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राजकुमार व्यथित की खुशी

राजकुमार व्यथित की खुशी

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15 अगस्त सन् 2011 को नवरंगपुर के लोग शायद कभी नहीं भूल पाएंगे। 

इसी दिन रामकुमार 'व्यथित' ने 'आदर्श एन्क्लेव' के पाँचवें माले के अपने फ्लैट में खुदकुशी कर ली थी।

 

रामकुमार न असफल प्रेमी था, और न कोई व्यापारी, जो किसी से धोखा या घाटा खाने के कारण अपनी जान दे दे। रामकुमार बेहद आम आदमी किस्म का खास जीव था। उसके नाम के साथ 'व्यथित' तखल्लुस लगा होने के कारण कभी-कभी लोग उसे कवि समझ लेते थे, पर वह कवि नहीं था। साहित्य से उसका केवल इतना ही नाता था कि उसे कवि सम्मेलनों में जा कर कविताएँ सुनने का बड़ा शौक था, और अच्छी-अच्छी पुस्तकें पढ़ने की आदत थी।

 

शिक्षा विभाग में लिपिक के पद पर कार्यरत रामकुमार को उसके घर और बाहर के लोग 'महाबोर' के नाम से पुकारा करते थे। हर घड़ी देश-दुनिया और समाज के पतन का रोना रोते रहने के कारण ही लोग उसे 'व्यथित'  कह कर पुकारने लगे थे। रामकुमार को अपनी ये नई उपाधि इतनी पसंद आई कि वह खुद अपने नाम के साथ व्यथित लिखने लगा था।

 

रामकुमार हर घड़ी सामाजिक परिवेश को ले कर दु:खी रहता था। अखबारों को देखना तो उसने बहुत पहले ही छोड़ दिया था। जब भी अख़बार देखता, तो उसके शीर्षक उसे दु:खी कर देते थे:

''युवती से सामूहिक बलात्कार''

''नाबालिग के साथ कुकर्म''

''घर के वृद्ध की हत्या करके नौकर फरार''

''पुलिस प्रताड़ना से युवक ने खुदकुशी की''

''देश का अरबों रुपया स्विस बैंक में''

''दो लड़कियों ने रचाई आपस में शादी''

''नाबालिग लड़की प्रेमी के साथ भागी''

''दहेज के लिए बहू को जला कर मार डाला''

''भ्रष्टाचार के आरोप में फलां - फलां को जेल''

 

ऐसी अनेक खबरों से भरे अखबारों को पढ़ते ही रामकुमार विचलित हो जाता था। लोग उसे समझाते भी थे कि 'बेगानी शादी में अब्दुल्ला दीवाना’ जैसी हरकतें बंद करो। 'तुम तो मस्त रहो मस्ती में, आग लगे बस्ती में' : मगर रामकुमार पर कोई असर नहीं होता था। टीवी चैनलों के धारावाहिकों को देख कर भी रामकुमार अक्सर बेचैन हो उठता। परिवारों में साजिश, अवैध संबंधों का मायाजाल, रियल्टी शो  के नाम पर अश्लीलता का प्रसार, और शादी-ब्याह के इर्द-गिर्द मंडराते वाहियात किस्म के धारावाहिकों को देख-देख कर रामकुमार टेंशन में आ जाता। इन्हें देखना उसे समय की बर्बादी लगती थी। चैनलों की भाषा सुन-सुन कर भी वह दु:खी हो जाता कि ये लोग हिंदी की हत्या करने पर तुले हैं।

 

इन्हीं सब बातों से परेशान हो कर रामकुमार पुस्तक-पत्रिकाएँ पढ़ने के लिए घर का कोई कोना खोज लेता।

 

दफ्तर से घर लौटने के बाद रामकुमार अक्सर किताबों में ही खोया रहता। पहले वह अपने वृद्ध-बीमार माता-पिता के पास जा कर कुछ देर बैठता, उनसे बतियाता, उनका हाल-चाल पूछता, फिर पत्नी चंद्रकला से थोड़ी-बहुत बातें करता। हाईस्कूल में पढ़ने वाले बेटे विश्वास और बेटी आशा को मुस्करा कर देखता, और उसके बाद मुँह-हाथ धो कर कोई पुस्तक पढ़ने लग जाता। कभी जब मन होता, तो इवनिंग वॉक कर के भी आ जाता, लेकिन वह किसी के पास जा कर गप्पें मारने की आदत से मुक्त हो चुका था। पहले वह आस-पास के लोगों के पास बैठने जाता था, मगर जब उसने देखा कि आपसी बातचीत में केवल परनिंदा ही केंद्र में रहने लगी, तो उसे लगा इससे अच्छा है घर बैठो और सत साहित्य पढ़ो। जीवन में कभी कोई भला काम न करने वाले लोग अपने में ही मगन दिखे। अपने घर को सजा रहे हैं, मगर आत्मा कलुषित हुई जा रही है। नया वाहन खरीद कर उसी में इतरा रहे हैं, मगर जीवन की गाड़ी कंडम हो चुकी है। ऐसे खोखले लोगों के बीच रामकुमार का दम घुटता था, इसलिए उसने सब से किनारा कर के पुस्तकों से यारी कर ली, और सुख-चैन से रहने लगा।

