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बड़ी मालकिन

बड़ी मालकिन

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मै आज धरमपुरा वापस जा रही हूँ। धरमपुरा, इस जगह से मुझे बहुत ही चिढ़ है। इस जगह का नाम सुनते ही मेरे आज भी रौंगटे खड़े हो जाते हैं। गुस्से पर काबू नहीं रह पाता है। पर आज मेरे कदम वापस धरमपुरा की ओर मुड़ गये।


बड़ी मालकिन को तो मै कभी भुल नहीं सकती। मै क्या वहाँ पर रह-रहा कोई भी शक्स उन्हें और उनकी हुकूमत को नहीं भूल सकता। कहते हैं कि अंग्रेजों के बाद बस उनका ही बोल-बाला था। दूर-दूर से लोग उनके आगे नतमस्तक होते थे। नतमस्तक उनके सम्मान में नहीं बल्कि उनके डर से होते थे। सभी पर उनका ही कहर था।


मेरे बाबा उनके मुलाजिम थे। उनके सभी हुकुम की तामील करना उनकी जिम्मेदारी। मेरे बाबा उनके सबसे खास और विश्वसनीय मुलाजिमों में से एक थे। बड़ी मालकिन के सभी कानूनी और गैरकानूनी कार्यों में उनका विशेष योगदान होता था।


मै छोटी थी उस वक्त, जब बाबा के साथ बड़ी हवेली जाया करती थी। बड़ी हवेली, बड़ी मालकिन का राजशाही घराना था, जहाँ बड़ी मालकिन की हुकूमत चलती थी और मै वहीं एक कोने में खड़ी होकर उनके राजशाही रूतबे को बड़ी ही अचरज भरी निगाहों से देखती थी। उस वक्त बड़े मालिक की तबियत भी कुछ नासाज थी। उनके देखभाल की जिम्मेदारी भी बड़ी मालकिन नें मेरे बाबा को ही सौंप रखी थी।


बड़े मालिक, बड़ी मालकिन के स्वभाव से बिल्कुल ही उलट थे। बहुत ही मृदु, सौम्य और शांत स्वभाव, वहीं बड़ी मालकिन बहुत ही तेज, क्रूर और कटु शब्दों से परिपूर्ण।


बड़े-बड़े हकीमों, वैद्य सभी से उनकी चिकित्सा करायी जा रही थी, पर कोई भी सुधार हो नही रहा था। सभी उनके ठीक होने के लिए सुबह-शाम, दिन-रात ईश्वर से दुआ कर रहे थे। मगर कोई भी दुआ, कोई भी दवा उनके शरीर पर कार्य नहीं कर रही थी। ऐसा लग रहा था कि बड़े मालिक अब जीना ही नहीं चाहते, ये सोचते ही धरमपुरा के लोगों की रूह काँप जाती। क्योंकि धरमपुरा में ऐसा कोई भी शक्स नहीं था जिसने बड़ी मालकिन से कर्जा ना ले रखा हो या उसे चुका पाया हो। बड़ी मालकिन उसे वापस पाने के लिए कुछ भी कर गुजरने से पीछे नहीं हटती। इसलिए धरमपुरा के लोग उनकी लंबी आयु और स्वास्थ्य की मंगलकामना के लिए भगवान से दुआ माँग रहे थे।


बड़े मालिक के एक छोटे भाई और छोटी बहन भी थी। उनकी छोटी बहन यानी हमारी छोटी मालकिन का विवाह बड़ी मालकिन के भाई शंभू के साथ पहले ही संपन्न हो चुका था और छोटे भाई यानी छोटे मालिक जिन्हें बड़ी मालकिन नें धरमपुरा से दूर बाहर पढ़ने के लिए भेज दिया था।


बड़ी मालकिन का एक बेटा भी था आयुष, आयुष ही तो था बड़ी मालकिन का इकलौता सहारा। सबकुछ, बड़ी मालकिन के बाद उसका ही होने वाला था। इसलिए बड़ी मालकिन आयुष को अपनी आँखों से एक पल के लिए भी ओझल नहीं होने देती थी। जब भी कभी बाहर जाता तो उसके साथ बड़ी मालकिन का कोई ना कोई विश्वसनीय साथ जरूर जाता।


आयुष का स्वभाव भी बिल्कुल बड़े मालिक की ही तरह था, वो धरमपुरा के सभी लोगों से प्रेम करता था और धरमपुरा वासी उससे। वो उनकी ही तरह मृदु भाषी, शांत और सौम्यता से परिपूर्ण था। वो बड़ी मालकिन की तरह बिल्कुल भी नही बनना चाहता था। क्योंकि उसकी दिलचस्पी धरमपुरा में थी ही नहीं। वो भी छोटे मालिक की तरह धरमपुरा से दूर जाना चाहता था। ताकी वो अपनी खुद की पहचान बना सके। लेकिन बड़ी मालकिन ऐसा होने देना नहीं चाहती थी। वो उसे अपने सामने ही रखना चाहती थी और अपने जैसा बनाना चाहती थी। ताकी वो उनके ना रहने पर उनकी गद्दी संभाल सके।


कुछ दिनों बाद ही आयुष और मेरी गहरी दोस्ती हो गई। अब आयुष का ज्यादा से ज्यादा समय मेरे साथ ही गुजर रहा था जो बड़ी मालकिन को बिल्कुल भी नागवार था कि आयुष और मेरी दोस्ती और ज्यादा गहरी हो। इसलिए उन्होनें बाबा से साफ-साफ शब्दों में कह दिया था कि अब से वो मुझे बड़ी हवेली ना लेकर आएँ।


ऐसा आदेश पाकर बाबा मुझे लेकर और भी ज्यादा परेशान हो गये। क्योंकि उनके पीछे मेरा कोई भी नहीं था जिसके सहारे मुझे घर पर छोड़कर जाएँ। मै अपने बाबा की इकलौती संतान थी और माँ बचपन में ही गुजर गई थी। तब से अकेले ही बाबा नें मुझे संभाला। वो मेरे और मै उनकी अकेले ही एक दूसरे का सहारा थे। इसलिए बाबा मुझे अपने साथ बड़ी हवेली ले जाया करते थे।


मैं बाबा की परेशानी को भली-भांति समझ रही थी, लेकिन बड़ी मालकिन के कोप से भी परिचित थी। बाबा बड़ी मालकिन के आदेश की अवहेलना भी नहीं करना चाहते थे लेकिन मुझे घर पर अकेला भी किसके सहारे छोड़ते? ये बात उनको परेशान किये जा रही थी।


