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shanker nath jha

Drama

3.8  

shanker nath jha

Drama

इन्टर्नशिप का पहला दिन

इन्टर्नशिप का पहला दिन

1 min
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         इंटर्नशीप का पहला दिन, वह भी नाइट इमरजेंसी और वह भी पेडियाट्रिक्स विभाग में। डॉ. लाला सूरजनन्दन के प्रयासों से शिशु विभाग मुख्य औषधि विभाग से अलग हो पाया था और उसे गंगा के किनारे जगह मिली थी, जहाँ एक खूबसूरत सी बिल्डिंग उसे मुहैया कराई गई थी। गंगा का किनारा, गंगा की अनवरत बहती धारा और दूसरी ओर बालू के उड़ते गुबार को देखना किसी रमणीक पर्यटक स्थल से कम नहीं था। दिन में यह जगह जितनी खूबसूरत थी, रात में यह जगह उतनी ही भयावह हो जाती थी। कोने में यह अवस्थित था, इसलिए चहल पहल दिन में तो रहती थी, पर शाम में बिलकुल नगण्य हो जाती थी। इस बिल्डिंग और गंगा के बीच में जो खाली जगह इसके कैम्पस में थी वहाँ ऊँचे ऊँचे वृक्ष थे, जो वातावरण को दिन में शीतल और सुदर्शन बनाते थे, पर यही पेड़ रात में खौफनाक मंजर के प्रतीक हो जाते थे। वृक्षों के पास अँधेरा और भी गहरा जाता था, तेज हवा जब चलती थी, तो पत्तों और टहनियों से टकराने के बाद भयानक सुरताल में वातावरण को प्रकम्पित कर देती थी। कुत्ते भी डरकर जब समवेत स्वर में रोते और भौंकने लगते तो मजबूत दिलवालों के दिल भी पस्त हो जाते थे।

 और सबसे खौफनाक थी वहाँ की सीढ़ी, जो उत्तरी छोर पर बनाई गई थी। निचली मंजिल से सीधे ऊपरी मंजिल तक। बीच की मंजिल से उसे अछूता रखा गया था और इसलिए रात्रि के सूनेपन में उसका सूनापन और भी वर्द्धित हो जाता था।

   सभी बड़े मकानों में यही स्थिति होती है। कमरे तो रौशनी से चकमक रहते हैं, पर सीढ़ियाँ उपेक्षित रहती हैं। यहाँ कते बल्ब या तो चुरा लिए गए होते हैं या फ्यूज होने पर उन्हें बदलने की परवाह किसीको नहीं होती, सीढ़ियों में अँधेरा रहने से कोई काम रुकता जो नहीं। हालत कमोबेस वैसी रहती है जैसे बूढ़े माता-पिता के गंदे बेडशीट को बदलने की जहमत कोई नहीं करता। न बहू करती है, न ही बेटे को इसका खयाल रहता है।

 रात्रि के एक बजे थे। नींद बार बार दस्तक दे रही थी। रेसिडेंट डॉक्टर सोने चले गए, “ कोई जरूरत हो तो बुला लेना। “

 कुरुक्षेत्र में अभिमन्यु के भरोसे छोड़कर अर्जुन चले गए। मैंने हाँ तो कर दी थी, पर मन ही मन डरता रहा। कोई सिरियस केस आ जाएगा तो क्या करुँगा। एक मृत्युंजय मंत्र डॉ. सिनहा देकर चले गए थे।“कोई सिरियस केस आ जाए तो ऑक्सिजन और सैलाइन लगा देना, एक ऐण्टिबायोटिक दे देना और डैक्सोना ठोंक देना। “

          नाइट इमर्जेन्सी का दिन डॉक्टर सिनहा के रोमांस का दिन हुआ करता था। सिस्टर इला उनकी मित्र थी और ड्यूटी रुम का एक कमरा उनकी क्रीड़ास्थली हुआ करता था। मेरा एक दोस्त कहा करता था, “ डॉक्टर्स ऐण्ड नर्सेस आर मेड फॉर इच अदर। “ सफल और असफल रोमांस की अनेकों कहानियाँ हॉस्पिटल की हवा में तैरती रहती हैं। अजीब विडम्बना है अपनी मानसिकता की। डॉक्टरों के साथ नर्स की दोस्ती को सहजता से सभी लेते हैं, लेकिन किसी नर्स के साथ कोई डॉक्टर शादी कर ले तो उसे थोड़ी निम्न दृष्टि से देखते हैं। इस ग्रन्थि की बजह से भी बहुत सारे यंग डॉक्टर्स चाहते हुए भी अपनी नर्स दोस्त से अन्त में शादी करने से मुकर जाते हैं। पुरुष की प्राकृतिक प्रवृत्ति उन्हें सहजता से इसे स्वीकार करने में सहायक होती है।  

 रात का एक बज चुका था। अँधेरा और भी गहरा हो गया था और खामोशी और बी खामोश। वार्ड से आनेवाली आवाज भी थम गी थी र सारे ऐटेडेंट थककर शायद सो गए थे। नर्से ड्यूटीरुम में औंघ रही थी, कोई टेबुल पर सर रखकर सो रही थीं इक्का दुक्का कुत्तों के भौंकने की आवाज आ जाया करती थी। चतुर्थवर्गीय धरीछन भी चादर बिछाकर सामने बारामदे पर सो गया था। नींद मुझे भी आ रही थी और मैं भी सोने की तैयारी कर रहा था। तभी फोन की घंटी बजी। मैंने रिसीवर उठाया तो उधर से आवाज आई, “ डॉक्टर, वार्ड सी में बेड नम्बर 3 की हालत खराब हो रही है। प्लीज़ जरा जल्दी चले जाइए। “ मैंने आला उठाया और चल पड़ा। फिर उस डरावनी सीढ़ी से जाने का खयाल आते ही पैर रुक गए। सोचा धरीछन को साथ ले लूँ। पर आत्मसम्मान आड़े आ गया। मैं किसीके सामने यह नहीं दर्शा सकता कि मैं डरपोक हूँ, खासकर अपने से नीचे कर्मचारी के सामने। हिम्मत कर मैं चल पड़ा। डॉ. सिनहा का मंत्र याद करने लगा, “कोई सिरियस केस आ जाए तो ऑक्सिजन और सैलाइन लगा देना, एक ऐण्टिबायोटिक दे देना और डैक्सोना ठोंक देना। “