 

सार्वजनिक पुस्तकालय का वह नियमित पाठक था। रामुकमार की पढ़ने की आदत देख कर लाइब्रेरियन शर्मा बहुत खुश होता और कहता- ''एक आप ही हैं, जो इन अलमारियों में कैद पुस्तकों को मुक्त करते रहते हैं। अब तो पढ़ने-लिखने वाले खत्म होते जा रहे हैं। जिसे देखो, बस देखना चाहता है। न तो पढ़ना चाहता है, न विचारना।''

 

लाइब्रेरियन की बात सुन कर रामकुमार मुस्करा देता।

 

एक दिन बच्चों की ज़िद  के कारण घर पर इंटरनेट कनेक्ट हो गया, तो रामुकमार को जैसे एक सच्चा साथी मिल गया। लोगों से उसने 'ब्लॉग'  के बारे में सुना, तो उसने भी उत्साह में आ कर अपना एक ब्लॉग बना लिया, लेकिन समस्या यह थी कि ब्लॉग में लिखे तो क्या लिखे? बाकी लोग अपने-अपने ब्लॉगों में अपनी कविताएँ, अपना चिंतन, अपने साहित्यिक विचार या लघुकथाएँ  आदि 'पोस्ट' कर देते थे, लेकिन रामकुमार में सृजन की वैसी मौलिक प्रतिभा नहीं थी, इसलिए उसने ब्लॉग छोड़ कर अपना 'फेसबुक'  एकाउंट खोल लिया। मन की बात कहने के लिए उसे फेसबुक सशक्त माध्यम लगा। लाखों साधारण-असाधारण लोग फेसबुक के माध्यम से अपने को अभिव्यक्त करने की कोशिशें कर रहे थे।

 

रामकुमार लगभग हर रोज अपने विचार फेसबुक की 'वॉल' पर दर्ज कर दिया करता था। कहीं पुलिस गोली चलती या लाठियाँ भाँजती, तो रामकुमार व्यथित ने फेसबुक पर प्रतिवाद स्वरूप चार पंक्तियाँ लिख देता था-''लोकतंत्र के लिए आज का दिन शर्मनाक है।...पुलिस ने अपने ही लोगों को बेरहमी से मारा-पीटा।.....क्या लोकतंत्र में अपनी बात कहने की भी आज़ादी नहीं है?... शर्म करो, पुलिस, शर्म करो।...और वो सरकार भी डूब मरे, जो अपनी जनता का दमन करती है।''

 

दुनिया में कहीं भी कोई बड़ी चिंतनीय घटना होती, तो रामकुमार की टिप्पणी हाजिर हो जाती। रामकुमार के विचारों को अनेक लोग पसंद करते और कुछ लोग उस पर अपने 'कमेंट्स' भी देते। इससे रामकुमार को बड़ा संतोष मिलता। उसे लगता, यह अच्छा तो माध्यम है। मन की पीड़ा को स्वर तो दे रहा हूँ। दुनिया में कोई तो है, जो उसकी बातों को सुन रहा है।

 

रामकुमार कभी 'ट्विटर' में जा कर अपने विचार 'ट्वीट' कर देता, लेकिन फेसबुक की लोकप्रियता कुछ ज्यादा नज़र आई, तो उसने फेसबुक को ही अपनी अभिव्यक्ति का स्थाई साधन बना लिया। धीरे-धीरे वह फेसबुक का चिर-परिचित चेहरा बन गया। देखते ही देखते उसके पाँच हजार से ज्यादा दोस्त भी हो गए। हालांकि फेसबुक के माध्यम से होने वाली दोस्ती केवल आभासी दोस्ती थी। एक छलावा भर है कि कुछ दोस्त हैं। कुछ लोगों को मुगालता हो जाता था कि उनके इतने दोस्त हैं। जबकि कोई फेसबुकिया दोस्त सामने आ जाए,तो कोई पहचान ही न पाए। याद करना पड़े कि इस नाम का कोई दोस्त भी है। सैकड़ों लोग एक-दूसरे को 'फ्रेंड रिक्वेस्ट’ भेजते और उसे स्वीकृत करते रहते। भूले से कोई दोस्त अगर अपने किसी फेसबुकिया दोस्त से कभी मिलने चला जाए, तो सामने वाला कुछ ऐसा व्यवहार करता, मानो कोई बोझ आ गया हो। इस बारे में नागपुर के विकल्प साहू ने फेसबुक के माध्यम से अपने इस कटु अनुभव का उल्लेख भी किया था, जब वह कांदिवली के अपने फेसबुक मित्र रोहित से मिलने पहुँचा, तो उसे उसने 'सॉरी, आइ हैव नो टाइम’ कहते हुए विकल्प को बाहर से ही लौटा दिया था। फिर भी फेसबुक लोगों से जुड़ाव का एक जरिया तो था ही, जहाँ रामकुमार व्यथित अपनी हर व्यथा की कथा को बयां कर दिया करता था।

