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हिस्सा...

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"जो मज़ा ठेले के पास खड़े होकर खाने में है, वो होटल के अंदर बैठ कर नहीं, और इस स्वाद की भाई ! क्या कहने ।" फिर अमृतलाल ने आखिरी गोलगप्पा मुँह में डाला ही था की जीराजल नाक तक चढ़ गया । खांसते हुए एक सूखा हुआ अतिरिक्त गोलगप्पा अलग से माँगा । "अरे ! धीरे-धीरे खाओ, क्या जल्दी पड़ी है, इतना तीता डालते हैं ये लोग"-पत्नी विमला ने टोक दिया । "थोड़ा जीराजल और दे देना, पवन ! और खाना है ? "- अमृतलाल ने दोने को सड़क पर फेंकते हुए अपने बेटे पवन से पूछा । तभी विमला ने फिर टोक दिया- "ज्यादा मत खाओ, रात का खाना अभी बाकी है ।" पति की तरफ देखते हुए- "चलो, गाड़ी ले आओ, कपडे भी खरीदने हैं अभी, धर्मराज आने वाले होंगे ।"

गर्मी ज्यादा थी, पवन ने पानी के लिए पूछा । "यहाँ बाजार में पानी..?", इधर-उधर देखते हुए, फिर उस गोलगप्पे वाले ने बगल के प्लास्टिक के कनस्टर में रखे साफ़ पानी की ओर इशारा किया । लेकिन इस पानी से केवल हाथ धो सकते हैं, इसे कैसे पी सकते हैं, कनस्टर भी इतना गन्दा, नहीं-नहीं, " ये कैसी दुकान पर खिलाते हो?”-विमला ने झिझकते हुए अमृतलाल से कहा । अमृतलाल ने दुकानवाले से पूछा की आस-पास कोई पानी कीदुकान है । " है तो साब, यहीं पांचवी गली छोड़कर एक हैंडपंप लगा हुआ है, हम सब लोग वहीँ से पानी भरते है, बाकी आगे एक दूकान है, वहां मिल जाएगा, १५ रूपए बोतल ।“ फिर वो लोग दूकान खोजने आगे निकल लिए । प्यास बुझाकर, ये लोग कपडे-वपड़े खरीदने चले गए होंगे ।

अमृतलाल को इस शहर में आये हुए एक साल ही हुआ था, किसी कारखाने में मैनेजर की पोस्ट पे काम करते थे । अक्सर शाम को कस्बे की बाजार घूम लिया करते थे, कभी इस बाजार, कभी उस बाजार । लेकिन आज दोपहर में ही बाजार आना पड़ा, कारण, घर पे मेहमान आने वाले थे, और उनकी पत्नी, अपनी पसंद की खरीदारी करना चाहती थीं । वर्ना इतनी धूप में कौन अपना रंग काला करे । पहनावे से थोड़ी अमीरी झलकती है । अमृतलाल का घर इस बाजार से एक-दो मील दूर होगा । इस बाजार को लोग ‘मुकेरी बाजार’ के नाम से जानते थे, इसकी ख़ास बात ये थी की लगभग हर-एक सामान अच्छे दामों पर मिल जाते थे । बड़ी-बड़ी दुकानों ने छोटी दुकानों पर कब्ज़ा कर लिया था । विकास की दौड़ में गरीबी पीछे छूट गयी, क्योंकि इसको परिभाषित करने वाले लोग ही नहीं बचे । फिर भी कुछ ठेले वाले और फुटपाथ की कुछ दुकाने अपने वजूद को बचाने के लिए रोज का रोज बड़ी दुकानों के सामने संघर्ष करती दिख जाती थीं व इनको खींचने वाले दुकानदार अपने सामान चिल्ला-चिल्ला कर बेचते थे । इस बदलते वक़्त में जिन्होंने अपने-आप और काम करने के तरीकों को बदला वही समय के साथ चलते रहे जैसे उस गोलगप्पे वाले ने हाथ में पन्नी के दस्ताने पहन लिए, मुँह पर कपडा ढक लिया, गोलगप्पे शीशे में रख लिए इत्यादि और जो पीछे छूट गए, उन्हें रोजी-रोटी के भी लाले पड़ गए । कुछ दूरी पर सब्जी की बड़ी-बड़ी दुकाने हैं । लगभग हर तरह की सब्जियां यहाँ मिल जाती हैं । ये लोग सब्जियां दूर सब्जीमंडियों से सस्ते में खरीदते थे और यहाँ ऊँचे दामों में बेंचते थे, क्योंकि उन्हें अपने दुकान का किराया, माल लाने का खर्चा, रोज की वसूली और लाभ सब देखना होता था । ये सब्जीमंडिया काफी दूर थीं । इसी बाजार की आखिरी पूंछ से थोड़ा हटकर, कूड़े के पास फुटपाथ पर एक बूढ़ी औरत ने थोड़े सब्जियों के ढेर लगा रखे थे । थोड़े टमाटर के ढेर, थोड़े आलू, थोड़े मिर्चे और थोड़े निम्बू के । बूढ़ी का शायद ६५ वां जेठ चल रहा होगा । जिम्मेदारियों के बोझ से झुके हुए कंधे, लू के मार सहती हुई झुर्रियाँ, रोजी-रोटी की उम्मीद में बढ़ती माथे की सिकन और खर्च होते दिन से इकठ्ठा होती आज की मायूसी उसको ‘बूढ़ी’ कहलाने के लिए काफी थे । वो दूर से लोगों को अपने-अपने सामानो की बोली लगाते हुए, दुकानदारों की आवाजें सुनती और उनके ग्राहकों को देखती । ये उसे भी पता था की लोगों की ताज़ी और विभिन्न सब्जियों के भण्डार के आगे उसकी थोड़ी सी सब्जियों को कौन पसंद करेगा, लेकिन शायद कोई रिक्शेवाला, ठेलेवाला या कोई मजदूर ही भगवान् बनकर आ जाए । काले-सफ़ेद रूखे बालों की उलझनों को छुपाती हुई चिंगुड़ी-मैली उसकी धोती की घूँघट, चेहरे के रंग को निचोड़ कर खाली जगहों को भर्ती हुई गर्म लू से सनी हुई धूल, ढलती उम्र के भार को धीरे से उठाती पलकें, पसीने को रास्ता देती हुईं झुर्रियों की अनगिनत सामानांतर नालियां, धुंधलाती नज़रों से अपनी चप्पल की टाट बनाकर बैठी हुई, खरीदार की आस में…।

