Unlock solutions to your love life challenges, from choosing the right partner to navigating deception and loneliness, with the book "Lust Love & Liberation ". Click here to get your copy!
Unlock solutions to your love life challenges, from choosing the right partner to navigating deception and loneliness, with the book "Lust Love & Liberation ". Click here to get your copy!

हिम स्पर्श 18

हिम स्पर्श 18

9 mins
569


सूर्य अस्त होने को दौड़ रहा था। संध्या ने धरती पर प्रवेश कर लिया था। वफ़ाई ने गगन की तरफ देखा। उसे मन हुआ कि वह पंछी बन कर गगन में उड़ने लगे, मरुभूमि से कहीं दूर पर्वत पर चली जाए। वह उड़ने लगी, ऊपर, ऊपर खूब उपर; बादलों को स्पर्श करने लगी, गगन के खालीपन को अनुभव करने लगी। तारे उसके आसपास थे तो चन्द्रमा निकट था। उसने चंद्रमा को पकड़ना चाहा, दोनों हाथ फैलाये किन्तु चंद्रमा को पकड़ न सकी।

“चंद्रमा, मैं तुम्हें अपने आलिंगन में लेना चाहती हूँ, किन्तु जितनी भी बार मैंने मेरे हाथ फैलाये, तुम थोड़ा पीछे हट जाते हो। और मेरे हाथ से निकल जाते हो।“

पंछियों के कलरव ने वफ़ाई के विचारों को रोका। वह पंछियों के समीप गई, जीत उनके साथ खेल रहा था। वह भी जीत के साथ मिलकर पंछियों के साथ खेलने लगी।

थोड़ा समय व्यतीत हो गया। सूर्य अस्त हो गया। रात्रि का आगमन होने लगा। चन्द्र अभी निकला नहीं था, रात्रि अंधकार भरी थी।

अंधकार होते ही सभी पंछी एक एक करके उड़ गए। वफ़ाई और जीत ही रह गए। अब वह पंछियों के साथ नहीं किन्तु एक दूसरे के साथ खेल रहे थे। दोनों बालक बन गए थे और खेल का आनंद ले रहे थे।

“”जीत, एक लंबे समय के पश्चात मैं ने बालक की भांति खेल खेला।“ वफ़ाई प्रसन्न थी,” कितने मधुर क्षण है यह?”

जीत ने वफ़ाई को देखा, स्मित दिया, और कक्ष में चला गया। वफ़ाई भी अंदर गई। मौन रहकर ही दोनों ने भोजन बनाया और खाया भी।

गहन काली रात्रि अब काली नहीं थी। चाँदनी ने गगन को तेजोमय श्वेत रंग में ढाल दिया था। रेत के मैदान चमक रहे थे।

जीत मरुभूमि की चाँदनी भरी रात्रि को निहार रहा था। वफ़ाई जीत को देखते मन ही मन बोली,’ जीत, तुम सदैव मरुभूमि की रात्रि को इसी प्रकार देखते हो, रात्रि काली हो या श्वेत? मैंने काली तथा चाँदनी रात्रि में पर्वत को देखा है किन्तु मरुभूमि की ऐसी निशा कभी नहीं देखी। पिछले पाँच दिनों से मैं मरुभूमि में थी किन्तु ऐसी रात्रि का दर्शन....’

‘कल रात्रि तो मैं सेना के संरक्षण में थी। वह रात्रि काली थी। गगन में कहीं धवल ज्योत्स्ना अवश्य रही होगी किन्तु मैं उसे नहीं देख पाई। मुझे उस रात्रि को भुला देना चाहिए। मैं इसे मेरे मन से ही निरस्त कर देती हूँ। उस के स्थान पर आज की उज्ज्वल रात्रि को भर देती हूँ। वफ़ाई स्वयं से बातें कर रही थी।

गरम रेत धीरे-धीरे ठंडी हो गई। मरुभूमि भी ठंडी हो गई। ठंडी मंद हवा बहने लगी। वफ़ाई एवं जीत अपनी अपनी चाँदनी रात्रि का आनंद उठा रहे थे। दोनों के गगन भिन्न भिन्न थे किन्तु आनंद एक समान था।

“जीत, मैं थक गई हूँ, सोना चाहती हूँ। मैं कहाँ सो सकती हूँ?” लंबे मौन के पश्चात बोले गए वफ़ाई के शब्दों ने मरुभूमि को तरंगित कर दिया।

“कक्ष में एक शय्या है, तुम उस पर सो जाओ।“ जीत उसे कक्ष में ले गया।

“और तुम कहाँ पर सो...”