 

रामकुमार बेहद भावुक किस्म का जुनूनी जीव था। एक बार वह एक कसाईखाने को बंद करवाने के लिए तीस साले से चल रहे आंदोलन में अपनी गिरफ्तारी देने देवनार तक चला गया था। गो-वध बंद करने की माँग को ले कर दिल्ली में जब संतों ने धरना दिया था, तो उसमें भी शामिल हो गया था। बाबा रामदेव के आंदोलन में शामिल होने के लिए भी वह बिन बुलाए दिल्ली पहुँच गया था। विदेशी बैंकों में भारतीयों के अरबों डॉलर रुपये जमा है। उसे वापस लाने की माँग को ले कर जब बाबा ने रामलीला मैदान में अपना आंदोलन शुरू किया था। रात को बारह बजे जब पुलिस वालों ने सोते हुए आंदोलनकारियों पर जम कर डंडे बरसाए थे, तो उसमें रामकुमार भी बुरी तरह घायल हुआ था। सिर पर पट्टी बाँध कर जब वह घर लौटा, तो पूरा परिवार दु:खी हो गया था।

 

पिता ने नाराज हो कर बोले थे- ''मैं पूछता हूँ कि तुम दिल्ली क्यों चले गए थे? घर बैठे आंदोलन को समर्थन नहीं दे सकते थे? लेकिन तुम तो फितूरी हो। बिना दिल्ली जाए तुमको चैन नहीं पड़ता। इसे ही कहते हैं, आ बैल मुझे मार।''

 

पत्नी ने कहा- ''अरे, आप अपने फेसबुक पर ही लिख देते कुछ। उत्ती दूर जाने की जरूरत का थी? वो भी अपना पैसा खर्च करके? कभी-कभी तो हद ही कर देते हैं आप। वैसे भी पैसों की किल्लत बनी रहती है, उस पर आप...?''

 

रामकुमार व्यथित खामोश रहा। उसने कुछ नहीं कहा। जब रामकुमार दफ्तर चला गया, तो उसकी अनुपस्थिति में घर के लोग आपस में चर्चा शुरू कर दी:

 

''कहीं मेरे बेटे पर किसी ने कुछ कर कुरा तो नहीं दिया? जादू-टोना? कई बार तो बिल्कुल असामान्य हरकतें करने लगता है।'' माँ परेशान हो कर बोली।

 

''क्या एक बार किसी मनोचिकित्सक को दिखा दिया जाए?'' पत्नी ने प्रस्ताव रखा।

 

''हाँ, दिखा देना चाहिए। लेकिन पहले घर में हवन-पूजन करवा भी लेना ठीक रहेगा। रामू पर अगर कोई बुरी छाया पड़ी होगी, तो भाग जाएगी।” पिता ने सुझाव दिया।

 

लेकिन प्रश्न यही था कि रामकुमार से कौन बोले? वह भड़क गया तो?  फिर भी पिता के कहने पर चंद्रकला ने घर में हवन-पूजन का कार्यक्रम करा लिया गया। रामकुमार को असली कारण नहीं बताया गया। जब रामकुमार ने अचानक हवन-पूजन का कारण पूछा, तो चंद्रकला ने इतना ही कहा, ''माता-पिता के स्वास्थ्य की मंगल कामना के लिए यज्ञ करवाया जा रहा है।'' रामकुमार भी उत्साह के साथ पूजा में शामिल हुआ। धर्म से उसे परहेज नहीं था, मगर वह कर्म-कांड का घोर विरोधी था। सबकी इच्छा थी, तो उसने अपनी सहमति दे दी थी।

 

कुछ दिन सब ठीक चलता रहा। रामकुमार के असंतुष्ट स्वर नहीं सुनाई पड़े, तो एक दिन पिता ने कहा-''देखा बहू, पूजा का असर। इन सब चीजों का प्रभाव तो पड़ता ही है। कोई माने न माने।''

 

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एक दिन रामकुमार फिर सनक गया।

अन्ना हजारे ने भ्रष्टाचार के खिलाफ मुहिम छेड़ दी, तो रामकुमार की दिनचर्या फिर बदल गई।

 

वह दिल्ली तो नहीं गया, पर नवरंगपुर में ही चल रहे आंदोलन में पूरी तरह से सक्रिय हो गया। अपने कार्यालय से अवकाश ले कर दस दिनों तक रामकुमार धरना स्थल पर जा कर डट गया था । 'मैं भी अन्ना' वाली टोपी पहन कर वह प्रसन्नता के साथ देर रात घर लौटता था। दिन भर धरने पर बैठे लोगों के साथ-साथ रामकुमार भी भ्रष्टाचार के खिलाफ जोशीले नारे लगाता था। कोई सामूहिक गीत गाता, तो पीछे खड़े हो कर वह भी उन्हें दुहराता और ताली बजाता। धरना स्थल के आसपास की सफाई करना, लोगों को पानी पिलाना, खाना खिलाना, माइक ठीक करना, कुर्सियाँ सजाना आदि अनेक काम अपनी ओर से करता और प्रसन्न रहता।

 

उसकी प्रसन्नता देख कर उसे जानने वाले कुछ लोग आपस में चर्चा करते- ''यार, ये रामकुमार अब व्यथित की जगह उत्साहित कैसे हो गया?''