मै बाबा को और परेशान नहीं देख सकती थी, इसीलिए मैनें बाबा से कह दिया कि अब से मै आपके साथ बड़ी हवेली नहीं जाऊँगी। पड़ोस वाली कमला काकी के यहाँ ही रूकूँगी। ऐसा सुनकर बाबा के चेहरे पर असीम शांति के भाव उमड़ पड़े, जिसे मै बखूबी महसूस कर पा रही थी।


अगले दिन बाबा के जाने के बाद मै घर पर ही रूकी थी क्योंकि मैनें बाबा से झूठ कहा था कि मै कमला काकी के यहाँ जाऊँगी। उस समय मै बहुत अकेली थी और डर भी लग रहा था। लेकिन एक ही चिंता मुझे सता रही थी। बड़े मालिक की तबियत को लेकर। मै एक दो बार बाबा के साथ बड़े मालिक के कमरे में गई थी, उन्हें देखने के लिए। बहुत कमजोर से हो गये थे बड़े मालिक, कुछ भी, कोई भी दवा उन पर असर ही नहीं कर रही थी। वो तो ठीक से बोलना तो दूर, ठीक से बैठ भी नहीं पा रहे थे और जब तब बस उल्टियाँ। उनके उल्टियों से पूरे कमरे में गंध फैल गई थी। मुझसे उनकी और हालत देखी नहीं जा रही थी। इसलिए मै जल्दी से बाहर आ जाती। लेकिन घूम-घूमकर बस बड़े मालिक और उनकी बिगड़ती हालत ही सामने नजर आ जाती। धरमपुरा के लोग अब बस उनकी सलामती ही चाहते थे। क्योंकि एक वही थे जो धरमपुरा के लोगों से प्यार करते थे, उनको समझते थे। उनके लिए हर वक्त तैयार खड़े रहते थे। उनकी मदद के लिए वो हर मुमकिन कोशिश करते थे कि धरमपुरा के सभी लोग खुश रहें। पूरा धरमपुरा खुशहाली का जीवन जिए।


बाबा बताते थे, बड़े मालिक के शादी तक सब ठीक था। सभी खुश थे, बड़े मालिक भी स्वस्थ और दिखने में किसी सुंदर नौजवान से कम नहीं थे। धरमपुरा और दूर-दूर के गाँवों और शहरों की लड़कियाँ उनमें अपना जीवनसाथी देखती थीं। क्योंकि बड़े मालिक का स्वभाव, उनका गुणवान व्यक्तित्व जो उनको और भी अधिक प्रभावी बनाता था, उसके चर्चे चारों तरफ फैले थे। एक दिन अचानक धरमपुरा से दूर किसी गाँव से उनकी शादी के लिए रिश्ता आया। वो लड़की भी बिल्कुल बड़े मालिक की ही तरह मृदु सौम्य और शांत स्वभाव से परिपूर्ण थी लेकिन दिखने में बिल्कुल सामान्य सी दिखने वाली हम जैसी एक आम लड़की। लेकिन बड़े मालिक के मन को ना भा सकी, क्योंकि उनके मन को तो उनकी छोटी बहन रूपसी जो भा गई थी।


रूपसी जैसा नाम, वो उस नाम से भी ज्यादा खूबसूरत थी। उसकी खूबसूरती के चर्चे भी खूब थे। पलटकर जिसे भी देख लेती, वो उसके रंग में रंग जाता। हालांकि वो बाकी लड़कियों से थोड़ी अलग थी, लेकिन सुंदरता के मामले में सबसे दो कदम आगे। उसे देखने से ऐसा लगता था कि जैसे भगवान नें बड़ी फुरसत से बनाया हो उसे। उसकी कटीली आँखे, नुकीली सी-लंबी सी नाक, लंबा-चौड़ा मथ्था और उस पर एक अर्द्धचंद्रमा के आकार वाली बिंदी। गुलाबी से होंठ जो किसी पुष्प की पंखुड़ियाँ हो, छरहरा बदन, पतली-लंबी कमर, कानों के इतने लंबे झुमके कि जब हिले तो उसके झुमकों के घुंघरूओं से निकलने वाला संगीत में बस डूब जाओ। उसके पीछे भी कई लड़के दीवानों से खड़े थे। रूपसी का पूरे गाँव में कोई मुकाबला नहीं था। जैसे धरमपुरा की लड़कियाँ बड़े मालिक को अपने वर के रूप में देखती थी, ठीक वैसे ही उसके गाँव के सभी लड़के उसमें अपना जीवनसाथी तलाशते थे। लेकिन रूपसी की बड़ी बहन की शादी नहीं हुई थी, इसलिए रूपसी के माँ बाबा नें रूपसी का हाथ किसी के हाथ में नहीं दिया था।


मगर जब बड़े मालिक का रिश्ता रूपसी के लिए आया, तो रूपसी के माँ बाबा भी इस रिश्ते को मना नहीं कर पाये। इधर धरमपुरा के लोग भी बड़े मालिक की शादी तय होने की खुशी में बहुत खुश थे। क्योंकि उन्हें रूपसी के रूप में बड़ी मालकिन मिल गई थी, जो रूप के मामले में बिल्कुल बड़े मालिक के टक्कर की थीं। शादी की तैयारियाँ शुरू हो चुकी थीं और चारों तरफ बस शादी की गुँज सुनाई दे रही थी। बड़े मालिक के विवाह में बस एक हफ्ता बाकी था और पूरा धरमपुरा महलों की तरह सजा था। बड़ी हवेली से लेकर धरमपुरा के कोनों-कोनों तक उसे सजाने की जिम्मेदारी धरमपुरा के लोगों नें खुद पर ले रखी थी।


देखते-देखते वो दिन भी आ गया जिसका सभी को बेसब्री से इंतजार था। रूपसी हमारी बड़ी मालकिन के रूप में धरमपुरा में अपने कदम रख चुकी थीं। सभी जन उनके सम्मान में अपना शीश झुकाए खड़े थे और कुछ वृद्ध जन अपने दोनों हाथ ऊपर करके उनको आशीष देनें के लिए खड़े थे। ये देखकर बड़ी मालकिन कुपित हो गई और अपनी रौबीली आवाज में कहा हमें तुम्हारे आशीष की कोई आवश्यकता नही हैं। इन सभी की तरह अपनी नजरें नीचीं करो, अपने शीष झुकाओ।