“मेरी चिंता मत करो। मैं यहीं इस झूले पर सो जाऊंगा।“ जीत ने अपना बिछौना लिया और बाहर निकल गया।

“जीत, रात्रि ठंडी है, और अधिक ठंडी हो जाएगी। यदि तुम्हें ठंड लगे तो तुम कक्ष में आ सकते हो।“ वफ़ाई ने चिंता प्रकट की।

“प्रात: मिलते हैं। शुभ रात्रि।“ जीत ने स्मित दिया। वफ़ाई ने परख लिया कि वह स्मित शुद्ध था, श्वेत चाँदनी की नई प्रभात धरती पर प्रवेश कर रही थी। पंछी मधुर कलरव कर रहे थे, प्रभात के गीत गा रहे थे, उत्साह से भरे थे। अपने पंखों को जागृत कर रहे थे। वह उड़ने के लिए और मरुभूमि के गगन में खो जाने के लिए अधीर थे। प्रति दिन की भांति अनंत और गहन गगन उसे आमंत्रित कर रहा था, उन सभी का आह्वान कर रहा था, चुनौती दे रहा था।

प्रति दिन गगन पंछियों के पंख को चुनौती देता था और पंछी उसे स्वीकार करते थे। प्रत्येक नया दिवस नयी चुनौती लेकर आता था किन्तु पंछियों ने कभी हार नहीं मानी। वह ऊंचा, और ऊंचा उड़ते रहते थे। गगन उससे भी ऊपर उठता था और इन पंछियों के लिए नयी ऊंचाई खोल देता था। गगन और पंछी यह खेल प्रतिदिन खेलते थे, खेल का पूर्ण आनंद लेते थे।

पंछियों की सारी गति विधि देखते देखते वफ़ाई भी पंछी बन गई। वह भी गगन में अनंत ऊंचाई तक उड़ना चाहने लगी। पंछियोंके पंख की भांति वफ़ाई ने अपने दोनों हाथ खोल दिये, गगन की तरफ देखने लगी। गगन उसे आमंत्रित करने लगा- आओ और मेरी गहनता का अनुभव करो।

वफ़ाई ने गगन को स्मित दिया, दोनों हाथ से आलिंगन किया।

दिशाओं में अभी भी थोड़ा अंधेरा था, सूरज अभी निकला नहीं था और रात्रि आने वाले प्रभात से अपने अस्तित्व का संघर्ष कर रही थी। अस्त होते चंद्र की ज्योत्स्ना भी थी जो अब फीकी पड़ गई थी। अंधकार एवं प्रकाश का अनूठा संयोजन था जो गगन में मनोरम्य द्र्श्य बना रहा था। वफ़ाई उस सौन्दर्य को मन भर के पी रही थी।

“यह सुंदर क्षणों को कैमरे में कैद कर लेना चाहिए अथवा केनवास पर चित्रित कर लेना चाहिए।“ वफ़ाई ने स्वयं से बात की। वह कैमरा लेने के लिए भागी किन्तु दो तीन कदमों से अधिक नहीं जा पाई। उसकी आँखों ने एक दृश्य देख लिया था।

वह जीत था, जो उषा काल के इन अद्भुत क्षणों को केनवास पर उतार रहा था। वफ़ाई ने केनवास को देखा। उसे विस्मय हुआ। अभी अभी गगन को जिस रूप में उसकी आँखों ने देखा था वही गगन केनवास पर भी उतर आया था। जीत ने पुन: कोई जादू कर दिया था। वह आश्चर्य से, मूर्ति की भांति स्थिर हो गई, उसे देखती रह गई, देर तक।

वफ़ाई नि:शब्द थी, प्रसन्न थी, दुविधा में भी थी। उन क्षणों को सदा के लिए मन में कैद करने की उसकी इच्छा पूर्ण हो गई थी।

उस के मन में प्रश्न उठा,’क्या जीत मेरे मन को, मन की बात को पढ़ लेता है? मेरी इच्छाओं को जान लेता है? और मैं उसे कहूँ उससे पहले ही वह पूरी भी कर देता है?’