ईश्वर ने जीने के लिए कुछ न कुछ वजह सभी को दी है, उस बूढ़ी के लिए भी है, उसकी पोती, अनीता, जो की उसके बगल में ही बैठी है । ६-७ साल की, लाल फ्राक पहने हुए, पत्थर के छोटे-छोटे टुकड़ों से खेलती हुई, गरीबी-अमीरी के शब्दों से अनजान । उसे बस इतना पता है लोगों के पास हर समय पैसे नहीं होते । इस गर्मी में मुँह अक्सर सूख जाता है, लेकिन शुक्र है ईश्वर का, पांच गली छोड़ के एक हैं डपंप तो है, थोड़ा मटमैला पानी आता है लेकिन चलेगा, आखिर ये शरीर भी तो माटी का ही है । अनीता अपने छोटे- छोटे पैरों से दिन में दो बार लोटा भर लाती । अक्सर बूढ़ी अपनी धोती में लाइ-गुड़ बांध कर रखती, जिससे दोपहर का खाना हो जाता था । दोनों दादी-पोती आपस में बात करते हुए चबेना चबाते । लू बह रही है, लोगों के फेंके हुए दोने, पहिये की तरह लुढ़कते हुए बूढ़ी की सब्जियों के ढेर में आकर रुक जाते, अनीता उसे हटाती । इन्ही में से कोई दोना शायद अमृतलाल या उसके परिवार ने फेंका होगा, खैर…।

शाम के चार बज गए, उधर अमृतलाल कपड़े व जरूरी सामान खरीद कर गाड़ी से गुजर रहा था, विमला को याद आया की कुछ सब्जियां भी खरीदने हैं, सो गाड़ीएक किनारे कर दुकानदार से मोल-भाव करने लगे । आज सब्जियां काफी महंगी लग रही हैं, लेकिन फिर भी मेहमान के सामने अपनी धाक भी तो जमानी है, सो मशरूम, प्याज व शिमला मिर्च खरीद ली । टमाटर जैसी सस्ती सब्जी का भाव उन्हें महंगा लगा, भला टमाटर का दाम इतना ज्यादा कैसे हो सकता है? मशरूम २५० रूपए किलो उन्हें मंजूर था लेकिन टमाटर २५ रूपए किलो नहीं । सारा बाजार छान मारा, लेकिन आज कहीं भी टमाटर सस्ता नहीं है । पवन ने आइसक्रीम खाने की जिद की, सो दुकान पर जाकर, अच्छी सी ३० रूपए वाली आइसक्रीम उसे दिला दी । देर हो रही थी, विमला को याद आया की अभी घर में ३-४ टमाटर रखे हुए है, काम चल जाएगा ।गाड़ी में बैठकर घर की ओर चल दिए, तभी बाजार के आखिरी छोर पर वही बुढ़िया कुछ सब्जियों के ढेर के साथ दिखी । अमृतलाल ने देखा की उस बूढ़ी के पास टमाटर के छोटे-छोटे ढेर लगे हुए हैं, सो उसने बातों ही बातों में कहा की कभी-कभी इन छोटे-छोटे दुकानों से भी कुछ खरीद लेना चाहिए, इससे इन गरीब लोगों का भी भला हो जाता है । विमला ने सोचा की इस दुकान पर मोल-भाव करना सही रहेगा, उसे विश्वास था की यहाँ तो वो पक्का सस्ते में टमाटर खरीद लेगी । लेकिन गाड़ी से उतर कर फुटपाथ से सामान खरीदना थोड़ा संकोच सा था, उनका ऊँचा,अमीरी का स्तर उन्हें रोक रहा था, लेकिन टमाटर…? गाड़ी से उतरने के पहले उन्होंने अपने दिमाग को समझाया की वो उस बुढ़िया के लिए पुण्य का काम करने जा रहे हैं ।

गाड़ी का दरवाजा खुला, बूढ़ी ने उन्हें देखा और देखती ही रही, उनके कपड़ो को, विमला के श्रृंगार को, उसके व अमृतलाल के जूते को, उनके चश्मे को व ढलती धूप से लपलपाते गाड़ी की शीशे को । कुछ समय तक उन्हें देखती रही फिर सर घुमाकर ठेले की गति धीमी करते एक मजदूर की ओर देखने लगी, शायद उस मजदूर से कोई उम्मीद जगी होगी लेकिन बहुत जल्द ही टूट गयी । मजदूर आगे निकल गया । तभी उसने इन लोगों को अपनी ओर आते हुए देखा, शायद कोई पता पूछने के लिए उतरे होंगे, उसने कभी सोचा ही नहीं था कि ये अमीर भगवान् भी उसकी दूकान पर कुछ खरीदने आयंगे ? अनीता थोड़ा डरकर बूढ़ी के पास आकर बैठ गयी । "कितने का ढेर लगा के बैठी हो अम्मा ?"-अमृतलाल ने बैठते हुए पूछा । "दस-दस रूपए के ढेर हैं, बाबू !"- बूढ़ी ने थोड़ी उम्मीद के साथ जवाब दिया । विमला ने टमाटर टटोल-टटोल के, दबा-दबा के देखा । कुछ टमाटर थोड़े नरम थे । असल में पहले विमला को अपने मनचाहे टमाटर चाहिए थे, उसके बाद उन्ही टमाटरों में कुछ बुराई भी निकालनी थी, जिससे ऐसा लगे की वो बूढ़ी पे अहसान कर रहे हों, और टमाटर के दाम भी कम हो जाएँ । इंसान दिल से भले ही अमीर हो लेकिन दिमाग से कंजूस ही होता है । बूढ़ी को मालूम था की एक-दो टमाटर शायद थोड़े नरम निकलेंगे लेकिन खराब तो नहीं होंगे । वो बोल पड़ी-"सब अच्छे हैं, बिटिया !” बिटिया शब्द से बड़ा अपनापन झलकता है, अब तो पक्का अम्मा से दाम कम करवा लेंगे, ऐसा सोचकर विमला ने बूढ़ी से पूछा-" अच्छा अम्मा ! २० के तीन ढेर दे दो ।", बूढ़ी ने समझाते हुए कहा-" अरे बिटिया ! एक ढेर आधा किलो से ज्यादा है, दस रूपए ठीक लगे हैं ।" अमृतलाल को बूढ़ी पे थोड़ी दया भी आ रही थी और साथ ही साथ विमला की चतुरता का मज़ा उठाते हुए मुस्कुरा भी रहे थे ।

