Unlock solutions to your love life challenges, from choosing the right partner to navigating deception and loneliness, with the book "Lust Love & Liberation ". Click here to get your copy!
Unlock solutions to your love life challenges, from choosing the right partner to navigating deception and loneliness, with the book "Lust Love & Liberation ". Click here to get your copy!

Anwar Suhail

Classics Tragedy

3.9  

Anwar Suhail

Classics Tragedy

गौ-हत्या

गौ-हत्या

20 mins
22.4K


                                                                                              

यह उस दिन जो हुआ और उसके बाद जो हुआ उसकी पृष्ठभूमि है...उस दिन जो हुआ और उसके बाद जो हुआ उसे समझने में क्या इस पृष्ठभूमि से कुछ मदद मिलेगी?  

वैसे तो कई कारण हुए जब किसी मसले पर पक्ष-प्रतिपक्ष में मुद्दे भटक जाते हैं लेकिन हिन्दू-मुसलमान वाले मसले पर कोई प्रतिपक्ष नहीं होता...धुर-विरोधी विचारधारा वाले भी एक मुद्दे पर एकमत हो जाते हैं और गज़ब का वातावरण तैयार होता है कि प्रशासन के होश उड़ जाते हैं |

ऐसे नाज़ुक समय में समाज के बुद्धिजीवी और सयाने हाशिये पर धकेल दिए जाते हैं |

इस मामले में भी कुछ ऐसा ही हुआ था....और जब इतनी तनातनी बनी हुई है तो इस किस्से को शुरू से सुनाना ही पड़ेगा |

ऐसी साम्प्रदायिक तनातनी की घटना को भी कम्युनिस्ट साथी जाने क्यों बाजारवाद से जोड़ कर देखते हैं. दक्षिणपंथी ताकतों के बढ़ते वर्चस्व, आर्थिक गैर-बराबरी और उदारवाद के विरुद्ध बिगुल फूंकने का प्रयास करते लाल-सलाम साथी कैसे नहीं भांप पाते कि हमेशा की तरह अभी भी समाज वर्णों में बंटा हुआ है. जब कारगिल युद्ध हो, संसद पर हमला हो या मुम्बई का सीरियल ब्लास्ट...ऐसे समय ये सारे तत्व एकजुट होकर दो खेमों में बंट जाते हैं....एक खुलेआम उद्घोष करने लगता है और दूसरा सिर्फ भर्त्सना के ज़रिये अपनी नाखुशी दर्ज कराता है. इधर-उधर के हंगामों से परेशान होकर ये भी देखा गया है कि खुद मुस्लिम वर्ग भी अपने को अलग-थलग होने से बचाने के लिए मुख्यधारा में आने वाले बयान ज़ारी करता है. जबकि उसकी मज़म्मत को, उसकी शहादतों को उस समय कोई याद नहीं करता और एक ही बात जन-सामान्य में आम रहती है---“देखो लोगों घडियाली आंसू,,,!”

बेनी रपटा वाली घटना का जब पूरे तौर पर खुलासा हुआ और सिर्फ मुसलमान ही निशाने पर नहीं रहे तब इस बात पर सभी एकमत हुए थे कि हाँ, बाज़ार का लालच इंसान को अपराध के लिए प्रेरित करता है.

तो क्या बाज़ार का बहाना लेकर हम अमानवीयता, क्रूरता, अनैतिकता जैसी बुराइयों का महिमामंडन करें?

जो गलत है सो गलत होगा ही, किसी भी तर्क से उसे सही नहीं कहा जा सकता....लेकिन व्यक्ति गलत या सही इसी समाज से ही सीखता है. समाज ही उसकी प्रयोगशाला है |

ऐसे में अपराधी बनने की प्रक्रिया में संलिप्त लोग इस सिद्धांत को सर्वोपरि मानने लगते हैं कि जो पकड़ा जाए वही चोर और जो पकड़े जाने से हमेशा बचता रहे या जो पकड़ने वालों को लहा-पुटिया कर रखे वह साहूकार...

तो पकड़े जाने से बचने के तमाम जुगाड़ जानने वालों को समाज में मान-आदर भी मिलता है...

ऐसा उन तीनों ने देखा...समझा..सीखा...और एक चौथे को भी अपने साथ शामिल किया कि काम इस तरह हो कि सांप भी मरे और लाठी भी न टूटे...

लेकिन हर गुनाह ऐसे गुनाहों पर भारी पड़ता है जो उनने किया था..

आतंकवाद और गौहत्या ऐसे दो अपराध हैं जो अक्षम्य हैं और साबित होने पर मृत्यदंड से कम पर बात नहीं बननी चाहिए....

