धुरी
धुरी
आकांक्षा के पढ़ने-पढ़ाने के शौक को नजरअंदाज कर माँ-बाबा ने उसकी शादी कर दी लेकिन व्यवसायी पति की अति व्यस्तता के चलते उसकी पढ़ाई सुचारू रूप से चलती रही।
अंततः उसका चयन शिक्षिका के पद पर हो गया परन्तु पति ने सहमति नहीं दी।
अब उसके बैचेन मन मे द्वन्द्व बढ़ने लगा। आखिर 'मै धुरी हूँ अपने परिवार की, माँ का आईना, पापा का गुरुर हूँ तो दादा का संबल हूँ और दादी की परछाई हूँ, पति का सहारा हूँ।
मेरे इर्द गिर्द है अपने परिवार की इज्जत, इसीलिये हूँ बंधी-बंधी सी, सहमी सहमी सी। उड़ना चाहती हूँ, आसमां में पंख फैलाकर, छूना चाहती हूं चाँद तारों को।
देखो उड़ रही हूँ मैं।
परिवार हसरत भरी निगाहों से देख रहा है फिर भी चाहता है कि मैं अपने पंख सीमित दायरे तक ही फैलाऊँ।
पूरे परिवार की धुरी होते हुए भी मैं कमजोर क्यों कहलाती हूँ ? और लड़के कर्णधार ?
रहती हूँ मैं सहमी सहमी सी, डरी डरी सी, एक आवरण में बंधी बंधी सी।'
नहीं, अब और नहीं !
और उसकी मुठ्ठी एक दृढ़ निश्चय के साथ बंध गयी।