 

दूसरा कहता- ''मानना पड़ेगा इसको भी। समर्पित जीव है। दिन-रात लगा है आंदोलन में। वह भी पर्दे के पीछे रह कर।...बाकी लोग तो मीडिया में छाए रहने के लिए सामने आकर नारे लगाते हैं, मगर रामकुमार हमेशा पीछे ही रहता है। कभी किसी चैनल को अपनी छोटी-सी 'बाइट' भी नहीं दी।...किनारे बैठ कर ही खुश रहता है।... ऐसे लोग आजकल खोजने से भी नहीं मिलते।''

 

लोग हैरान थे कि रामकुमार में इतना बड़ा परिवर्तन कैसे आ गया।

कुछ दिन बाद आंदोलन समाप्त हो गया, तो रामकुमार फिर अपनी पुरानी दिनचर्या में आ गया।

 

शाम को घर लौटता पुस्तक वगैरह पलटने के बाद थोड़ी देर के लिए नेट पर बैठ जाता। फेसबुक खोल कर देखता कि उसकी 'वॉल’ पर उसके दूसरे आभासी-अनजान किस्म के मित्रों की गतिविधियाँ क्या रहीं? किसने, क्या पोस्ट किया? फिर वह भी अपने मन की बात लिख देता। कभी किसी शायर की कविता, कभी अपने टूटे-फूटे विचार। वह अपने विचारों को 'पोस्ट' करता और थोड़ी देर बाद ही प्रतिक्रियाएँ आनी शुरू हो जातीं। कोई उन्हें पसंद करता, तो कोई तारी$फ में एक-दो पंक्तियाँ भी लिख देता था। आजकल बहुत से लोग लैपटॉप ले कर चलते हैं। दफ्तर में खाली समय मिलने पर लैपटॉप में फेसबुक को देखना, फेसबुक की 'वॉल’ पर कुछ लिखना, मित्रों के साथ चैटिंग करना, काम की-बेकाम की साइटों को खँगालना और शाम होते ही घर लौट आना। रामकुमार को अपने विचारों पर जब दो-चार लोगों की भी टिप्पणियाँ मिल जातीं, तो उसे लगता कुछ रिस्पांस तो मिला। रामकुमार इतने से ही खुश हो जाता।

 

लेकिन धीरे-धीरे रामकुमार फेसबुक से भी ऊबने लगा। उस ने महसूस किया कि फेसबुक खा-पी कर अघाए और लगभग चुके हुए, नाकारा किस्म के लोगों का वाग् विलासी का अड्डा बनाता जा रहा है। एक तरह का शगल। नशा। करना-धरना कुछ नहीं, बस, घर बैठे क्रांतिकारी विचारों का वमन करते रहो। फेसबुक में रामकुमार को ऐसे-ऐसे लोग नज़र आते, जिन्हें देख कर उसे बड़ी कोफ्त होती। भोग-विलास में डूबे लोग नैतिकता पर विचार करते हुए किसी मसखरे से कम नहीं लगते थे। धीरे-धीरे रामकुमार का मोहभंग होता चला गया कि वह किन लोगों के साथ खड़ा है।

 

फेसबुक से रामकुमार की वितृष्णा उस वक्त से शुरू हुई, जब एक एक लड़की ने रामकुमार को 'फ्रेंड रिक्वेस्ट' भेजी। जब रामकुमार ने उसका प्रोफाइल देखा, तो दंग रह गया। अपनी फोटो-गैलरी में वह लड़की अपना जिस्म दिखा रही थी, उसके अनेक पोज़ बेहद अश्लील थे। लड़की ने किसी न्यूड लड़की का चित्र भी अपलोड करके रखा था। ऐसी एक नहीं, अनेक लड़कियों की भरमार थी फेसबुक में। अनेक युवक भी लंपटगिरी कर रहे थे। कोई युवक चड्ढी में नजर आ रहा है।.... कोई अपने कुत्ते की तस्वीर अपलोड कर रहा है, तो कोई अपने किसी दोस्त के साथ पलंग पर चिपक कर लेटा हुआ है।.... कोई बता रहा है कि 'आज में सुबह देर से उठा....आज मैं सिनेमा देखने गया....आज मैंने ये किया, वो किया...।'' कुछ तो इतने विचारशून्य 'फेसबुकिए’ थे, जो 'हाय दोस्तों, और क्या हाल है?'' लिखते और चलते बनते। ऐसे ही जुमलों को भी 'पसंद' करने वाले दस-बीस लोग सामने आ जाते थे। रामकुमार ने सोचा ऐसे चिरकुटों के बीच रहने से अच्छा है कि पढ़ने-लिखने में समय बिताया ही श्रेयस्कर होगा।

