किरदार
किरदार
कोलोनी के रास्ते तक अभी पहुँचा ही था कि मिता का फोन आया, 'पिताजी पॉस्टमॅन को याद कर रहें हैं, पूछते हैं कि पैन्शन अभी तक क्युं नहीं आया?'
'ओफ्फो.., बिलकुल भूल ही गया मैंं तो! चल वापस घर ही आता हूँ। पोस्ट्मॅन का कोट और बैग बाहर तैयार कर के रख, मैंं आता हूँ।' कहते हुए मैंं वापस घर की ओर चल पड़ा।
माँ के गुजरने के बाद पिताजी एक लंबे अरसे से बीमार रहें हैं। उनके आंख, कान और पैर भी उन्हें बहुत कम साथ देते हैं। पर दिल और दिमाग काफी स्वस्थ एवं मजबूत भी। रिटायरमेन्ट के समय उनके पेन्शन के सारे कागज़ात मेरे बड़े भाई ने ही निपटाये थे। पिताजी का पैन्शन भी बड़े भाई के शहर में उन्होंने बैंक एकाउन्ट बनवाया था, उसी में हर महीने जमा होता रहता। लेकिन पिताजी को बड़े भाई पर भरोसा कतई नहीं था। ज़िद्दी भी ऐसे रहे हैं कि हम में से किसी की एक भी कभी ना सुने। उनकी ज़िद के आगे हमेशा हमें ही झुकना होता था। फिर, उनके कुछ रीटायर्ड दोस्तों को भी मनीऑर्डर के जरिये ही पैन्शन मिलता था, सो उनके मन में भी ये खयाल पक्का बस गया था कि पैन्शन तो हर महीने पोस्टमैंन के हाथ ही आ जाना चाहिए। बस, फिर क्या था, उनके दिल को सँभालने के वास्ते महीने में एक बार मुझे ही पोस्टमैंन का रोल निभाना पड़ता था!
घर के दरवाजे पर ही पोस्टमैंन जैसा कोट और बैग लेकर मिता खडी थी।
'कहीं कुछ गड़बड़ तो नहीं होगी न?' मेरा मन असमंजस में रहता। ऐसे मौके पर मैंं ज़रा अस्वस्थ हो जाता। 'पिताजी की खुशी के लिए उन्हीं को ऐसे धोखा देना होगा?'
लेकिन मिता मेरा हौंसला बढ़ाती, 'इसमें धोखा देने की कोई बात ही कहाँ से आई?
बुज़ुर्गों के स्वभाव और सम्मान को बनायें रखने के लिये ये सब कुछ करना ही पड़ता है न। आप वैसे तो हार माननेवालों में से हो नहीं, फिर क्युं जी छोटा कर लेते हो? पिताजी की हर ईच्छा को पूर्ण करना आपका फ़र्ज़ भी तो है। मुझे आप पर पूरा भरोसा है कि आप ये किरदार भी बखूबी निभा सकेंगे।'
उसकी आँखो का अमृत मुझे आत्मविश्वास से भर ही दे। फूर्ती से खाकी कोट पहनकर बैग कंधे पर ले लिया और ज़रा आवाज़ बदलकर पिताजी के कानों तक पहुँच सके ऐसी 'पोस्टमैंन' की पुकार लगाते हुए सीधा ही पहुँच गया उनके पास।
कमजोर आँखें और कमज़ोर कान की वजह से बहुत ही कम देख-सुन पाते पिताजी को 'पोस्टमैंन' की एक ही चीख पल भर में जगा देती। दिखने में ज़रा-सा भी फर्क न होने के बावजूद भी पास रखे हुए चश्मे को आँख के ऊपर लगाते हुए पिताजी बोले, 'भाई, तेरा ही इंतज़ार था। इस महीने देर कर दी भैया?'
