा रहा है और लगातार भुनभुनाए जा रहा है :
जादू कर, जादूगरनी, जादू कर, ऐ जादूगर,
भूरे भालू, जादू कर!
थोड़ी देर चुप रहता है, चुप रहता है और फिर से:
जादू कर, जादूगरनी, जादू कर, ऐ जादूगर,...
अचानक मछली कीड़े को काटती है, मैं फट् से बंसी खींचता हूँ! मछली हवा में पलट गई, काँटे से छिटक गई, किनारे पर गिरी और ठीक पानी के पास नाचने लगी।
शूरिक चिल्लाया:
“पकड़ उसे!”
मैं मछली की ओर लपका और लगा पकड़ने। मछली तो किनारे पर उलट-पुलट हो रही है, मगर शूरिक सीधे पेट के बल उस पर लपकता है, किसी भी तरह से पकड़ नहीं पाता; वह बस पानी में वापस छिटकने ही वाली थी।
आख़िर में उसने मछली को पकड़ लिया। मैं बोतल में पानी लाया, शूरिक ने उसे पानी में छोड़ दिया और देखने लगा।
“ये,” उसने कहा, “पेर्च है। क़सम से, पेर्च! देख रहा है न कैसी धारियाँ हैं उस पर। छोड़, ये मेरी है!”
“ठीक है, जाने दे, तेरी ही है। हम बहुत सारी मछलियाँ पकड़ेंगे। ”
उस दिन हम बड़ी देर तक मछलियाँ पकड़ते रहे। छह पेर्च मछलियाँ पकड़ीं, चार छोटी-छोटी मछलियाँ पकड़ीं और एक दूसरी किस्म की छोटी मछली भी पकड़ी।
वापस लौटते समय शूरिक ही हाथ में मछलियों वाली बोतल पकड़े रहा और मुझे उसे छूने भी नहीं दिया।
वो बड़ा ख़ुश था और उसे यह देखकर ज़रा भी बुरा नहीं लगा कि उसका गलोश ग़ायब हो गया है और उसकी जगह पे फ़ाटक पे एकदम नया नीला-नीला लेटर-बॉक्स टंगा है।
“जाने दे,” उसने कहा, “मेरे ख़याल से लेटर-बॉक्स गलोश से ज़्यादा अच्छा है। ”
उसने हाथ झटक दिया और फ़ौरन भागा नानी को मछलियाँ दिखाने। नानी ने हमारी खूब तारीफ़ की। और फिर मैंने उससे कहा:
“देख, देख रहा है; और तूने जादू किया था! तेरे जादू का कोई मतलब नहीं है। मैं तो जादू में विश्वास नहीं करता।
“ऊ!’ शूरिक ने कहा। “और, तू क्या सोचता है कि मैं विश्वास करता हूँ? वो तो सिर्फ अनपढ़ लोग और खूsssब बूढ़ी औरतें विश्वास करती हैं। ”
ऐसा कहकर उसने नानी को ख़ूब हँसा दिया, क्योंकि हमारी नानी थी तो खूsssब बूढ़ी, मगर वो भी जादू में विश्वास नहीं करती थी।