              सचमुच ही सीढ़ी खौफनाक थी। अपने ही पदचाप की प्रतिध्वनि दीवाररों से टकराकर जो लौटती थी, लगता था कि कोई पीछे से आ रहा है। सीधी ऊँची सीढ़ी की चढ़ाई से मेरा दम फूलने लगा या डर से, कह नहीं सकता. आस्थमा से यों ही मैं कॉफी परेशान रहा करता था।

 डर को भगाने का कोई नहीं सूझा तो हनुमान चालीसा का पाठ शुरु कर दिया----

जय हनुमान ज्ञान गुण सागर

जय कपीश चहुं ओर उजागर

भूत प्रेत निकट नहिं आए

 महावीर जब नाम सुनावे।

हाँफते हाँफते किसी तरह मैं उपर पहुँचा। बेड नम्बर 3 के पास सिस्टर मौजूद थी. गुरु ने जो गुरुमंत्र दिया था, वह पहले ही कर चुकी थी। सैलाइन शुरु कर दिया था, डेक्सोना ठोंक दिया था।

 “ डॉक्टर, जरा देखिए न इसे। अभी अभी ठीक था। अचानक न जाने क्या हो गया। “

 मैंने आला उसके सीने पर लगाया, कोई आवाज नहीं थी वहाँ। मैने लॉक को इधर उधर किया, फिर भी कोई आवाज नहीं। मेरा दिल , जो यों ही तेज चल रहा था, जोर से धड़कने लगा था।

    “ सिस्टर हार्ट साउण्ड तो नहीं सुनाई पड़ रहा है, --- साउण्ड भी नहीं है। “ मेरी आवाज काँप रही थी।

सिस्टर ने टॉर्च जलाया और उसकी पुतलियों पर रौशनी डाली। पुतली पूरी फैली हुई थी, प्रकाश के प्रति उदासीन हो चुकी थी।

मेरा पूरा वजूद अस्थिर हो रहा था। पैरों में झुनझुनी उठी और सर तक चली गई। लगा हाथों में शक्ति नहीं है, फेफड़े में तरल हवा घुस रही है और दिल बैठा जा रहा है। आवेश का आधिक्य आँसू बनकर छलक पड़ा। अपनी इस भावुकता के अतिरेक ने मुझे कॉफी असुविधाजनक स्थिति में डाल दिया था। मैं तेजी से बेसिन पर गया और मैंने चेहरे को पानी से धो दिया। पानी से आँसुओं को धो देना रुमाल से उन्हें पोंछने की तुलना में ज्यादा असरदार होता है। फिर मैं सिस्टर्स ड्यूटी रुम में कुर्सी पर बैठ गया।

सिस्टर भी पीछे पीछे चली आई थी। “ डॉक्टर इतना सेण्टीमेंटल रहेंगे तो ड्यूटी कैसे करे पाएँगे। शायद आज पहला दिन था आपका और पहले ही दिन यह स्थिति आ गई। धीरे धीरे सब ठीक हो जाएगा. मुझे याद है, डॉक्टर, पहली बार जब अपने वार्ड में एक बच्चे की मौत हुई थी, तो मैं भी खूब रोई थी। मैंने छुट्टी ले ली थी उस दिन । अब तो आदत सी हो गई है। जिन्दगी और मौत के कुरुक्षेत्र में ही तो हमें रहना पड़ता है । भावुकता धीरे धीरे फूल से पत्थर बन जाती है। “ सिस्टर बोल रही थी और मैं उसके चेहरे की ओर एकटक देखे जा रहा था। मैं एक अबोध बालक की तरह उसे सुने जा रहा था और वह साध्वी प्रवाचक की तरह मुझे लग रही थी।

 सब कुछ ठीक हो जाएगा धीरे धीरे।, उसने कहा था। पर कहाँ ठीक हो पाया था, पाया है सब कुछ। भावुकता की अतिरेकता से मैं पीछा नहीं छुड़ा पाया और जिन्दगी भर द्वन्द्वात्मक स्थिति में जीता रहा हूँ। आत्मग्लानि और आत्मप्रताड़ना से प्रतिदिन प्रताड़ित रहा करता हूँ।

 उसने बी.एच.टी,. सामने लाकर रख दिया . डेथ सर्टिफाय करना था। “ द पेशेण्ट नेम्ड मो बबलू एक्सपायर्ड ऑफ कार्डियाक रेस्पिरेटरी ऐरेस्ट। “

 मैंने उदास आँखों से सिस्टर की ओर देखा। उसकी आँखों में सहानुभूति थी। एक अजीब सा आकर्षण था उन आँखों में।

    “  डॉक्टर मैं आपके लिए कॉफी बनाती हूँ।“

 मैं ना नहीं कर सका। उस ग़म के माहौल से निकलना जरूरी था। ड्यूटी की आधी रात अभी बाकी थी।

कॉफी अच्छी थी। मैंने उसे थैंक्स कहा और जाने के लिए उठा। जाने के पहले मैने पूछा, “आपने अपना नाम नहीं बताया, सिस्टर। “

    “ मेबल नाम है मेरा, पूरा नाम मेबल मैथ्यूज़।“

        “ अई एम प्रसाद, डॉक्टर प्रसाद।“

 “गुड नाइट डॉक्टर “

   “गुड नाइट, सिस्टर। “

 और मैं वापस चल पड़ा। वे भयानक सीढ़ियाँ और बी भयावह लग रही थीं। मृत्यु को सहजता से नहीं ले पाता है मनुष्य। जिस दिन मृत्यु के प्रति मानव संवेदनहीन हो जाएगा, वह निष्ठुर और संवेदनहीन हो जाएगा, पूरा मानव समाज विनाशकारी और हिंसुक हो जाएगा।

 वापस आकर बेड पर ले गया. कम्बल से सर तक को ढक लिया, पर नींद कहाँ थी! पहला ही दिन इतना त्रासद होगा, सोचा नहीं था। डॉक्टर का अर्थ मरीजों का इलाज करना होता होता है मौत से साक्षात्कार होगा और वह भी पहले ही दिन, सोचा न था। सोचने लगा बेकार का मेडिकल साइंस लिया था, बड़े भाइयों की तरह इंजिनियर बना होता तब यह स्थिति तो नहीं आती। डॉक्टर होने का सारा रोमांस काफूर हो गया। बार बार उस बालक का शान्त चेहरा आँखों के सामने कौंध जा रहा था, मेरी असहायता को और भी दयनीय बना दे रहा था।