उधर अनीता, अमृतलाल की गाड़ी के शीशे के अंदर देखने की कोशिश कर रही थी । पवन गाड़ी के अंदर बैठ कर आइसक्रीम चाट रहा था, तभी उसकी आइसक्रीम गिर जाती है । वो डर से शीशे के बाहर अपनी मां की ओर देखता है । बूढ़ी 'अम्मा' शब्द के आगे बिक गयी, शायद पहली बार कोई बड़ा आदमी उसकी छोटी सी दूकान से कुछ खरीद रहा था । अंत में विमला ने बूढ़ी को मनाकर ३० रूपए में चार ढेर ले लिए । ढेर उठाते हुए, वो मजाक में बूढ़ी से सुनिश्चित कर रही थी की हर एक ढेर आधे किलो का तो है, साथ ही साथ हथेली में उठाते हुए तौल कर अंदाज भी लगाया, सच में ज्यादा था । बूढ़ी ने पैसे माथे से लगाए, इन पैसों से उसकी बोहनी हुई । विमला गाड़ी में बैठते हुए खुश थी, ३० रूपए में ढाई किलो से भी ज्यादा टमाटर मिल गए, कहाँ २५ रूपए में एक किलो मिल रहा था । अमृतलाल भी विमला की बुद्धिमत्ता पर फूले नहीं समा रहे थे और अपने फुटपाथ से सामान लेने वाले निर्णय पर इठला रहे थे । अमृतलाल का घर मुकेरी बाजार से दो मील की दूरी पे था । गाड़ी धुंए उड़ाती हुई आगे निकल गयी । बूढ़ी खांसते हुए फिर से ढेर सजाने लगी, हर एक ढेर पे बूढ़ी को ४ रूपए मिलने थे, एक ढेर का नुकसान हो गया, फिर भी चार ढेर पे ६ रूपए की कमाई हुई, आज किस्मत अच्छी थी, वो भी खुश थी । अनीता को मोल-भाव से कोई मतलब न था, वो इस बात से खुश थी की अब वो गुब्बारा खरीद सकती है । बूढ़ी अपनी धोती की छोरे में बंधी गट्ठी को खोलकर एक रूपया निकालती है और अनीता को गुब्बारा खरीदने के लिए दे देती है, सो वो दौड़ कर एक छोटा सा बिना फूला हुआ गुब्बारा खरीद लायी, क्योंकि हवा भरे हुए गुब्बारे का दाम ३ रूपए था । हवा भी बिकने लगी है । बूढ़ी अगले ग्राहक का इंतज़ार करने लगी लेकिन समय किसी के लिए नहीं रुकता, बिना भेदभाव किये वो थोड़ा और आगे खिसक गया । लौटते पंछियों को देखते हुए बूढ़ी ने अपना सामान बटोरा तभी एक हवलदार वहां से गुजर रहा था । उसने बूढ़ी को दूकान समेटते हुए देखा, तो वसूली करने चला आया । ये हवलदार रोज ही उन दूकानो से वसूली करता था, जिनके पास दूकान का रजिस्ट्रेशन नहीं होता था । फुटपाथ की दुकानों का रजिस्ट्रशन कौन कराता है, इनका कोई ठिकाना नहीं होता, कभी यहाँ हैं, तो कभी नहीं । इसी का पुलिसवाले फायदा उठाते थे । उसने भी बूढ़ी से बीस रूपए माँगा । लेकिन बूढ़ी की आज की कमाई छह रूपए ही हुई थी, सो उसने अपनी धोती की गांठी खोलकर आज की बोहनी उसे दिखाई, और पांच रूपए व तीन निम्बू देकर मामले को सुलझा लिया । फिर वो ‘हे राम’ कहते हुए उठी । दोनों पैर कुछ देर के लिए सुन्न पड़े थे, जमे हुए खून ने फिर से दौड़ना शुरू किया । थोड़ा समय लगा बूढ़ी को खड़े होने में, उसे दोनों पैरों पर खड़े होकर ऐसा लगा जैसे जग जीत लिया हो, उसे अहसास हुआ की अभी भी उसमे ताकत है । सामान को एक बोरे में भरकर, पीठ पे लादा व घर की तरफ बढ़ चली, लगभग तीन किलो का सामान अभी भी बिकना बाकी था । अनीता भी गुब्बारे को फूलाने की कोशिश करती हुई लोटा लेकर साथ हो ली । चलते-चलते बूढ़ी का एकमात्र बेटा व अनीता का पिता ‘सनेही’ रास्ते में मिल गया, उसने बूढ़ी का सामान उठा लिया और अनीता का हाथ पकड़ कर घर की ओर बढ़ने लगा, बूढ़ी धीरे-धीरे पीछे आने लगी । असल में बूढ़ी की दो बड़ी बेटियां भी थीं लेकिन बचपन में आकस्मिक मृत्यु के गाल में समा गयीं थीं । बूढ़ी का घर बाजार से लगभग डेढ़ मील की दूरी पे, एक छोटे से इलाके में है । उसके पति किसी का ट्रक चलाते थे, लेकिन पंद्रह साल पहले एक दुर्घटना में मारे गए थे, तब से बूढ़ी कहीं चूल्हा-चौका करके, तो कहीं मजदूरी करके अपने बच्चों का लालन-पालन करती थी । जब शरीर जवाब देने लगा तो सब्जियां ही बेच लेती थी । सनेही के बचपन को उसके दोस्तों की संगत ने बिगाड़ दिया और जवानी को बीड़ी-शराब की लत ने । वैसे तो वो मजदूरी करता है, लेकिन एक बड़ा हिस्सा अपनी प्यास बुझाने में खर्च कर देता है व एक छोटा हिस्सा घरवालों की भूख के लिए । मजदूरी का काम भी तो रोज कहाँ मिलता है ? सनेही हफ्ते में दो बार सब्जीमंडी से कुछ सब्जियां खरीद लाता जिसको बूढ़ी बाजार में बेंच आती थी । उसकी बहू निर्मला घर का काम देखती है । बूढ़ी का घर भी बूढ़ी की तरह ही जर्जर हो गया है, दीवारों की दरारों से बाहर झांकती व ‘दम तोड़ती ईंट’ का बुरादा अक्सर झड़ता रहता है, लकड़ी के दरवाजे, नीचे की तरफ से गल चुके हैं, लोग इसे अहिस्ते से खोलते और बंद करते हैं, घर के कोने में झूलते हुए नारियल की रस्सी पे टंगे बिस्तर और जाड़े के दिनों में दीवारों पर नीचे से अपना कब्ज़ा जमाती नमी से उमस की महक आती रहती है । रात में लालटेन के धूंएँ उस महक को थोड़ा कम कर देते । दीवारों की खूंटी पे टंगे हुए पुराने साल के फटे हुए कलेण्डर अपने एल्युमीनियम की पट्टी से आधे अलग होकर झूल रहे थे । उन कलेण्डरों को फेंका नहीं जा सका क्योंकि उसमे भगवानों की तसवीरें हैं, 'अपना सीना चीर 'राम-सीया' का दर्शन कराते हुए हनुमान' की तस्वीर । आज बिजली नहीं है, या फिर शायद सनेही ने कटिए का तार उतार लिया है । 'सौ वाट' की बल्ब बल्ब मायूस सी छत के 'जंग लगी छल्ले' में बंधी नारियल की रस्सी से लटकी हुई है, उसपे जमी कालिख व धूंएँ की मोटी परत उसकी मायूसी को छुपा रहीं हैं । खाना घर के बाहर लकड़ी की टाट से घिरे जगह में बनता है । शाम को निर्मला बाजार में बेचने वाली सब्जियों में से सड़ी, गली सब्जियां बीन के अलग कर देती फिर उन्ही सड़ी, गली अलग की गयी सब्जियों से परिवार का खाना बनता । आज भी वो पुराने टमाटरों में से ज्यादा गले हुए टमाटर निकाल रही है, जिससे सब्जी बन सके । पास में लेटा सनेही, वो एक रूपए वाला गुब्बारा फूलाने की कोशिश कर रहा है, लेकिन अफ़सोस गुब्बारे में सुई भर का छेद था, फूलता फिर पचक जाता । कहीं ठीक-ठाक काम मिल जाए तो बिटिया को स्कूल में डाल दें, ऐसा सोचते हुए वो गुब्बारा फुलाना भूल जाता । अनीता बूढ़ी के पास बैठ कर लोरी सुनती -