 

फेसबुक में दो-चार बौद्धिक लोग मरुभूमि में जल कुंड की तरह लगते थे। जिनके विचार पढ़ कर रामकुमार को खुशी होती थी। कुछ लोग वैचारिक भले ही न भले थे, मगर ये लोग भले किस्म के थे। कुछ लोग कभी कोई कर्णप्रिय फिल्मी गीत सुनवा देते थे, या कोई फनी वीडियो दिखा कर लोगों का मनोरंजन करने की कोशिश करते थे। मगर नकारे लोगों की विवेकहीनताओं की बहुलता से रामकुमार और अधिक व्यथित हो जाता था। वह खीज कर बड़बड़ाता, 'अरे भाई, तुम अपने घर में हगो-मूतो, हमसे क्या, लेकिन इस नये माध्यम से सद्विचारों का आदान-प्रदान करो’। उसने एक-दो बार अपनी वॉल पर इस तरह की समझाइश देने की कोशिश की, तो कुछ लोगों ने उसे ही फटकार लगा दी कि 'हमें अपनी स्वतंत्रता में दखल मंजूर नहीं।....आप हमारी सोच पर पाबंदी न लगाएँ। आप व्यथित हैं, तो हमें भी व्यथित न करें।'

 

लोगों की तल्ख प्रतिक्रियाएँ पा कर रामकुमार ढीला पड़ गया। उसे दु:ख हुआ कि लोग वैचारिक माध्यमों का भी गलत इस्तेमाल कर रहे हैं। हाँ, जब अन्ना हजारे का भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन चल रहा था, तब बहुत-से लोगों ने फेसबुक के माध्यम से एक स्वर में आवाज़  बुलंद की थी कि देश से भ्रष्टाचार मिटना चाहिए। मगर रामकुमार इस सत्य को समझ नहीं पाया कि ये आभासी दुनिया है। यहाँ लोग एक पंक्ति लिख कर छुट्टी पा लेते हैं और सोचते हैं कि क्रांति हो गई। घर बैठे प्रलाप करते रहो। जबकि अनुभव यही बताता है कि क्रांतियां घर बैठे नहीं होतीं। इसके लिए घर से बाहर निकलना पड़ता है। जान जोखिम में डालनी पड़ती है।

 

रामकुमार को जब यह समझ में आ गया कि ये फेसबुक, ये ट्विटर आदि जितनी भी सोशल नेटवर्किंग वाली साइटें हैं, इनमें अधिकतर खाये-पीये संपन्न लोगों की घुसपैठ बढ़ती जा रही है, और शातिर लोग इस माध्यम से अपनी बेहतर छवि पेश करने का गोरखधंधा चला रहे हैं, तो उसे लगा अब फेसबुक से दूरी बढ़ाना ही बेहतर होगा। यह तो खाली-पीली समय बर्बादी का एक माध्यम बन कर रह गया है। और अंतत: रामकुमार ने फेसबुक, आर्कुट और ट्विटर आदि पर भी जाना बंद कर दिया। वैसे कभी-कभी मन होता, तो वह चला भी जाता था। तब उसकी वॉल पर एक-दो लोगों के कमेंट्स ही  नज़र आते थे कि

'आजकल आपके दीदार नहीं होते? इन दिनों कहाँ व्यस्त हैं जनाब।'

'आपके क्रांतिकारी विचारों के बगैर फेसबुक की दुनिया अधूरी है।'

'हम भी आपकी तरह व्यथित हो रहे हैं।’ 

रामकुमार सब के विचार पढ़ता, 'पसंद' पर क्लिक तो करता, मगर कोई उत्तर न देता।

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एक दिन रामकुमार के पिता बीमार पड़े। रामकुमार के पास इतने पैसे नहीं थे कि किसी निजी अस्पताल में उनका इलाज करा सकता। मजबूरी में सरकारी अस्पताल के बदबू भरे वातावरण में ही पिता को भर्ती करना पड़ा। हमेशा की तरह अस्पताल में दवाइयों का अभाव था,, सो उसे बाहर से ही दवाइयाँ खरीदनी पड़ी। इसी में काफी पैसे खर्च हो गए। पिता कुछ ठीक हुए, तो माँ भर्ती हो गईं। फिर खर्च। दोस्तों से कर्ज लेने की नौबत आ गई। बच्चों की महंगी पढ़ाई के कारण रामकुमार पहले ही व्यथित था। महँगाई अपना रंग दिखा रही थी। आसमान छू रही थी। रामकुमार चाह कर भी घर को खुश नहीं रख पा रहा था। एक लिपिक की अपनी क्षमता होती है। फिर रामकुमार जैसा लिपिक जो कहीं से बेईमानी भी तो नहीं कर सकता। भ्रष्टाचारी लोग तो रेत से भी तेल निकाल लेते हैं। लेकिन रामकुमार ने हमेशा भ्रष्ट तरीकों से अपने को दूर ही रखा।

 

