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Aprajita 'Ajitesh' Jaggi

Drama

4.8  

Aprajita 'Ajitesh' Jaggi

Drama

क्रिकेट का दीवाना

क्रिकेट का दीवाना

7 mins
531


ये दीवानगी भी अजीब चीज होती है। जो दीवाना होता है वो दुनिया जहाँ से बेखबर, अपनी दीवानगी में खोया रहता है और बाकी सारी दुनिया उस दीवाने की हंसी उड़ाने में। हंसी उड़ाने वाले ये भी नहीं सोचते कि अपने अंदर झांके तो ऐसा कोई नहीं जो किसी न किसी के पीछे दीवाना न हो। हाँ कुछ अपनी दीवानगी चोरी छिपे निभाते हैं और कुछ खुल्लम खुल्ला।

रसिक ने भी कभी अपनी दीवानगी नहीं छुपाई। उसे तो फक्र होता था अपनी दीवानगी पर। कोई उससे जिंदगी में बस पल दो पल के लिए भी मिला हो तो भी उसके क्रिकेट प्रेम को देख दंग हुए बिना नहीं रह पाता था। ये दीवानगी पांच साल की उम्र से ही तबाही मचाने लगी थी जब पहली बार उसने अपनी गेंद से पड़ोसी की खिड़की का शीशा तोडा था। वो तो तभी अगला सुनील गावस्कर बनने के सपने में डूबा रहता था। पर जब प्राइमरी स्कूल की क्रिकेट टीम में भी जगह नहीं बना पाया तो उसने क्रिकेट खेलना छोड़ दिया। उसके माता-पिता को बेटे के सपने टूटने का बेहद गम तो हुआ, पर दिल के किसी कोने ने शायद चैन की सांस भी ली। आख़िरकार जब दूसरे बच्चे रसिक की सिर्फ और सिर्फ बल्लेबाजी करने की जिद की वजह से, उसके साथ खेलने से इंकार कर देते थे तो, उन्ही दोनों को अपने एकलौते बेटे की खुशी के लिए घंटों, गेंदबाज और फील्डर बन, खेल के मैदान पर पसीना बहाना पड़ता था। 

अब सब को लगा था कि शायद उसका मोहभंग क्रिकेट से हो ही जाएगा पर हुआ बिलकुल उल्टा। अब रसिक क्रिकेट के पीछे इतना दीवाना हो गया की अंतर्राष्ट्रीय तो क्या, घरेलु क्रिकेट का एक- एक मैच भी बड़े ध्यान से देखने लगा। जितनी देर मैच चलता था वो बस टीवी से चिपका रहता था। जाहिर सी बात है की सुबह मैच होने पर वह स्कूल से छुट्टी भी कर लेता था। बेचारे माता पिता ने उसकी ये आदत छुड़वाने के लिए क्या क्या पापड़ नहीं बेले। जबरदस्ती स्कूल भेजने पर वह रास्ते में ही किसी टीवी की दूकान पर खड़े हो मैच देखता रहता। एक दो बार उसके पिता खुद उसे स्कूल के अंदर तक छोड़ कर आये तो भी बस कुछ मिनटों बाद वह स्कूल की दीवार फाँद 

झट से घर वापस आ गया। मार -पीट , डांट-डपट का जब कुछ भी असर न हुआ तो माता -पिता ने भी थक कर उसके आगे हथियार डाल दिए। 

बस ऐसे ही रसिक का क्रिकेट प्रेम दिन दूनी रात चौगुनी की गति से बढ़ता रहा। उसके कमरे की दीवारें क्रिकेटर्स और स्टेडियम की तस्वीरों से भरी हुयी थी। अखबार और पत्र पत्रिकाएं पढ़ना वैसे तो रसिक को बिलकुल नहीं भाता था लेकिन क्रिकेट से जुड़ा हर छोटे से छोटा और बड़े से बड़ा समाचार न केवल वो बड़े ध्यान से पढता था बल्कि एक बार ही पढ़ कर कंठस्थ कर लेता था। काश ऐसे ही उसे पढाई लिखाई भी बस एक बार पढ़ कर याद हो पाती तो कितना अच्छा होता। पर ऐसी किस्मत उसे नसीब न हुयी। पढाई की किताबें खोलते ही उसके दिमाग का दरवाजा और खिड़कियां ऐसे कस के बंद हो जाते थे कि बेचारा बस घिसट- घिसट कर हर कक्षा किसी तरह बस पास ही कर पाता था। 

जैसे -जैसे उसकी उम्र बढ़ी उसका मन क्रिकेट मैच स्टेडियम की आगे की क़तार बैठ कर देखने का करने लगा। घरेलू मैच तो उसने आखिर स्टेडियम में अपनी मन मुताबिक़ जगह बैठ कर देख ही लिए पर अंतराष्ट्रीय मैच क्रिकेट स्टेडियम में मनपसंद सीट से देखने के लिए जो हजारों रुपए चाहिए थे वो उस के पास कहाँ से आ पाते। तो बेचारा चायपत्ती, टूथपेस्ट यानी की हर वो चीज खरीदने लगा जिसमे इनाम में या तो क्रिकेट की टिकट या फिर हजारों लाखों रुपए मिलने की सम्भावना हो। ऐसी प्रतियोगिता के स्लोगन लिख- लिख के उसके हाथ थकने लगे पर मन मुताबिक़ इनाम बेचारे को कभी नहीं मिला। 

अब रसिक के जीवन का बस इतना हाल हमें मालूम था चूँकि हम उसके पड़ोस में रहते थे। हमें उसे भारतीय टीम की पोशाक से मिलती जुलती पोशाक में ही उसे देखने की आदत हो गयी थी। कौन सा क्रिकेटर आगे चलकर टीम में बना रहेगा और कौन बस कुछ मैच बाद निकल बाहर होगा -ये सभी भविष्यवाणियां रसिक हमसे मिलते जुलते कर ही लेता था। 