'अरे दादु, मनीऑर्डर ऊपर से मिले तभी आपको देने आ सकता हूँ न? लो ईधर साइन कर दीजिये और ये पैसे भी गिन लिजिये।' बैग से मनीऑर्डर के कागज़ात, पेन और पैसे पिताजी को थमाते हुए मैंं बोला।
ये सारी चीजें तो मिता ने पहले से ही तैयार करा दी होती है। इस नाटक में वह भी उतनी ही हिस्सेदार है। बड़ी ही बारीकी से आँखें बिछाते हुए पिताजी साइन करते हैं और पैसे भी गिन लेते हैं। फिर उनमें से कुछ रुपये अपने सिरहाने के नीचे रखे बटवे में रखकर बाकी बचे रुपये मिता को देते हुए बताते हैं, 'ये ले मिता, गिनकर एक तरफ सँभालकर रख दे।'
फिर मुझे कहने लगे, 'इस बार ना सही, लेकिन अगर अगले महीने महँगाई भत्ता समेत यदि तू पैन्शन लायेगा तो मुंह मीठा करवा के तुझे भी बक्शीश ज़रुर दूँगा, हाँ।' उनके चेहरे की ठंडक को देखकर संतुष्ट होकर हँसते हुए मैंं भी चल दूँ। पर इस संतुष्टि का स्वाद हम ज़्यादा दिन तक चख नहीं पाते।
एक बार तो पिताजी ने भारी ज़िद पकड़ ली, कहने लगे कि 'जल्दी से किसी अच्छे डॉक्टर को बुला ले, पूछना है कि मैंं लड्डू खा सकता हूँ या नहीं? बहुत मन कर रहा है लड्डू खाने का।'
डॉक्टर ने तीखा और तेल वाला खाने को मना किया है, बाकी कभी कबार एक-दो लड्डू खा लेने में कोई दिक्कत नहीं हो सकती।' मैंंने समझाया। पर वे ऐसे थोड़े ही मानने वाले थे? बोले, 'तू डॉक्टर का पढ़-लिख कर आया है? बहुत होंशियार हो गया है तू? डॉक्टर मुझे देखकर कहे वही बात मैंं तो सच्ची जानुं।'
क्या किया जाये? अंदर के कमरे में ईकठ्ठे होकर सब सोचने लगे। ईत्ती-सी बात के लिए डॉक्टर कैसे बुलाया जा सकता है? इतने में मेरा बेटा संजु अपने कमरे से एक पेटी लेकर दौड़ता हुआ आता है, “पापा, जब मैंं छोटा था तब इसी पेटी के खिलौनो से 'डॉक्टर-डॉक्टर' खेला करता था। आज ये आप के कुछ काम आ सकती है?'
उसकी ये बालिश हरकत से मुझे गुस्सा आना ही था, लेकिन तभी मिता ने हँसकर उसकी बात को बढ़ावा दिया, 'इसमें गलत भी क्या है आखिर? दो मिनट डॉक्टर बन जाओ, पोस्टमैंन से भी ज़्यादा स्मार्ट तो लगोगे ही और पिताजी की लड्डू खाने की ख्वाहिश भी पूरी हो सकती है।'
'लेकिन...' मैंं असमंजस महसूस करता हूँ।
'देखिए, पिताजी को लड्डू तो खाना ही है, जब तक डॉक्टर नहीं कहेंगे तब तक लड्डू की इच्छा अधूरी रहेगी। वैसे भी माँ के हाथ बने लड्डू उनको बहुत पसंद थे ये बात मैं ही जानती हूँ। भले ही हम याद ना दिलायें पर आज माँ का जन्मदिन है। शायद इसलिए... फिर, मुझे तो आप पर पूरा यकीन है कि आप डॉक्टर बनकर ये काम भी बखूबी पूरा कर पाओगे। मुझे पता है, आप इस रोल में भी कामयाब होकर रहेंगे, आपको मैं ही जानूँ।' एक बार फिर मिता ने मेरे अंदर आत्मविश्वास का प्राणवायु फूँक दिया। कपड़े बदलकर ज़रा सज-सँवरकर मैंं संजु की पेटी लेकर पिताजी के पास जा पहुँचा।
'डॉक्टरसाहब आये है।' मिता ने पिताजी के साथ ज़रा मेरा परिचय भी निराले अंदाज से करवा दिया।
'इतने जल्दी? वायुयान में बैठकर आये क्या?' पिताजी बोले।
'हाँ... हाँ, दादू, समझो उड़कर ही आया। यहाँ से फोन आया तब मैंं इधर के ही एक पेशन्ट को देखकर गुज़र रहा था।' जितनी हो सके उतनी कोशिश की मैंने डॉक्टरी लहजे में बात करने की। फिर संजु की पेटी से स्टेथोस्कोप निकाल के कान में डाला और दूसरा छोर पिताजी की छाती पर रख के गहरी साँस लेने को कहा। फिर आँखे और जीभ को भी जांचने का कुछ अभिनय करते हुए मैंं बोला, 'हम्म, लड्डू खाने है न?'
