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खिड़की के पार

खिड़की के पार

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अक्सर उस खिड़की के दूसरी तरफ एक बुजुर्ग बैठता था और बहुत आहिस्ते आहिस्ते काम करता था। दूसरे लोगों की भांति मैं भी कतार में खड़े खड़े सोचता कि काश उस जगह पर कोई युवा बैठता तो काम कितना जल्दी हो जाता। पोस्ट ऑफिस की ये इकलौती खिड़की हमेशा सभी से अच्छा खासा इंतज़ार करवाती। कभी कुरियर करने, कभी स्पीड पोस्ट करने तो कभी और किसी काम से मुझे महीने में कम से कम 10 बार तो आना ही पड़ता था। धीरे धीरे बहुत से चेहरों से पहचान हो गई और एक मुस्कान का रिश्ता बन गया।

 

एक दिन खिड़की के दूसरी तरफ एक लड़की बैठी थी। हिरनी सी आँखें और नजर का चश्मा, हल्का सा काजल, गालों पर लाली, सलीके से बंधे बाल, कानों में बालियां, होंठों पर नैसर्गिक लाली और हल्के नारंगी रंग का पटियाला सूट। बस एक इंसान के बदल जाने से ऐसा लग रहा था जैसे रेगिस्तान में किसी ने गुलाब का बागीचा लगा दिया हो। उसको और नजदीक से देखने की हसरत हुई पर पंक्ति का कायदा था इंतज़ार करो सो खड़ा रहा। मेरी तरह और भी लोग थे जो गर्दन निकाल निकाल कर उसको एक नजर देखने की कोशिश कर रहे थे। उसके काम में स्फूर्ति थी और मेरा नंबर भी आ गया। एक नजर उसको देख पाता तब तक उसने कहा "नेक्स्ट"।

 

मैं तो उस से नजर भी नहीं मिला पाया। सोचा किसी बहाने पलट कर कुछ कहूँ मगर क्या कहता? मुंह लटकाये चल दिया घर की ओर। पूरे रास्ते कुछ ना कुछ सोचता रहा। "इतनी कम उम्र में नौकरी, ना ना, उम्र ज्यादा होगी, ज्यादा तो क्या होगी, मुझसे एक दो साल ज्यादा, मैं भी तो बाइस साल का हो गया हूँ, ये एक आध साल ज्यादा होगी, या वो बुड्ढा बीमार होगा, एक कुछ दिनों के लिए आई होगी" ऐसे ही सोचते सोचते घर आ गया।

अगले तीन दिन बड़ी बेचैनी से कटे। हर पल बस उसी का ख़याल। फिर एक चिट्ठी पोस्ट करनी थी। महकता इत्र और चमकता सूट पहन कर विमान की गति से पहुँच गया पोस्ट ऑफिस। उसी सुंदरी को वहीं पा कर ऐसा लगा जैसे कोई इबादत पूरी हो गई हो। आज मैं सिर्फ 'नेक्स्ट’ सुनने के लिए नहीं आया था, तो जानबूझकर चिट्ठी पर पिनकोड में हेरफेर कर दी। मैं जानता था इस बहाने कोई ना कोई बात तो होगी और ऐसा हुआ भी।

 

उसने कहा- "ये पिनकोड गलत है।"

"अच्छा भूल से हो गया होगा।" मैंने बिना उसके चेहरे से नजर हटाये कहा।

मेरा जवाब सुन कर उसने मेरी तरफ देखा, साफ़ पारदर्शी शीशों के पीछे से झांकती उन आँखों ने सम्मोहित कर लिया। आदतन मैं मुस्कराया पर उसने बड़ी बेरहमी से पेन उठाया, पिनकोड सही किया और कहा 'नेक्स्ट'।

 

मेरी आत्मा उसी खिड़की में अटकी रही, मैं और मेरा महकता इत्र हवा के साथ उड़ते उड़ते घर पहुँच गए। आज रास्ते में कोई विचार नहीं आया।

 

अब बेचैनी और बढ़ गई, उत्कण्ठा मात्र उसको देखने की थी, और देखते रहने की थी। उठते-बैठते, सोते-जागते, खाते-पीते बस उसी का ख़याल। आँखें बंद करूँ तो वही नजर आती, खिड़की के पार, चिट्ठियां और पार्सल लेती हुई और सभी से एक ही बात कहती, "नेक्स्ट"। यही शब्द सुन कर मैं वापस असलियत की दुनिया में आ जाता।

 

अगले 3 दिन उस से बात करने का बहाना सोचता रहा, बात ना सही पर एक मुस्कान तो मिले उसकी। क्या करूँ, कैसे करूँ इसी उधेड़बुन में समय गुजरता रहा। फिर वो दिन आ गया जब एक चिट्ठी भेजनी थी स्पीड पोस्ट से।

