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नियति का खेल

नियति का खेल

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स्नेहिल और विहान ये नाम तो दो अलग अलग लोगों के हैं। मगर वो है तो एक ही जिस्म और जान! स्नेहिल के पापा का तबादला विहान के शहर में और उसके ही फ्लैट के बिल्कुल सामने स्नेहिल अपने परिवार के साथ रहता था और तब से स्नेहिल और विहान गहरे दोस्त बन गये इतने गहरे कि एक दूसरे के ऊपर अपनी जान भी न्योछावर करने को हमेशा एक दूसरे से दो कदम आगे! दोनों ही एक दूसरे के बगैर अधूरे थे। इसलिए दोनों सबकुछ एक साथ ही किया।

साथ में ही दोनों नें अपनी पढ़ाई पूरी की, साथ में ही दोनों एक साथ पले बढ़े। और इनकी दोस्ती के चलते इन दोनों के माता पिता भी आपस में गहरे दोस्त बन गये। दोनों नें साथ में एम.बी.ए. कर एक ही कंपनी में नौकरी के लिए अप्लाई किया। और दोनों को ही एक ही पोस्ट पर, बराबर सैलरी पर क्लर्क के पद पर नौकरी मिल गई।

अभी हाल ही में एक क्लर्क पद से भी ऊँचे पद की नियुक्ति होनी थी। और दोनों को ही वो पद चाहिए भी थी। मगर वो क्या है न दो जिस्म एक जान, एक दूसरे पर जान छिड़कने वाले, एक दूसरे पर सबकुछ न्योछावर करने वाले, भला कैसे प्रतियोगी बन जाते। हाँ वो बात अलग थी कि दोनों ही उस पद के लिए योग्य थे। समान योग्यता थी उन दोनों में.... पर वो क्या है न! "पहले आप...पहले आप के चक्कर में वो पद ही उनके हाथ से निकल गया।" " अरे ये तो वही बात हो गई न दो बिल्लियों की लड़ाई में एक बंदर रोटी लेकर निकल गया।" वो पद उनके ही किसी एक प्रतियोगी को मिल गई।

पर इनकी बुरी किस्मत कहूँ या अच्छी किस्मत! इनकी कंपनी को किसी और कंपनी नें खरीद लिया। पूरी कंपनी में उसमें काम कर रहे कर्मचारियों की बीच एक हलचल सी मच गयी। सभी कर्मी बहुत ही दुखी थे। कि अब क्या होगा, कंपनी बिक जाने से हमारे पेट पर भी कहीं इन अमीरों के लात न पड़ जाए। उन सबके परिवार वालों के बीच यही चर्चा का विषय बना हुआ था। फिर यही तय हुआ कि अब हम सब मिलकर उस दूसरी कंपनी के बाहर धरना देंगे।

अगले ही दिन स्नेहिल और विहान सभी कर्मियों के साथ वहाँ पहुँच गये। सभी जोर जोर से उनके खिलाफ नारे बाजी लगा रहे थे। तभी बाहर किसी को अपने सामने देख उन सबके होश ही उड़ गये।

" हवा से लहराते बाल, झील सी आँखें, और उन आँखों में समुंदर से भी ज्यादा गहरी गहराई, देखकर ही उस समुंदर के अंदर उतरने को मन करता है, मृग समान उसके लचकाती कमर, लाल गुलाब के पखुंड़ियों समान उसके हिलते होंठ, मछलियों समान उसके नैन कतारें, सबकुछ देखकर ऐसा लग रहा था कि जैसे ऊपर वाले ने बड़ी ही फुर्सत में बैठकर बड़ी सुंदरता से अपनी रचना गढ़ी है। एक-एक अंग सुडौल, सुंदर और व्यवस्थित दोनों के दोनों ही उसकी खूबसूरती का गुणगान मन ही मन किये जा रहे थे।दोनों को मन ही मन वो भा गयी थी। कि तभी एक आवाज से दोनों अपनी-अपनी कल्पनाओं से वापस लौट आए।

देखिये आप सब पहले शांत हो जाईये, मै आप सबको बता दूँ कि मैने वो कंपनी इसलिए नहीं खरीदी कि आप सबको मै नौकरी से निकाल दूँ। आप सबनें बहुत ही मेहनत और पसीने से उस कंपनी को उसके मुकाम तक पहुँचाया है। और उम्मीद करती हूँ कि आप सब आगे भी ऐसे ही लगन के साथ अपना काम को बेहतर ढ़ंग से करेंगे। वैसे तो आप सबको पता है कि कंपनी दो सालों से लॉस में जा रही है। हम सबको मिलकर कंपनी वापस उसी ऊँचाई पर लाकर खड़ा करना है, जहाँ वो पहले हुआ करती थी। उसकी बातें सुनकर तालियों की गड़गड़ाहट से वहाँ का पूरा वातावरण गूँज उठा। तभी भीड़ में से कहीं से एक आवाज आयी। मैडम क्या हम आपका नाम जान सकते हैं।

उधर स्नेहिल और विहान भी आपस में बात कर रहे थे कि विहान स्नेहिल से बोला, वैसे तो बहुत पता करने पर ये पता चला था कि हमारी कंपनी को किसी मिस्टर खंडेलवाल नें खरीदा है पर ये तो...हाँ विहान...पर...हो सकता है कि ये उनकी बेटी हो।

फिर अचानक से उनका ध्यान वापस से उस पर गया, उसने कहा जी जरूर मुझे बहुत खुशी होगी अपना परिचय आप सबको बताते हुए! मेरा नाम....उन दोनों की ही साँसें जैसे थम सी गई हों, हवा रूक सी गई हो, सब कुछ अपनी जगह स्थिर सा हो गया हो, फूल पत्ते, पेड़ सबकुछ हिलना जैसे बंद सा गया हो, चिड़ियाँ बादल आकाश में वहीं के वहीं थम से गये हों और समय तो जैसे वहीं रूक गया। और दोनों ही उसका नाम जानने को बेकरार हो!