इस बात पर सभी एकमत हैं...क्यूंकि सिर्फ बहुसंख्यकों ने ही नहीं बल्कि अल्पसंख्यकों ने भी उस मार्च, धरना प्रदर्शन में हिस्सा लिया, ज्ञापन सौंपे थे कि अपराधियों को पकड़ा जाए और अमन-चैन के हत्यारों को सूली पर लटकाया जाए |

अमूमन आदतन अपराधियों से साठ-गाँठ करके अपराध नियंत्रण करने वाली चौकी अचानक हरकत में आई...

एसडीएम, कलेक्टर, एसपी ने मोर्चा संभाला |

स्थानीय और प्रादेशिक अखबारों के ब्यूरो-चीफ, टीवी न्यूज़ के संवाददाता हरकत में आये |

मामला संगीन है...मुख्यमंत्री तक इस मामले की अद्यतन जानकारी चाह रहे हैं.

अल्पसंख्यक घबराए हैं कि इस बार तो ज़रूर बवाल होके रहेगा....ये काम ज़रूर टुच्चे कुरैशियों-चिकवों का है जो धंधे-पानी के लिए कुछ भी कर सकते हैं.

अरे, बादशाहों ने भी अपने जमाने में गौकशी को मान्यता नहीं दी थी...फिर थोड़े से धन के लालच में ये टुच्चे चिकवे-कसाई काहे अमन-चैन में खलल डालने की कोशिश करते हैं |

हाजी अशरफ साहब ने गांधी चौक पर भारी भीड़ को संबोधित करते हुए कहा---“अब घटना की हकीकत चाहे जो हो लेकिन कितनी शर्मनाक बात है कि एक मछली सारे तालाब को अगर गंदा करना चाहेगी तो हम उस मछली को ही मार देने के पक्ष में हैं...हमें साफ़ सुथरा तालाब चाहिए...हमारी नगर की अंजुमन कमेटी की तरफ से प्रशासन से अपील है कि इस गौकशी की तत्परता से जांच करें और दोषियों को तीन दिन के अन्दर पकड़ें..वर्ना हम अनिश्चित काल तक के लिए नगर बंद रखेंगे...!”

 

अब चलते हैं उन तीनों या कहें चार यारों के बारे में जान लें जिनके एडवेंचर ने नगर की तथाकथित शान्ति को भंग कर दिया था.

तीन लंगोटिया यार..

गाहे-बगाहे एक चौथा भी उनसे आ मिलता...

वे अक्सर बेनी नाले के रपटे पर आ मिलते.

नगर जहां खत्म होता वहां पहाड़ी के दामन पर एक छोटी सी बरसाती नाला है, बेनी नाला….

बारिश के समय नाला खूब जोर मारता है, जिससे वन-विभाग के लोगों को जंगल की तरफ जाने में परेशानी होती है सो जाने कितने पञ्च-वर्षीय योजनाओं को ठेंगा दिखाकर बारिश में नाला पार करने के लिए एक रपटा बन ही गया |

इतनी मान-मनौव्वल के बाद बना रपटा साल भर ही में जर्जर हो चुका है. 

वैसे भी  विकास की किसी भी  बयार  से अछूता  रहता है ये नगर. कोई सुध लेने वाला नही और कोई सुख देने वाला नही. जब सब जगह बिजली आ  चुकी तो इस नगर में भी आ गई. जब सब जगह सड़कें बनीं तो इस नगर में भी बन गई. टेलीफोन, रेलवे जैसी जरूरतें भी आगे-पीछे यहाँ तक आ ही गईं. आसपास कोयला खदाने खुलीं तो झक मार के रेलवे लाइन बिछानी पड़ी..और कोयला ढोने से बचे समय में उस लाइन पर एक यात्री रेल भी चली जो पचास किलोमीटर दूर एक जंक्शन स्टेशन तक अप-डाउन करती है |

जहां यात्री आगे की यात्रा के लिए लिंक पाते और फिर वही रेल दूर-दराज से लौटने वालों को लेकर वापस आ जाती. यही इस ट्रेन का टाइम-टेबिल है...ये जब आती है तभी कहीं जाती है...नहीं आती तो फिर कहीं जा भी नहीं पाती. पहाड़ियों के दुर्गम रास्तों में बारिश के मौके पर लोग ट्रेन की अनियमितता से परेशां रहते हैं और स्टेशन के किसी कर्मचारी से पूछो कि भैया ट्रेन कब आयेगे...तो वे यही जवाब देते हैं—“जब आही तब जाहि..” याने ट्रेन जब आ जाए तो मान लो आ गई और जब चली जाए तो समझो चली गई...