पत्नी और बच्चे अक्सर रामकुमार के पीछे पड़े रहते कि 'केबल कनेक्शन ले लो'। एक दिन उसने केबल कनेक्शन ले लिया।

फिर बच्चों ने कहा, 'फ्लैट टीवी ले लो'। रो-धो कर वह भी ले लिया।

फिर घर के हर सदस्य को एक मोबाइल चाहिए। सबके स्टेटस का सवाल। चलो, वह भी दिलवा दिया।

अब सिम कार्ड के लिए भी पैसे दो।

शॉपिंग मॉल जाना है, वहाँ सिनेमा भी देखना है, वहाँ कुछ न कुछ खाना-पीना भी करेंगे। तो उसके लिए पैसे लगेंगे। 

टू व्हीलर चाहिए, वो भी महँगे से महँगा: लेटेस्ट फीचर वाला।

रामकुमार कर्ज ले -ले कर घर-भर की सारी सुविधाएँ जुटाता रहा।

 

माता-पिता लगातार बीमार रहने लगे। उनकी दवाइयों पर सबसे ज्यादा पैसे खर्च हो रहे थे, मगर घर के अन्य लोगों के गैरजरूरी खर्चे रामकुमार को तोड़े जा रहे थे। बीस हजार रुपये वेतन में वह कितना कुछ कर पाता? धीरे-धीरे हालत यह हो गई कि वह कर्ज की नदी में गले तक डूब गया। उसे बचाने वाला कोई नहीं था। उसकी स्थिति को समझने की कोशिश भी कोई नहीं कर रहा था। न पत्नी और न बच्चे। बच्चों की नई-नई फरमाइशें जारी रहती। किसी को मोबाइल का नया सेट खरीदना है, तो किसी को ब्रांडेड कपड़े चाहिए। अगर किसी दिन रामकुमार नाराज हो कर भड़क जाए, तो पूरा घर उससे बात नहीं करता था। ऐसे समय में रामकुमार कभी-कभी इंटरनेट पर बैठता और मन की व्यथा को लिख कर तनाव मुक्त होने की कोशिश करता।

 

रामकुमार व्यथित एक दिन कहीं जा रहा था। उसने देखा एक गाय घायल अवस्था में सड़क पर पड़ी है। किसी गाड़ी वाले ने गाय का ठोकर मार दी थी। स्कूटर से उतर कर उसने घायल गाय को गौ शाला तक पहुँचाया। गायों की दुर्दशा देख कर वह दु:खी हो जाता था और बड़बड़ता,  'कैसा निर्मम समाज है यह। लोग गाय का दूध पीते हैं मगर उसकी देखभाल नहीं कर सकते? शर्म आती है ऐसे लोगों को देख कर'। गाय को वह माता कहता था।

 

एक बार एक यातायात सिपाही से वह भिड़ गया, क्योंकि सिपाही गाँव से आए किसी व्यक्ति को पीट रहा था। ऐसे अनेक मौके आते रहते थे, जब रामकुमार लोगों से उलझ जाया करता था। उसे अन्याय बर्दाश्त नहीं होता था। इस कारण वह अक्सर दु:खी-परेशान रहता। कई बार उसका मन होता कि नौकरी छोड़ दे और अन्ना हजारे के साथ जुड़ कर समाजसेवा के काम में लग जाए, मगर वह ऐसा कर नहीं सकता था, क्योंकि उस घर के पाँच सदस्यों को पेट भी पालना था। कई बार वह सोचता कि उसने शादी क्यों कर ली? अविवाहित रहता तो परिवार की चिंता न रहती। फिर वह निश्चिंत हो कर जनसेवा कर सकता था। देश की अराजक स्थिति देख-देख कर वह तनावग्रस्त हो जाता। कई बार तो उसे लगता कि दिमाग की नसें फट जाएंगी। पत्नी समझाती, यार-दोस्त भी समझाते कि 'ठंड रख। टेंशन मत पाला कर । तेरे सोचने से दुनिया नहीं बदलेगी। अब यह सुधरने से भी रही। भ्रष्टाचार मिटाने के लिए 'लोकपाल’ बिल ले आओ, चाहे परलोकपाल बिल, सिस्टम का जिस तेजी के साथ अपराधीकरण हुआ है, उसे सुधारने के लिए अब केवल महाप्रलय की प्रतीक्षा करनी होगी। यह दुनिया नष्ट होगी, नई दुनिया आकार लेगी, तभी शायद ईमानदार, सहिष्णु और महान दुनिया का विकास हो सकेगा।’  

 

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वह रविवार की कुछ-कुछ उदास-सी दोपहर थी।

 

पंद्रह अगस्त का दिन था। छुट्टी का माहौल, मगर रामकुमार बैठे-बैठे विचार कर रह था कि भ्रष्टाचार, महंगाई और अत्याचार पीड़ित समाज के रहते आज़ादी का जश्न बेमानी है।

 

