मेरा दोस्त : फ़ुकट-चंदिया
मेरा दोस्त : फ़ुकट-चंदिया
बाहर पढ़ रहे अपने बच्चों के पास कुछ दिनों के लिये हमारी इकलौती पत्नी के जाने की खबर पाते ही, दारू का एक पव्वा लिये वो अचानक शाम घर आ धमके , कहने लगे यार हमने अकेले बैठ कर कभी पी नहीं , इसलिये तुम्हारे पास आया हूं ,। मैं ताड़ गया कि पव्वा तो ये अपनी अंटी से खर्च किये हैं , तो वसुलेंगे भी वैसे ही, अब इतने महान भी नहीं कि बिना बात हमें संग बिठा के सम्मानित करें। मेरे स्वतंत्रता महोत्सव की शुरुआत ही ऐसी हुई कि लगा तकदीर फ़ूट गयी।
पव्वा टेबल पर रखते ही बोले , यार शर्मा तेरे घर कुछ चखना-वख़ना तो होगा ही , जा निकाल ला , फ़िर अचानक चहक के बोले अच्छा तू रहने दे , मुझे तेरा किचन दिखा ,मैं फ़टाफ़ट पकौड़ियां तल लेता हूं । प्याज़ , सलाद तू काट ले , अरे मेरे हाथ की पकौड़ियां तो खा के देख , जब भी पीने बैठेगा तो याद आयेगी , बुला लेना हाज़िर हो जाऊंगा ।
इनका परिचय करा दूं , ये हैं चड्ढाजी, बड़े चालू पुर्जे , अफ़सरों की चापलूसी में नम्बर वन ,निम्नतम आवश्यक योग्यताओं के साथ कार्यालयीन दायित्वों का न्यूनतम निर्वहन करते हुये भी , हम जैसे खटने वालों को काम्प्लेक्स देते, हमारा ख़ून जलाते अपने टाइप की शान में जिये जा रहे हैं ,। अब इस बात का दोष भी अकेले उन्हीं को क्यूं दें , संस्कारों की जो घुट्टी हमें बचपन से पिलाई गयी है उसका एक कतरा - अंश आज भी हमारी धमनियों में कहीं चिपका बैठा है । ऐसा नहीं है कि चड्ढा जी को उनके मां बाप ने कोई घुट्टी नहीं पिलायी थी , पर जिस कंपनी की वो घुट्टी थी , उसकी टैग लाइन थी - '' कपट '' नहीं ये '' कौशल '' है ।
इंदिरा जी ने भी कभी क्या खूब कहा था - दुनिया में दो तरीके के लोग हैं , एक काम करने वाले , दूसरे श्रेय लेने वाले , पहले वाले बनों क्यूंकि वहां प्रतिस्पर्धा कम है । अक़्ल के मारे हमने पहले वाला बनना स्वीकारा , अब पछ्ता रहे हैं , ना प्रतिस्पर्धा बची , ना प्रगति , ना ही कोई पारितोष । हमने कार्यकुशल होना पसंद किया उन्होने व्यवहार-कुशल होना ।
अब चड्ढा जी अपनी व्यवहार कुशलता से सामने वाले को ये यक़ीन दिलाने में सिद्धहस्त हैं कि सामने वाला कितना श्रेष्ठ है और वे बेचारे उनके आगे कुछ भी तो नहीं , । औरों की नज़र में ख़ास होने , क़ाबिल समझे जाने के इस सर्वकालिक नशे की तरंग से भला कौन बच पाया है आज तक । चड्ढा जी भी मिथ्या भ्रम की लम्बे समय तक कारगर रहने वाली इस बूटी के माहिर वैद्य बन गये हैं और इनके प्रयोग अक्सर क़ामयाब होते हैं ।
बहरहाल वही हुआ जिसकी आशंका थी , बहाने - बहाने से चार बार हमें चूना लगा गये , उपर से तुर्रा ये कि चार दूसरों को भी ओबेलाइज़्ड कर गये , ओ यार मिश्रा आ जा आज तुझे पार्टी कराऊं , ठीक आठ बजे शर्मा के घर आ जाना , क्या बताऊं मेरी आत्मा कितनी कलपती थी जब मेरे ही घर का खा के ये लोग चड्ढा को आभार प्रदर्शित करते , चड्ढा यार मज़ा आ गया तेरी पार्टी में, शानदार रही , और मैं टुकुर टुकुर उनका मुंह निहारता बेवकूफ़ों जैसा खड़ा रह जाता ।
अब आप सोचते होंगे कि जब मुझे इतनी ही प्राब्लम है इनसे तो मैं इन्हें झेलता ही क्यूं हूं ? सच बताऊं कई बार इन्हें लताड़ देने की इच्छा हुई , पर जब जब कोशिश की , हर बार नेपोलियन हमारे बीच अपने चिर-परिचित अंदाज़ में सामने आ जाता , विश्राम की मुद्रा में एक कदम आगे बढ़ाये , एक हाथ कमर पर और दूसरा हाथ तलवार की मूठ पर फ़िराते कहता –
और हम हवा निकले गुब्बारे की तरह पिचक जाते । दिल पर पत्थर रख लेते , बच्चे भी तो पालना है । ये नौकरी गयी तो क्या करेंगे हम , काम के अलावा और कुछ आता भी तो नहीं हमको , हम जैसे काम करने वाले तो सैकड़ों हैं इस दुनिया में , फ़िर हमें ही कोई क्यों रख लेगा , चलो मान भी लें कोई मिल भी गयी तो वहां कोई चड्ढा नहीं मिलेगा इसकी गारन्टी कौन देगा ।
अब तो हमने भी तौबा कर ली है कि ऐसी पार्टी से तो अपना एकांत भला , अब तो जब भी अपन अकेले होते हैं , अज्ञेय जी बगल में आ बैठते हैं , कानों में अपनी आप बीती ‘’ पहली बार शराब’’ सुनाते हुये :
आज
चाँदनी रात में
पहाड़ी काठघर में अकेला बैठा
ठिठुरी उँगलियों में ओस नम प्याला
घुमाते हुए
सोचता हूँ:
इस प्याले में
चाँद की छाया है
जाड़ों की सिहरन
झर चुके फूलों की अनभूली महक
बीते बसन्तों की चिड़ियों की चहकः
इसी को और इस के साथ अपनी
(अब जैसी भी है)
किस्मत को सराहिएः
और कोई हम प्याला भला
अपने को क्यों चाहिए ?
अब मैं बेचैनी से कैलेंडर देखते , पत्नी के लौट आने का इंतज़ार कर रहा हूं , बहुत हो गयी ये आज़ादी , इससे तो अपनी बीवी की अधीनता भली ।