'क...क...क्या? हाँ...हाँ, लेकिन आपको कैसे मालूम?' पिताजी बोले।
'फोन आया तब पेशन्ट को क्या तकलीफ है वो तो हम पूछ ही लेंगे न दादू? आप बेफिक्र होकर लड्डू खायें और खिलायें। आपको कोई तकलीफ नहीं सो चिंता की कोई बात नहीं।' कहते हुए मैंं पेटी बंद करता हूँ।
मेरी परमीशन मिलते ही खुश हो उठे, पिताजी मिता को कहते है, 'तेरी सास बनाती वैसे लड्डू बनाओ, मैंं तो एक ही खाऊँगा, पर तुम सब खाना।' सुनकर मैंं हँस पड़ा।
पिताजी के चहेरे पर दौड़ रही आनंद की लकीरों को मैंं देखता रहा। मेरी कामयाबी पर विजयी अँगूठा दिखाकर मिता मेरे सामने मुस्कुराती है। खुश होकर मैंं भी संजु की पेटी हाथ में थामकर बाहर की ओर निकल जाता हूँ।
कुछ दिन सब कुछ ठीक-ठाक चलता रहा। फिर एक दिन पिताजी ने मुझे बुलाया। 'छोटे...' मुझे पास बुलाकर पिताजी ने मुझे बड़े भैया के समाचार पूछे, 'शहर से बड़े भाई के कुछ समाचार नहीं है?'
'अरे बाबूजी, उनकी तो नौकरी ही ऐसी है, क्या करें? जब भी फोन पर बात होती है तब को ज़रुर याद करता है और आपके समाचार भी जान लेता है।' तत्काल सुंदरोत्तम जो जवाब सूझता है, मैं दे देता हूँ।
'ना, ऐसे थोड़े ही होता है? ऐसी कैसी नौकरी? ऐसा करो, उसे कल ही बुला लो यहाँ, मेरे पास, डेढ़ साल से तो उसे देखा तक नहीं!' पिताजी बोले।
'कल ही? कल ही कैसे आ पायेगा वो?' मैंंने बात टालने की कोशिश की।
'क्युं? उसकी खुद की गाड़ी है, वो लेकर आये तो दो घण्टे का ही तो रास्ता है, दो मिनट मेरे साथ बैठ के चला जायेगा तो भी चलेगा। तुम उसे फोन लगाओ, उसे बता कि बाबुजी याद कर रहे हैं, आना ही होगा, बस।' पिताजी ने तो आदेश ही कर दिया।
फिर अंदर के कमरे में हमारी कान्फ्रेंस इकठ्ठी हुई। बड़े भैया को फोन करने के सारे प्रयास निष्फल होकर समाप्त हो जाते हैं तब संजु और मिता की प्रश्नार्थों से एवं आशाओं से भरी चारों निगाहें एक बार फिर बड़े ही निराले अर्थपूर्ण ढंग से मेरे ऊपर टिकती है!
'हम्म, मैंं समझ रहा हूँ... तुम लोग जो चाहते हो। वैसे मैंं तैयार हूँ। 'मोटाभाई' बनना मेरे लिए कोई मुश्किल चुनौती नहीं है। उसकी तो आवाज़ और बोडी लेंग्वेज भी मुझ से कुछ खास अलग नहीं है। फिर ये तो मेरे बायें हाथ का खेल है। लेकिन, हमेशा इसी तरह पिताजी को...? कभी सच्चाई पता चल जायेगी तब उन्हें दुःख नहीं होगा क्या?' मैंने कहा।
पास आकर मिता बोली, 'सच्चाई बताकर आप बाबुजी को कौन-सा सुख देने वाले है? क्या आप बाबुजी को बता सकेंगे कि बड़े भैया ने ना कभी आपका फोन उठाया है और ना ही कभी आपको याद किया है? माँ-बाप हमें खुश रखने के लिए ज़मीन-आसमान एक कर देते हैं कि नहीं? फिर, हमें तो बस उनको हर हाल में खुश रखना है, बस इतना ही हम चाहे। और हमें क्या चाहिए? बाबुजी के लिए आपने कितना कुछ किया है? तो? मुझे तो यकीन कि आप इस किरदार को भी बखूबी निभा पायेंगे।'
-फिर तो क्या था? आखिर दूसरे दिन पिताजी के सामने 'बड़ा भाई' आ ही पहुँचा!