बड़ी मालकिन के इस तरह के कथ्य को सुनकर वहाँ खड़े सभी जन दंग से रह गये। साथ में बड़े मालिक भी उन्हें अचरज भरीं निगाहों से देखनें लगे। फिर सोचा कि अभी शायद नयी हैं, थोड़ा समय लगेगा इन सबसे प्यार करने के लिए। ये सोचकर बड़े मालिक उन्हें लेकर आगे बढ़ गये। उस समय बड़े मालिक बड़ी मालकिन के प्रेम में वशीभूत थे। सो उन्होनें हाथ जोड़कर मन ही मन सब भूल जाने का निवेदन किया और बड़ी हवेली की तरफ बढ़ गये।


ये बड़ी मालकिन की धरमपुरा के लोगों के साथ पहली मुलाकात थी। रूपसी बड़ी हवेली पहुँच चुकी थी। रूपसी के रूप में अपनी बड़ी मालकिन पाकर धरमपुरा के लोग खुश भी थे और दुखी भी। लेकिन बड़े मालिक बड़ी मालकिन के रूप जाल में ऐसे उलझे थे कि वे धरमपुरा और उनकी तरफ की जिम्मेदारियों के प्रति कोई रूचि नहीं ले रहे थे। अगर कोई भी किसी कार्य के सिलसिले में उनसे मिलने आता तो उन्हें इंतजार करना पड़ता और ये इंतजार कब खत्म होता इसकी कोई समय सीमा नहीं थी। धीरे-धीरे धरमपुरा के कार्यों में बड़ी मालकिन दिलचस्पी लेने लगीं। अगर बड़े मालिक धरमपुरा के हित में कार्य करने जाते तो बड़ी मालकिन उन्हें किसी ना किसी बहाने से रोक लेतीं और उन्हें ये समझाती कि इन सबको अपने पैरों के नीचे रखना चाहिए सिर पर नहीं!


बड़े मालिक बड़ी मालकिन के रूपजाल में ऐसे फंसे थे कि खुद से कोई भी निर्णय लेने में अक्षम होते जा रहे थे। उन्हें बड़ी मालकिन की ही कही बातें सही लगने लगी थीं। जिन हाथों को रसोई संभालने की जिम्मेदारी लेनी चाहिए थी, उन हाथों नें धरमपुरा की गद्दी संभाल ली। जहाँ पर धरमपुरा के लोगों के दिलों में बड़ी हवेली और बड़े मालिक के प्रति सम्मान था, अब वहाँ पर उन लोगों के दिलों में खौफ और गुस्से नें जगह बना ली थी। जो बड़ी हवेली के पुराने कार्यकारी थे उनकी जगह नये कार्यकारी नियुक्त किये गये। जिसमें बाबा की भी उनके खास सेवक के रूप में नियुक्ति हुई।


बड़ी मालकिन के भाई को बड़े मालिक की बहन पसंद आ गई, तो उसके जिद के चलते बड़ी मालकिन नें छोटी मालकिन का विवाह अपने भाई से करा दिया। जो कि उन्हें रोज जलील करने से भी नहीं चूकता। जो छोटी मालकिन फूलों की सेज पर सोती थी अब उन्हें काटों की शैय्या पर सोना पड़ता था। उनका भाई हर रोज अय्याशी करता, कभी भी किसी को भी अपने साथ ले आता उसे उसकी असली जगह दिखाता, अपने पैरों तले रौंद डालता।


बड़े मालिक को अपनी छोटी बहन की ये दूर्दशा देखकर बड़ा दुख होता लेकिन अब वो बड़ी मालकिन का विरोध करनें में अक्षम हो चुके थे। अगर वो कुछ भी कहते, तो बड़ी मालकिन के कोप का भागीदार बनते और फिर बड़ी मालकिन पूरी बड़ी हवेली को अपने सिर पर उठा लेती। फिर सभी के सामने उन पर कोड़े बरसातीं और जब उनका गुस्सा शांत होता तो मलहम के नाम पर जाने कौन सी दवा खिला देती, जिससे उनकी तबियत बिगड़ जाती। उसके कुछ दिनों बाद ही बड़ी मालकिन गर्भवती हो गई और उन्होनें आयुष को जन्म दिया, जो कि मुझसे केवल २ साल बड़ा था।


बाबा बताते थे, कि बड़ी मालकिन नें बड़े मालिक की तरफ ध्यान देना बिल्कुल बंद कर दिया था। वो उन्हें एक कमरे के अंदर कैद करके रखती थी। आयुष से तो बड़े मालिक को मिलने की भी आज्ञा नहीं थी। आयुष कभी भी उस कमरे में जाने की कोशिश करता तो बड़ी मालकिन के गुस्से का कारण बनता। लेकिन बड़ी मालकिन आयुष से बहुत प्यार करती थी, इसलिए उस पर एक खरोंच भी नहीं आने दिया।


बड़े मालिक की स्थिति बहुत ही दयनीय हो चुकी थी। जो शरीर सूर्य के तेज के समान दमकता था आज उसी की हालत बहुत ही गंभीर हो गई थी। फिर अचानक खबर आई कि बड़े मालिक को लकवा मार गया है, पूरा शरीर जम सा गया है। ना तो अब वो बोलते सकते हैं, ना कह सकते हैं। उठने, बैठने,चलने में अक्षम हो चुके हैं। अब बस बिस्तर ही उनका सहारा बन गया है। लेकिन जब बड़े मालिक के हालत की जिम्मेदार खुद बड़ी मालकिन है, ये छोटे मालिक को पता चली तो उन्हें बड़ी मालकिन नें धरमपुरा से दूर भेज दिया। ताकी वे कभी लौटकर वापस ना आ सकें।


उसके बाद धीरे-धीरे एक-एक कर सबकुछ, सारी जमीन, सारी सम्पत्ति हड़प ली। सब कुछ अपने नाम पर कर लिया। बड़ी मालकिन का रूप अब और भी ज्यादा खौफनाक हो गया। लोग उनसे डरे सहमे से रहने लगे। सब कुछ खत्म-सा हो गया। बड़़े मालिक के विवाह के बाद जैसे खुशियों नें धरमपुरा का रास्ता ही भूला दिया हो। धरमपुरा वासी उनके कर्जदार होते चले गये। जो भी समय पर ना चुका पाता तो वो उन पर या तो कोड़़े बरसाती या फिर उनका सबकुछ हड़प लेती। लेकिन आयुष में उन सबको अपने बड़े मालिक की ही छवि दिखती जो उन सबको संत्वाना देने के लिए बहुत थी।


