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Krishna Kaustubh Mishra

Children Inspirational

4.4  

Krishna Kaustubh Mishra

Children Inspirational

वफादार टाइगर

वफादार टाइगर

6 mins
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मुझे और मेरे अनुज ‘सौरभ’ का ज्यादातर बचपन कुत्ते के बच्चों के साथ खेलने और उनका दुलार करने में व्यतीत हुआ।हमारे गांव के उत्तरी छोर पर क्षत्रिय समाज के लोग रहते थे।जिनमें से एक थे ‘गूंगे सिंह’।उनके इस मायावी नाम के पीछे का रहस्य और भी मायावी है।उन्होंने अपने ज़िन्दगी की पहली शाब्दिक किलकारी 20 वें वर्ष में मारी थी, अतःएव उनका नाम पड़ा गूंगे सिंह।मजबूत कद काठी के एक सज्जन पुरुष, जिनका लगाव हमारे घर से बहुत था।वो भी कुत्तों के शौकीन व्यक्ति थे, उन्हें तब तक चैन न पड़ता था जब तक उनके द्वार पर 2-4 कुत्तों की फौज न जमा होती हो। बड़े कुत्तों के साथ कुछ एक छोटे बच्चों का झुंड उनके कुत्तों वाले घर को चार चांद लगाते थे।हमें उनके घर से विशेष लगाव था, क्योंकि गांव में एक ही ऐसा घर था जहाँ पर कुत्तों की इतनी पूछ थी वरना कुत्तों को पालने वाले और भी लोग थे जिनके यहां बिचारे कुत्ते दो वक्त की रोटी को भी मोहताज़ थे।हम रोज़ सुबह ही गूंगे सिंह के यहां इतनी सुबह पहुंच जाते थे कि उनके घर लोग नित्य क्रिया से भी विमुक्त नही हो पाते रहे होंगे पर गूंगे सिंह हमें देखकर अपने चिरपरिचित अंदाज में अट्टहास करते हुए अपने कुत्तों को हमारे घर ले जा कर उनके साथ खेलने की अनुमति देते थे।हम इस प्रक्रिया में इतने अभ्यस्त हो चुके थे कि कई बार बिना अनुमति ही कुत्ते के बच्चों पर हाथ साफ कर दिया करते थे।हम कुत्ते के बच्चों को पकड़कर बारी बारी अपने घर स्थानांतरित करते थे और शाम को उसी प्रक्रिया में उनको यथास्थान पर छोड़ आते थे। सौरभ को उन बच्चों में बहुत ज्यादा दिलचस्पी थी, इसी वजह से मैं कभी कभार दूर खड़े होकर बच्चों को लाने भेज दिया करता था।हम उन बच्चों के साथ खेलते। छत पर लाकर उन्हें तरीके तरीके की वस्तुएं खाने को देते थे।हम उनकी नस्ल की जांच तक कर लेते थे और उन्हें प्रशिक्षित भी ककान पकड़कर बारी बारी बच्चों को उठा कर कसौटी पर तौला जाता था, जो बच्चा दर्द से कराह उठता था उसे ‘चोर’ की श्रेणी में रखा जाता था और कुछ बच्चे उस भीषण दर्द को भी शांति से झेल जाते थे उन्हें ‘साव’ की श्रेणी में। एक और प्रक्रिया थी जिससे उनके नाखूनों को गिनकर यह अनुमान लगाया जाता था कि कुत्ते के बच्चे ‘विषैले’ हैं या नही। वाकई महान वैज्ञानिक थे हम, जिसका केंद्र था आत्मविश्वास और श्रद्धा।

कुछ समय तक यही क्रम चलता रहा।

हमारा नाम शहर के स्कूल में लिखा दिया गया।अब मैं सिर्फ शनिवार को ही गांव आ पाता था, रविवार घर पर रहने के पश्चात सोमवार को फिर अपने परिवार से दूर हो जाता था।सौरभ घर पर ही रहकर हमारे द्वारा शुरू की गई ‘खेल प्रक्रिया’ को सतत रूप से आगे बढ़ाया गया।एक शनिवार की शाम जब मैं घर आया तो सौरभ ने मेरा स्वागत एक खुशखबरी से की।उसने बताया कि हमारे लाये कुत्तों में से एक कुत्ता वापस नहीं जाता है और कई बार छोड़कर आने पर भी वापस हमारे घर आ जाता है।

