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निंदा रस

निंदा रस

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 साहित्य में नौ रस बताये गए हैं और करुण रस को रसों का राजा कहा गया है। वियोगी होगा पहला कवि, आह से उपजा होगा गान! उमड़ कर आँखों से चुपचाप बही होगी करुणा अनजान!! ऐसा राष्ट्रकवि कह भी गए हैं। क्रोंच पक्षी के वध से आहत होकर महर्षि वाल्मीकि के मुख से झरे श्लोक रामायण बन गए। किंतु मेरा मानना है कि निंदा रस ही रसराज होने का अधिकारी है। रसयुक्त वाक्य ही कविता है, ऐसा शास्त्रों का कथन है और निंदा से अधिक रस मैंने आजतक किसी और चीज में नहीं पाया, अर्थात पर-निंदा से बड़ी कविता का जगत में कोई अस्तित्व नहीं!

 कुछ सन्त महात्मा टाईप के लोग निंदा रस से बचने की सलाह देते रहते हैं, और निंदा में लिप्त लोगों की निंदा करते हैं। उन्हें भी ऐसे लोगों की निंदा में पर्याप्त आनंद आता होगा, ऐसा मेरा मानना है। इस जगत में जो भी आया है और अनाज खाकर पुष्ट हुआ है, वह निंदा करने और करवाने से बच नहीं सकता। निंदा का प्रभाव समस्त चराचर जगत पर छाया रहता है। हमारे समाज में दो सभ्य पुरुषों का मिलन तब तक सफल नहीं माना जा सकता जब तक वे किसी तीसरे की निंदा न आरम्भ कर दें। और विश्वास कीजिये, ऐसी स्थिति मुलाक़ात के प्रथम मिनट से ही संभावित होती है। केवल व्यक्ति ही नहीं अपितु समाज और देश के स्तर पर भी हम पर्याप्त निंदा उत्पादक लोग हैं। हमारा देश अनिवार्य रूप से अपने पड़ोसी राष्ट्रों से निंदा का आयात निर्यात करता रहता है। 

 निंदा रस के उत्पादन में हमलोग आदिकाल से ही निर्भर रहे।पुराणों में वर्णित नारद नामक विद्वान और पूज्य ऋषि तो इस विधा के आचार्य माने गए जो बिना किसी पूर्वाग्रह के, जगत कल्याण की दृष्टि से इधर की उधर करने में सिद्ध हस्त माने गए अर्थात सुबह दातुन कुल्ला करते ही अपनी वीणा लिए वे तीनों लोकों में भ्रमण आरम्भ करते और एक की निंदा दूसरे से करते हुए जगत के संचालन और प्रगति में भरपूर योगदान किया करते थे, ऐसी जनश्रुति है।

इस रस के उत्पादन और प्रसारण में नारी जाति के योगदान को नकारा नहीं जा सकता। पत्नी की पदवी पाते ही स्त्री प्राकृतिक रूप से इस कार्य में दक्ष हो जाती है और अपनी मित्र मण्डली में अपने पति रुपी पालतू के आचार- विचार, व्यवहार आदि की पर्याप्त और उचित निंदा करते हुए जीवन यापन किया करती है।

 घरों में घरेलू कामकाज में गृहणियों की मदद करने वाली महरियां भी इस विधा की आचार्य मानी गई हैं। गृहकार्य में दक्ष होने से अधिक निंदा रस में निपुण महरी अधिक धनप्राप्ति की अधिकारिणी होती है यह बात नितांत गुप्त होते हुए भी सत्य है, तो तात्पर्य यह कि भरत मुनि ने भले अपने नाट्यशास्त्र में "एको:रसः करुण एव" की घोषणा की हो मेरे विचार से “एकौ रसः निंदा एव” होना चाहिए और जो महानुभाव ऐसा नहीं मानते वे अपनी घोर निंदा के लिए तैयार रहें!


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