खट-खट की आवाज से मैनें दरवाजे की ओर देखा, तो आयुष अपने कुछ दोस्तों के साथ मेरे घर के दरवाजे पर खड़ा था। आयुष मेरे सामने खड़ा था, एक पल के लिए सब कुछ शांत था। चारों तरफ खामोशी ही खामोशी थी और मै वापस धरमपुरा के अंदर कदम रख चुकी थी। आयुष आज भी वैसा ही दिखता था, जैसा सालों पहले जब मैं उससे आखिरी बार मिली थी। जब मुझे बड़ी मालकिन नें हवेली में आने से मना किया था। उस दिन आयुष मेरे घर आया था मुझे ये बताने कि मै उसके लिए कितनी खास हूँ। लेकिन जब बड़ी मालकिन को ये पता चला कि आयुष मेरे घर आया था मुझसे मिलने तो बड़ी मालकिन बाबा को नौकरी से ही नही हमें भी धरमपुरा से बाहर निकाल दिया था। फिर बाद में पता चला था कि आयुष की शादी तय हो गई है किसी मयूरी से जो बड़ी मालकिन की ही कोई रिश्तेदार की बेटी थी। ये सुनकर मुझे धक्का लगा, पर बाबा को मै अभी अपने दिल का हाल नहीं बता सकती थी, सो मै सब भूलकर आगे बढ़ने का निर्णय लिया।


“हाय! मैथिली, अचानक से आयुष नें बात शुरू करने की पहल की। तुम अचानक वापस धरमपुरा में, क्यों? मतलब कैसे?, मतलब धरमपुरा में ऐसे अचानक आने का उद्देश्य? मतलब...” आयुष की जुबान मुझे देखकर लड़खड़ाने लगी थी। ऐसा लगा जैसे वो उसका साथ देने के लिए तैयार ही ना हो।


“हाँ वो मै, ऐक्चुली मैं, यहाँ, किसी काम से आयी हूँ!” जुबान तो मेरी लड़खड़ाने लगी थी उसे ऐसे अपने सामने दोबारा देखकर!


“बड़ी मालकिन कैसी हैं? ऐक्चुली सुनने में आया था कि उनकी तबियत काफी खाराब है”


“हाँ सही सुना है, माँ कई दिनों से बिस्तर पर हैं” आयुष नें बड़ी मालकिन की हालत के बारे में जो बताया मै चौंक गई थी, मुझे उसके ऐसे जवाब की बिल्कुल भी उम्मीद नहीं थी, फिर भी बात मैनें आगे बढ़ाई।


“काफी बदल गया है, धरमपुरा! मतलब काफी बदलाव आ गया है धरमपुरा में?” मै तो साथ में ये भी कहना चाह रही थी कि तुममें भी काफी बदलाव आ गया है, पर शब्द जुबान में अटक गये।


अब चौंकने की बारी उसकी थी “क्या, क्या बदलाव दिखा तुमको?


“कुछ नहीं, बस धरमपुरा और धरमपुरा के लोगों में कुछ बदलाव-सा आ गया है”


“तुम मिलीं, उन सबसे, यहाँ के लोगों से!” उसनें तुरंत ही मुझसे पूछा


“नहीं पर मिल लूँगी सबसे” मैनें अपने आप को संभाला।


फिर से खामाशी नें कुछ देर हम दोनों को जकड़ लिया।


“तुमने शादी कर ली?” अचानक खामोशी को तोड़ते हुए उसकी तरफ से ऐसा सवाल आया, जिसके बारे में सोचा ही नहीं था कि वो कभी मुझसे ये पूछेगा। “तुमने जवाब नहीं दिया, तुमनें शादी कर ली?”


“मयूरी, तुम्हारी पत्नी वो कैसी है? बड़ी हवेली पर है?”


मैनें भी उसके सवाल से बचने के लिए उसकी तरफ सवाल दागा।


“सवाल का जवाब सवाल नहीं होता, मैथिली। बताओ तुमनें शादी कर ली”


अब मै वहाँ और रूकना नहीं चाहती थी तो मै वहाँ से जाने लगी, तो उसने मेरा हाथ पकड़कर रोका


“मैथिली छोड़ो, उसे तुम, एक बार माँ को देखने भी नहीं चलोगी तुम!” उसने मेरा हाथ पकड़ा और बड़ी हवेली की तरफ ले जाने लगा।


सब कुछ बदल चुका था वहाँ, पूरा धरमपुरा और यहाँ के लोग सभी बदल गये थे। जो धरमपुरा और उसके लोग हमेशा एक-दूसरे की सहायता के लिए हमेशा खड़े रहते थे। आज वही लोग एक दूसरे को पानी तक नहीं पूछते हैं। ऐसा लगता है, जैसे यहाँ कोई किसी को जानता तक नहीं। सभी मतलबी और स्वार्थी हो गये हैं।


हम बड़ी हवेली पहुँच चुके थे। वहाँ की भी हवाओं में मै बदलाव महसूस कर रही थी। बस एक चीज नहीं बदली थी और वो थी बड़ी हवेली और वहाँ की सत्ता। अब भी यहाँ पर लोगों पर हुकूमत चलती थी। सब कुछ वैसे ही अपनी-अपनी जगह पर था, बड़ी मालकिन की वो कुर्सी जिस पर बैठकर बड़ी मालकिन हुकूमत करती थीं, अपनी जगह पर शान से खड़ी था।


यहाँ पर आज भी वही दीवान है, जो पहले हुआ करता था। जहाँ बड़ी मालकिन अपने सेवकों के साथ बैठकर राजसी कार्य करती थीं। यहाँ की दीवारें भी कहाँ बदली थीं, आज भी इन दीवारों से बड़ी मालकिन के रौबदार गूँज सुनाई पड़ती हैं। आज मुझे सब कुछ चलचित्र की तरह फिर से मेरी आँखों के सामनें उभर पड़ा था। लेकिन आज यहाँ सब शांत और चारों तरफ एकदम सन्नाटा था, बस दीवार पर टंगी घड़ी की सुईयों की टिक-टिक करती आवाज ही सुनाई दे रही थी। मै आज भी पहले की ही तरह सब कुछ अचरज से देख रही थी, जैसे सालों पहले देखा करती थी।


तभी अचानक मेरी नजर दीवार पर टंगी एक तस्वीर पर पड़ी, जिस पर एक स्त्री माला डाल रही थी। ये तस्वीर बड़े मालिक की थी।


बड़े मालिक, लेकिन कब? यानी धरमपुरा में जो बदलाव आया वो बड़े मालिक के देहांत के बाद आया। जानती थी। यही होगा। बड़े मालिक की जान बसती थी धरमपुरा और यहाँ के लोगों में और यहाँ के लोगों की बड़े मालिक में!


