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ध्रुव तारा

ध्रुव तारा

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प्राचीन समय की बात है। राजा उत्तानपाद की दो रानियाँ थी। बडी रानी का नाम सुनीति और छोटी रानी का नाम सुरुचि था। वे अपनी बडी रानी सुनीति से बहुत प्रेम करते थे। लेकिन उनकी अपनी कोई संतान न होने के कारण सुनीति रानी के आग्रह पर राजा उत्तानपाद ने सुरुचि नामक कन्या से दुसरा विवाह किया। लेकिन सुरुचि अपने प्रेम को बाँटना नहीं चाहती थी। इसकारण वह सुनीति से द्वेष करने लगी। कुछ दिनों बाद दोनों रानियाँ गभर्वती हुई। सुनीति को ध्रुव व सुरुचि को उत्तम हुआ। एक दिन की बात थीं। ध्रुव अपने पिता की गोद में खेल रहा था। इतने में सुरुचि वहाँ आई तो वह ध्रुव को महाराज की गोद में बैठा देख सहन न कर पाई और नन्हे बालक ध्रुव को नीचे धकेल दिया और कहने लगी कि यह स्थान तुम्हारे लिए नहीं है। यह केवल उत्तम का स्थान है। ध्रुव नीचेगीरने के कारण उसे चोट लगी थी। वह रोता हुआ अपनी मां के पास आता है। तो वह समझाते हुए कहती है कि तुम भगवान की गोद प्राप्त करो उसे तुम्हें कोई दूर नहीं कर सकता। इस प्रकार ध्रुव अपनी माता की बात मानकर भगवान की गोद प्राप्त करने घर से निकल पडता है।रास्ते में उसे नारद मुनि मिलते है और सारी बात जानकर वे उसे नारायण मंत्र का उपदेश देकर उसे भगवान विष्णु की तपस्या करने को कहते है। वह जंगल जाकर एक पेड़ के नीचे बैठकर भगवान विष्णु का ध्यान करने लगता है। वह नन्हा सा बालक खुख्वार जानवरों बिना डरे अपनी तपस्या में लिन हो जाता है। अनेक कठिनाइयाँ आने पर भी वह अपनी तपस्या से विचलित नहीं होता। इसके नारायण मंत्र के उच्चारण से विष्णु का आसन हिलने लगा और विष्णु उसकी तपस्या से प्रसन्न हो कर वर माँगने को कहते है।वह वर मे भगवान विष्णु की गोद पर अपना अटल स्थान माँगता है वे उसे वर देकर कहते है कि तुम उत्तर दिशा में ध्रुव तारा बनकर अपना अटल स्थान प्राप्त करो। उस दिन से इस वर्तमान समय तक आसमान में उत्तर दिशा की ओर ध्रुव तारा चमक रहा है।


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