 आज इतने वर्षों के बाद जब उस दिन को याद करता हूँ तब सोचता हूँ कि सब कुछ बुरा नहीं था उस दिन। मेबल का शान्त चेहरा मैडोना की याद दिला रहा था। कितना अपनत्व था उसके व्यवहार में, कितना व्त्सल्य था उसकी आँखों में। अंगरेजों और क्रिश्चनों ने जो चीजें हमें दी हैं उसमें नर्सिंग एक अहम देन थी। वैद्यराज की कुटिया से आधुनिक अस्पताल तक की यात्रा एक बहुत बड़ी यात्रा हो सकती थी जिसे अंगरेजों ने बिना हमारे प्रयास के हमें मुहैया करा दिया। अस्पतालों में सेवा करने के लिए नर्सों की व्यवस्था शायद हमारा पुरुष प्रधान समाज वर्षों तक नहीं सोच पाता। दो सौ वर्षों की गुलामी ने अगर हमसे बहुत कुछ लिया तो हमें अस्पतालों एवम् आधुनिक शिक्षण संस्थाओं के रुप में बेहतरीन तोहफे भी दिए।

 हाँ, उस रात मेबल का चेहरा मेरी आँखों के सामने घूमता रहा था, वेदना पर संवेदना का मरहम लगाता रहा था।

 उसकी पूरी तस्वीर मेरी आँखों के सामने थी। उसके बोले हुए एक एक शब्द मेरे कानों में प्रतिध्वनित हो रहे थे। उसका चलना, उठना, बैठना, उसका हर मुवमेंट मेरे मन के कैमरे में रिप्ले हो रहा था। नींद परेशान थी और उनींदापन सुखद भी लग रहा था। कॉफी की महक अभी भी तरोताजा महसूस कर पा रहा था।

 सुबह के आठ बजनेवाले थे। थोड़ी देर में नाइट शिफ्ट खत्म होनेवाला था, मेरा भी और मेबल का भी। मन उधेड़बुन में था, जाऊँ या न जाऊँ ? जाऊँ तो किस बहाने जाऊँ? लेकिन उससे मिलने की तीव्र इच्छा तीव्रतर होती जा रही थी। फिर एक अदृश्य शक्ति ने जोर मारा और मेरे पाँव तीसरी मंजिल की सीढ़ियाँ चढ़ने लगे थे। रात के अँधेरे में जो सीढ़ी कितनी डरावनी थी, दिन के उजाले में वह कितनी शान्त और शरीफ लग रही थी।

  वह ड्यूटी रुप में थी, अपने सामानों को सहेज रही थी। मैं उसे देख रहा था, पर उसका ध्यान अपने सामानों पर था। जब मैं उसके कॉफी पास चला गया तब उसका ध्यान भंग हुआ। उसने मुझे देखा और मुस्कुरा उठी। इसके पहले कि मैं अपने शब्दों को सहेजता, बड़े ही स्वाभाविक अन्दाज में वह बोली, “गुड मॉर्निंग, डॉक्टर।“ 

           “गुड मॉर्निंग, सिस्टर “, प्रत्युत्तर आसान था, सहज भी । थोड़ी सी लड़खड़ाहट आवाज में थी. क्योंकि दिल में धड़कन कुछ तेज हो गई थी।

 सोकर उठी थी वह, बाल थोड़े से बिखरे हुए थे , चेहरे पर उनींदेपन का असर था और सुबह की ठंढक भी थी। कुल मिलाकर वह काफी अच्छी लग रही थी, यह अनुभूति वस्तुपरक भी थी और शायद व्यक्तिपरक भी। जो भी हो, वह बहुत अच्छी लग रही थी, अच्छा लगना ही तो अच्छा होना होता है।

     “कॉफी बहुत अच्छी थी, “ मैंने कहा।

      “ थैंक्स डॉक्टर “, मेरे कहने में प्रयास था, उसका उत्तर अनायास था

         “ इट वाज़ ए बैड नाइट फॉर यू, डॉक्टर ।पहला ही दिन और वार्ड में कैजुवल्टी, थोड़ा मुश्किल होता है। “

    “यस ,इट वाज़ बैड नाइट, “ मैंने कहा। पर जो बात मैंने उससे नहीं कही वह मेरे मन में घुमड़ रही थी, “ इट वाज़ ऑल्सो ए गुड नाइट फॉर मी। “

 डे शिफ्ट वाली सिस्टर आ चुकी थी। सिस्टर मेबल ने उसे चार्ज हैंडओवर किया और मेरी तरफ मुड़कर बोली, “ ओ.के. डॉक्टर । मैं चलती हूँ, बाय।“

       “ बाय “, मैं सोचकर आया था कि उसके साथ सीढ़ी उतरुँ और गेट तक उसके साथ चलूँ। पर उसका बाय कहना इतना स्वाभाविक और आकस्मिक था कि मेरा स्नायुतंत्र तुरत कुछ सोच नहीं पाया और बस बाय कहकर खामोश हो गया। सिस्टर मेबल चली गई। मैं उसे देखता रहा और अपने -आप को कोसता रहा। गंगा की शांत धारा बड़ी सौम्य लग रही थी, पटना में सुबह की हवा भी बड़ी कोमल, मधुर और मादक होती है। थोड़ी देर तक मैं गंगा को निहारता रहा और आती जाती नौकाओं को देखता रहा। फिर अपने होस्टल की ओर चल पड़ा।

 लम्बे समय तक एक ही वार्ड में काम करते रहने की वजह से अनायास ही वार्ड की सिस्टर ऑन ड्यूटी से वह मेरी एक नजदीकी दोस्त बन गई। अब संवाद सहज और आत्मीय हो गए थे, अभिवादन में बेतकल्लुफी थी और हँसी में अपनापन था। उस दोस्ती के दौरान उसे जानने का मौका मुझे मिला।