फिर मैनें उस स्त्री को गौर से देखा, थोड़ा दिमाग पर जोर डाला तो याद आया। अरे ये तो छोटी मालकिन हैं, बड़े मालिक की छोटी बहन। पर ये यहाँ और इनकी माँग का सिंदूर।


मेरे सामने छोटी मालकिन खड़ी थीं, मगर अब भी उनको लेकर मेरे मन में कई सवाल खड़े थे। आखिर छोटी मालकिन यहाँ कैसे? और वो बड़ी मालकिन के भाई के चुंगल से बचीं कैसे?


तभी मैनें अपनें कंधे पर किसी के हाथ की गर्माहट महसूस की। “क्या हुआ मैथिली? इन्हें तो तुम पहचान ही गयी होगी बुआ है मेरी!”


“और मामी भी है ना? “आयुष के जवाब पर मैनें तुरंत ही अपना सवाल दागा, इस उम्मीद से कि शायद इससे मेरे मन में उठ रहे सवालों का जवाब मिल जाए।


“हाँ पहले मेरी मामी थी पर अब मेरी केवल बुआ हैं। मेरे मामा और बुआ का तलाक हो चुका है। और अब कई सालों से यहीं रह रही हैं, हमारे साथ”


मै पूछना चाहती थी पर क्यों।।? मतलब कैसे तलाक हुआ इनका, मगर पूछ नहीं पायी, शायद मै उनके सामने ये सवाल पूछकर उनके पुराने घावों को ताजा नहीं करना चाहती थी। मैनें छोटी मालकिन को हाथ जोड़कर उनका अभिवादन किया।


मगर वो मुझे शायद अब भी नहीं पहचान पायीं थी, इसीलिए उन्होनें इशारों से आयुष से मेरा परिचय पूछा। तब जाकर उनको मै याद आयी। लेकिन मै उनके चेहरे पर छिपी उदासी को अच्छे से देख पा रही थी। उनके दर्द को खुद में महसूस कर रही थी। उनके जाते ही मै खुद को रोक नहीं पायी और अपने मन के उठ रहे सभी सवालों को आयुष के सामने खोलकर रख दिया कि छोटी मालकिन का तलाक हुआ कैसे? और वो किस प्रकार तुम्हारे मामा के चुंगल से बच पायीं?


मेरे सवाल सुनते ही एक पल के लिए आयुष खामोश हो गया। मैनें सोचा शायद मैनें उसके मामा के लिए कुछ गलत बोल दिया। लेकिन आखिर बोला भी क्या गलत मैनें?


उनके बारें में तो पूरा धरमपुरा जानता था कि वो कितना क्रूर और बुरा व्यक्ति है। छोटी मालकिन को कितनी यातनाएँ दी है उसनें। कितना परेशान किया है उनको, मारा-पीटा, गाली-गलौज यहाँ तक कि चंद पैसों के लिए उनकी आत्मा तक का सौदा कर दिया था उसनें और ऐसे व्यक्ति के लिए चुंगल शब्द बहुत छोटा है।


मैनें देखा, आयुष अब भी चुप है, शायद वो मुझे बताना ही नही चाहता।


“मैथिली, हाँ बुआ को मुझे उनके चुंगल से छुड़वाने में बड़ी मशक्कत करनीं पड़ी। बुआ को मामा रोज मारते-पीटते थे, इसको लेकर माँ बाबा के बीच बहस भी हो गई थी”


बाबा शब्द सुनकर मेरा चौंकना अप्रत्याशित तो नहीं था। “क्या तुम बड़े मालिक से मिले?”


मेरे इस सवाल नें आयुष को एक बार फिर मौन करा दिया और कुछ ही पलों में मैनें आयुष की आँखों में नमी महसूस की।


“हाँ मिला था बाबा से मै उनके देहांत से कुछ समय पहले। एक दिन उनके कमरे के बाहर से गुजर रहा था कि तभी माँ के चीखने की आवाज आयी। वो किसी के ऊपर चिल्ला रही थी और उनके कमरे के बाहर भी कोई नहीं था। सो मै चुप-चाप अंदर चला गया। उनकी हालत देखकर असामान्य ही मेरे आँखों से आँसू निकलने लगे। वो बिस्तर पर तितर-बितर अवस्था में पड़े हुए थे और माँ उन पर चिल्ला रही थीं। तब बातों ही बातों में पता चला कि वो मेरे बाबा हैं। बाबा उनसे कुछ कहने का प्रयास कर रहे थे लेकिन उनकी बीमारी के चलते वो ठीक से अपनी बात भी नहीं रख पा रहे थे। पर टूटे-फूटे शब्दों से बस इतना ही समझ आया कि मामला बुआ और मामा को लेकर था। सो मुझे समझने में देर ना लगी कि बाबा आखिर चाहते क्या हैं? फिर मै बिना किसी को कुछ बोले मामा के घर पहुँच गया। वहाँ पर जाकर देखा तो मामा बुआ को बिना किसी गलती के मार रहे थे और फिर बुआ को वहाँ पर खड़े किसी दूसरे व्यक्ति के हवाले कर दिया। मै ये सब देखकर और तिलमिला गया। गुस्सा तो था ही, पर अब वो गुस्सा क्रोध की अग्नि में तब्दील हो चुका था। मै बिना कुछ बोले बुआ को वहाँ से ले आया। लेकिन जब घर पहुँचा तो देखा पूरी बड़ी हवेली शोक में डूबी हुई थी। आगे जाकर देखा तो बाबा का पार्थिव शरीर यहीं इसी जगह पर पड़ा हुआ था।


बाबा के हृदय से भी नही लग पाया था मै। उनके प्यार से, बचपन से वंचित रहा और जब उनसे मिला, उनको पहली बार देखा, वो भी उनके आखिरी पल में। टूट गया था, मै तो उनको बता भी नहीं पाया कि मै उनका बेटा हूँ। लेकिन माँ, माँ पर तो जैसे किसी बात का असर ही नहीं हुआ था। बाबा का पार्थिव शरीर उनके सामने था और वो विलाप करने के बजाए पूरे श्रृंगार में यहाँ-वहाँ घूम रही थी। सब पर चिल्ला रही थीं। कैसे इतनी पत्थर दिल थी माँ?


