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Modern Meera

Children Stories

4.3  

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पक्की सहेली

पक्की सहेली

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बाद में बताउंगी।मिलने पर। 


कहकर रुंधे गले से फ़ोन रख दिया उसने, एकबार फिर. 


गला तो धरा का भी रुंध आया है और आँखों में कुछ जलने चुभने सा भी लगा है. जानती है , ये बाद कभी नहीं होगा। और मुझे इसमें तसल्ली कर लेनी होगी। यही तक तहलीज़ है, हमारी दोस्ती की. 


ऐसा पहली बार नहीं हुआ है. क्युकी धरा तो बरसो से जानती है आशा को. बड़ी पक्की सहेली है, ऐसा सब कहते हैं. हर पार्टी में साथ जाना, साथ बैठना, एक ही गाने में डांस करना, हंसना बोलना खिलखिलाना सब कुछ. 


पर कुछ छूटा छूटा सा रहता है हमेशा. कुछ अधूरा अधूरा सा , और आजकल ये बात धरा को न जाने क्यों बहुत परेशान कर रही है. 

कितनी ही बार उसने अपने मन से इस बात को हटा देने की कोशिश की है, पर घूम फिर कर घडी के काँटों की तरह ये सवाल उसके जहाँ में आ जाता है. क्या सचमुच आशा मुझे भी अपनी सहेली मानती है? 


हर पार्टी के पहले पूछती ज़रूर है की क्या पहनना है, मेरे जन्मदिन को कभी नहीं भूलती, खास कर मनाती भी है. मुझे जब भी घर पर बुलाती है, खास मेरे पसंद का ख्याल रखकर खाना भी बनाती है. बहुत आवभगत , बहुत सारे प्रयत्न किये जाते हैं, और इसीलिए धरा मानती है की आशा पक्की सहेली है उसकी। 


पर चीज़े हमेशा एक जैसी नहीं रहती. 

आजकल धरा घंटो आईने में खुद को देखती है और पहचान नहीं पाती. कभी कभी कुछ बड़बड़ाने और रोने भी लगती है तन्हाईयो में. लेकिन , आंसू पोछकर हमेशा चहकती से आवाज में फ़ोन उठाती है। ..चाहे वो आशा को हो या किसी का भी. 


आज बैठे बैठे न जाने क्या हुआ, धरा का आंसू जैसे अंगारो में तब्दील हो गए. झुलसाने लगे थे उसका चेहरा, घुट रहा था उसका दम. जी कर रहा था की इसी आग में सब कुछ भष्म कर दे. वो सारे झूठ के रिश्ते और दिखावे की हंसी जो हो कर भी नहीं है. होठो पर ही ठहरे रहते हैं, कभी आँखों और दिल तक पहुँच नहीं पाते. 


इसी आपाधापी में उसने आशा का नंबर मिला दिया. 


उधर से जानी पहचानी आवाज़ में प्रत्युत्तर आया. 


हाँ , धरा। बोलो कैसी हो?


ठीक हूँ, तुम बताओ. 


हाँ यार , सब ठीक है बस. तुम सुनाओ।


कुछ सेकेण्ड लम्हे यूं ही तारो में झूलते हैं... पर धरा को ही बोलना पड़ेगा. उसे तो बात छेड़नी ही पड़ेगी, पक्की सहेली है न आशा उसकी? 


पता नहीं यार, कुछ अच्छा नहीं लग रहा। . जी करता है सब कुछ छोड़ कर कहीं भाग जाऊं. 


किसी तरह सिसकियों को गले में बांधते हुए, उन शब्दों को कह डालती है धरा. 


क्यों? क्या हो गया? कहाँ हो? 


कहाँ जाउंगी यार , यही हूँ बस.. 


अब क्या करोगी , धरा. सबका यही हाल है। 


धरा फिर से कंफ्यूज हो जाती है. शायद आशा ने सुना नहीं क्या? मैंने कहा तो उसको , मैं सबकुछ छोड़ कर चली जाना चाहती हूँ. सब कुछ. 


हाँ, वो तो है.. लेकिन तुम अच्छे से हैंडल कर लेती हो शायद.. मेरा पता नहीं यार, कुछ सोच नही पाती। कभी कभी लगता है। .. 


कहते कहते गला फिर से भर आता है , पर इसबार धरा सम्हाल लेती हैं. एक पल को जांचना चाहती है शायद, उसकी पक्की सहेली देख पायेगी क्या उसके मन में चल रहे द्वन्द को? 


कहाँ यार, मेरे भी लाइफ में बहुत कुछ चल रहा है. सब का वही हाल है. 


लगभग चीखने का मन करता है धरा का, की सुन नहीं रही शायद तुम. मुझे चाहिए मेरी सहेली, जो देख सके मेरे शब्दों की बेचैनी। फिर खुश को सम्हालती है, क्युकी सहेली तो मैं भी हूँ. कितनी स्वार्थी हो जाती हूँ कभी कभी. सिर्फ अपना अपना सोचने लगती हूँ. शायद उसे कुछ कहना हो? पूछ कर देखती हूँ.. शायद उसका दुःख बांटकर ही मेरा मन हल्का हो जाये. 


आशा, कहो न क्या हुआ? 


बस यार , चलता रहता है. वही सब 


क्या? मैं तो हूँ न.. कुछ कर शायद न पाऊं पर मन तो हल्का कर सकती हूँ तुम्हारा. बोलो न. 


अब तक धरा ने अपनी आवाज़ में से बेचैनी घबराहट को निकाल कर उनकी जगह प्रेम दोस्ती और सच्ची चिंता को रख दिया है. 


अब जाने दो,मैं बाद में बताउंगी. मिलने पर.


धरा का मुंह खुला का खुला रह जाता है. एक पल को सांसे रुक जाती है. 


फ़ोन रख दिया गया है. 


रिश्तो की सीमा एकबार फिर याद दिला दी गयी है, जिसे धरा शायद कभी पार नहीं कर पायेगी. 


धरा जानती है, वो बाद नहीं आने वाला क्युकी उसकी और आशा की दोस्ती की सीमा उस पार नहीं जाती. उसकी और सीमा की दोस्ती के विश्वास की धूरी घूमती है रोजमर्रा के खुशहाल जीवन के बादलो के इर्द गिर्द. उसके बाहर न धरा को कभी जाने की अनुमति आशा से मिलेगी, और धरा की ऐसी कोशिश शायद उसे पुरे चित्र से ही निष्काषित कर दे.


पक्की सहेली? या अकेली? 


धरा आंसू पोछकर कुछ देर देखती रह जाती है अपने सामने उभर आये इस नए सच को. मन नहीं मानता की इसे अपना कर आगे बढ़ जाऊं, पर अब शायद वक़्त आ गया है की सच हो उसके अपने नंगेपन में अपना लिया जाये।


वैसे, शायद घंटो धरा के मन में ये उधेड़ बन चलती रहेगी। क्या और क्यों नहीं कर पाती है अपना बिश्वाश हर आशा अपने सामने खड़ी हर उस धरा को ? क्या खो जाने जाने का डर होता है? किस डर को सहेज कर बचाये रखने के चक्कर में खो दिए जाते है अनगिनत मौके किसी को दिल खोल कर अपना बना लेने के? किसी को दे देने का एक मौका, अपना बन जाने के? 

जवाब धरा के पास नहीं है, शायद होगा भी नहीं। पर फिलहाल ये सवाल ही एक बढ़ता हुआ कदम है , सच की ओर.


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