“वफ़ाई, गगन को देखते रहो। यह गगन तुमसे छल कर देगा और क्षण में दृश्य बदल देगा। फिर तुम इन क्षणों को सदा के लिए चूक जाओगी। यह चित्र, यह केनवास यहीं रहने वाले हैं जो कभी छल नहीं करेंगे। तो चित्र की तरफ अभी मत देखो, वास्तविक गगन के सौन्दर्य को देखते रहो।“ जीत ने वफ़ाई को कहा।

जीत के शब्द सुनकर वफ़ाई अचंभित रह गई।

“किन्तु, यह...” वफ़ाई कुछ कहना चाहती थी किन्तु जीत ने उसे रोका,”बातें, दलीलें, तर्क, इन सब के लिए पूरा दिवस पड़ा है। किन्तु गगन का अनुभव करने के लिए यही क्षण है हमारे पास। गगन के सिवा सब कुछ भूल जाओ।“

‘यह मरुभूमि की शुष्कता के बीच भी इस व्यक्ति में कितना जीवन भरा है?’ वफ़ाई सोचती रही। उसने कुछ नहीं कहा, प्रभात के उन क्षणों को अनुभव करती रही, अनुभूति लेती रही।

जब गगन ने अपना रूप बदल लिया तो वफ़ाई का सम्मोहन भी टूटा।

सूरज मरुभूमि के व्योम में प्रवेश कर चुका था। वफ़ाई और जीत के हाथों में गरम दूध के प्याले थे। जीत चित्र के समीप खड़ा था तो वफ़ाई झूले पर थी।

“जीत, यह सब तुम कैसे कर लेते हो?” वफ़ाई ने शांति का भंग किया। जीत ने कोई प्रतिभाव नहीं दिया। वफ़ाई अपने प्रश्न का उत्तर चाहती थी किन्तु पाँच मिनट तक जीत ने उत्तर नहीं दिया। उसने झूला छोड़ दिया और जीत के समीप गई।

“जीत, मैंने ध्यान दिया है कि तुम मेरे मन और मेरे विचारों को पढ़ लेते हो। तुम मेरी मन को भी पढ़ लेते। इतना ही नहीं, मैं तुम्हें कहूँ उससे पहले तुम उसे पूरा भी कर देते हो। क्या यह बात सत्य है? अथवा यह मेरा भ्रम है?” वफ़ाई ने अनिश्चित मन से जीत को देखा।

“भ्रम भी हो सकता है, संयोग भी। सत्य क्या है मैं नहीं जानता।“जीत ने स्मित दिया।

“मान लेती हूँ तुम्हारी बात, किन्तु कुछ तो है, अवश्य है जो...”

“वफ़ाई, एक लंबे समय से मैंने वर्तमान पत्र भी नहीं पढ़ा। मैं यहाँ लंबे समय से रहता हूँ। मुझे संदेह है कि मैं अक्षरों को जानता भी हूँ अथवा नहीं। हो सकता है मैं उसे भूल भी गया हूँ। हो सकता है मैं केनवास पर लिखे शब्दों और वाक्यों को भी पढ़ न सकूँ। तो किसी का मन, किसी का विचार किसी के मुख के भाव, इन सब को मैं कैसे पढ़ सकता हूँ?”