कहते-कहते आयुष फूट पड़ा मेरे सामने और मै उसके सामने निःशब्द थी। कहती भी क्या उससे, बड़े मालिक के मौत का सदमा तो मुझे भी लगा था। लेकिन मन में एक सुकून था कि आखिरी वक्त में कम से कम आयुष बड़े मालिक से मिल तो पाया। ये तो जान पाया कि वो उसके बाबा हैं।


फिर माँ नें जब बुआ को देखा तो और हंगामा खड़ा कर दिया। उन्हें जलील करने लगी लेकिन फिर मुझसे भी नहीं रहा गया और मेरी माँ से काफी कहा-सुनी हुई। इतने में मामा भी आ चुके थे और माँ तो फिर से बुआ को उसी नर्क में भेजने जा रही थी क्योंकि मामा नें कहा कि मै बुआ को जबरन यहाँ ले आया हूँ और वो बुआ से बहुत प्यार करते हैं।


मेरे और मामा में भी काफी कहा-सुनी हुई। फिर मैनें बुआ के साथ मिलकर तय किया कि अब मामा के खिलाफ केस दायर करेंगी बुआ और फिर उसके बल पर उनसे तलाक लिया जाएगा। हुआ भी यही, मामा को अजीवन कारावास हो गई और बुआ को भी उनसे तलाक मिल गया।


ये सब सुनकर आज मै खुश थी, कि आयुष के कारण छोटी मालकिन आज इज्जत की जिंदगी जी रही हैं। लेकिन बड़े मालिक के जाने का दुख भी था, जिसके चलते पूरा धरमपुरा इतना बदल चुका था। आयुष की बातें सुनकर जैसे मेरे मन को असीम शांति मिल गई थी, कि तभी “मैथिली ये बताओ, तुम्हारे बाबा कैसे हैं?”


आयुष के इस सवाल नें मेरे घाव को फिर से हरा कर दिया था। कुछ देर के लिए मेरी आँखें बोझिल हो गई। आँसूओं का बोझ इतना था कि पलकें उठाई भी नहीं जा रही थी।


“बाबा अब नहीं रहे, धरमपुरा से निकाले जाने के बाद बाबा तो जैसे बाबा रहे ही नहीं। उनकी आत्मा तो उनके शरीर में थी ही नहीं। बड़ी मालकिन से वफादारी का ये परिणाम मिला था उनको। एक बेजान शरीर हो गये थे वो, ना कुछ खाने का होश था और ना कुछ खबर, हसँना, मुस्कुराना सब भूल गये थे। सब कुछ यहीं छूट गया था। बस हर वक्त चुप-चुप से रहते थे, मुझे तक भूल गये थे। धीरे-धीरे उनकी यही चुप्पी नें उनकी जान ले ली। बहुत कहा था मैनें बाबा से मुझे आपकी जरूरत है, आप वापस आ जाईये, हम फिर से पहले जैसे रहेंगे। लेकिन बाबा तब तक मुझसे दूर जा चुके थे। एक दिन जब मै उनके कमरे में पहुँचीं तो बाबा नीचे पड़े थे और जब मैं उनको हटाने के लिए गई, तब तक वो मृत्यु के आगोश में सो चुके थे। तब मेरे पास कोई नहीं था, जिस के कंधे पर सिर पर सिर कंधे पर सिर पर सिर रखकर मै रो सकूँ”


कहते कहते मैं भी भी फूट पड़ी। लेकिन आज मेरे पास एक कंधा था जिस पर मै सिर रखकर रो सकती थी। फिर अचानक आयुष की पत्नी मयूरी के बारे में सोचकर खुद को संतुलित कर लिया। उसके कुछ देर तक तक हम दोनों ही मौन थे।


“आयुष इतनी देर से मैं यहां बड़ी हवेली में हूँ, तुम्हारी पत्नी मयूरी दिखाई नहीं दी। जब मैं वहाँ थी तब एक दिन मुझे खबर मिली, तुम्हारी शादी तय हो गई है कहाँ है वो? शादी तो हो गई होगी ना अब तक?”


आयुष अब भी मौन था, शायद मुझसे नजरें चुरा रहा था। मैंने दोबारा पूछा, “आयुष मयूरी कहाँ है?”


“अगर वो होती तो तुमको अब तक दिख नहीं जाती”, आयुष नें मुस्कुराते हुए जवाब दिया।


मै मूक अवस्था में उसे देखने लगी, आयुष नें मेरे चेहरे पर अपनी नजरें गड़ा ली और फिर कहा “हाँ मैथिली ये बात सच है, कि मेरी शादी मयूरी से तय हुई थी। लेकिन मैंने शादी ही नहीं की, क्योंकि इस दिल में अब भी कोई खास है, जिसकी जगह मै किसी को नहीं दे सकता”


आयुष के खास शब्द का मतलब मैं शायद जानती थी या फिर नहीं जानना चाहती थी। मै अब चुप थी।


आयुष मेरी तरफ चोर नजरों से देख रहा था और मै उससे नजरें चुरा रही थी।


“क्या हुआ मैथिली तुम जानना नहीं चाहोगी वो खास कौन है? वो...”


आयुष आगे कुछ बोलता उससे पहले मैनें ही पूछ लिया कि “आयुष ये धरमपुरा के लोगों को आखिर हुआ क्या है? कैसे थे और अब कैसे हो गये हैं? किसी से किसी को कोई मतलब ही नहीं, बड़े मालिक के मौत के बाद यहाँ आखिर हुआ क्या है?”