उम्र में रसिक हमसे लगभग आठ -नौ साल छोटा था। आखिर बार हमने उसे तब देखा था जब नौकरी लगने के पांच साल बाद हमारा सदा के लिए दिल्ली तबादला हो गया और हम सपरिवार उस छोटे शहर का अपना बड़ा मकान बेच बाच कर इस बड़े शहर के छोटे मकान में बस गए। उसके बाद तो बस एक बार किसी परिचित से इतना ही पता चला था कि रसिक का विवाह हो गया है और उसने खेल के सामान की एक छोटी दुकान खोल ली है। 

हम तो रसिक को बिलकुल भूल ही चुके थे पर कुछ महीने पहले अचानक टीवी पर लॉर्ड्स स्टेडियम , लंदन से एक अंतरराष्ट्रीय क्रिकेट मैच के सीधे प्रसारण के दौरान अचानक कैमरा एक अति उत्साहित क्रिकेट प्रेमी के चेहरे पर टिका जो बड़े गर्व भारत का झंडा लहरा रहा था तो आँखों ने रसिक को पहचानने में देर नहीं लगाई। पता नहीं क्यों पर मेरा दिल बाग -बाग़ हो गया। बरसों की तमन्ना तो रसिक की पूरी हुयी थी पर चैन मेरे दिल को भी मिल गया। 

फिर तो यहाँ वहाँ से ढूंढ ढांढ कर अपने पुराने शहर में मौजूद एक साथ के अफसर की मदद से रसिक का फ़ोन नंबर लिया। फ़ोन नंबर देते हुए अफसर ने हंस कर कहा कि हो सके तो उसके बच्चे के लिए रसिक से कह क्रिकेट सेट पर डिस्काउंट करवा दूँ तो भी मैं बेवकूफ कुछ समझ नहीं पाया। रसिक से बात की और उसे बधाई दी की क्रिकेट के सबसे मशहूर स्टेडियम में आखिर उसने मैच देख ही लिया तो रसिक ने हंस कर बधाई भी स्वीकार कर ली। वो तो हमारी पत्नी ने भी रसिक की पत्नी से बात करने की इच्छा जाहिर की थी तो उसे भी फ़ोन दे दिया। दोनों औरतें पहली बार एक दूसरे से बात कर रहीं थी पर इतनी लम्बी बात करने लगी की हम तो अपनी शाम की सैर पर अकेले ही निकल पड़े। 

घर वापस आये तो पत्नी बेसब्री से हमारा इन्तजार कर रही थी। चहकते हुए हमें बताने लगी की रसिक छोटे मोटे सभी क्रिकेट मैच देखने जाता था सो उसकी जानपहचान शहर के हर क्रिकेट से जुड़े व्यक्ति से थी। बस धीरे धीरे उसी की दूकान से शहर की हर छोटी बड़ी क्रिकेट टीम और हर छोटा बड़ा खिलाडी क्रिकेट का सामान लेने लगा। वो भी हर बजट में अच्छे से अच्छे बल्ले, बाल , किल्लियाँ और क्रिकेट सेट रखने लगा। इसके लिए वो दूसरे शहरों में भी आता जाता रहता था। धीरे धीरे उसकी दुकानों की श्रृंखला कई शहरों में खुल गयी। आज तो उसकी अपनी बल्ले और क्रिकेट ही नहीं बाकी कई खेलों का सामान बनाने की कई फैक्ट्री भी हैं। अब वो भारतीय क्रिकेट टीम के हर मैच को स्टेडियम में ही देखता है। पूरी दीवानगी और जोश से। 

पत्नी से ये सब सुन कर सच कहें तो कुछ पल बुरा लगा । हमें भी बचपन में क्रिकेट का शौक था पर हमने दिल की नहीं दिमाग की सुनी। क्रिकेट खेलना या देखना छोड़ सिर्फ पढाई लिखाई में ध्यान लगाया। मालूम नहीं अगर हम भी दिल की सुन सिर्फ क्रिकेट पर ही ध्यान देते तो क्या होता ? शायद हम क्रिकेट टीम में होते या हम भी क्रिकेट से जुड़े किसी व्यवसाय में सफलता पा लेते। या शायद कुछ न कर पाते और किसी छोटी मोटी नौकरी को कर बमुश्किल परिवार पालते। 

फिर याद आया कि कैसे रसिक को बल्लों का नाप तौल, गेंदों की किस्में, किल्लियों के बीच का सही अंतर -सब अच्छे से पता था। वो जिस चीज के पीछे दीवाना था उसके कण कण की जानकारी थी उसे। क्रिकेट के दीवाने तो लाखों करोड़ों हैं अपने देश में पर रसिक जैसा दीवाना न था न होगा। सच्ची दीवानगी थी इसीलिए रंग भी गहरा लाई। 

अब हमें बुरा नहीं लगता। अच्छा लगता है। गर्व होता है उसका पूर्व पड़ोसी होने पर। अब कोई भी अंतरार्ष्ट्रीय मैच देखते हैं तो स्टेडियम में दर्शकों की भीड़ में उसे आसानी से पहचान ही लेते हैं। आप भी पहचान सकते हैं। स्टेडियम में नीली पोशाक पहने जो आदमी व सबसे ज्यादा उत्साहित हो लगातार नरचर -नरचर हिल -हिल कर झंडा लगातार लहराता रहता दिखे, तो समझ जाईयेगा कि वही रसिक है, क्रिकेट और सिर्फ क्रिकेट का दीवाना। 


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