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असली गुनहगार तो मैं हूं

असली गुनहगार तो मैं हूं

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सुरेश और साधना आज बहुत खुश थे और अपना सामान बांध रहे थे क्यूँकि वो लोग शहर से गांव रहने जा रहे थे। जी हां सही पढ़ा, शहर से गांव जा रहे थे रहने। क्यूँकि ज्यादातर तो गांव से शहर आते समय लोग ज्यादा खुश होते हैं। लेकिन उनके बेटा बहू बेटी उनके इस फैसले से खुश नहीं थे। वो उन्हें बहुत समझाने की कोशिश कर रहे थे। "क्या जरूरत है गांव में जाकर रहने की ? यहां इनका बड़ा फ्लैट हैं किसी चीज की कमी नहीं हैं। आपके लिए नौकर लगा कर रखे हैं। इतनी सुविधाएं हैं, इतने अच्छे डॉक्टर हैं, तो क्यों आप लोगों ने गांव जाने की जिद पकड़ी हुए है।"

ये कह कह कर उनका बेटा रजत उन्हें समझाने की कोशिश कर रहा था।

लेकिन सुरेश और साधना ने तो पक्का इरादा कर लिया था। रजत की बात सुनते सुनते सुरेश जी परेशान हो गए। अब उन्होंने बोल ही दिया " रजत बेटा हमें जाने दो हमारा यहां शहर में मन नहीं लगता। लेकिन क्यों पापा, क्या परेशानी हैं आपको।

सुरेश "अकेलेपन की" यह सुन कर रजत चुप हो गया । तुम कहते हो क्या कमी हैं आपको इतना बड़ा घर है रहने के लिए । तुम और बहु तो विदेश में रहते हो दो साल में एकबार आते हो । घर में दो दो नौकर लगे है लेकिन अब हम दो लोगों का काम ही कितना है। आखिरकार क्या है शहर में बताओ? ऊंची ऊंची इमारतें, भीड़ भरी सड़क, या शॉपिंग माल और क्या हैं। अब यहां हमारा और रहने का मन नहीं करता जहां अपनों के पास अपनों के लिए समय नहीं। यह तुम्हारा इतना आलीशान खाली फ्लैट हमें काटने को दौड़ता है।

और सही कहूं तो तेरी मां की बीमारी का कारण अकेलेपन है जो दुनिया का कोई भी डॉक्टर ठीक नहीं कर सकता। तेरी बहन की भी शादी हो गई। वह भी अपने ससुराल की हो गई। पिछले महीने तेरी मां कितनी बीमारी थी कई बार मैंने हमने रीना हमारी बेटी को बुलाया कुछ दिन मां के साथ रह ले। लेकिन बस एक घंटे के लिए आई और हाल पूछ कर चली गई। लेकिन अब क्या कहूं उसमें उसकी गलती नहीं शादी के बाद तो लड़कियां अपनी गृहस्थी के बंध जाती हैं मां बाप का हक ही नहीं रह जाता उन पर।

सुरेश और साधना पर बच्चों का बस नहीं चला और वह निकल गए गांव के लिए। दोनों बस में बैठे थे। जैसे ही शहर की भीड़ भाड़ खत्म हुए। खाली रास्ते और बड़े बड़े खेत दिखने लगे। साधना पुरानी यादों में खो गई। उन्हें वह समय याद आ रहा था जब शादी के बाद वह अपने मां बाप को कोस रही थीं।

"क्या क्या सपने देखे थे शादी के बाद तो गांव से छुटकारा मिलेगा, किसी ऐसे घर में शादी करेंगे मां पापा जो शहर में होगा फिर शहर में जा कर रहूंगी। लेकिन शादी की तो वहीं गांव के सुरेश से, अब यहीं इसी गांव में पैदा हुई यहीं मर जाऊंगी।

शुरू शुरू में तो सुरेश को अपने पास भी नहीं आने देती थी। घर में भी सास न जेठानी किसी से भी नहीं बना पाई।"

मजबूरी में सास ससुर ने ही सुरेश को शहर में बसने के लिए कह दिया था और आज वो दिन है जब ये शहर ही साधना को काटने को आता था। अब इस शहर में उसका दम घुटने लगा था। यहां की हवा विषैली लगने लगी थी। साधना सोच रही थी, "जब तक बच्चे छोटे थे जिंदगी उनकी देख भाल में गुजरती रहीं लेकिन सच पूछो तो क्या दिया इस शहर ने मुझे भागती दौड़ती जिंदगी, गांव के इतने बड़े घर को छोड़ दो कमरों का घर, बस हिसाब किताब और बिगड़े बजट को संभालने में जिंदगी गुजर गई। बस बच्चों को पढ़ा लिखा दिया यहीं संतोष है लेकिन सच कहूं तो उससे भी क्या हुआ, बच्चे जितना पढ़ते चले गए उतना ही दूर होते चले गए।"