यह तो वाकई खुश होने वाली बात थी, क्योंकि हमारे घर मे कुत्ते की जगह गाय पालने की परंपरा थी इसलिए कुत्ते सिर्फ एक जानवर की श्रेणी से अधिक कुछ भी न थे।अब अगर कुत्ते का बच्चा वापस नहीं जाता है तो इसमें हमारी क्या गलती? हमने थोड़ी पाला था उसे। पर मन तो छुहारा हुआ जा रहा था क्योंकि एक नया सदस्य जो जुड़ गया था घर मेंकई बार घर वालों ने उसे छोड़ आने का दबाव बनाया और हर बार हम भारी मन लिए उसे छोड़ने वापस जाते और भगवान से यही प्रार्थना करते वापस आते की हे भगवन उसे फिर से हमारे पीछे हमारे घर भेज दीजिये और हर बार भगवान हमारी प्रार्थना स्वीकार कर लेते।कितना निश्छल मन था हमारा।शायद इसी मन को भांप कर उस छोटे से कुत्ते के बच्चे ने हमे अपना स्वामी मान लिया थासिंदूरी रंग का चंचल कुत्ते का बच्चा, इतना प्यारा की उस देखते ही किसी कठोर हृदय में भी दरारें पड़ जाए और वो एक बार उसे गोंद में लेके उसके साथ खेलने को मजबूर हो जाये। हमने उसका नाम रखा ‘टाइगर’।थोड़े समय पश्चात घर वालों को भी उसपे दया आयी और उसके दैनिक खाने पीने का प्रबंध किया जाने लगाबचपन से ही टाइगर बहुत शरारती था, यदि आपकी या आपके घर की कोई वस्तु न मिल रही हो तो आप उसे टाइगर के घर मे पा सकते हैं। कई बार आवारा कुत्तों ने उसपर हमला किया और कई बार उसके प्राण मौत के दरवाजे से निकलकर बाहर आया। मजबूत इच्छाशक्ति का बेहतरीन नमूना था। टाइगर हमारे बाबा जब भी खाना खाने बैठते उसके लिए बिना रोटी निकाले वो एक भी निवाला ग्रहण न करते थे।

वक़्त बीतता गया, हम थोड़े बड़े हुए तो टाइगर नौजवानटाइगर की रौबदार चाल, फुर्ती, और मगरमच्छ सी जबड़े की पकड़ उसके नाम को सार्थक करती थीहम जब भी शहर से आते थे, तो सबसे पहले टाइगर से ही मिलना पसन्द करते थे, यदि वह घर पर नहीं मिलता था तो एक जोरदार आवाज में उसे पुकारते थे।

टाइगर….

वो कहीं भी रहता था, कुछ ही पल में वो हमारे ऊपर होता था हमसे दुलारते हुए तो कभी चाटते हुए।

कभी कभी तो हम उसके बोझ को नही संभाल पाते थे और उसके वेग से गिर जाते थे। उसके पश्चात शुरू होता था तलाशी का दौर। वो हमारी जेब तलाशता, कि हम उसके लिए क्या उपहार लाएं हैं।

अमावस की रात थी।चारो ओर घुप्प अंधेरा।चारों ओर झींगुर ऐसे गायन कर रहे थे जैसे उनके किसी सम्बन्धी की शादी ही। सभी लोग सन्ध्या भोजन के पश्चात सोने की तैयारी कर रहे थे।

चाचाजी ने घर के द्वार पर ही अपना बिस्तर लगाया।टाइगर भी उन्ही के बगल में सो गया।आधी रात को कुछ हलचल हुई। चाचा जी ने उस हलचल को अनदेखा किया, सोचा टाइगर ही इधर उधर टहल रहा होगा। अभी चाचाजी ने दुबारा आंख बंद करके नींद की दुनिया मे कदम रखने की कोशिश की फिर थोड़ी तीव्र आवाज आई।जैसे कोई रस्सी घिस रही हो।चाचाजी हमेशा एक टॉर्च और एक लाठी लेकर सोते थे, लाठी उनके सिरहाने रखी थी।उन्हें लगा टाइगर कुछ शैतानी कर रहा होगा तो उन्होंने हल्के से लाठी को जमीन पर पटका और फिर सन्नाटा छा गया।चाचाजी की आंखों की नींद गायब हो गयी थी, दिन भर की थकान के बाद भी कोई चैन से न सोने दे तो गुस्सा आना लाज़मी ही है।चाचाजी ने सोचा अबकी बार यदि टाइगर ने उत्पात की तो इस बार लट्ठ का प्रयोग करना ही पड़ेगा।अगले ही पल फिर विचित्र आवाज आई और इस बार चाचा जी से नही रहा गया और गुस्से में उन्होंने टॉर्च जला जला कर देखा।

सामने का दृश्य देखते ही जैसे उन्हें एक विद्युत का झटका लगा।सामने टाइगर बैठा था, खून से लथपथ।उसके मुँह मे एक बड़ा काला नाग।जिसे वह चबा चबा कर मार डाला था।जबतक की चाचा कुछ समझते टॉर्च की रोशनी से घबरा कर टाइगर उस सांप को लेकर खेतों की ओर भागा और कुछ समय बाद आंखों से ओझल हो गया।


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