मेरा नाम जोकर
मेरा नाम जोकर
राजू मुंबई फिल्म नगरी में बहुत नामी एक्टर कम डायरैकटर था। राजू के बाबा की फुफेरी बुआ तहसील भामली (ऊ। प्र।) में रहती थी। राजू उन बुआ को अपने से भी बड़ा फनकार मानता था। उन बुआ से ही राजू ने एक्टिंग सीखी थी। बुआ को उसने कई बार एक आँख से रोते (आँसू बहाते) व् दूसरी आँख से हँसते देखा था। दायें चेहरे पर ख़ुशी तो बायें चेहरे पर ग़म। एक साथ कभी ख़ुशी कभी ग़म।
बुआ वन पीस आइटम थी। परिवार में किसी के पैदा होने की ख़ुशी व् दूसरे के मरने का ग़म बुआ कुछ पल में ही एक साथ मना लेती थी। राजू ने बुआ से ही सीख कर आँखों से आँसू की पिचकारी वाला सीन फिलमाया था।
कोई कहता है कि मर्द को दर्द नहीं होता और कोई कहता है कि लड़के रोते नहीं। लेकिन राजू तो अपनी तरह ही हर बुड्ढे जवान को रोते हुए पाता है। फर्क हो सकता है की छुप छुप के रोये। ज्यादातर अपनी अपनी नरगिसी या गर्दिश पर रो रहे हैं। ना नौकरी है, ना माशूका और, अगर माशूका है भी, तो अनजान बनना पड़ता है, नहीं तो ऑनर किलिंग का भय।
जवानी के कॉलेज के बीते दिनों में भामली में एक दिन राजू को एक पार्क से एक लड़की के साथ निकलते हुए अपना दोस्त रवि दिखाई दिया। अगले दिन राजू ने कॉलेज में रवि से पूछा कि कल कौन थी। कुछ देर टालने के बाद रवि ने बताया की कजिन(चचेरी बहन) थी। राजू ने जवाब दिया कि जो कल थी कजिन तुम्हारी, वह पिछले हफ्ते तक थी कजिन हमारी।
राजू की तरह लाइफ का एक ही फ़लसफ़ा होना चाहिए, हँस तू हर दम, ख़ुशियाँ हो या ग़म।
आंधियाँ मगरूर दरख्तों को गिरा जायेंगी, बचेगी वही शाख जिसमें लचक होगी।
राजू जब भी हिल स्टेशन लोनावाला या खंडाला जाता तो यह शेर जरूर गुनगुनाता :
नाजनीन का हाथ हो अगर हाथ में, तो हसीन हर सफ़र हर मुकाम होता है, लेकिन मैं जब भी इन पहाड़ों पर आया, मुझे जुकाम होता है।
हिल स्टेशन लोनावाला या खंडाला में हिल यानिकि पहाड़ तो ढूंढने पर भी नहीं मिलते. शायाद ५००० वर्ष पूर्व पिछले युग में रहे होंगे.
राजू ज़िंदगी का साथ निभाता चला गया, हर फ़िक्र को धुएँ में उड़ाता चला गया, बरबादियों का सोग़ मनाना फ़िज़ूल था, बरबादियों का जश्न मनाता चला गया, जो मिल गया उसी को मुकद्दर समझ लिया, जो खो गया मैं उसको भुलाता चला गया।
सब राजू ही तो है, रो कर भी क्या कर लेंगे।