"अलर-बलर गुल पाकइ दे,

चिलवा-कोचवा नाचइ दे,

एक चिलरवा काना,

मुन्नी का लागइ नाना……”


उधर अमृतलाल के यहाँ धर्मराज व उसकी बीवी की खूब खातिरदारी हो रही है । मशरूम की रसेदार व शिमला मिर्च की सूखी सब्जी, पालक व मेथी के पराठे, खीर और आधे घंटे बाद फ्रीज़ से ठंडी भाप छोड़ती आइसक्रीम से सभी की आत्मा तृप्त हो गयी । पवन को तो वैसे भी आइसक्रीम बहुत पसंद है, सो एक के बाद दूसरी कटोरी । धर्मराज की बीवी ने उसे ज्यादा आइसक्रीम खाने से टोक दिया, क्योंकि वो बीमार भी तो हो सकता है । पराठे ज्यादा बन गए थे, सो बचे हुए बाहर कुत्तों को डाल दिए गए । रात के खाने के बाद लोग छत पे टहलने के लिए चले गए, खाना पचाने के लिए । पैसेवालों के लिए दिन के बाद शाम और फिर रात होती है, जबकि गरीबों के लिए दिन के बाद सीधे रात होती है । बूढ़ी के लिए भी रात अक्सर जल्दी हो जाती है । सनेही, निर्मला व अनीता घर के अंदर सोये हुए हैं जबकि बूढ़ी बाहर खटिये पे धोती का पंखा करती हुई पड़ी है । पेड़ पर बैठा उल्लू उसी की तरफ देख रहा है, झींगुर अपनी काना-फूसी में लगे हुए हैं, कहीं दूर आधी रोटी के लिए कुत्ते लड़ रहे हैं । सिरहाने के पास एक लोटा पानी रखा हुआ है, खटिये से लटकती सुतलीओं में कोई भी हरकत नहीं हो रही । ईश्वर की इच्छा के बगैर एक पत्ता नहीं हिलता, आज भी शायद वही नाराजगी है । मच्छर भी काफी लग रहे हैं, बूढ़ी अक्सर मच्छर मारते हुए उठ के बैठ जाती, फिर लोटे से पानी पीती, ' हे राम !' बोल के लेट जाती ।