 कुछ लोग होते हैं जो परिस्थितियों की वजह से ऊँचे पदों पर नहीं जा सकते, पर दुर्लभ गुणों से परिपूर्ण रहते हैं, लबरेज रहते हैं। कभी कभी, या यूं कहिए कि अक्सर मैं मेबल के समक्ष अपने को बौना महसूस करता था। यह मेरे व्यक्तित्व का, कुछ लोगों की नजर में, एक गुण भी था, मेरे व्यक्तित्व की कमजोरी भी। बाली जिसके सामने होता , उसकी आधी शक्ति छीन लेता था, और ठीक उसके विपरीत, मैं जिससे भी मुखातिब होता था, अपनी आधी शक्ति क्षीण कर लेता था। बचपन से मेरा यह गुण-दोष मुझसे चिपका रहा, और अबतक मैं चाहकर भी मुक्त नहीं हो सका हूँ। मेरे निर्णय बड़ी सुगमता से दूसरों के द्वारा परिवर्तित कर दिए जाते हैं। कभी इससे फायदे होते हैं, कभी नुकसान।

 लम्बे समय तक एक ही वार्ड में काम करते रहने की वजह से अनायास ही वार्ड की सिस्टर ऑन ड्यूटी से वह मेरी एक नजदीकी दोस्त बन गई। अब संवाद सहज और आत्मीय हो गए थे, अभिवादन में बेतकल्लुफी थी और हँसी में अपनापन था।उस दोस्ती के दौरान उसे जानने का मौका मुझे मिला।

       लिखावट उसकी उतनी ही खूबसूरत थी, जितनी मेरी गंदी थी। एक दिन उससे मैंने कहा था, “मैं भगवान से कहूँगा कि अगले जनम में मुझे अच्छी हैण्डराइटिंग दे भले ही मुझे डॉक्टर नहीं बनाए।“

 “ इसका उल्टा मैं सोचती हूँ “, मेबल बोल पड़ी। 

 “जिसे जो मिलता है, उससे वह सन्तुष्ट नहीं होता।“ मैंने फिलॉसॉफिकल अंदाज में कहा।

दूसरी जो खूबी थी उसमें वह उसकी ग़जब की मेमोरी थी। वार्ड के सभी मरीजों के रजिस्ट्रेशन नम्बर तक उसे याद रहते थे। रिक्विजेशन भरने में मुझे कभी भी ऐडमिशन रजिस्टर नहीं देखना पड़ता था। मेबल एक चलती फिरती मेमोरी कार्ड थी।

 आठ नौ साल का एक बच्चा छः महीनों के बाद चेकअप के लिए आया था। मैंने मेबल को कहा,  “ यह इसी बार्ड में भर्ती था। तुम इसका नाम बता दो तो आज मैं तुम्हें कॉफी पिलाउँगा। “

 मेबल ने थोड़ी देर देखा उसे, थोड़ी देर खामोश रही, फिर बोली, “ शायद जीतेन्द्र नाम है उसका। “

  मैंने कहा, “यू आर ग्रेट मेबल। सच में इसका नाम जीतेन्द्र है। मैं बाजी हार गया हूँ। “

मैं डाक्टरी में जितना नौसिखुआ था,( इण्टर्न्स नौसिखुए ही होते हैं, यद्यपि सारे मरीज और स्टाफ उसे डॉक्टर ही पुकारते हैं), किचन में उससे ज्यादा ही। किसी तरह मैंने कॉफी बनाई और एक कप खुद लिया और एक कप मेबल को दिया।

     “ एक बाजी और हो जाए। यदि मेरी बनाई कॉफी तुम पूरी पी जाओ तो मैं तुम्हें बोटिंग पर ले जाउँगा। “ कॉलेज की अपनी बोटिंग सोसायटी थी। मेडिकल छात्र और इंटर्न्स उन बोटों को लेकर गंगा में सैर किया करते थे। बड़ी आनन्ददायक हुआ करती थी गंगा में बोटिंग। दूसरे मेडिकल कॉलेजों के हमारे दोस्त वहाँ आते थे तो बोटिंग का अनुरोध जरूर करते थे।

 बोटिंग का नाम सुनकर मेबल का चेहरा खिल गया।वह चहक उठी, “तब तो मैं रोज आपके हाथ की बनाई कॉफी पीना चाहूँगी। “

 मैं अन्दर से उद्वेलित था, जैसे एक तपस्वी की तपस्या पूरी होती है, मेरा प्रेम प्रयास भी शायद सफल होने की राह पर था। मैंने मन ही मन उस मरीज को धन्यवाद दिया जिसकी वजह से बात यहाँ तक पहुँची थी। डोर का छोर मेरे हाथ में था, पतंग भी अब मेरी होगी। मैं प्रफुल्लित था। जिन्दगी में हर जो पहली बार मिलती है, वह प्यारी होती है, और प्रथम प्यार तो हृदय के तारों को एक साथ झंकृत कर देता है। ड्यूटी चार बजे तक की ती। मैं उसे पाँच बजे बोटिंग क्लब के पास आने को कहकर अपने होस्टल चला गया।

 मैंने स्नान किया। ड्यूटी से वापस आने पर मैं रोज स्नान कर लिया करता था। ढेर सारा पाउडर अपने बगल और गर्दन पर डाला और कपड़े बदलने लगा। मेरा रूममेट सत्येन्द्र मुझे देख रहा था। उसने पूछा, “ बड़ी तैयारी हो रही है। पिक्चर जाना है क्या ?“

 “ पिक्चर या तो तुम्हारे साथ जाता हूँ या तुमसे पूछकर जाता हूँ। “ मैंने कहा, एक विजयी की मुस्कान मेरे चेहरे पर थी। पहले सोचा कि झूठ बोल दूँ, कुछ भी बता दूँ। पर आदत नहीं थी। दोस्तों से कभी कुछ नहीं छुपाया करता था। सत्य को जितनी जल्दी कह लिया जाए, प्रताड़ना उतनी ही कम होती है।

 मैंने कहा, “ सिस्टर मेबल को बोटिंग पर ले जा रहा हूँ।“

 सत्येन्द्र जोर से हँस पड़ा, “ गाँधीजी रोमांस के रास्ते पर चल पड़े। विश यू ऑल द बेस्ट। “