'आह, आओ भाई, कितने समय बाद देखा तुम्हें? कभी-कभी आता-जाता रह भाई, मेरे दिल को अच्छा लगे।' पिताजी की आँखों में खुशी के आँसु छलक गये।
'क्या करु बाबुजी? पूरे जिले का वही वट मेरे ऊपर चलता है, उसमे भी ये चुनावी माहौल के दौड़धूप भरे दिन, सो एक पल की भी छुट्टी ना मिल सकती।' मैंं कहता हूँ।
'अच्छा भाई, बड़ा कलेक्टर बना है तो ज़िम्मेदारी भी तो बनती होगी न? तू आ गया, तो मैं खुश, मेरे लिए यही काफी है। लेकिन ये चुनाव ख़त्म होते ही तुम चैन से कुछ दिन यहाँ मेरे पास आ के रहना, हाँ!' पिताजी के चेहरे पर संतोषभरी शांति छाती है। ये देख के मुझे भी आनंद मिलता है। मिता के साथ इस बार संजु भी अँगूठा उठाकर ईशारों से ही मुझे 'वेल-डन' कह देता है और मैंं पिताजी के चरण छूकर इजाज़त लेता हूँ।
लेकिन संतोष का ये ज़ायका भी हम कितने दिन चखनेवाले थे?
एक दिन सुबह-सुबह मिता ने मुझे जगाया, 'ज़रा देखिए तो, बाबुजी आज अभी तक नींद से उठे क्युं नहीं होंगे?
'इसमें घबराना कैसा? रात को देर से नींद की गोली खाई होगी, चैन से उन्हें सोने दो ना? तुम भी सो जाओ।' मैंं बिना जागे ही कहता हूँ।
झुँझलाई हुई मिता बोली, 'ना, ऐसा तो नही लगता, नींद की दवा तो रोज़ लेते है, फिर भी हमेशा जल्दी उठकर पाठ करने लग जाते हैं। आज कुछ... आप देखिए तो सही... चलिए तो।'
मैंं पिताजी के पास जाता हूँ। उनके चेहरे पर मुस्कुराहट फैली हुई है। उनके सिर और कलाई पर हाथ रख के देखा पर उनके शरीर में उष्मा महसूस ना हुई। छाती पर कान रखता हूँ, मैंं सन्न रह जाता हूँ। मुझे उनके शरीर में चेतना मालूम नहीं पड़ रही थी।
मैंं लगभग चिल्लाते हुए बोलता हूँ, 'कोई डॉक्टर को बुलाओ...जल्दी।'
मिता बाहर की ओर दौड़ जाती है। अपने कमरे में सोया हुआ संजु मेरी चीख सुनकर जागकर आता है और दौड़कर अपनी पेटी लेकर मेरे पास आता है।
मेरी आँखों में पानी उभरते हैं, 'बेटे, इस बार सच्चे वाले डॉक्टर की ज़रुरत है!'
मेरी तरफ और पिताजी की तरफ देखते हुए वह हालात की गंभीरता को परखने की कोशिश करता है। इतने में तो मिता ने सारे पड़ोसियों को बुला लिया। उसने डॉक्टर को और रिश्तेदारों को भी फोन कर दिए। कुछ ही समय में सारे लोग घर में इकठ्ठा होने लगे।
डॉक्टर भी आ के गए। निरव शान्ति और बिखरी-बिखरी-सी सिसकियों के सहारे घर में भीड़ बढ़ने लगी। मैंं पिताजी के पार्थिव देह के पास उसी हाल में बैठा रहा।
कुछ समझ में नहीं आता था। पिताजी के चहेरे पर अब भी वैसी ही मुस्कुराहट फैली हुई है। ऐसा लगे कि मानो अभी उठ के मुझे कहेंगे, 'ये चुनाव तो कब के ख़त्म हो गये, अभी तक बड़ा भाई क्युं नहीं दिखाई दिया? इस बार वो आये तो लड्डू ही बनायेंगे, हाँ!... और देख छोटे, एक महीने का पैन्शन महंगाई भत्ते के साथ ज़्यादा आनेवाला है, पोस्टमैंन आये तो याद करा देना, उसे भी खुश करना है, समझा न?'
लेकिन पिताजी कहां कुछ बोलनेवाले थे? उसके खुशहाल चेहरे को मैंं देखता रहता हूँ। ऐसे में मिता मेरे करीब आती है, मेरे कंधे पर हाथ रखते हुए कहती है, 'लो उठो अब, जल्दी से नहाकर लाल धोती पहन लिजिए, पिताजी को पहला कंधा आप ही को देना है। अग्निसंस्कार भी आप ही करेंगे और सारी विधियों में भी आप ही..., यज्ञोपवित भी सव्य अपसव्य करनी पड़ेगी। खड़े हो जाइए जल्दी से, अब बेटे का फ़र्ज़ निभाने की घड़ी आई है... फिर, मुझे तो इस बार भी आप पर पूरा भरोसा है कि...'