उनके आने की खबर गांव में पहले से थी। सास ससुर तो अब रहे नहीं लेकिन बड़े भैया भाभी वही थे। उनकी कोई संतान न थी। साधना के बच्चो को ही वह अपना मानते थे, प्यार लुटाते। साधना फिर पुराने समय की यादों में खो गई, "मेरे दोनों बच्चे गांव में ही हुए थे उस वक़्त कितनी सेवा की थी मेरी जेठानी ने और मैं अपने बच्चों को उनसे दूर रखने की कोशिश करती थीं क्यूँकि मैं थी न गवार, जो बांझ का साया नहीं पड़ने देना चाहती थी अपने बच्चों पर। कितनी शर्म आ रही है आज मुझे कैसे सामना करूंगी उनका यही सब मन में चल रहा था और हम लोग घर पहुंच गए।"

भाभी-भैया ने उनका पूरे प्यार और सम्मान से स्वागत किया। दोनों बोले बहुत अच्छा किया जो यहां रहने आ गए इस उम्र में। क्या रखा है शहर में बोलते बोलते वह चुप हो गए क्यूँकि मैं थी न सामने, मैंने कोई कमी थोड़े न छोड़ी थी भैया की बेइज्जती करने में शायद उन्हें वही याद आ गया होगा। भाभी भी बहुत प्यार से मिली उम्र में मुझसे कितनी बड़ी थी मीना भाभी लेकिन अभी भी उनके चेहरे पर कितनी चमक थीं। और मैं शहर में रही इतने साल हमेशा पार्लर जाना अपना खयाल रखना धूल मिट्टी से बिल्कुल ही दूर रहना लेकिन फिर भी बेजान सा हो चला था शरीर और चेहरे की लकीरें मुझे उम्र से ज्यादा दिखाने लगी थी, या यूं कहे मेरे मन का जहर मुझे ही खाए जा रहा था।"

"सुरेश की भी गुहनगार थी उनको उनके परिवार से अलग कर दिया था मैंने। इसका अहसास तो मुझे बहुत पहले ही हो गया था सुरेश ने कभी मुझसे कुछ नहीं मांगा हमेशा मेरी खुशी को ही प्राथमिकता दी, लेकिन मैंने क्या किया सीधे साधे से गांव के सुरेश को यहां की अच्छी जिंदगी को छोड़ कर शहर के जाल में जा कर फँसा दिया। कितनी मेहनत की वहां सुरेश ने मुझे अपने बच्चो को अच्छी जिंदगी देने के लिए, सच में बहुत अफसोस था मुझे इस बात का मैं अगर जिद न करती तो कितना खुश रहता यहां गांव में अपने घर में अपने परिवार के साथ अपने मां बाप के साथ। गुनहगार तो मैं सबसे ज्यादा अपने सास ससुर की थी जो मैंने उनका बेटा उनसे दूर कर दिया था। सच कहूं तो इसका अहसास मुझे तब हुआ जब मेरे बच्चे मुझसे दूर हुए। मैं तो संभाल ही नहीं पा रही अपने आप को, बच्चों की जुदाई और अकेलेपन ने तो मुझे पागल सा बना दिया है। अब क्या कहूं जो मैंने किया था वहीं समय ने मेरे सामने लाया सच कहूं तो असली गुनहगार तो मैं हूं।"

अब कुछ दिन बीत गए थे वहां रहते रहते। वहां का वातावरण ताज़ी हवा, अपनों का प्यार और लगाव सब ने असर दिखाना शुरू कर दिया था । साधना की तबीयत पहले से काफी बेहतर हो गई थी। दो साल बीत गए उन्हें वहां और साधना को जेठानी के रूप में बड़ी बहन मिल गई थी। साधना "कभी कभी बहुत अफसोस होता था उनके प्यार को पहले क्यों नहीं समझ पाई। शायद ये सब मैं पहले समझ जाती तो अफसोस करने को शायद कुछ रहता ही नहीं न मैं इतने लोगों की गुनहगार बनती। इसी बीच रजत के आने की खबर आ गई। मैं बहुत खुश थी रजत इस बार गांव आया छुट्टियों में वैसे तो वो कभी तैयार नहीं होता जल्दी गांव आने के लिए लेकिन अब हम यही रहने लगे तो वो भी आया बहुत सालों बाद।"

और सच पहले तो रजत और उसका परिवार गांव आने के लिए तैयार नहीं था लेकिन यहां की शुद्ध हवा, पानी बाग बगीचों हरियाली ने मन मोह लिया उनका भी। साधना- "शहर में पले बढ़े मेरे बच्चे गांव आकर बहुत खुश थे और रजत मुझसे दो साल बाद मिल रहा था। मुझे देख कर ही वह बहुत खुश हो गया मां आप तो पहले से बहुत स्वस्थ्य और खुश लग रही है। हम विदेश में जब रहते हैं और आप लोग जब शहर में अकेले रहते थे तो हमे हमेशा आपकी फिक्र लगी रहती थी लेकिन जब आप यहां गांव में सबके साथ रह रही हैं पिछले दो सालों से तो सच बताऊं हम भी सुकून से है। आपके साथ साथ हमें बड़े पापा और मम्मी का भी प्यार मिल रहा है मुझे तो अहसास ही नहीं था अभी तक उन्हें हमसे कितना लगाव है सच असली मज़ा तो अपनों, अपने परिवार के साथ ही है जीवन का।"


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