इसी नगर में विकास की सुस्त रफ़्तार अचानक तेज़ गति में आ गई...हुआ ये कि अचानक नगर के कई कोनों में बड़े-बड़े टावर उग आये. एक साथ कई मोबाइल नेटवर्क कंपनियों ने अपना जाल सा बिछा दिया. महीनों पोस्टकार्ड या अंतर्देशीय पत्रों के माध्यम से सन्देश पाने और भेजने के आदी नगरवासी जैसे पगला से गए...एक दम गंवार टाइप के लोग भी कान में यंत्र लगाये ये बोलते पाए गये—“तोर नम्बर ला सेव कर लेहे हों गा...तैं चिंता मत कर, तोर चाचा ला कहिहों और तोसे बात करवैबे करिहों...”

फिर कुछ दिनों बाद क्या बच्चे क्या बड़े सभी ऐसे मोबाइल सेट खरीद कर उपयोग करने लगे जिसमे तमाम सुविधाएँ होती हैं.

हर उम्र के लोग और कोई ज्ञान बढायें या न बढायें, देश-दुनिया में उपलब्ध यौन-ज्ञान ज़रूर प्राप्त करने लगे.

और वे तीनों दोस्त भी मोबाइल के इस जादू के गिरफ्त में आ गये.

एक के पास एक ऐसा मोबाइल सेट था जिससे सिर्फ बात होती थी, एसएमएस आ-जा सकता था. कितना अनाकर्षक और घटिया दीखता था वो सेट...लेकिन उसमे गाने सुनने की सुविधा भी थी.

शाम को जब तीनों रपटा पर मिलते तो मोबाइल से गाना सुनते...

“हमका पीनी है पीनी है हमका पीनी है...”

इसका एक अर्थ ये भी लगाया जा सकता है कि यदा-कदा ख़ुशी प्रकट करने के लिए या गम गलत करने के लिए वे तीनो पीते भी थे. गोया कि मौजूदा दौर में पीना कोई बुरी बात नहीं है बल्कि न पीने वालों की संख्या लगातार घटती जा रही है.

जब से डिस्पोजेबल गिलास बाज़ार में बिकने लगे हैं तो उससे अनियोजित पीने वालों को बड़ी सहूलत मिली है. बस एक छोटी सी बोटली जेब में ठूंसी, दो-चार डिस्पोजेबल गिलास दूसरी जेब में डाले, एक पोलीथिन में पानी की बोतल और चखना के रूप में नमकीन, चना आदि रखकर कहीं भी बैठकर या चलते-फिरते दारू पी जा सकती है.

बेनी नाले के रपटे पर बैठ कर बीडी-सिगरेट पी लेते और कभी-कभार गांजे के कश भी मार लिया करते थे. इस तरह से देखा जाए तो नशा के किसी भी साधन को वे ठुकराते नहीं थे.

दोस्ती इतनी गहरी लेकिन वे समलैंगिक नहीं थे और अक्सर माल लडकियों और चालू औरतों के बारे में बातें भी किया करते. तीनों में से एक शादी-शुदा था लेकिन आवारागर्दी के कारण जिसकी बीवी उसे छोड़कर दुसरे युवक के साथ भाग गई थी. बाकी के दो कुंवारे थे और ये भी दावा करते कि शादी नहीं हुई तो क्या हुआ बारातें बहुत देखी हैं उनने....अर्थात वे जीवन के गोपन रहस्यों से अनजान न थे.

सूचना क्रान्ति के महा-विस्फोट के बाद अब कुछ भी छिपा नहीं है...और जो दिखता है सो बिकता है.

बेच रही हैं दुनिया भर की ताकतें अश्लीलता, असामाजिकता और अपसंस्कार..

और इस अपसंस्कार को सहज-स्वीकार्य बना दिया गया है. पहले जो चीज़ें ‘समरथ को नहीं दोष गुसाईं’ तक सीमित थीं, अब हर व्यक्ति समर्थ है और कितने कम पैसे में आठ जीबी, सोलह जीबी की चिप्स उपलब्ध हो जाती हैं जिनमें अपसंस्कार से संस्कारित करने के असीमित डाटा घुसाए जाते हैं और एक क्लिक पर या स्क्रीन पर हल्के से स्पर्श पर उनका आस्वाद लिया जाता है.