 अपने सीधेपना और अहिंसक प्रवृत्ति के कारण मेरे दोस्त कभी कभी मुझे गाँधीजी कहकर चिढ़ाया करते थे। सत्येन्द्र को नहीं मालूम था कि हर गाँधी के अन्दर एक जवाहर रहता है। कभी सुषुप्त रहता है, कभी जाग जाता है। लोग मेरे भोलेपन की अक्सर चर्चा करते ते। मुझे लगता था कि मैं बुरा तो निश्चय ही नहीं हूँ, पर उतना भोला भी नहीं हूँ जितना लोग समझते हैं। खैर, कोई नुकसान नहीं है, चरित्र प्रमाण पत्र जितना अच्छा हो, भला ही होता है। एक ही दिक्कत होती है कि गलत बातों पर भी आप ज्यादा आक्रामक या हिंसक नहीं होते। लोग कह कह कर आपकी प्रवृत्ति और प्रकृति को प्रभावित कर देते हैं।

दस मिनट पहले ही मैं घाट पर पहुँच गया था, गंगा को निहार रहा था। गंगा की धारा और भी सुन्दर लग रही थी, सजीव लग रही थी। गंगा की बनती मिटती लहरो की तरह मेरे अन्दर भी कुछ मचल रहा था, खंजन सा कुछ फुदक रहा था।

 और तभी वह आई। पहले तो मैं उसे पहचान ही नहीं पाया। रोज नर्सिंग ड्रेस में उसे देखता था। उसकी वही तस्वीर मेरे दिमाग में उकेरी हुई थी। आज वह साड़ी में थी, चमचमाती नीली साड़ी थी उसकी। मैचिंग ब्लाउज और मैचिंग चूड़ियाँ। हल्का सा मेकअप था चेहरे पर आभा विखेरता। जैसे ही मेरी नजर पड़ी उसकर, वह हँस उठी और तब मेरे मस्तिष्क में कौंधा कि हाँ, मेबल ही है क्योंकि उसकी हँसी बड़ी शालीनता से मेरे मानस-पटल पर कैद थी। हाँ, कैद थी, क्योंकि किसी भी सूरत में मैं उसे जाने नहीं दे सकता था, भूल नहीं सकता था । समंदर में मोदी की तरह चुनकर संजोता है हमारा मस्तिष्क खूबसूरती से खूबसूरत चीजों को।

 “ डॉक्टर,“ वह चहकी । 

 “ गुड इविनिंग, सिस्टर यू आर लुकिंग एक्सेलेंट! मैं तो पहचान ही नहीं पाया था तुम्हें पहली नजर में। औरत साड़ी में और भी खूबसूरत लगती है। “

“ ऐसी बात है डॉक्टर, तो कल से मैं साड़ी में ही ड्यूटी करने आउँगी, भले ही मैट्रॉन मुझे जिन्दा चबा जाए। “

हमलोग घाट की सीढ़ियाँ उतरने लगे। एक एक सीढ़ी हमारी जिन्दगी का एक एक माइलस्टोन बन रही थी. हर कदम पर हम एक दूसरे के करीब होते जा रहे थे, अपनत्व के एहसास से परिप्लावित।

मैंने मेबल से कहा, “बोट पर चढ़ो, आहिस्ते और सामने के बेंच पर बैठ जाओ।“ मैने बोट की रस्सी खोली और पतवार की सीट पर बैठ गया। 

 नाव चल पड़ी गंगा की लहरों पर और हमारा प्यार उमड़ पड़ा दिल की लहरों पर। अनुभूति का यह मधुरतम एहसास था, जहाँ सीमाएँ न तो जमीन जमीन थी न आसमान था। स्वप्न साकार हो उठा था, हृदय के सारे तार झंकृत हो उठे थे। पतवार मेरे हाथ में थी, मेरी नजर मेबल के चेहरे पर थी। नीली साड़ी में मेबल का चेहरा चमक रहा था, जैसे स्याह रात में चाँद चमकता है।

“ मिलन फिल्म तुमने देखी है ? “ मैंने पूछा।

“ नहीं। “ उसने कहा।

“ मिलन में सुनील दत्त नाविक है। नाव खेता है और नूतन उस नाव पर रोज नदी पार करती है, अब लगता है,मैं सुनील द्त्त हूँ और तुम नूतन हो। “

 उसने हँसते हुए पूछा, “  नाव पार लगती है या बीच नदी में डूब जाती है? “

“ अंत में डूब जाती है, “ मैने कहा।

“ आज डराइए नहीं, डॉक्टर, मैं अभी मरना नहीं चाहती।“

“ मरना मैं भी नहीं चाहता, खासकर अब जब तुम मेरे साथ हो। “

“कहानियों में मौत भी रोमाण्टिक नजर आती है। फिल्में मुझे अच्छी लगती हैं, पर मुझे उदास कर देती हैं। हॉल के अन्दर तो सब कुछ ठीक लगता है, पर जैसे ही हॉल से बाहर आती हूँ, बाहर की यथार्थ दुनिया, दुनिया की यथार्थता, दाँत निकाले खड़ी रहती है, डरा देती है मुझे, चिढ़ाती है मुझे। मैं अवसादग्रस्त हो जाती हूँ। “

मेबल के व्यक्तित्व का यह एक और पहलू था, जिसे अब मैं देख पाया. जान पाया। पास आकर ही आदमी किसीकी अच्छाइयाँ, बुराइयाँ, खूबियाँ, खामियाँ जान पाता है। दूर से तो चाँद भी बड़ा और चमकीला नजर आता है और सितारे छोटे और टिमटिमाते नजर आते हैं। मेबल खूबसूरत थी, आकर्षक थी, यह तो देखा था ,महसूस किया था। उसमें वैचारिक गहराई और भावनात्मक फैलाव भी था, यह अब जान पाया। वह मुझे और भी अच्छी लगने लगी।

 देर तक हमलोग बोटिंग करते रहे। शाम होने को आ रही थी। अँधेरा धीरे धीरे पाँव पसार रहा था, हवा तेज होने लगी थी, नाव ज्यादा डोलने लगी थी।

   मैंने कहा, “चलो, अब लौटना चाहिए। “ मेबल हँसकर बोली, “ इतनी जल्दी क्या है? अच्छा लग रहा है।“

    “ तुम्हें अँधेरे से डर नहीं लगता है यह नदी, यह नदी का किनारा दिन में जितना खूबसूरत लगता है, रात्रि में आवारा कुत्तों और आवारा लोगों का अड्डा बन जाता है। एक खूबसूरत सामान है मेरे पास। उसके चोरी होने का डर है मुझे। “

 वह हँस पड़ी, “बहुत डरपोक हैं आप। “

“ सो तो हूँ। “ मैंने कहा और घर की ओर चल पड़ा.