रूचिका...ये नाम सुनते ही जैसे उनके कानों बार बार बस एक ही शब्द सुनाई पड़ रहा हो, रूचिका...रूचिका...सब कुछ पहले जैसा हो गया था। समय अपनी गति से वापस चलने लगा था पेड़, पौधे, फूल, पत्ती, हवा, पानी, सबकुछ वापस से गतिमान अवस्था में आ गये। पर वो दोनों अब भी वहीं थम से गये थे। अचानक मौसम नें करवट बदली। सभी लोग अपने अपने घरों की तरफ निकल चुके थे और रूचिका भी। मगर वो दोनों अब भी वहीं मौजूद थे। बिन मौसम बरसात नें भी वो कमी पूरी कर दी। वो दोनों भी अब भी अपने हसीन सपने में अब भी गुम थे।

वो बिन मौसम बरसात भी जैसे उन पर हँस रही थी और उनसे कह रही थी। प्यार हो गया है!, हाँ तुम दोनों को ही प्यार हो गया है! क्या..... मैने ठीक सुना क्या? इन दोनों को प्यार हो गया वो भी एक लड़की से... रूचिका से.... हे भगवान!... अब क्या होगा? क्या इस बार भी दो बिल्लियों की लड़ाई रोटी यानी रूचिका को कोई और उड़ा कर ले जाएगा।

वो दोनों ही इस समय एक ही सपना देख रहे थे कि दोनो अपने-अपने घरों में अपनी बीवियों के साथ.... पर बीवियों का चेहरा सामने आने से पहले ही मौसम नें फिर करवट बदली। बारिश रूक गयी, और बारिश के रुकते ही उन दोनों का सपना भी वहीं टूट गया।

दोनों कभी एक दूसरे को देखते तो कभी अपने चारों तरफ नजरें दौड़ाते, पर किसी को न पाकर बस दोनों ने यही एक साथ बोला चलो घर चलते हैं।

अगले दिन रूचिका उसी कंपनी में पहुँची, जिस कंपनी में स्नेहिल और विहान काम करते थे। स्नेहिल और विहान के उसे अपनी कंपनी में देखते ही उन दोनों की खुशी का तो ठिकाना ही नही रहा, पैर जमीन पर पड़ ही नही रहे थे। लेकिन दोनों ही एक दूसरे की फीलिंग्स से अंजान थे। दोनों को ही नही पता था कि उसका दोस्त भी रूचिका को पसंद करता है। उससे प्यार करता है। दोनों ही उससे दोस्ती करना चाहते थे, दोनों ही उसे जानना चाहते थे, समझना चाहते थे, अपने दिल की मल्लिका बनाना चाहते थे। पर शायद नियति को भी कुछ और ही मंजूर था। और "नियति का खेल तो देखो" देखते ही देखते कुछ ही दिनों में उन दोनों की रूचिका से बहुत अच्छी दोस्ती हो गयी वो दोनों दो से तीन हो गये।

"पर कहते है न जो जैसा दिखता है जरूरी नही वैसा ही हो" एक दिन ऐसे ही ऑफिस में रूचिका अपनी नजरें सामने रखे लैपटॉप पर गड़ाई हुई थी। और उन दोंनों की नजरें उस पर, दोनों ही अपने हसीन सपनों में गुम थे कि तभी रूचिका का फोन बजा। रूचिका फोन पर हुई बात सुनकर स्तब्ध हो गये थे, मानो उसके पैरों तले जमीन ही खिसक गई हो और वो बेतहाशा वहाँ से निकल पड़ी। जैसे उसे कुछ होश ही न रहा हो। वो पैदल ही भागती जा रही थी। और स्नेहिल और विहान भी उसकी ये अवस्था में देखकर हैरान थे। सो वो भी उसके पीछे पीछे हो लिए।

रूचिका को ये तक भी होश नही था कि वो अपनी गाड़ी से आई है और भागते भागते एक बंगले के बाहर आकर ठहर गई। और एक लंबी साँस भरी अंदर चली गई। अंदर का नजारा देखकर वो मौन रह जाती है।

पीछे पीछे वो दोनों भी उसके बंगले तक पहुँच जाते है। और बंगले के बाहर मिस्टर खंडेलवाल का नाम पढ़कर वो अंदर घुसने की कोशिश करते हैं कि तभी वहाँ चौकीदार उसे रोक लेता है और वापस जाने को बोलता है। लेकिन किसी भी तरह वो दोनों चौकीदार को बहला फुसलाकर अंदर जाते हैं तो उन दोनों के भी अंदर का माहौल देखकर होश उड़ जाते है। पूरा बंगला फूलों से सजा हुआ था। और सामने अपनी ही हमउम्र के नौजवान को खड़ा देखा, जिसके सीने पर रूचिका अपना सिर रखकर प्रेम के गोते लगा रही थी। उन दोनों को इस तरह से देखकर उन दोनों के तो जैसे सपनों पर पानी फिर जाता है। और फिर उन दोनों की नजर एनिवर्सरी बोर्ड पर पड़ती है और उसके बाद उस बोर्ड के बगल टंगी तस्वीर जो रूचिका की शादी का प्रमाण दे रहे थे। कि रूचिका शादीशुदा है और तुम दोनों उसे भूल जाओ। और यहाँ फिर से नियति नें अपना खेल दिखा दिया था। रूचिका को किसी और का बता दिया था। फिर वो दोनों बिना कुछ बोले वहाँ से अपने घर की ओर चल पड़े।


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