एक नई सुबह हुई है, लेकिन बूढ़ी के परिवार के लिए नया कुछ भी नहीं, फिर से आज वाला दिन, बीते हुए कल के दिन को दोहराएगा, सबके अपने कर्म व क्रियाएं पहले से ही निश्चित हैं, बूढ़ी व अनीता बची हुई सब्जी को बेचने जाएंगे, निर्मला घर के काम-काज देखेगी व सनेही मजदूरी खोजने बाहर जायगा, आदि, और निश्चित हैं समय के झोले को टटोलती उनकी उम्मीदें, कुछ अनजान सी आशाएं व कुछ जानी-पहचानी निराशाएं । लेकिन अमृतलाल के परिवार के लिए आज की सुबह कुछ ख़ास है । सुबह ताजा नाश्ता बनाया गया, रात की बासी सब्जी, वैसे तो फ्रीज में रखी हुई थी लेकिन सुबह कैसे परोसें ? धर्मराज की पत्नी क्या सोचेगी? सो बाहर गाय को डाल दी गयी । सभी लोगों ने नाश्ता किया सिवाय पवन को छोड़कर । खाने को देखते ही उसे रोना आने लगा, पानी पीने तक की इच्छा नहीं कर रही थी, एकदम सुस्त सा बैठा हुआ था ।


दोपहर होते-होते तबियत और भी बिगड़ती चली गयी । उसके चेहरे की रौनक जाती रही । बुखार नहीं था, लेकिन एक भी अन्न मुँह में नहीं गया था । विमला ने उसकी मन पसंद आइस्क्रीम मंगवाई लेकिन पवन ने उसे छुआ तक नहीं । फिर विमला ने जबरदस्ती उसके मुँह में कुछ डाला, लेकिन तुरंत ही उसने उलटी कर दी । परिवार के एक डॉक्टर को बुलाया गया, उन्होंने कुछ दवायीं व इंजेक्शन भी लगाए, लेकिन हालत में कोई सुधार न आया । धर्मराज व उसकी पत्नी भी वहीँ रुके हुए थे । शाम होते- होते पवन को अस्पताल में भर्ती कराया गया । पवन की आँखों से अनायास ही आंसू बहने लगते । डॉक्टर ने एड़ी-चोटी का जोर लगाया लेकिन बिमारी क्या है, समझ में नहीं आया । स्थिति यहाँ तक बिगड़ गयी की अगर किसी को पवन कुछ खाते हुए देख ले तो उसे तुरंत ही उलटी आ जाती थी । सुबह से दोपहर, दोपहर से शाम, फिर शाम से रात, बारह बज गए, लेकिन एक दाना भी मुँह में नहीं गया, ऊपर से रह-रह कर सिर में दर्द उठना, आँखे भारी-भारी लगना, बेचैनी होना और पेट में दर्द रहना आदि लक्षण धीरे-धीरे शरीर को अपनी चपेट में लेने लगे । हांलाकि डॉक्टर ने ग्लूकोस चढ़ा कर शरीर को एकदम कमजोर होने से बचा लिया लेकिन रोग क्या है, किसी को समझ में नहीं आया । अमृतलाल व विमला की तो नींद ही उड़ गयी, धर्मराज व उसकी पत्नी को नींद आ रही थी लेकिन इस स्थति में कैसे कहें, बीच में कभी-कभी जम्हाई लेकर ये जताने की कोशिश भी करते । लगभग रात २ बजे धर्मराज व उसकी पत्नी को अमृतलाल आराम करने के लिए उनके घर छोड़ आये । इसी बीच एक अस्पताल की दाई ने जो की शाम से ये सब देख रही थी, विमला को बताया की उसके बच्चे को नजर लगी है । ये सारे लक्षण उसी कुदृष्टि के हैं । वो एक बार किसी नजर झाड़ने वाले को दिखा ले । जो तर्क दाई ने दिए, उसके आगे विमला बोल नहीं पाई, वैसे भी विमला इन सब बातों पर जल्दी ही भरोसा कर लेती थी, इसे उसकी ममता कह लीजिये या कमजोरी, उसे निदान से मतलब था, तरीकों से नहीं । लेकिन यहाँ आस-पास या दूर वो किसी को नहीं जानती थी जो ये सब करता हो । उसने दाई से बड़ा ही अधीर होकर पूछा तो दाई ने कहा- “वो बुढ़िया सुबह दस बजे के आस-पास मुकेरी बाजार में बैठती है, किसी से भी पूछ लेना 'झाड़-फूँक' करने वाली अम्मा, लोग जानते हैं, उसे ।“ जैसे एक आशा की किरण जगी हो । रात अपने चौथे पहर को धीरे-धीरे खर्च कर रहा था, उसे भी तो अपने होने का अहसास दिलाना था, नहीं तो इस पहर का मूल्य पल-पल ओझल होते चाँद से बेहतर कौन जान सकता है । आज से पहले शायद ही कभी अमृतलाल और विमला ने इस पहर के अकेलेपन को महसूस किया हो । ऐसा लगता जैसे समय ठहर गया हो, लेकिन दीवाल घडी की छोटी सुई की ‘खट–खट’ आवाज आती रहती । दोनों रह-रह कर अस्पताल की खिड़की से बाहर झांकते, घर अभी भी सोये हुए लगते, बाहर घास में से झींगुरों की आवाज आती । टिटिहरी आपस में बातें कर रहीं थीं । विमला ने मन ही मन भगवान् से प्रार्थना जरूर की होगी, की समय जल्दी बीत जाए, लेकिन उसे ये नहीं पता की समय निष्पक्ष होता है, वो अपनी पूर्वनिर्धारित चाल से ही चलता है, वो गरीबों की रात काट के, अमीरों को सुबह नहीं दे सकता, उसमे भेद-भाव नहीं है । भोर के मुर्गे जाग चुके थे और पुरवा हवा बहने लगी थी । अमृतलाल झाड़-फूँक जैसे, अन्धविश्वास में भरोसा नहीं करते थे, लेकिन विमला के विश्वास से उसे भी थोड़ी आशा हो गयी थी, और डाक्टरों के अविश्वास पर निराशा । पवन की स्थिति बदतर ही थी, डाक्टरों के पास कोई जवाब नहीं था, फिर भी अपने तरफ से पूरी कोशिश कर रहे थे । अमृतलाल ने तय किया की पवन को इस अस्पताल से निकाल कर दूसरे नगर के अच्छे अस्पताल में भर्ती करेंगे, इसलिए अस्पताल की कागजी कार्यवाही के दौरान उसे वापस घर लाने लगे । विमला ने सहारा देकर पवन को गाड़ी में बैठाया । वे लोग मुकेरी बाजार के पास से गुजरे, और वहां विमला के कहने पर अमृतलाल 'झाड़-फूँक वाली अम्मा' का पता पूंछने लगे । कुछ पुराने लोगों की दुकाने खुल चुकी थीं, कुछ नए लोगों की दुकाने खुलनी बाकी थीं । उन्ही लोगों से मालूम चला की एक धोबिन पहले झाड़-फूँक करती थी, लेकिन तीन महीने पहले कहीं और चली गयी । विमला की आशा धूमिल हो गयी, लेकिन अमृतलाल को दूसरे अस्पताल से अभी भी उम्मीदें थीं, इसलिए वो घर की तरफ बढ़ चला । पवन चुप-चाप पलकें गिराता व उठाता । दोनों ने दूर से अपने घर की तरफ देखा, एक बुढ़िया उसके साफ़-सुथरे, संगमरमर के चबूतरे पर बैठी हुई है । विमला ने सोचा कोई भिखारन सुबह-सुबह ही आ गयी है । उसके दिमाग में, फुटपाथ पर से सब्जी खरीदने का संकोच, मेहमानो का ठीक तरीके से आवभगत ना कर पाने की चिंता, मशरूम जैसी महंगी सब्जी फेंकने का अफ़सोस, पवन का एक अन्न भी ग्रहण ना करने का दुःख, रात की थकावट, मन में सुबह की निराशा, चबूतरे पर बैठी भिखारन को देखकर गुस्सा आदि अप्रत्यक्ष भावनाएं उथल-पुथल कर रहीं थीं, परिणामस्वरूप उसके दिमाग ने उससे कहा -"यहाँ मेरे बेटे ने कल से पानी तक नहीं पिया है, और एक इन भिखारियों की पेट की आग, सुबह होते ही भभक जाती है ।" ये तीखे वाक्य दिमाग से निकलते ही उसे थोड़ा आराम हुआ, वो गुस्से से गाड़ी से उतरी और बूढ़ी को देखकर कहना चाहती थी की ‘सुबह-सुबह ही भीख मांगने चली आयी हो’, लेकिन उसके संस्कार ने उसे रोक दिया, फिर भी चिढ कर हथेली को ऊपर घुमाते हुए उसने बूढ़ी से केवल इतना कहा- " सुबह-सुबह ?" बूढ़ी चबूतरे पर बैठी अपनी चप्पल की बद्धी लगाने की कोशिश कर रही थी, शायद बद्धी का हुक टूट के कहीं गिर गया होगा । बूढ़ी ने समझा की विमला जानना चाहती है की वो कौन है? व यहाँ कैसे? धोती से बाहर झांकते सफ़ेद-मैले उलझे बालों की आड़ से, नजरें बिखेरती कीचड़ भरी आँखें कुछ जानी पहचानी सी लग रही हैं । ये तो वही सब्जी वाली बुढ़िया है, लेकिन ये यहाँ क्या कर रही है ? विमला ने उसे पहचान लिया ।