“बाबा के देहांत के बाद बिल्कुल अकेला पड़ गया था और माँ तो और बुरी बन चुकी थी, इन सबके लिए। सभी के दिलों में जो माँ के प्रति खौफ था वो उनके प्रति आक्रोश में बदल गया था। माँ नें उन पर और जुल्म करना शुरू कर दिया क्योंकि जो पहले लोग उनके आगे डर से झुकते थे, उन लोगों नें अब झुकना बंद कर दिया जिससे माँ का गुस्सा बढ़ता गया। जिसका सितम उनके परिवार वालों को भुगतना पड़ता लेकिन उनकी मदद के लिए कोई भी दूसरा आगे नही आता और फिर धीरे-धीरे ये लोग एक दूसरे से कटने लगे। अब ऐसा लगा जैसे कोई पहचानता ही ना हो, एक दूसरे के सब खून के प्यासे हो गये” मैनें आयुष के बात के बीच में कहा।


“लेकिन माँ को ये सब खलने लगा। उनसे ये सब बर्दास्त नहीं हो रहा था। उन्हें अब ये महसूस होने लगा कि उनकी गलती के कारण धरमपुरा अब टूट रहा है। उन्हे अपनी गलती का पछतावा तो हुआ लेकिन अब कोई फायदा नही था, क्योंकि तब तक बहुत देर हो चुकी थी”


“मै तो बाबा की मौत के बाद से ही उनसे बोलना बंद कर दिया था, उनसे दूरी बना ली थी। लेकिन वो मेरे इस तरह के व्यवहार को नहीं सह पायी और अवसाद के अंतिम पड़ाव तक पहुँच गई। उनकी हालत इस कदर बिगड़ गयी कि बाबा की तरह वो भी उसी अवस्था में पहुँच गयी” कहते-कहते आयुष नें फिर से मौन का आवरण ओढ़ लिया।


“तो क्या तुमनें धरमपुरा को वापस संभालने की कोशिश नहीं की” मैनें उससे पलटकर प्रश्न पूछा।


“मैनें कोशिश की थी, लेकिन यहाँ के लोगों में इतना क्रोध था, बड़ी हवेली और हम सबके प्रति, कि उन्होनें मुझे फिर से ठीक करने का मौका ही नहीं दिया। मै सबको जोड़ना चाहता था, यहाँ को लोगों में जो खौफ, नफरत और गुस्से में बदल गया है उसे मिटाना चाहता था। लेकिन सब वापस से ठीक करने का मुझे किसी नें मौका ही नही दिया। बाबा के मौत के बाद माँ की सत्ता ही खत्म हो गई थी, क्योंकि लोगों नें उनका आदेश मानना ही बंदकर दिया था। धीरे-धीरे जो माँ के विश्वसनीय सेवक थे, उन लोगों नें भी माँ का साथ छोड़ दिया और सब अपने-अपने रास्ते हो गये”


आयुष की जुबानी, बड़ी मालकिन की सत्ता का खौफनाक अंत सुनकर और यहाँ के लोगों की ये दुर्दशा के बारे में जानकर मेरा दिल अब भी बहुत भारी था। लेकिन बड़ी मालकिन की अवस्था के बारे में सुनकर मन विचलित भी था।


मै सोच ही रही थी कि तभी, “मैथिली चलो माँ से मिल लो, एक बार माँ को देख लो” आयुष के कहने पर मै बड़ी मालकिन को देखने जाने के लिए तैयार हो गई।


तभी आयुष नें आगे चलते हुए पूछा “अच्छा मैथिली तुमने बताया नहीं, कि किस काम से तुम धरमपुरा वापस आई हो? बोलो मैथिली चुप क्यों हो चुप क्यों हो?, तुम्हारे वापस आने की वजह क्या है?” आयुष के बार-बार पूछने पर भी मैं चुप थी। बस चुपचाप बड़ी मालकिन के कैमरे की तरफ बढ़ी जा रही रही जा रही थी।


सामने बड़ी मालकिन का कमरा दिख रहा था, उनके कमरे की तरफ बढ़ते मेरे क़दमों की आहट सीधा मेरे धड़कनों में सुनाई दे रही थी। जिस हाल में आज धरमपुरा और यहां के लोग पहुंच गए उनकी जिम्मेदार भी तो खुद बड़ी मालकिन ही तो थी। तो फिर मैं क्यों जा रही हूँ उनको देखने, क्या जरूरत थी मुझे यहां वापस आने की। जहां से मुझे और मेरे बेगुनाह बाबा को जलील करके निकाला गया था। मेरा बस चलता तो तो मैं दोबारा कभी वापस नहीं आती लेकिन दिल तो कुछ और ही कह रहा था। आयुष नें बताया था कि उनको अपनी गलती का पछतावा है और इंसानियत भी तो कोई चीज होती है। है ना और मै यहाँ इंसानियत का ही फर्ज अदा करने आई हूँ। दिल और दिमाग में जंग छिड़ चुकी थी। जिसमें जीत भी दिल की यानी इंसानियत की हुई थी। मै बड़ी मालकिन के कमरे के बाहर खड़ी थी और गहरी साँस लेकर कमरे का दरवाजा खोला तो सामने बड़ी मालकिन अचेत अवस्था में पड़ी हुई थी। ना उनको खुद का होश था और ना अपने बेटे का और ना ही किसी और का। आज मुझे बड़ी मालकिन पर बड़ा तरस आ रहा था। जिनके आगे पीछे इनके सेवक घूमते थे, आज इन्हीं बड़ी मालकिन के आसपास भी कोई नहीं है। आज बड़ी मालकिन, एक कमरे में बिल्कुल अकेले। कोई भी उनकी तिमामदारी के लिए मौजूद नही है। मैनें जल्दी से अपना बॉक्स खोला और उसमें आला निकालकर चेक करने लगी।


आयुष मुझे ऐसे एक डॉक्टर के भेष में देखकर चकित था, मुझे उसकी हालत देखकर मंद-मंद हँसी आ गयी।


“आयुष इसमें इतना चौंकने वाली क्या बात है? तुम पूछ रहे थे कि मेरे यहाँ वापस आने की वजह क्या है? तो सुनो मै यहाँ बड़ी मालकिन की एक चिकित्सक के रूप में यहाँ आई हूँ। मुझे किसी ने यहाँ से मेरे फोन पर फोन लगाया था, फोन मेरी असिस्टेंट नें उठाया और बड़ी मालकिन के बीमार होनें की खबर दी जिसे सुनकर मै यहाँ आने के लिए मना नहीं कर पायी। सुबह की पहली ही गाड़ी से यहाँ आ गयी।


