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कुसुम पारीक

Drama

2.8  

कुसुम पारीक

Drama

माँ की ममता

माँ की ममता

3 mins
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१० साल से लकवे से ग्रस्त शरीर लगभग निष्प्राण हो चुका था लेकिन जीने की जिजीविषा और साहस से दो बार अति तीव्र ब्रेन हैमरेज होने को बाद भी वॉकर के सहारे अपनी नियमित दिनचर्या करने में सीता देवी स्वयं को सक्षम पा रही थीं।

आज उनकी नज़रें, टकटकी लगाए हुए घर के मुख्य दरवाज़े से हट ही नहीं रही थीं।इस उत्साह व खुशी को वह लगभग बेजान से पड़ चुके अपने चेहरे पर भी चमक लाकर इधर-उधर दौड़ाती हुई, भगवान को अपने दोनों हाथ एक दूसरे के पास लाने का असफल प्रयास करते हुए जोड़ रही थीं।

बार-बार सीता देवी की आँखों की कोर गीली हो रही थी लेकिन वह उनको भी पोंछने में असमर्थ थीं।

जब उनसे प्रतीक्षा असहनीय होने लगी तो आँखें मूंद कर लेट गई व १० साल पहले के उस समय को याद करने लगी जब उनके बेटे की शादी हुई थी तथा जब दो तीन दिन में सब मेहमान चले गए तो उन्होंने ध्यान दिया कि बहू के क्रियाकलाप सामान्य नहीं हैं। थोड़ी-थोड़ी देर में कमरे में इधर-उधर टहलने लगती व अपने आप बड़बड़ाने लगती।

बेटे के चेहरे को भी देखा, वह भी एकदम गुमसुम व मायूस था। उसकी चुप्पी देखकर वह भी आशंका से ग्रस्त हो गई थी और एक दिन बेटे के कमरे से ज़ोर ज़ोर से हू, हू, की आवाज़ आ रही थी। जब वह वहाँ गई तो देखा बहू ने बाल खोल रखे हैं व जोर-जोर से कभी हँस रही थी, कभी रोने लगे जाती।

माँ-बेटे दोनों उसे फटाफट डॉक्टर के पास ले गए, जहाँ पता लगा कि उसे मिर्गी के दौरे पड़ते हैं।

सीता देवी अपनी ज़िंदगी में दुखों के कई पड़ाव देख चुकी थी। जवानी में पति की मौत व परिवार का असहयोग लेकिन इस दुःख को वह सहन न कर सकीं और महीने भर में ही ब्रेन हैमरेज का आघात लगने से उनका दाहिना हिस्सा लकवा ग्रस्त हो गया।

बेटे की धोखे से की गई शादी को समाज के लोगों का दबाव पड़ने से बेटे के ससुराल वाले उसे अपने घर ले गए लेकिन सीता देवी बेटे के सूने जीवन को देखती तो उसकी आँखें भर आती।

बेटे को पास बैठाकर बमुश्किल दायाँ हाथ उसके सिर पर रखते हुए ढेरों आशीष देती कि मेरे इस लाड़ले की ऐसी बहू आए जो इसकी ज़िन्दगी में सतरंगी खुशियां बिखेर दें।

बेटे के जीवन का भी एक मात्र ध्येय माँ की सेवा सुश्रुषा ही रह गया था लेकिन सीता देवी की सूनी आँखें बेटे की गृहस्थी दुबारा बस जाए, इसी आस में दूसरी बार आए ब्रेन हैमरेज के आघात को भी सह गई।

पिछले महीने ही उनके भाई ने एक अच्छी गरीब परिवार की पढ़ी-लिखी लड़की का रिश्ता सुझाया था जिसके बाद यह शादी होनी तय हुई थी और आज बेटे-बहू के इंतज़ार में ही आँखें दरवाजे की हर चरमराहट पर उधर घूम जा रही थीं।

नई बहू का स्वागत सीता देवी की भाभी ने किया व जब बहू ने आकर उनके पाँव छुए तथा तकिए के सहारा लगा कर बैठाया व अपने हाथों से उन्हें खाना खिलाया तो सीता देवी के सूखे रेगिस्तान रूपी जीवन में बारिश की दो बूंदें पड़ चुकी थीं।

जिस बेटे के चेहरे पर एक मुस्कान की " उम्मीद" वह दस वर्षों से लगाए हुए थी वह आज पूरी हो चुकी थी तथा सीता देवी धीरे-धीरे अपनी आँखें मुंदती हुई अंतिम यात्रा के लिए महाप्रयाण पर जा चुकी थीं।


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