विमला कुछ और बोलती इससे पहले बूढ़ी ने पूछा-" बेटवा अच्छा हो गया ?" ये सुनते ही विमला के तेवर बदल गए, उसका क्रोध कमजोर पड़ गया, उसके बोलने से पहले ही बूढ़ी ने बताया-" आज भोर में एक औरत ने बताया की साहब का बेटवा बीमार है, नजर लगी है ? आने में थोड़ा देर हो गयी, राह में चप्पल भी टूट गया था, एक बार बचवा को दिखा दो ।" विमला ने आशा से पूछा-" तुम्हे आता है नजर झाड़ना?' झाड़-फूँक वाली अम्मा' तो मिली नहीं ।" बूढ़ी ने मुस्कुराते हुए बताया की वो अम्मा उसकी चहेरी बहन थी लेकिन लगभग ढाई महीने पहले काशी चलीं गयी और वापस लौट के नहीं आयी, लेकिन उसे भी नजर उतारना आता है, उसके पति ने ये मंत्र उसको सिखाया था । विमला के मन में आशा की एक नई लहर दौड़ गयी, उसने पवन की तरफ देखा । अमृतलाल पवन को गाड़ी से उतार कर दरवाजे के अंदर ले गए, अंदर काफी बड़ा बरामदा था, बूढ़ी को भी अंदर बुलाया गया, वो जमीन पर बैठ गयी, उसने पवन को देखा और समझ गयी की बहुत बुरी नजर लगी है । उसने गोबर की राख मंगवाई लेकिन वहां कहाँ राख मिलती ? उसने धोती के एक छोर की गट्ठी खोलकर थोड़ा राख निकाला, शायद उसे पता था की बड़े लोगों के यहाँ राख का क्या काम, सो वो अपने चूल्हे में से लेते आयी थी । अमृतलाल ने पवन को बूढ़ी के सामने बैठाते हुए उससे पूछा की यहाँ का पता किसने बताया । बूढ़ी ने जवाब दिया-" हमरे तरफ सभी जानते हैं, 'बड़े चबूतरे वाले घर' को ।" पवन को सहारा देकर बूढ़ी के सामने बैठाया गया । बूढ़ी ने अपनी धोती में हाथ पोछा, फिर हथेली की राख को एक चुटकी में लिया और पवन को देखती हुई कुछ बुदबुदाने लगी । फिर जम्हाई लेते हुए चुटकी वाली राख को पवन के माथे पे लगा दिया । तीन-चार बार उसने यही प्रक्रिया दोहराई । बार- बार जम्हाई लेती व राख को माथे पे लगा देती । बूढ़ी को देखकर विमला को भी जम्हाई आने लगी थी । पवन जैसे नींद के जड़त्व में चला गया हो । पवन को आखिरी टीका लगा कर बूढ़ी ने हाथ झाड़ दिए । "दोपहर तक ठीक हो जाएगा, बहुत बुरी नजर लगी थी, चेहरा उतर गया है, "- बूढ़ी ने आत्मविश्वास के साथ मुस्कुरा कर कहा । विमला के जैसे जान में जान आ गयी, अमृतलाल अभी भी कुछ समझ नहीं पा रहे थे, वो इसे पैसा लूटने का तरीका समझ रहे थे व अंधविश्वास भी, उनके दिमाग में बड़े अस्पताल के, बड़े डाक्टर से मिलने की इच्छा अभी भी बरकरार थी । दोनों लोग पवन को सहारा देकर घर के अंदर लाने लगे, उन्होंने बूढ़ी को रुकने के लिए नहीं कहा, उनका मानना था की बूढ़ी तो हर हाल में उन लोगों का बरामदे में इंतज़ार करेगी, फिर कुछ पैसे मांगेगी, इसीलिए तो वो यहाँ आयी है । ये ठीक भी है, भाई जहाँ डाक्टरों ने हजार- दो हज़ार लूटा हो वहां सौ-पचास और सही, बेटे की ममता ही ऐसी है । विमला के मन में भी विचार आया की बूढ़ी उसके बच्चे के लिए यहाँ तक आयी है, बीस-तीस रूपए तो देना ही चाहिए, अम्मा के लिए तो इतना काफी होगा । पवन का कमरा थोड़ा पीछे की तरफ था, वहां जाने-आने, फिर उसे बिस्तर पर लेटाने, तकिया लगाने आदि में थोड़ा समय लग गया । अमृतलाल अपना बटुआ निकालते हुए बाहर आया, दस-दस के नोट निकालते हुए उसने बूढ़ी की तरफ देखा लेकिन वो वहां नहीं थी । शायद वो बाहर बैठी हो, लेकिन बूढ़ी बाहर भी नहीं थी । वो किस रास्ते से आयी थी, किस रास्ते से गयी, कुछ भी नहीं पता ।