उन तीनों में जो शादी-शुदा था उसका नाम था सल्लू यानी सलमान कुरैशी...यानी बड़े चिकवा का पांचवें नम्बर का बेटा...नगर में तीन कसाई हैं...बड़े चिकवा, मंझले चिकवा और छोटे चिकवा. इन तीनों का नगर के मांस व्यापार में नब्बे प्रतिशत हिस्सा है...इनके कम्पटीशन में रहीस भाई आये लेकिन पनप न सके, गुलज़ार कसाई का धंधा ज़रूर कुछ जमने लगा है. वो भी इसलिए कि वो उधार का व्यापार करता है. जबकि खाने-पीने वाले कहाँ याद रखते हैं उधारी-वुधारी...खाए पिए खिसके, पठान भाई किसके...

सल्लू बचपन से ही सुबह-सवेरे अपने अब्बू बड़े चिकवा की गालियाँ सुनकर उठता और आँख मलते हुए रेलवे लाइन किनारे मटन की दूकान पर आ जाता. उसकी ड्यूटी थी दुकान की सफाई करना और फिर सरकारी नल से बाल्टियाँ भर-भरके पानी लाना और दुकान के बाजू में रखे आधे ड्रम को पानी से फुल कर देना. इसी बीच रेल लाईन किनारे वह मैदान आदि से भी निपट लेता है.

फिर जब उसका छटे नम्बर का भाई दुकान आने लगा तब उसकी ज़िम्मेदारी बदल गई. अब वह दूकान की साफ-सफाई होने के बाद घर से माल लाकर दूकान में बांधता और फिर जब बड़े चिकवा माल जिबह करते तो माल की खालपोशी करता.

खालपोशी के बाद अंतड़ियों की सफाई करके नाले में बहाना और अंतड़ियों को सहेज कर दूकान में बिक्री के लिए रखना. कोई गाहक सर या पैर खरीदने आये तो उसे टेकल करना.

खालपोशी करना कोई अच्छा काम नहीं है..साधारण शब्दों में कहा जाए तो खालपोशी करना माने बकरे की चमड़ी बिना कटी-फटे उतारना...मवेशी का चमड़ा बिकता है...इसीलिए उसमे खरोंच नहीं लगनी चाहिए. खरोंच लगी खाल के दाम नहीं मिल पाते. धीरे-धीरे सल्लू इस हुनर में भी उस्ताद हो गया.

उसके बाद उसने बाकायदा दुकान में बैठ कर चापड़ से बोटियाँ काटकर गोश्त बेचने की कला भी सीख ली. बड़ा ही चतुर सयाना था सल्लू जो पलक झपकते ही गाहक की नजर के सामने ही इधर का माल उधर कर देता और अच्छा-बुरा मिलाकर गोश्त बेचना भी एक कला है...इस हुनर के कारण उसके अब्बू बड़े चिकवा उसे अब दूकान में बैठाने लगे थे. अपनी किशोरवय के कारण वह एक कुशल सेल्समैन बन गया था और यदा-कदा अपनी सूझ-बूझ से सौ-पचास की हेराफेरी भी कर लेता था. आखिर रोज़-रोज़ के नित नए खर्चे के लिए दूकान में निष्ठा दिखाने का ईनाम भी तो चाहिए ही था, वर्ना अब्बू के हाथ से फूटी कौड़ी भी न मिले...आठ-दस जनों का संयुक्त परिवार इसी गोश्त की दूकान से ही तो आजीविका पाता था.

सल्लू इस तिकड़ी का मुखिया है.

सल्लू के दोनों दोस्त अक्सर सल्लू के कहे अनुसार काम करते. सल्लू उनका बॉस है. प्यार से उसे वे बॉस और कभी भाईजान कहते.

उनमे से एक विश्वकर्मा था...अशोक विश्वकर्मा उर्फ़ पप्पू...पप्पू के पिता पहले प्रिंटिंग प्रेस में कम्पोजीटर का काम करते थे. बड़ा ही आँख फोडू काम था वो. बीडी पीते और पेज कम्पोज़ करते. चिमटी के सहायता से एक-एक शब्द चुन कर फ्रेम में फिर करना. काम अधिक होता तो रात घर लौटने से पहले ठेके पर जाकर देसी मार लिया करते.

पैत्रिक संपत्ति के बंटवारे से कुछ राशि मिली तो उन्होंने जोड़-तोड़ कर एक सेकण्ड हैण्ड ट्रेडिल मशीन लगा ली. शुरू में अच्छा काम मिलता था लेकिन जब से स्क्रीन और फिर आफसेट प्रिंटिंग प्रेस नगर में  खुले, तब ट्रेडिल के लिए काम मिलना कम हो गया. उनके पास इतने पैसे तो थे नहीं कि अपना ऑफसेट प्रेस डाल लें सो पप्पू के पिता ने ट्रेडिल मशीन औने-पौने बेचकर साइकिल रिपेयर की दूकान लगा ली. साइकिल किराए पर भी लगाते और महीने में चार-पांच नई साईकिल बेच भी लेते. बगल के कसबे के सिन्धी सेठ से वे नई साइकिलें ले आते और कमीशन पर उन्हें बेचते.