स्वर्ग थोड़ी थोड़ी देर के लिए आपके पास आता है। उसे बहुत देर के लिए आप मुट्ठी में कैद नहीं रख सकते। न तो इन्द्रधनुष दिन भर टँगा रहता है न कोयल दिन भर कूकती है, न तो मयूर हमेशा पंख फैलाए रहता है, न पूनम का चाँद रोज रोज आपकी खिड़की के पास अटका रहता है।

 उस शाम स्वर्ग धरती पर उतरा था या नहीं, पर मेरे पास जरूर आया था। मेबल के साथ बिताए गए वे पल स्वर्गिक से कम नहीं थे।

“गुडनाइट सिस्टर,” 

“ गुडनाइट डॉक्टर। “ उसने अपनी चिरपरिचित मुस्कान के साथ जवाब दिया।

 और मैं वापस अपने कमरे में आ गया।

“ कैसा रहा ट्रिप?“, सत्येन्द्र ने पूछा।

“ जिन्दगी इतनी खूबसूरत लग सकती है, मैंने सोचा न था। “ मैंने कहा।

“ तुम्हें तो कवि होना चाहिए था, डॉक्टर नहीं।“ सत्येन्द्र ने अपने अन्दाज में जुमला फेका।

“ एक कवि और एक डॉक्टर में कोई फर्क नहीं होता है। जब हम दूसरों के दिलों की धड़कनें सुनते हैं तो डॉक्टर हो जाते हैं। जब हम दिल की धड़कनें सुनते हैं तो कवि हो जाते हैं। “

 “ एक और अन्तर है। दूसरों की धड़कनें सुनकर कोई पागल नहीं हुआ है, पर अपनी धड़कनें सुनकर पागल होनेवालों की कतार लम्बी है। जरा सँभाल कर रखना अपने को और अपनी धड़कनों को। “ सत्येन्द्र ने कहा और हम दोनो हँस पड़े।

वह शाम तो अलग थी ही, वह रात भी अलग थी। निद्रा और तन्द्रा के के बीच मीठे स्वप्नों और यादों के एहसासों के बीच रात गुजर गई।

 सुबह उनींदे में जब देर तक सोता रहा तो सत्येन्द्र ने उठाया, “ मजनू जी, सुबह हो गई है । स्वप्नलोक से अब यथार्थलोक में आ जाइए। आज इमर्जेन्सी है, मालूम है न? दिन भर साँस लेने की फुरसत नहीं मिलेगी।“

 सीत बज चुके थे। आठ बजे इमर्जेन्सी वार्ड में पहुँच जाना था। किसी तरह जल्दबाजी में तैयार हुआ और चल पड़ा. नाश्ता करने का समय नहीं था।

 नाइट ड्यूटी वाले से चार्ज हैण्डओवर लिया और कागजात को ठीक करने ड्यूटी रुम में आ गया। य़हाँ मेबल पहले से मौजूद थी। ज्योंही उसकी नजर मुझपर पड़ी, वह खिल उठी। कितनी पवित्रता और सम्पूर्णता होती है प्रेमिकाओं की हँसी में। उनकी प्रसन्नता त्याग और समर्पण की होती है, जबकि हमारी प्रसन्नता में उपलब्धि का परमानन्द होता है।

“ गुड मॉर्निंग, डॉक्टर, “ वहचहकती हुई बोली। “ गुड मॉर्निंग सिस्टर, “ मैंने जवाब दिया।

“ कल की शाम कैसी रही? “ मैंने पूछा

 शाम तो अच्छी रही पर रात दुःखदायी रही। “रात भर ठीक से नींद नहीं आई मुझे। “

 मन ही मन मैंने कहा, “ आग तो इधर लगी ही है, चिनगारी उधर भी भड़क रही है ।“

 फिर वह मुझे साइडरुम में ले गई, अपने बैग से एक डब्बा निकाला और बोली, “ आपके लिए लाई हूँ । पता नहीं अच्छा बना है या नहीं। आपने कहा था न कभी कि आपको गाजर का हलवा  अच्छा लगता है। मैने बनाने की कोशिश की है।“

 मैने सिलवर फॉयल को खोला, अन्दर पूड़ी और हलवा देखकर मेरा मन उछल पड़ा. मीठी चीजें मेरी कमजोरी रही हैं। चाहे जुबान हो या पकवान।

मैं नाश्ता कर रहा था। मेबल मुझे सन्तुष्ट दृष्टि से देख रही थी। नाश्ता नहीं करके आना मेरे लिए अच्छा ही रहा।

“डेलिशियस” मैंने कहा, “हलुआ बहुत अच्छा है। मेस में भी हलुआ बना करता है, पर यह स्वाद उसमें नहीं आता। मेरी माँ कहा करती है- औरत के हाथ का बना खना अलग ही हुआ करता है, क्योंकि वह अपनी कला के साथ उसमें अपनी ममता भी मिला देती है। “

 और फिर यह रोज की बात हो गई। रोज वह मेरे लिए नाश्ता बनाकर लाती और मैं कोई न कोई बहाना बनाकर मेस का नाश्ता छोड़कर आता। एक दिन उसकी ड्यूटी नहीं थी और मैं नाश्ता करके गया था। थोड़ी देर में वह आ धमकी, अपने बैग से उसने पैकेट निकाला। मैंने कहा, “अरे, आज तो तुम्हारी ड्यूटी नहीं थी, फिर यह कष्ट तुमने क्यों किया? “

 वह बोली, “ एक ड्यूटी तो थी। जब किसी कष्ट में आनन्द आए तो वह कष्ट उठाने में हर्ज क्या है? “