अमृतलाल ने घर के अंदर आकर विमला को बताया । वो भी घर के बाहर आयी, लेकिन बरामदे तक आकर ठहर गयी । दोनों ही कुछ बोल नहीं रहे थे, केवल एक दूसरे को देख रहे थे और दोनों के विराम होंठो पर एक ही सवाल था 'क्या बूढ़ी पैसे के लिए ही आयी थी ?' विमला को बाद में थोड़ी शर्मिंदगी महसूस हुई की उसने बूढ़ी को भिखारन समझा । उसे ऐसा लगा की बूढ़ी के सामने वो लोग ही भिखारी थे । फिर अमृतलाल बड़े अस्पताल जाने के लिए नहा-धो कर तैयार होने चला गया । विमला सुबह का नाश्ता बनाने चली गयी । आज के प्रतियोगी संसार में अधिकतर लोग ईर्ष्या, प्रसिद्धि की तृष्णा, आदि जैसे दोषों से ग्रस्त हैं । उनसे जनित अदृश्य व सूक्ष्म तरंगों का हम पर आध्यात्मिक रूप से कष्टदायक प्रभाव पडता है । इसी प्रभाव को कुदृष्टि लगना कहते हैं । यही तरंगे हमारे चारो ओर एक रज-तम प्रधान आवरण के रूप में हमारे स्थूलदेह, व मन पर आक्रमण करती है, व हमें कष्ट देती हैं ।

बूढ़ी को नज़र उतारने का मंत्र उसके स्वर्गीय पति 'रामजतन' ने दिया था । रामजतन जब भी किसी की नजर उतारते, एक पैसा भी न लेते, वो इसे गुरु की आज्ञा समझते । बूढ़ी भी उसी मान्यता को संभाले हुई थी, परिस्थितयां कितनी भी विपरीत क्यों न हों । वो अपनी टूटी चप्पल हाथ में पकडे घर की ओर चली जा रही थी, उस चप्पल को धागे से बाँध कर ठीक करेगी, उसे भी तो अपनी दूकान खोलनी है, आज थोड़ी सब्जियां ही बेचने के लिए बची हैं।

 