 

चिट्ठी ले कर रवाना होने से पहले खुद को दो बार आईने में निहारा। पोस्ट ऑफिस पहुँच कर, एक कार के शीशे में फिर एक बार खुद को निहारा। अंदर जा कर देखा तो नाम मात्र की भीड़ थी, सारे काम आहिस्ते ही हो रहे थे। मेरा नंबर आया तो मेरे पीछे कोई नहीं था। उनसे मेरे हाथ से चिट्ठी ली। मेरी उंगलियां उसकी उँगलियों को छूते छूते रह गई।

 

पता, पिनकोड मिला कर उसने कहा- "सत्तर रुपये दीजिये।"

मैंने कहा- "जी अभी देता हूँ।"

 

इसी बीच उसने नजर उठा कर देखा, सादगी से सरोबार चेहरे की मन ही मन नजर उतारी मैंने और हौले से मुस्कराया। शायद मेरी इबादत पूरी हो गई, उसने भी मुस्करा कर मेरे सारे अरमान पूरे कर दिए।

 

पैसे दिए, रसीद ली और आज मैं वहां उड़ रहा था जहाँ हवा भी नहीं पहुँच सकती, सातवें आसमान पर।

 

फिर तो जब भी पोस्ट ऑफिस जाता उसकी मुस्कान में मोती जरूर सहेज कर लाता। कई बार वो छुट्टी पर होती तो मन में निराशा छा जाती। अगली बार जब भी उसको वहां पाता तो मेरी आँखों में वो मेरी शिकायत पढ़ लेती और अपनी मुस्कान का सब से गहरा मोती दे कर मेरी शिकायत को दूर कर देती।

 

मुस्कराहट का सिलसिला शुरू हुआ और चलने लगा पर एक दिन अचानक सब कुछ बदल गया। मुझे उस खिड़की के पार उसको देखने की आदत हो गई थी पर एक दिन वो वहां नहीं मिली मुझे। ये सोच कर वापस चला गया कि शायद छुट्टी पर हो पर अगली बार भी वो वहां नहीं थी। एक अनजान सा डर लगा मुझे और घबराहट भी हुई, सोचा किसी से उसके बारे में पूछूँ पर ये सोच कर चला गया कि अगली बार पक्का पता लगाऊँगा कि वो कहाँ है।

 

अगली बार जब वहां गया तो दिल के हजारों टुकड़े हो गए। वो उसी खिड़की के पार बैठी थी पर आज वो कुछ बदली बदली थी। लाल रंग का जोड़ा, हाथों में चूड़ियाँ, सर पर लाल बिंदी और मांग में सिन्दूर। वहां खड़े रहने में घुटन होने लगी, उसका ये श्रृंगार आँखों में चुभने लगा था। सोचा कि वहां से चला जाऊँ पर रुकना था ही कहाँ, चिट्ठी पोस्ट करने तक की बात थी, फिर तो जाना ही था। एक एक क्षण में मेरी शिकायत बढ़ती जा रही थी। फिर जब मेरा नंबर आया तो उसने आज सब से गहरी मुस्कान दी मुझे। मैं कोई प्रतिक्रिया नहीं दे पाया, मूरत की भाँति खड़ा रहा अपना पथराया चेहरा लिए। उसने नजरें झुकाई, फिर नजर मिला कर मुस्कराई पर तब तक मैं वहां से रवाना हो गया।

 

घर आ कर किसी से बात नहीं की, शाम तक अकेले बैठा उसी के बारे में सोचता रहा, और सोचते सोचते अचानक विचार आया कि जिस से सिर्फ एक मुस्कान का रिश्ता था उसकी शादी हो जाने पर इतना दुःख क्यों?

 

शादी तो होनी ही थी, उसने कौन सा मुझसे शादी का वादा किया था। जिस से आज तक कोई बात नहीं हुई, कोई मुलाकात नहीं हुई, जिसका मैं नाम तक नहीं जानता उस से कैसी नाराजगी। और रिश्ता मुस्कान का था, वो आज भी मुस्करा रही थी और मैं नहीं मुस्कराया, ये मैंने क्या किया, क्यों किया।

 

जितना बिना वजह उस से नाराज था उस से कई गुना मैं खुद की हरकत पर खुद से नाराज हो गया। सोचा अगली बार अगली बार वो मुस्कराई तो मैं भी मुस्करा कर जवाब दूंगा। आँखों में उसके श्रृंगार वाली छवि बन गई और उसकी बढ़ी हुई सुंदरता की आज फिर से नजर उतारी।

  

समय गुजरता गया, हमारा अनाम रिश्ता जो सिर्फ एक मुस्कान पर टिका हुआ था, वैसे ही बना रहा।

 