ये अलग बात है कि उनका हाथ हमेशा तंग रहता है. पढने-लिखने में फिसड्डी रहने वाला उनका खुराफाती पूत पप्पू साइकिल की दुकान में बैठने लगा तो उन्हें दुपहर में आराम मिलने लगा.  

पप्पू शाम होते ही पिता को दूकान और गल्ला सौंप सीधे बेनी नाले की रपटे की तरफ इस तरह भागता जैसे कोई नमाज़ी अज़ान की आवाज़ सुन मस्जिद की तरफ भागता है.....इस रपटे में ही उसे दुनिया-जहान का ज्ञान की प्राप्त होता है.

उनका तीसरा साथी है अंसार जो जुगनू टेलर मास्टर का बेटा है..एक जमाने में जुगनू टेलर मास्टर बड़े फेमस थे...फिर जब से स्टाइल टेलर की शॉप खुली और लौंडे-लफाड़ी स्टाइल में कपड़े सिलवाने लगे तब जुगनू टेलर मास्टर को मंदी छाई...अंसार के अब्बू अपने जमाने के बेस्ट टेलर थे...कोट-पेंट विशेषज्ञ लेकिन अब कोट-पेंट भी रेडीमेड मिलने लगे हैं..बस गिने-चुने पुराने गाहक हैं जिनके आर्डर मिलते रहने से जुगनू टेलर की दूकान में धूल नहीं जमने पाती है.

शाम के वक्त उस रपटे पर इक्का-दुक्का लोग ही आते...

एकदम एकांत वासा..झगडा न झांसा..यही तो नारा था उनका.

दिन भर इधर-उधर और शाम बेनी नाले पर बने रपटे पर बीतती उनकी.

उनका सबसे बड़ा दुःख ये था कि उन किस्मत के मारों के पास मोबाइल सेट के नाम पर फ़ोन करने, एसएमएस भेजने और गाना सुनने की सुविधा वाला छोटा सा मोबाइल सेट हुआ करता. तीनों के पास ऐसे ही मोबाइल थे. देखने में अनाकर्षक और पथरीले से.

सल्लू कहता—“साला इस मोबाइल को किसी के सामने निकालने पर बेइज्जती खराब हो जाती है..”

पप्पू कभी बिगड़ता तो बोलता मोबाइल फेंक के मारूंगा...मोबाइल न हुआ जैसे कोई पत्थर...

अंसार भी अपने बेढंगे मोबाइल से दुखी रहता.

जबकि नगर में चार इंच से लेकर साढ़े पांच इंच स्क्रीन वाले इतने सुन्दर मोबाइल सेट आ गए थे कि बस एक बार हाथ लगे तो छोड़ने का मन न करे. चाहे तो गानों की विडियो देख लो, फेसबुक, व्हाट्सअप चला लो, यूट्यूब में गाने सुनो या फिर उन वर्जित वेबसाइट में घूमो-भटको जहां से लौटने को मन न करे.

पप्पू बोला—“जिसे देखो मोबाइल की स्क्रीन पर ऊँगली से चिड़िया उड़ाता रहता है फुर्र..फुर्र...”

अंसार कहाँ चुप रहता---“अबे वे गेम खेलते हैं...जानता है मैंने भी अपने एक कस्टमर का मोबाइल चलाया है उसमे ऐसा गेम था कि उसे खेलते हुए सांस रोकनी पडती है....चुके नहीं कि धडाम से गड्ढे में गिरे और गेम-ओवर...”

सल्लू अपने लच्छे बालों को संवारते हुए नाक सुड़कते हुए बोला—“अबे, जानते हो मेरे बिलासपुर वाले जीजा के पास क्या मस्त टेब है...जानता है जैसे सिनेमा हाल में पिक्चर देख रहे हों...मैंने उनका टेब झटक लिया और दो घंटे कैसे बीते पता भी नहीं चला...उसमे नेट-पेक भी था...खूब मजा आया...मैंने उसमे जानते हो दो विडियो देखे...वोई वाले...क्या पिक्चर क्वालिटी है उसकी...देख तो रहा था और मेरी “----“ भी फटी जा रही थी कि कहीं कोई आ न जाए...फिर जब उनकी एक काल आई तो मैंने हिस्ट्री डिलीट करके उनका सेट उन्हें वापस कर दिया...पच्चीस हजार का टेब है उनका...!”