 मैंने कहा, “तुमने आनन्द फिल्म देखी है? उसमें राजेश खन्ना का एक लव सॉंग है—अतो भालोबासा भालो नाय बाबूमोशाय। वही डायलॉग  मैं दुहराता हूँ कि इतना प्यार अच्छा नहीं होता है, मेबल जी।“ आज मैंने उसे मेबल नहीं मेबलजी कहकर सम्बोधित किया था। मुझे भी अच्छा लगा और उसे भी।

 “ नदी को समन्दर में मिलकर विलीन हो जाना है। यही उसकी नियति है. यही उसकी तपस्या है। “मेबल ने फिलॉसिफकल अन्दाज में कहा।

 “ और यदि नदी सरस्वती की तरह  रास्ते में खो जाए तो?“ मैंने पूछा था।

“ तो भी वह अमर हो जाती है।“ एक संतोष की सम्पूर्णता थी उसकी आँखों में, शब्दों में सत्य गहराई  थी।

 “ मैं डरता हूं, मेबल। मैंने जिसे भी चाहा है, जिसके भी करीब रहा हूँ उसकी मौत हो गई है। यह बड़ी दुर्घटना हुई है उसके साथ। शुरुआत की बात कुछ अलग थी पर अब मैं सचमुच डर रहा हूँ। कहीं मेरी अपशकुनता  की अगली शिकार तुम तो नहीं होनेवाली हो। “

 “ बहुत डरते हैं।“ उसने कहा।

   “ सीधे क्यों नहीं कहती कि मैं डरपोक हूँ। “  मैंने एक तीर चलाया।

   “ नहीं, आप डरपोक नहीं हो, डॉक्टर। डरपोक आदमी वह होता है जो अपना अनिष्ट सोचकर डरता है। आप अपने लिए नहीं, औरों के लिए डरते हैं। “

 मैं चारो खाने चित्त था। “ तुम जीत गई, सचमुच ही एक जबर्दस्त नॉकआउट पंच मारा है। “

 सुन्दरता ने मुझे आकर्षित किया है, पर विचारों की गहराई और हृदय की निर्मलता ने मुझे हमेशा से ज्यादा प्रभावित प्रबावित किया है. मेबल में वे सारी चीजें थीं और मेरे अन्तर्मन को शिकायत करने का कोई अवसर नहीं था।



समय मिलने पर अक्सर हमलोग बोटिंग करते थे।एक दिन गंगा की धारा के साथ को खुद ही जाने दिया था।  फिर मैंने उससे पूछा, “तुम्हारे नाम का अर्थ क्या है? “

“एक बेवकूफ लड़की. “, उसने कहा और हँस पड़ी।

“ देखो बेवकूफ लड़की, एक बेवकूफ को और बेवकूफ मत बनाओ। तुम तो एक दिन चर्च में जाकर कनफेस कर लोगी और मैं अपनी बेवकूपियों के मकड़जाल में तड़पता रहूँगा।“

 सहसा वह गंभीर हो गई। फिर वह बोली, “ यह एक ऑस्ट्रेलियन पेड़ का नाम है। एक खूबसूरत ञस्ट्रेलियन पेड़। मेरे पापा ने यह नाम रखा था मेरी सारी बहनों के नाम हिन्दी में हैं, सिर्फ मेरा नाम अलग है, उनसे अलग पापा के साथ एक लड़की काम करती थी। पापा को वह बहुत अच्छी लगती थी। उसीके नाम पर मेरा नाम रखा गया था। “

 “ बहुत सही नाम रख दिया है पापा ने तुम्हें। एक खूबसूरत लड़की का नाम खूबसूरत ही होना चाहिए। ब्यूटीफूल गिफ्ट आफ गॉड एण्ड ब्यूटीफूल गिफ्ट ऑफ पैरेण्ट्स। “

 “ खूबसूरती हमेशा वरदान ही नहीं हुआ करती है डॉक्टर। अगर अभिशाप बनकर नहीं आती तो कभी कभी परेशानियाँ लेकर आती हैं। मेरी माँ बहुत ही खूबसूरत थीं। साधारण घर की थीं और अपनी खूबसूरती के कारण एक बड़े घर में शादी हुई थी उनकी। खूबसूरती यहाँ तक और यहीं तक उनके लिए बरदान थी। फिर तो आजीवन कैद हो गई थीं वह। लोग जैसे एक खूबसूरत चिड़िया को पिंजड़े में कैद करके रखते है, मेरी माँ भी बन्द हो गई थी अपने घर की चारदीवारी के अन्दर। आज जब मैं बड़ी हो गई हूँ, उनका दर्द समझ सकती हूँ। माँ की शमित इच्छाएँ ही मेरे अन्दर विद्रोह का रूप लेकर प्रस्फुटित हुईं और सबों के विरोध के बावजूद मैंने नर्सिंग की पढ़ाई की और नौकरी में आई।  अपने पैरों पर खड़ी रहूँगी तो किसीके चाहे वह तुम्हारे जैसा राजकुमार ही क्यों न हो, महल या झोपड़ी की बन्दिनी नहीं रहूँगी।“

 “अभी तो मैं तुम्हारा बन्दी हूँ और वह भी स्वेच्छा से”

   “ मर्द बहुरुपिए होते हैं । शादी के बाद तुरत अपना रूप बदल लेते हैं। किसी लड़की के स्वीकार पर एक बीस्ट राजकुमार बन , शादी के बाद राजकुमार फिर से बीस्ट बन जाता है, दोस्त से मालिक बन जाता है।“

 “ ऑस्ट्रेलियन पेड़ बड़ी बड़ी और खूबसूरत बातें भी करता है। “ मैंने हँसते हुए कहा।

      “एक भारतीय बैनियन ट्री का जो साथ उसे मिला है। “ और वह खिलखिलाकर हँस पड़ी।

     “बैनियन ट्री में एक खामी होती है।“

 “ क्या? “ 

  “ वह कभी जवान नहीं होता। जन्म से ही बूढ़ा होता है।“ 

    “ और ऑस्ट्रेलियन पेड़ सदाबहार होता है, कभी बूढ़ा नहीं होता है। “

 शाम ढलने लगी थी बोट को मैंने किनारे की ओर मोड़ा और जेटी पर लगाया।

      हमारे सम्बन्ध अब स्थायी भाव की तरह स्थापित हो चुके थे जिसमें अंतराओं की चासनी मिलकर इसकी जीवंतता और मधुरता को नियमित रुप से सिंचित किया करती थी। हमारे सम्बन्ध न तो अब औरों में कौतूहल पैदा करते थे न ही प्रश्नवाचक दृष्टियाँ हमें वेधित करती थीं। हमारी अपनी धड़कनें भी अब बेचैन नहीं हुआ करती थीं। साथ सहज हो गया था,बातचीत सुखद होती ती, खामोशी भी सुखदायिनी होती थी। गंगा और गण्डक की तरह ही हम भी बहे जा रहे थे, साथ साथ भी , अलग अलग भी।