रामकुमार गाँधी की चर्चित पुस्तक 'हिंद स्वराज' पढ़ रहा था। पत्नी अपने दोनों बच्चों के साथ शॉपिंग मॉल के लिए निकल गई। वृद्ध माता-पिता अपने कमरे में आराम कर रहे थे। लेकिन रामकुमार के मन में कुछ और चल रहा था। दरअसल वह इस संसार से हमेशा-हमेशा के लिए कूच करने की तैयारी में था। महाप्रयाण की तैयारी। बहुत देर तक वह अपने बारे में, महँगाई के बारे में, देश के हालात पर विचार करता रहा, फिर दु:खी हो कर आँसू बहाने लगा। उसे भी यह महसूस होने लगा कि यह दुनिया जिस ढर्रे पर चल रही है, उसे अब कोई गाँधी, या कोई अन्ना बदल ही नहीं सकता। रामकुमार इस नकारात्मक सामाजिक बदलाव को बर्दाश्त भी तो नहीं कर सकता था। इस तरह घुट-घुट कर जीने का कोई मतलब नहीं। बेहतर यही है कि इस दुनिया-ए-फानी से ही कूच कर जाओ।

 

अचानक वह उठा.... उसने एक कोरा कागज उठाया और उस पर लिखने लगा :

 ''इस दुनिया को देख कर मैं बेहद परेशान हूँ, सचमुच व्यथित हूँ। ...लोग महँगाई से परेशान हैं, मेरे जैसे न जाने कितने लोग हैं, जो कर्ज में डूबे हुए हैं....लाखों-करोड़ों लोग भूखों मर रहे हैं....किसी के पास रहने को घर नहीं, तो किसी के पास इतने घर हैं कि समझ नहीं पाता कि कहाँ रहे?....सामाजिक पतन देख कर शर्म आती है....लड़कियाँ शराब पी रही हैं, सिगरेट पी रही हैं...कुंवारी माँओं की संख्या बढ़ रही है। माता-पिता आधुनिक बनने के चक्कर में बच्चों को नैतिक रूप से पतित कर रहे हैं...बूढ़ी औरतें जवान होना चाहती हैं....परिवारों का अपनापन खत्म होता जा रहा है...आपसी सद्भावना तिरोहित हो रही है....कुल मिला कर देश की जो हालत है, उसे देख कर अब जीने का मन नहीं करता। इसलिए....अब मैं जा रहा हूँ...अपने परिवार को भगवान भरोसे छोड़ कर जा रहा हूँ....क्योंकि मुझे पता है कि किसी के जाने से किसी को कोई फर्क नहीं पड़ता...सबके जीने की कोई न कोई राह निकल आती है, इसलिए मेरे मन में कोई अपराध बोध भी नहीं कि मैं अपने परिवार को असहाय छोड़ कर जा रहा हूँ।....और वैसे भी सब अपनी-अपनी किस्मत ले कर आते हैं।

 

अपनी मौत के लिए मैं किसी पर कोई इल्जाम नहीं लगाना चाहता, लेकिन सरकार पर उँगली ज़रूर उठाना चाहता हूँ।.... अगर सरकार चाहती, तो भ्रष्टाचार खत्म हो सकता था, महँगाई पर नियंत्रण लगाया जा सकता था। लेकिन सरकार में बैठे लोग अब नेता नहीं, माफिया हैं।... किसी भी खतरनाक अपराधी से कम नहीं हैं ये लोग। इनके रहते अब न तो महंगाई पर नियंत्रण हो सकता है, न भ्रष्टाचार ही खत्म हो सकता है। मैं चाहता तो इन अपराधियों को चुन-चुन कर मार सकता था, लेकिन मैं ऐसा नहीं करूँगा, क्योंकि मैं महात्मा गाँधी का भक्त हूँ।.... इसलिए दूसरे की हत्या करने से बेहतर है कि आत्महत्या कर ली जाए।.... जिंदा रहूँगा, तो घर-बाहर चारों तरफ अराजकता देख कर मुझ दु:ख होगा। शिविरों की हत्या करने का मन करेगा, और मैं ऐसा कर नहीं पाऊँगा।... इसलिए घुट-घुट कर मरने से बेहतर है कि इस किस्से को ही खत्म कर दिया जाए।

.... खुश रहो अहले वतन हम तो सफर करते हैं। जय हिंद।''

 

रामकुमार ने फेसबुक की अपनी 'वॉल' पर भी अपने इन विचारों को लिख दिया। जैसे ही रामकुमार के विचार उसकी वॉल पर नज़र आए, वैसे ही बहुत से नाकारा किस्म के विचारशून्य फेसबुकियों ने रामकुमार के पूरे विचारों को पूरा पढ़े बगैर हमेशा की तरह 'पसंद' पर क्लिक किया, और कुछ लोगों ने  'वाह क्या बात है'.... 'नाइस' और 'अति सुंदर विचार' जैसी टिप्पणियाँ भी कर दीं। किसी ने भी पूरा मजमून नहीं पढ़ा कि रामकुमार कहना क्या चाहता है। वह आत्महत्या की सार्वजनिक घोषणा कर रहा है, इस पर किसी का ध्यान ही नहीं गया क्योंकि अधिकतर लोग किसी के विचारों को पूरा पढ़ने की जहमत ही नहीं उठाते। बस, सरसरी तौर पर पढ़ा, और टिप्पणी कर दी। एक-दो ने पूरा पढ़ा, मगर उन्होंने इसे गंभीरता से नहीं लिया: सब ने सोचा, रामकुमार व्यथित जी मजाक कर रहे हैं।