ज़िम्मेदारियाँ बढ़ने के साथ ही मेरा पोस्ट ऑफिस आना जाना कम हो गया पर जब भी जाता मुस्कान का एक मोती जरूर बटोर लाता।

 

घरवालों ने मेरे लिए रिश्ता देखा, सगाई हुई और शादी की दिन भी आ गया। उस खिड़की के पार ये खबर नहीं दे पाया कि अब मेरी भी शादी होने वाली है पर तय किया कि निमंत्रण पत्र छप के आ जायेंगे तो एक बिना नाम का निमंत्रण पत्र दे कर उसको बुलाऊंगा जरूर।

 

सभी तैयारियां जोरों पर थी, निमंत्रण पत्र भी आ गए। अपने दोस्तों को निमंत्रित करने निकला और उसका कार्ड देने पहुँच गया पोस्ट ऑफिस।

 

आज खिड़की के पार वो नहीं थी। एक अधेड़ उम्र का आदमी बैठा था। उस से पूछ बैठ- "वो मैडम जो यहाँ बैठती थी, कहाँ है।"

"उनका तो ट्रांसफर हो गया।" वो बड़ी बेरुखी से बोला।

मैं भावशून्य हो गया। एक और बार जो सोचा वो नहीं हुआ। समय कम था और काम ज्यादा, फिर बिना रुके बेरंग लौट आया, ये भी नहीं पूछ पाया कि वो गई कहाँ।

 

शादी से तीन दिन पहले मेरे नाम एक चिट्ठी आई जिस पर बस एक पंक्ति लिखी थी "खिड़की के इस पार मुस्कान मत भेजना, मैं वापस नहीं कर पाऊँगी।" न कोई नाम, ना कोई पता-ठिकाना। सोचा उसको मेरा पता किसने दिया होगा पर फिर ख़याल आया कि मैंने जो कुछ भी पोस्ट किया उसके दूसरी तरफ मेरा पता ही तो था।

मेरे पास बस दो चीजें रह गई, आँखों में उसकी खूबसूरत मुस्कुराते चेहरे की छवि और उसके हाथ से लिखी ये एक पंक्ति वाली चिट्ठी।

 

ज़िन्दगी की उठा पटक में समय गुजरता गया, काम बढ़ता गया और मेरा पोस्ट ऑफिस जाना बंद सा हो गया। जब कभी मैं जाता तो उसकी कमी महसूस होती और मेरे अलावा कोई और जाता तो उसका ख़याल जरूर आता।

 

तीस सालों के लम्बे अंतराल के बाद उसकी एक और चिट्ठी आई जिसमें भी बस एक ही पंक्ति लिखी थी "खिड़की के इस पार ........................।"

 

क्या! क्या वो वापस लौट आई है, वो लाल जोड़े वाली, चश्मे वाली, बिंदी सिंदूर वाली और लाल गालों वाली खूबसूरत लड़की लौट आई है। उसने भी मुझे और मेरी मुस्कान को याद रखा। मुझे उस से मिलना है, उसने मुझे याद किया है।

खुद से अनेकों बातें कर के केवल और केवल उसके लिए पोस्ट ऑफिस गया।

 

पूरे रास्ते आँखों के सामने उसकी छवि घूमती रही। वो हिरनी सी आँखें, आँखों पर नजर का चश्मा, नैसर्गिक लाल होंठ, काले लंबे और सलीके से बंधे बाल, लाल और चमकते गाल।

 

पोस्ट ऑफिस में जा कर जैसे ही खिड़की के उस पार देखा तो जैसे किसी ने मुझ पर ठंडा पानी डाल कर नींद से जगा दिया हो। जिस छवि को मैंने तीस साल सहेज कर रखा वो कहीं नहीं थी। वहां तो एक आधे से ज्यादा सफ़ेद और बिखरे बालों वाली अधेड़ उम्र की "महिला" बैठी थी जिसका चेहरा मुरझाया हुआ था और जिस पर अनगिनत झुर्रियां थी। लाली ना गालों पर थी ना होंठों पर। मेरी कल्पना में बसे चेहरे को भी मैंने उसकी इन झुर्रियों में खो दिया।

 

मैं नहीं जानता कि वो मुझे पहचान कर मुस्कराई या ऐसे ही पर ये वो मुस्कान नहीं थी जिसके लिये मैं आया था। ना ही ये वो चेहरा था जिसको मैं इतने लंबे समय से बस 'एक बार' देखना चाहता था।

 

मैं इस बार भी वैसे ही बिना कोई प्रतिक्रिया दिए रवाना हो गया जैसे उसको उसकी शादी के बाद पहली बार देख कर रवाना हुआ था और इस बार ऐसे गया कि फिर कभी लौट कर नहीं आऊंगा और कभी वहां वापस गया भी नहीं।


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