सल्लू के अनुभव सुनके पप्पू और अंसार अवाक रह गये...

अब उनके पास एक ही ख़्वाब था...कैसे एक मोबाइल सेट या टेब उनके हाथ लगे...

कम से कम आठ-दस हज़ार रुपये तो लगेंगे ही कायदे का मोबाइल लेने में.

लेकिन इतना पैसा कहाँ से आयेगा?

और पैसे का जुगाड़ उन्हें अपराध के रास्ते ले गया.

बुढ़िया बकरी का माँस ‘अल्ला-कसम एकदम खस्सी का गोश्त है...सॉलिड..!’ कहके नए लजीले गाहकों को लपेट दिया करता. लजीले गाहक माने ऐसे ग्राहक जो डरते-सहमते गोश्त खरीदने पहुँचते हैं कि ज्यादा समय न लगे जिससे लोग न जान जाएँ कि वे भी मांसाहारी हैं. ऐसे भी ग्राहक होते हैं जिन्हें गोश्त से मतलब होता है...जो एकदम नहीं जानते कि अगले पैरों को दस्त और पिछली टांगों को रान कहा जाता है. कि मोटा सीना क्या होता या चांप का गोश्त किसे कहते हैं. सल्लू ऐसे गाहकों को बखूबी पहचानता है और उन्हें छिछड़ा वगैरा भी तौल कर दे देता है.

इस मुए मोबाइल ने उनके रात की नींद और दिन का चैन छीन लिया था.

एक अदद स्मार्ट फोन उनके हाथ आ जाता तो कान के साथ उनकी चक्षुओं के लिए भी मनोरंजन का साधन मिल जाता. वे औरों की तरह अपने स्मार्ट फोन के सपने देखा करते.

एक शाम जब सूरज डूब चूका था और धुंधलका फ़ैल रहा था...अचानक सल्लू को एक बकरा चरता दिखा.

शायद झुण्ड से बिछुड़ा बकरा था.

सल्लू के दिमाग में एक विचार आया.

उसने पप्पू और अंसार की तरफ देखा.

सल्लू भाईजान गुरु ठहरे....युक्ति उसे सूझ चुकी थी....

सल्लू का युक्ति सुनकर पप्पू और अंसार के होश उड़ गये.

---“अगर भेद खुला या पकडे गये तो...?”

---“कुछ नहीं होगा बे...कालूराम है न उसको भी साथ रख लेंगे...उनके बिरादरी में मरे जानवर का मांस खाया जाता है...वो एकदम एक्सपर्ट है इस काम में...!”

तो ये था उनके गैंग का चौथा सदस्य कालूराम.

कालूराम, जिसके बारे में सिर्फ सल्लू ही जानता था कि वो वास्तव में करता क्या है? चूँकि नगर के आखिरी सिरे में उन लोगों की बस्ती है जहां कई घरों में सूअर के बाड़े हैं. गन्दगी, गरीबी, उपेक्षा की शिकार बस्ती. उस बस्ती में संभ्रांत दिन में जाने से कतराते हैं. जबकि रात में सड़क के आस-पास की वे झोपड़ियां रगड़े-झगड़े, देसी दारु, जिन्दा और मुर्दा मांस के लिए मशहूर हैं. कहते हैं कि बस्ती की औरतें रात में खुले आम जिस्मफरोशी करती हैं. बस्ती की बदबू से परेशान लोगों को रात-बिरात उस बस्ती की औरतों में जाने कहाँ से सौदर्य और मादकता नज़र आ जाती है.  अमूमन पुलिस वालों की रेड वहां पड़ती ही रहती है. कहीं चोरी छिनैती हो तो पुलिस का पहला छापा इनकी बस्तियों में पड़ता है. जाने कितने हिस्ट्री-शीटर इस बस्ती के पुलिस के खाते में दर्ज हैं.

इस बस्ती के लोगों से चार पैसे छींट कर कोई भी काम करवाया जा सकता है. इसीलिए स्थानीय दारु के ठेके वाले हों या फिर सिनेमा हाल वाले...इस बस्ती के लौंडों को भरती करके रखती हैं...ताकि उनके प्रतिष्ठानों में शांति-व्यवस्था कायम रह सके.

नगर में कहीं भी कोई जानवर मरा हो और बदबू फ़ैल रही हो तो इस बस्ती में भागे-भागे आओ और समस्या का समाधान पाओ. अरे, अब न इतने नर्सिंग होम बन गये हैं वरना एक जमाने में तो यहाँ की चमाईन-दाईयाँ सेठ-महाजनों तक के घर प्रसव कराती और नेग पाती थीं.