मैनें आयुष की हालत देखकर मुस्कुराते हुए कहा “अरे इतना भी मुँह मत खोलो, मक्खी घुस जाएगी” कहकर मै खिलखिला पड़ी।


“तो क्या तुम डॉक्टर मैथिली गौतम भट्टाचार्य हो” आयुष नें मुझसे पूछा


“हाँ भाई मै ही डॉ. मैथिली गौतम हूँ और ऐसे ही केसेस को हैंडिल करने में माहिर और मेरे पति डॉ गौतम भट्टाचार्य वो हार्ट स्पेशलिस्ट”


आयुष की बात पूरी होने से पहले ही मैनें अपना पूरा इंट्रो दे दिया। जितना भी उसके मन में सवाल था लगभग सारे सवाल का जवाब उसे मिल गया था। उसके बाद कुछ देर के लिए पूरे कमरे में सन्नाटा था, ना कुछ आयुष बोल रहा था और ना मै। मै बड़ी मालकिन को पूरी तरह से देखने के बाद कुछ ताकत की दवाएँ लिख दीं।


“आयुष ये मैनें फिलहाल के लिए कुछ ताकत की दवाएँ लिख दी हैं और इनका ब्लड सैंपल और कुछ टेस्ट कर लिए हैं। जिनकी रिपोर्ट देखने के बाद ही आगे कुछ और दवाएँ बता सकती हूँ। वैसे भी बड़ी मालकिन अभी बहुत कमजोर हैं तो इन्हें हर दो घंटों पर फलों का जूस और ये ताकत की दवाएँ देते रहना और हाँ तुम खुद ही देना,तो शायद बड़़ी मालकिन तुम्हारे प्यार और देखभाल से जल्दी ठीक हो जाएँगी”


“पर मैथिली तुम्हें पता है कि मै माँ से बिल्कुल भी बात नहीं करता। यहाँ आना तो दूर इनकी शक्ल भी नहीं देखता। वो तो तुम थी इसीलिए साथ आ गया”


“हाँ आयुष लेकिन तुमनें ही तो कहा कि बड़ी मालकिन को अब अपनी गलतियों का पछतावा है और वैसे भी वो तुम्हारी माँ है और अपनी माँ को इतना दुख तकलीफ देने का अधिकार तो तुम्हें भी नही हैं। अगर तुम ही इनकी गलतियों की सजा देने लगे, तो भगवान जी की जरूरत ही क्या है। इसलिए सब भूल जाओ और अपनी माँ की देखभाल करो। उनसे प्रेम करो, देखना वो जल्दी ही ठीक हो जाएँगी” कहकर मै वहाँ से जाने लगी तो आयुष नें पीछे से मुझे आवाज लगाई।


“मैथिली तुमने सही कहा, कि ये मेरे प्यार और देखभाल से बिल्कुल ठीक हो जाएँगी लेकिन क्या धरमपुरा के लोग पहले की तरह हो पायेंगे? क्या वे फिर से एक जुट हो पायेंगे? तुम तो एक डॉ. हो ना, तो बोलो वो ऐसी कौन सी दवा है जिससे ये सब फिर से एक हो जाएँगें। जो धरमपुरा आज टुकड़ों में बँट गये हैं, क्या वो उस दवा से वापस से एक हो पायेंगे। बोलो है कोई दवा जिससे ये धरमपुरा पहले जैसा धरमपुरा बन जाए?”


आयुष के इस सवाल से मेरे कदम वही जम गये थे। मै वहाँ मौन खड़ी थी, लेकिन दिमाग आयुष के सवाल का जवाब ढूँढ़नें में लगा था और फिर कहते-कहते आयुष मेरे सामने आकर खड़ा हो गया।


“बोलो मैथिली, बताओ कोई दवा है ऐसी जिससे ये सब फिर से एक हो जाए?”


“हाँ है एक दवा, मै जानता हूँ कि इसका सही ईलाज क्या है?” हम दोनों की ही नजरें आयुष के पीछे खड़े शक्स पर पड़ीं।


“गौतम आप!”


मै गौतम को देखकर चकित रह गई और मुझसे ज्यादा आयुष।


गौतम आपके पास इसका कौन सा ईलाज है?” मैनें गौतम से पूछा


“मैथिली तुमने मुझे बताया था कि तुम्हारी बड़ी मालकिन के आने से पहले सब कुछ कितना अच्छा था, सबके बीच कितना प्रेम था। लेकिन बड़े मालिक के बीमारी से लेकर उनके देहांत के बाद तक कैसे यहाँ के लोग उनके कर्जदार होते चले गये। जो नहीं थे उन्हें वो अपना कर्जदार बनाती चली गयीं और उनका सबकुछ हड़प लिया, है ना?”


फिर हम दोनों नें ही हाँ में सिर हिलाया। “तो मैथिली क्यों न आयुष उन सबका कर्ज चुका दे और उन्हें उनका सब कुछ वापस लौटा दे। तो शायद फिर से पहले जैसा हो जाए। हाँ जानता हूँ कि उनके जख्म बहुत गहरें हैं इतनी जल्दी नहीं भरेगा, लेकिन ऐसा कोई जख्म ही नही बना जिसकी कोई दवा ही ना बनी हो। इसलिए अगर आयुष भी बिल्कुल अपने बाबा की तरह उनके साथ वैसा ही व्यवहार करे और उनमें वही विश्वास फिर से जगाए जो कभी पहले हुआ करता था, तो सबकुछ ठीक हो सकता है। शायद ये जख्म भर सकता है और फिर से वही धरमपुरा बन सकता जो पहले था”


मै और आयुष एक दूसरे का मुँह देखने लगे। और फिर हम दोनों का ही चेहरा एक साथ खिल उठा। फिर मै और गौतम, आयुष के धरमपुरा के लोगों का कर्ज माफ करने तक और सब कुछ पहले जैसा होने तक वहीं बड़ी हवेली में ही रूके थे। धीरे-धीरे बड़ी मालकिन के स्वास्थ्य में भी सुधार दिखने लगा था और पूरा धरमपुरा फिर से एक जुट हो चुका था।


मै जिस मकसद से धरमपुरा वापस आई थी, अब वो भी पूरा हो चुका था और आज हम दोनों, मै और गौतम, हाथों में हाथ लिए वापस अपने घर की ओर लौट चले।


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