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पानी

पानी

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उस शाम को बहुत तेज अंधड़ आया था, कई जगह बिजली के खम्भे उखड़ गये थे। बड़े -बड़े पेड़ भी हवा के तेज बहाव से टूट कर तारों पर गिर गये थे।रात भर बिजली गायब थी। चार बजे शाम को पम्प से जितना पानी टंकी में चढ़ सका था बस उतने का ही भरोसा था। सुबह होते होते वो पानी भी खत्म हो गया। घर में सन्नाटा फ़ैल गया , सविता , काम वाली आ कर चुपचाप बैठी थी।वह न तो बर्तन साफ कर रही थी,न घर की पोछाई , न घर का कोई सदस्य शौच जा पा रहा था , न स्नान कर पा रहा था।   जूठे बर्तन गंध मार रहे थे , चाय नाश्ते का तो सवाल ही नहीं पैदा हो सकता था।  सारे काम ठप्प हो गए थे , सबके मन में अजीब सा चिडचिड़ापन आ गया था , घर की मालकिन वन्दना के आँखों के सामने वो पानी तैर रहा था जो गली में अक्सर यूँ ही बह गया था , जिसे काम के दौरान सविता अक्सर कल खोलकर छोड़ देती थी | रास्ते के बहते हुए वो नल याद आ रहे थे, जिसे राह चलते उस ने नजरंदाज कर दिया था।  उसने मन ही मन कहा, “काश उस बहते हुए पानी से एक बाल्टी पानी आज मुझे मिल जाता....”  


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