कालूराम का नाम सुनकर पप्पू और अंसार आश्वस्त हुए कि उसके रहने से काम आसान हो जाएगा.

सल्लू के आत्मविश्वास भरे चेहरे को किसी सिद्ध-पुरुष की तरह दोनों ताक रहे थे. इसलिए उन्हें सल्लू भाईजान पर भरोसा है...

सल्लू ने आँख मार कर कहा--“मोबाइल चाहिए कि नहीं बेटा...कुछ पाने के लिए कुछ खोना भी पड़ सकता है जानेमन...ऐसे आँख फाड़-फाड़ कर मुझे न देखो, और मौके की तलाश में रहो...लोहा गरम हो तभी हथोड़ा मारना चाहिए...!”

 

वे चारों आखिर पकड़े गये.

जनता के जोरदार संघर्ष और धरना-प्रदर्शन का परिणाम था कि सालों से ठंडाई पुलिस-प्रशासन ने ज़बरदस्त गर्मजोशी दिखलाई और हत्यारों को गिरफ्तार कर ही लिया.

और इस गिरफ्तारी ने जैसे तमाम जुझारू प्रदर्शनकारियों को ठंडा कर दिया. एक अजीब सन्नाटा सा छा गया नगर में. गुनाहगारों के पकडे जाने के बाद अचानक बहुसंख्यक शांत हो गये और नगर में फैला तनाव समाप्त हो गया.

कहाँ तो अल्पसंख्यकों को टार्गेट बनाकर ज़बरदस्त भड़काऊ नारे लगाये जा रहे थे और पुलिस ने जिन लोगों को पकड़ कर जनता के समक्ष प्रस्तुत किया उससे तो जैसे उन लोगों को सांप सूंघ गया.

सल्लू उर्फ़ सलमान, अशोक विश्वकर्मा उर्फ़ पप्पू, अंसार और कालूराम.

इन चारों ने जो बयान पुलिस को दिया वही बयान पत्रकारों को भी दिया.

पत्रकार-वार्ता में पत्रकारों के अलावा नगर के ऐसे युवा भी शामिल थे जिन्होनें स्वस्थ और स्वच्छ समाज निर्माण का संकल्प लिया था. इससे पहले ये युवा नगर की धार्मिक, सांस्कृतिक गतिविधियों में बढ़-चढ़ के हिस्सा लेते थे. इधर उनके मन ये विश्वास गहराता जा रहा है कि देश के लिए इससे सुन्दर अवसर फिर आये न आये इसलिए बरसों से मन में दबी इच्छाओं को, अधूरे स्वप्नों को पूरा किया जाए. गर्व से जाने कब से कहते तो आ रहे थे कि वे इस देश की बहुसंख्यक आबादी को अपने गौरवशाली अतीत की अनुभूति करा देंगे. तब उनके नारे में बहुसंख्यक-वाद की बू थी. इसलिए जब उन्हें भ्रष्टाचार-मुक्त भारत और सर्वांगीण विकास का नारा मिला तो जैसे उनके दिन फिर गए...

अपराधियों के पकड़े जाने से अल्पसंख्यक समाज ने भी चैन की सांस ली.

ऐसी ही चैन की सांस ली थी मुस्लिम समाज ने इंदिरा गांधी की हत्या के बाद...बड़े दहशत में थे लोग कि कहीं हत्यारा कोई मियां न हो... जब क्लियर हुआ कि इंदिरा गांधी के सेक्युरिटी सिपाहियों ने ही उनकी हत्या की है जो कि सिख हैं और आपरेशन ब्लू स्टार का बदला ले रहे हैं.

वैसे भी दुनिया भर में ये बात कायम हो चुकी है कि मुस्लिम समाज एक बंद समाज है, दकियानूस है, प्रगति और विकास विरोधी है, अतीत-जीवी, प्रतिक्रियावादी और मूढ़ समाज है. इसके पास सारी दुनिया में कोई माकूल लीडरशिप नहीं है. ये आम तौर पर असभ्य, लडाकू, बेवफा, बदमिजाज होते हैं. फिर इस मुल्क में एक कबीर आये और उन्होंने कहा—“दिन में रोज़ा रखत हैं, रात हनत हैं गाय...” तो ये बात जगजाहिर हो गई कि मुसलमान गौ-मांस का सेवन करते हैं और गौ-हत्या करने वालों के साथ कैसा भाईचारा, इन लोगों पर कैसा विश्वास. अरे ऎसी कौम है ये जिसमें सत्ता पाने के लिए भाई की ह्त्या कर दी जाती है, बादशाह बाप को कैद में डाल दिया जाता है.