लेकिन रामकुमार व्यथित गंभीर था।

अपने मन की भावनाओं को कलमबद्ध करके वह फाँसी पर झूल गया।

 

 

शाम को जब पत्नी-बच्चे मस्ती करके घर लौटे, तो रामकुमार के शरीर को पंखे के सहारे झूलता देख कर उनके होश उड़ गए। कोहराम मच गया।...रोना-पीटना शुरू हो गया....घर के बाहर भीड़ लग गई। मीडिया के लोग पहुँचने लगे। इलेक्ट्रॉनिक चैनल वाले घर के सदस्यों से धड़ाधड़ 'बाइट’ लेने लगे। चैनल वाले आज भी रामकुमार से कोई बाइट नहीं ले सके। लेकिन रामकुमार का सुसाइडल नोट सबके सामने था। जो भी उसे पढ़ता, हैरत में पड़ जाता। उसे पढ़ कर अनेक लोगों की आँखें नम हो जाती थीं।

पहली बार लोग इस तरह का सुसाइडल नोट देख रहे थे। लोग आपस में बातें करने लगे :

''भाई, ये तो पागलपन की निशानी है।''

''इतनी बड़ी दुनिया में ये सब तो चलता रहता है। इस कारण कोई अपनी जान तो नहीं देता।''

''इसके मरने से क्या परिदृश्य बदल जाएगा?''

''आदमी को इतना भावुक भी नहीं होना चाहिए।''

''कहीं अंदर कोई दूसरी स्टोरी तो नहीं? कहीं रामकुमार का किसी से कोई लफड़ा-वफड़ा तो नहीं था। लव अफेयर?''

 

तरह-तरह की बातें होती रहीं। टीवी चैनलों के लिए रामकुमार व्यथित की मौत जबर्दस्त ब्रेकिंग न्यूज़  थी। रामकुमार की पत्नी, बच्चों के आँसू, बूढ़े माता-पिता का रुदन, सब कुछ दिन-रात दिखाया जाता रहा। हर चैनल की टीआरपी बढ़ गई थी। दूसरे दिन अखबारों ने भी प्रथम पृष्ठ पर $खबर प्रकाशित की। रामकुमार का महान व्यक्तित्व के बारे में पत्नी ने विस्तार से जानकारी दी थी।

अचानक एक गुमनाम व्यक्ति एक दिन का हीरो बन गया था।

 

दूसरे दिन सुबह रामकुमार की अंतिम यात्रा निकली। आदर्श एन्क्लेव के कुछ लोग, और दफ्तर के दो-चार लोग शामिल हुए। रामकुमार के दफ्तर में उसे श्रद्धांजलि अर्पित की गई।  उधर आदर्श एन्क्लेव के अध्यक्ष अक्षय कुमार ने भी बाकी लोगों से चर्चा की:

 ''इस भावुक आदमी को हमें अच्छे-से श्रद्धांजलि देनी चाहिए।''

''हाँ, यह ठीक रहेगा', हनुमान प्रसाद ने कहा, 'संडे को मीटिंग रख लो।''

''आप भी गज़ब कर रहे हैं? आदमी आज मरा है, और संडे का श्रद्धांजलि दी जाए, ये क्या बात हुई? हमें कल ही श्रद्धांजलि देनी चाहिए।''

''ठीक है, कल ही। मगर... कितने बजे?''

''सुबह दस-ग्यारह बजे?''

''दस बजे रख लो न यार, वरना दफ्तर को देर हो जाएगी, बाकी लोग भी धंधे-पानी वाले हैं।''

 

दूसरे दिन सुबह ठीक दस बजे जमा होने का कार्यक्रम बना कर सब लोग अपने-अपने घर रवाना हो गए।

रामकुमार व्यथित के माता-पिता की आँखें जैसे पथरा गई थीं। रो-रो कर उनका बुरा हाल था।

 

चंद्रकला बीच-बीच में सुबक लेती थी।  रामकुमार के दफ्तर वाले आ कर समझा गए थे कि 'आपको अनुकंपा नियुक्ति मिल सकती है'।  यह सुन कर चंद्रकला ने राहत की साँस ली। उसका दु:ख कुछ कम हुआ था। रात को वर्मा के यहाँ से भोजन आ गया। बच्चों ने बेमन से खाया। फिर अपना-अपना होमवर्क करने लगे। उनका किशोर-मन कर रहा था कि टीवी चैनल देखे, पर माँ ने डाँटते हुए कहा कि 'दो-चार दिन तो बिल्कुल नहीं, उसके बाद देख लेना।''


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