दोपहर हो चुकी है । गरम हवा के थपेड़े नीम की पत्तियों को सुखाकर डालियों को हल्का कर रहे हैं । कुत्ते ट्रक के नीचे लेटे हुए हैं । गलियां खाली सी लग रहीं हैं । पक्के मकानों के अंदरूनी कमरे ठन्डे हैं । पवन को जोरों की भूख लगी है, गरम पतली-पतली रोटियां, दाल, सब्जी, आइसक्रीम व फ्रीज़ का ठंडा पानी पवन के सामने रख दिए गए । विमला और अमृतलाल दोनों फूले नहीं समां रहे थे । अमृतलाल इस नई बिमारी को लेकर उलझन में थे, ये कौन सी बिमारी है जो राख से ठीक हो गयी, लेकिन खुश थे । विमला ने ही अमृतलाल पर झाड़-फूँक के लिए दबाव डाला था, अपने इस निर्णय पर वो इठला रही थी । अस्पताल जाने की जल्दी में विमला ने कुछ टमाटर फ्रीज़ से निकाल कर बाहर रख भूल गयी थी, जो अब गल चुके थे, सो उसने फेंक दिए । मन में सोच रही थी की बूढ़ी ने कैसे गले-गले टमाटर दे दिए थे, दो दिन भी नहीं चल पाए, और साथ ही साथ ये भी दिमाग में चल रहा था की पवन को नजर कैसे लगी होगी ? कल शायद गोलगप्पे खाते वक़्त, या फिर आइसक्रीम खाते वक़्त या फिर रात खाना खाते वक़्त ? वो ये भी सोच रही थी “नजर कौन लगा सकता है ? धर्मराज या उनकी बीवी ? नहीं नहीं, ये लोग नहीं लगा सकते, ये लोग भी हमारे जैसे (अमीर) हैं, इन्हे क्या कमी है? इन्हे क्या लालच है ? शायद उस बूढ़ी ने ? या उसकी बच्ची ने ? जरूर इन्होने ही कुदृष्टि डाली होगी । विमला को याद है जब वो बूढ़ी से सब्जी खरीद रही थी तब उसकी बच्ची गाड़ी को घूरे जा रही थी, जरूर उसी ने लगाईं होगी, इन्ही लोगों के पास कमी लगी रहती है….”


लोग कहते हैं की समय एक जैसा नहीं होता, लेकिन समय की प्रकृति एक सामान होती है, वो कभी नहीं बदलती,यह निःस्वार्थ व निष्पक्ष होती है, जितना जिसके हिस्से में होता है, समय उतना भाग्य उसके हिस्से में परोस देता है ।प्राणी एक दूसरे पर निर्भर हैं, ये संसार सापेक्षता व परस्परता के नियम के अंतर्गत चलता है, कभी हम किसी का नुक्सान करते हैं, तो कभी कोई हमारा लाभ करता है । इस हानि व लाभ को हम किसी न किसी चीज का आधार बनाकर तय करते हैं और इनको हम अपने दुःख व अपनी खुशियां से जोड़ लेते हैं, फिर दूसरों पे दोष लगाते हैं, लेकिन हम ये भूल जाते हैं की समय की धोती में हमारे भाग्य के लिए जितना बंधा होता है उतना हिस्सा ही हमें मिलता है, जैसे उस बूढ़ी की धोती में अनीता के लिए एक रूपए बंधा था, ये एक रुपया ही अनीता के हिस्से में था, उस एक रुपये से खरीदा हुआ गुब्बारा भी फूटा निकला, क्योंकि किस्मत इससे ज्यादा नहीं दे सकती थी, यही उसके हिस्से में था, पवन का टूटा हुआ आइसक्रीम का टुकड़ा, पवन के हिस्से में नहीं था, बूढ़ी का एक ढेर का नुक्सान ही बूढ़ी के हिस्से में था, बूढ़ी के टूटे हुए चप्पल ही उसके हिस्से में थे, विमला ने जो लाभ बूढ़ी की सब्जियों पर कमाया, उस लाभ को उसने बचे हुए पराठे व बासी सब्जी के रूप में फेंक दिए, दवाओं के रूप में जो अमृतलाल के पैसे बह गए वो भी किसी के नुक्सान का नतीजा ही था, विमला के फ्रीज़ से निकले हुए टमाटर भी गल गए, ये भी इन्ही कारणों में से एक था…। ये छोटी-छोटी घटनाएं, पल-पल, समय से अलग होती रहती हैं, समय चाह कर भी इन्हे संजो के अपने पास नहीं रख सकता, क्योंकि ये हमारे हिस्से में लिखी हुई हैं ।

 

अमृतलाल अपनी उलझन व आश्चर्य से उबर नहीं पा रहा था, विमला अपनी उथल-पुथल व निर्णय के बीच हिलकोरे खा रही थी, पवन आइसक्रीम चाट रहा था, घड़ी की सुइयां समकोण बना रहीं थीं, कड़क धूप, अमृतलाल के घर को बाहर से तपाये जा रही थी जबकि, गलियों में बहने वाली लू सड़कों पे धूल उड़ा रही थी । उधर, बाजार में दोपहर का सन्नाटा छाया हुआ है, सब्जीवाला पुदीने की पत्तियों पर पानी डालते हुए अपनी सब्जियों की खुद से ही बड़ाई कर रहा है, सड़क पर फेंके गए पालक के सड़े हुए पत्तों को गाय खा रही है, सूखे पेड़ की डाली पर बैठा कौवा कावं-कावं कर रहा है, और कूड़े के पास बैठी बूढ़ी अपनी धोती से हवा करते हुए, बचे हुए सब्जी के ढेर को सवांर रही है, अनीता जलती हुई सड़क पर अपने छोटे कदमो से चलती हुई लोटा भर पानी ला रही है । बूढ़ी ने अपने टूटे हुए चप्पल की बद्धी को धागे से बाँध कर फिर से काम लायक बना दिया है । गर्मी की वजह से टमाटर और निम्बू जल्दी खराब हो रहे हैं, इन्हे जल्दी बेच कर हटाना होगा, कुछ गल गए हैं तो कुछ सूख गए हैं, इसलिए आज एक ढेर छह रूपए का ही बिक रहा है । ‘इस बार मंडी से डेढ़ सौ रूपए की सब्जी आयी थी, तीस रूपए का मुनाफा हुआ । कल सनेही मंडी से नई सब्जियां ले आएगा…’ ऐसा सोचते हुए बूढ़ी चबेना चबा रही है, चेहरे की झुर्रियों में फंसी हुई पसीने की बूंदे, ठुड्डी के आखिरी बिंदु से गिर जाने का इंतजार कर रही हैं और बूढ़ी अपने, आज के हिस्से में आने वाले ग्राहकों का…..







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