जबकि सामाजिक अध्ययन बताता है कि बीफ से सिर्फ देश का मुस्लिम वर्ग ही नहीं जुड़ा है. ईसाई, दलित भी इससे जुड़े हुए हैं. प्रोटीन का सबसे स्रोत है मुल्क में बीफ लेकिन राजनितिक ध्रुवीकरण ने इस बीफ की आड़ में मुस्लिम समाज को निशाना बनाने का काम सोची-समझी स्कीम के साथ किया.

वैसे भी ये सर्व-विदित है कि दुनिया में पहले-पहल मुसलमान कहीं भी नहीं थे...

यहूदी थे, सनातनी हिन्दू थे, ईसाई थे, आदिवासी थे लेकिन मुसलमान एक भी नहीं थे दुनिया में.

ये मुसलमान चौदह सौ साल पूर्व अरब की ज़मीन से सारी दुनिया में एकेश्वर-वाद का नया नारा लेकर फैलते चले गये. ईसाई और मुसलामानों के बीच धर्मयुद्ध लड़े गये. ईसाई इलाकों में तेजी से धर्मान्तरण हुआ. इसिलिये इस्लाम के इस बढ़ते प्रभाव को युद्ध और तलवार से जोड़ा गया. क्रुसेड का विलोम शब्द  जिहाद दुनिया में आया और अब तक इसकी व्याख्याएं होती रहती हैं.

इस्लाम के इस बढ़ते प्रभाव ने इस समाज के प्रति कई पूर्वाग्रह भी फैलाए.

अक्सर उद्धृत किया जाता है कि लव-जिहाद, बलात धर्म-परिवर्तन, चार शादियाँ और बेशुमार बच्चों के कारण ये मुसमान पहले तो किसी मुल्क में अल्पसंख्यक के तौर पर रहते हैं फिर आबादी विस्फोट करके वहां के बहुसंख्यकों का जीना मुहाल कर देते हैं. इसीलिए हमेशा शक की निगाह से देखे जाते हैं.

उन चारों के पकड़े जाने से पहले तक जो विस्फोटक माहौल बना हुआ था अचानक शांत हो गया क्योंकि इस प्रकरण में दो मियाँ और दो हिन्दू युवक पकड़े गये थे और उन लोगों ने इकबाले-जुर्म भी कर लिया था. जो शक किया जा रहा था कि गौ-हत्या के इस जघन्य अपराध को मुसलामानों ने किया उस धारणा को विराम मिला. अब आन्दोलनकारी लोग ये कहते पाए गए के भईया, घोर कलजुग है...घोर कलजुग...

सल्लू ने मीडिया को जो बताया उसका लब्बो-लुआब ये था कि स्मार्ट फोन के लिए उन्हें पैसे चाहिए थे. एक बड़ी रकम.  बिना गलत काम किये एक साथ इतनी बड़ी रकम कैसे आये सो बेनी नाला पर बने रपटा में जो योजना बनी कि मौके की ताक में रहा जाए और तमाम परिस्थितियाँ अनुकूल हों जिस दम ये काम अंजाम दिया जाए.

सल्लू ने कई दिनों एक बात गौर से देखी थी कि आखिरी पेट्रोल पम्प के बगल में बसे पंडित जी की गैया अक्सर देर तक चरती रहती है. उसने कालूराम को तैयार रहने को कहा था कि जिस दिन मौका लगा वह फोन करके उसे बुलाएगा. कालूराम औजार लेकर पंद्रह मिनट के अन्दर आ जायेगा.

हुआ वही...एक शाम जब सब तरफ सन्नाटा पसर चुका था.

चिड़िया अपने बसेरों में आ सिमटीं और सर्वत्र शान्ति छा गई थी तब सल्लू ने पप्पू और अंसार को कहा कि तुम दोनों गैया को वापस लौटने न दो. उसे किसी न किसी बहाने नाले के उल्टी तरफ हंकालते रहो.

फिर उसने कालूराम को फोन किया.

पंद्रह मिनट में कालूराम अपनी साइकिल पर औज़ार लिए हाज़िर हो गया.

फिर उन लोगों ने वो घृणित काम अंजाम दिया जिसके कारण नगर अशांत हुआ और दो समुदायों के बीच खाई और गहरा गई.

बड़े शातिर थे वे लेकिन पुलिस की तत्परता से वे धरा गये.

पांच हज़ार रुपये और पांच किलो गौ-मांस भी उनके पास से बरामद हुआ था, जिसे वे ठिकाने नहीं लगा पाए थे...

 


Rate this content
Log in

Similar hindi story from Classics