“किन्तु यह हुआ है, अभी अभी।“

“कैसे हुआ? कहो ना।“

“उषा काल में गगन के रंगों को देखकर मेरी मनषा हुई कि मैं इन क्षणों को कैमरे में अंकित कर लूँ, सदा के लिए। और संयोग से तुम उसी दृश्य को चित्रित कर रहे थे।“

“यह कोई चमत्कार नहीं था। मैं सदैव सुबह सुबह अथवा कहो देर रात को नींद त्याग देता हूँ और चित्र बनाता रहता हूँ। मेरे लिए यह सहज है, स्वाभाविक है। किन्तु मुझे प्रसन्नता हुई कि मेरे यह चित्र ने तुम्हारी मनषा को पूर्ण कर दिया।“ जीत ने पुन: स्मित दिया।

“ठीक है, चलो एक खेल खेलते हैं। क्या इसकी अनुमति है?“ वफ़ाई ने घातक स्मित दिया।

“अवश्य, किन्तु मैं तेज़ दौड़ नहीं सकता। तो खेल कुछ...’

“निश्चिंत रहो, जीत। यह खेल शारीरिक नहीं किन्तु मानसिक है।“

“तो ठीक है।“

वफ़ाई जीत के समीप गई और उसकी आँखों में देखते हुए कहा,”मेरी तरफ देखो, मेरी आँखों में देखो और उसे पढ़ने का प्रयास करो। कहो कि तुमने क्या देखा।“

जीत, वफ़ाई के मुख एवं आँखों को देखने लगा। कुछ क्षण वह देखता रहा, फिर आँखें हटा ली। वह अधिक समय तक उसे देख नहीं सका। वह थोड़े दूर चला गया।

“तुमने शीघ्र ही खेल पूर्ण कर दिया?” वफ़ाई ने व्यंग में कहा, जीत ने कोई प्रतिभाव नहीं दिया।

“जीत, क्या पढ़ पाये तुम?” वफ़ाई ने सीधे ही पूछा।

“मैंने पढ़ा की तुम्हें कोई तीव्र इच्छा है और उसे तुम इसी क्षण पूरा करना चाहती हो।”

“सम्पूर्ण सत्य कहा तुमने, जीत। अब यह बताओ कि वह इच्छा क्या है।”

“यही कि तुम अपनी सारी तस्वीरें वापिस चाहती हो और वह मिलते ही यहाँ से भाग जाना चाहती हो।“जीत ने वफ़ाई की तरफ देखा। वफ़ाई ने अपेक्षा भरा स्मित किया।

“तो मेरी इच्छा पूर्ण करो, जीत।“ वफ़ाई ने कहा।

“अर्थात मैं तुम्हें वह दे दूँ।”

“हाँ, अवश्य। मुझे वह लौटा दो, जीत।“ वफ़ाई ने आशा भरा हाथ बढ़ाया। जीत उस हाथ को और वफ़ाई को वैसे ही छोड़कर चित्र के समीप चला गया।

वफ़ाई जान गई कि उसकी इच्छा की उपेक्षा की गई है, नकार दी गई है। फिर भी आशा खोये बिना फिर से अर्ज करने लगी,”जीत लौटा दो ना।“

जीत वफ़ाई के खूब निकट जाकर बोला,” वास्तव में उसे वापिस चाहती हो?”

“हाँ, मुझे वह सब लौटा दो।“

“उसके लिए तुम्हें एक काम करना होगा।“

“मैं कुछ भी करने को तैयार हूँ, किन्तु वह मुझे लौटा दो।“ वफ़ाई अधीर हो गई।

“शांत हो जाओ। प्रथम ध्यान से सुनो फिर ...”

“जीत, क्या आशय है तुम्हारा? क्या कुछ दुराशय तो नहीं...” वफ़ाई सावधन हो गई।

“सभी दुराशय क्षति कारक नहीं होते, वफ़ाई।“

“जीत, स्पष्ट कहो। तुम क्या चाहते हो?”

“मेरी बात सीधी एवं सरल है, कोई जटिल नहीं।“

“मैं उसे जानने को उत्सुक हूँ। शीघ्र ही बता दो।“

“यदि तुम अपनी सभी तस्वीरें वापिस चाहती हो तो तुम्हें चित्रकारी सिखनी होगी। जैसे मैं चित्र बनाता हूँ वैसे तुम बना सकोगी उस दिन मैं सब कुछ लौटा दूँगा।“


Rate this content
Log in

Similar hindi story from Inspirational