       एक दिन जब मेरी ड्यूटी थी और उसकी छुट्टी, तब भी वह टिफिन का डब्बा लेकर पहुँची तो मैने हँसते हुए कहा था, “ ऑतो भालोबासा भालो नाय बालो नाय, बेबी मोशाय। “ और वह हँस पड़ी थी, फिर जल्दी ही लौट गई। मेरा प्रेम उसके प्रेम के सामने बौना पड़ गया था। राधा का प्रेम कृष्ण की बाँसुरी पर भारी था। पराजय की अनुभूति यहाँ सुखद लग रह रही थी। प्रेम के साथ मेरे अन्दर उसके प्रति सम्मान और भी बढ़ गया था।

 मेरे प्रति उसका जितना प्रेम बढ़ता जा रहा था, मेरे अन्दर उतना ही भय व्याप्त हो रहा था। मैं अपने को अपशकुनी समझा करता था। जो भी मेरे बहुत करीब होता था, उसका नुकसान ही हुआ था। मैं अपना नुकसान तो सह सकता था पर मेरी वजह से किसी और को कष्ट उठाना पड़े, यह मेरा अन्तर्मन स्वीकार नहीं करता था। मैं अपने मन को बहलाता यह मेरा भ्रम है। प्रकृति की नजर में मैं कोई विशिष्ट व्यक्ति तो हूँ नहीं, या यूँ कहिए कि कोई भी व्यक्ति विशिष्ट या अतिविशिष्ट नहीं होता है। पर भ्रम ही सही, यह अन्तर्मन में बैठ और पैठ चुका था, निकाले नहीं निकलता था, ठीक बिल्ली के रास्ता काटने के अपशकुन की तरह।

समय तेजी से भाग रहा था। ठीक ही कहा गया है विरही का पल मास के बराबर होता है और प्रेमी का मास पल की तरह निकल जाता है। क्रिसमस का समय आनेवाला था। छुट्टियाँ बचाकर रखी थी उसने। मैं उसे छोड़ने स्टेशन गया था। जाते जाते उसने कहा था, “ क्रिसमस केक लेकर आउँगी खुद अपने हाथों से बनाउँगी आपके लिए। “

मैं कुछ बोल नहीं सका था। उदास मन से हाथ हिलाकर उसे विदा किया था मैंने। यदि मैं जान पाता कि वह हमारी आखिरी मुलाकात होगी तो उसे जाने नहीं देता। पर ऐसा होता नहीं है। नियति अपने इरादे छुपाकर रखती है।

 क्रिसमस बीत चुका था। मैं बेतावी से मेबल का इंतजार कर रहा था। न दिनों न मोबाइल थे, न घर घर में फोन। समाचार चिट्ठियों से ही लिए और दिए जाते थे।

    एक दिन सिस्टर सुमन मेरे पास आई। वह मेबल की निकटतम दोस्त थी। उसकी आँखें सूजी हुई थीं। वह रो रही थी। बड़ी मुश्किल से वह बोल पाई। “ मेबल नहीं रही। रोड एक्सिडेण्ट में उसकी मौत हो गई। “ मेरे पाँवों के नीचे की जमीन खिसक गई। लगा सारा का सारा आसमान मेरे ऊपर गिर पड़ा है। दूसरी सिस्टर्स से भी ये बातें सुनी। सबों के चेहरों पर सदमा और सवाल थे।

 आज एक बार फिर मुझे बेसिन पर जाकर अपने चेहरे को धोने की जरूरत पड़ गई। पानी से आँसुओं को छुपाना था। मर्द हूँ मैं।. सबों के सामने रो नहीं सकता, एक लड़की के लिए, खासकर अपनी प्रेमिका के लिए।

गंगा के किनारे चला आया. गंगा की धारा में देखता रहा। रुम जाने की हिम्मत नही हो रही थी। अपने दुःख से सत्येन्द्र को दुखी नहीं करना चाहता था, न अपना मनहूस चेहरा दूसरों को दिखाना चाहता था। मेरी मनहूसियत ने एक और जान ले ली थी। मैं अपने आपको कोसता रहा, ईश्वर को कोसता रहा।

 रात भर मैं जागता रहा, रोता रहा। उतना तो मैं अपने पूरे बालपन में भी नहीं रो पाया था। सुबह मैंने फैसला कर लिया था। मैं राँची जाउँगा। परिस्थितियाँ पुष्पों को भी पत्थर में परिवर्तित कर देती हैं।

      और मैं रात की बस से राँची चल पड़ा। घर का पता मैंने सुमन से ले लिया था। दिन के दस बजे मैं उसके घर पर था। मैंने अपना परिचय दिया, “मैं डॉ. प्रसाद हूँ, पटने से आया हूँ। मेबल के साथ मैं काम करता था। “

   “हाँ आपकी चर्चा करती रहती थी वह। गॉड की इच्छा। लेट वी हर सोल रेस्ट इन पीस ।“

 मैंने उसकी कब्र का पता लिया। वह पास ही के कब्रिस्तान में दफनाई गई थी। रास्ते में मैंने एक केक खरीदा। कब्रिस्तान के रखवाले की मदद से उसकी कब्र के पास पहुँचा।

     वह अन्दर लेटी होगी, शान्त और बेखबर। सारे लोगों से दूर, खुशियों से निर्लिप्त। मैंने केक को उसकी कब्र पर रखा और इतना ही बोल पाया, “ देखो मेबल, तुम तो मेरे लिए क्रिसमस केक ले के नहीं आई तो क्या हुआ। देखो, मैं लेकर आ गया हूँ।“

 इतना भर कहकर मैं वापस आ गया मैंने उस दिन कसम खाई थी—अब मैं किसीसे प्रेम नहीं करुँगा, न अपने नजदीक किसीको आने दूँगा।


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