धुन्ध
धुन्ध
बहुत देर बगीचे से बगीचे में बैठा हूँ, आते जाते लोगों को निहार रहा हूँ, कुछ युवा कानों में हेड फोन लगाए तेज़ी से वॉक कर रहे हैं, कुछ एक कोने में घास पर बैठकर योग कर रहे हैं,मैं भी सुबह से जाग जाता हूँ, रिटायर हो गया हूँ,पत्नी भी पिछले महीने साथ छोड़ गई मेरा, हमेशा साथ देने का वादा किया था उसने पर, आँगन में फिसली और जो अस्पताल गई तो निर्जीव देह ही वापिस आई उसकी वहाँ से ।
बेटे -बहू ने सांत्वना दी -"पापा हम लोग हैं आप चिंता ना करें "
मैं भी जानता हूँ बहुत अच्छे हैं दोनों,पर मैं जाने क्यों अपने मन की बात उनसे कह नही पाता,पत्नी से हर दुख सुख बांटा मैंने,पर उसके जाने के बाद अजीब सा खालीपन आ गया मेरी ज़िंदगी में, अब अहसास हो रहा कि क्या अहमियत थी सावित्री की मेरे जीवन में।
बैठे बैठे चाय की तलब होने लगी मुझे,सोचता हूँ घर चलूँ ।घर पहुंच कर देखा बहू तो अभी उठी नही,बेटा बैठकर बरामदे में पेपर पढ़ रहा था ।
"बेटा आज तुम जल्दी उठ गए, बहू नहीं उठी क्या अभी, वो चाय--
"पापा वो दिन भर के काम मे बहुत थक जाती है, मैंने ही कहा आराम से उठना,रही चाय की बात मैं बनाता हूँ,बढ़िया चाय पापा दोनों मिलकर पियेंगे,फिर दिन भर आपके साथ बैठने का वक्त नहीं मिलता मुझे,बाप बेटा दोनों अपने मन की बात भी आपस में कह लेंगे ।"
बेटा मुस्कुराते हुए चाय का कप लाकर पकड़ाता है -" और सुनाइये पापा बगीचे में कौन कौन मिला,आप कहें तो कल से मैं भी आपके साथ सुबह वॉक पर चलूँ ।"
ऐसा लगा बेटे ने मेरे अकेलेपन के दुख को समझ लिया है और अपनी माँ से किया वादा पूरा करना चाह रहा है जो उसने अपनी मरती माँ को दिया था "माँ मैं पापा को कभी अकेलापन नही झेलने दूँगा,मैं हर पल उनके साथ रहूँगा ।"
मैंने चाय का घूँट लेकर मुस्कुराते हुए कहा "बेटा चाय बहुत अच्छी बनी।"
मन की धुन्ध छँटने लगी थी।