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Mihir

Drama Tragedy

4.5  

Mihir

Drama Tragedy

काठी

काठी

36 mins
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गांव भर में बात आग की तरह फैल गई - माधो सिंह पागल हो गया है। माधो सिंह - जगत सिंह का लड़का। गांव का एकमात्र हलवाहा। जिसने भी सुना सहसा यकीन नही हुआ। पर आँख देखे का क्या ? माधो दहाड़ें मार मार कर रो रहा था और गांव वाले एकतट उसे देखे जा रहे थे।

किसी ने पूछा, "कब से ?"

उत्तर आया, "आज ही सुबह से।"

उसे इस तरह किसी ने पहले नहीं देखा था। लोग चकित थे, खिन्न थे, दुःखी थे, पर शांत थे। जैसे जैसे दिन बढा जा रहा था लोगों का तांता बढा ही जा रहा था।

फूट-फूट कर रोने वालों में माधो कभी नहीं था। बचपन से ही शांत और गम्भीर रहने वाला माधो बैठकों से ज़रा दूर ही रहता था। घर-गांव में मेल नहीं खाता था। लोग बातें बनाते, नाम रखते थे। उसके व्यक्तित्व के उसकी दोहरी कद काठी ने बड़ा ही सुंदर आयाम दिया था। जब छोटा था तो उसे रुलाना या हंसाना दोनों कठिन थे। औरतें कभी कान में उमेठा देतीं तो कभी चपत देतीं, तब कहीं रोता। बड़ा भी हुआ तो ऐसा ढीठ कि उसे रुलाना और मनाना दोनों कठिन हो गए। बलिष्ठ शरीर का माधो एकदम ही टूट जाने वाला आदमी नहीं था, न उसमें इतनी लचक ही थी। उसका बिलख बिलख कर रोना लोगों को इसीलिए पागलपन लग रहा था।

गांव की औरतें उसे काठी कहती थीं।

....

आँगन की बाड़ी में एक लड़का कुदाली से हल चला रहा था और मुंह से भी वैसा ही अभिनय कर रहा था जैसे बैलों को हाँक रहा हो। उसकी इस बालक्रीड़ा पर सामने बैठा उसका पिता मन ही मन मुस्कुरा रहा था। पिता हाथ की सुतली की घुमा घुमाकर कम्बल बुनने के लिए तागे तैयार कर रहा था। घिरनी घूम रही थी - ऊन का गुच्छा उछल रहा था और जीवन के ताने बाने बुने जा रहे थे। पास ही चावल बीनती हुई माँ जब तब सोटा उछाल देती।

"क्या रे !बल्दों की आराम नहीं देगा क्या ? बेचारे भूखे होंगें।" पिता ने हँसकर बालक को कहा। बालक रुक गया।

"सबेरे सबेरे और कोई खेल नहीं सूझा तुझे। देख तो सारे कपड़ों पर मिट्टी पोत ली। पलीत कहीं का।" - माँ ने नाराज़ होते हुए कहा। लड़का दौड़कर माँ से लिपट गया।

"चल हट, काम करने दे।" माँ की झिड़की सुनकर लड़का दौड़कर पिता से उसी तरह लिपट गया और बोला - "बाबा, मिट्टी में खेलने वाले पलीत होते हैं क्या ?"

"पलीत क्यों होते हैं भला ? मिट्टी तो माँ है। हम सब इसी के बने हैं और एक दिन इसी में मिल जायेंगे।"

"कब ?"

"मरने के बाद।"

"क्या सभी को मरना पड़ता है ?"

"मरना तो एक दिन सभी को होता है। मैं, तेरी माँ, चाचा-चाची, ताऊ-ताई- सब एक दिन मर जाएंगे।"

भोले बालक के मुंह से निकली बात की गम्भीरता को पिता ठीक तरह नहीं आंक पाए। हल्के में कह तो दिया पर माँ ने टोका - "बच्चे पर क्या असर होगा ? क्यों सुबह सुबह अशुभ बोलते हो ?"

लड़का कुछ रुंआसा सा हो गया - "माँ भी मर जाएगी, आप भी मर जाओगे ?"

"हाँ भई, हम लोग हमेशा थोड़े ही रहेंगे। एक दिन तो सबको मरना होता है। एक दिन यम के दूत सबको ले जाएंगे।"

लड़का थोड़ी देर अवाक रहकर पिता का मुंह देखता रह गया। फिर अचानक पिता की गोद में सिर घुसाकर झुक गया।

"क्या करता है ? काम करने दे।" बाप ने बेटे को हटाया तो बेटा सिसक रहा था।

"माधो...?"

जगतसिंह ने आश्चर्य के साथ कहा,

"क्या हुआ तुझे ? क्यों रो रहा है ?" बालक चुप। आँसू उसके गालों से टपक रहे थे। इस प्रश्न ने उसे और नम कर दिया था।

"क्या हुआ ?" माँ ने चावल एक तरफ रखकर देखा, माधो का अश्रुवेग थम ही नहीं रह था। कभी न रोने वाला माधो रो रहा था।

"बच्चों से कोई ऐसे बोलता है क्या ?" बालक को सहलाती हुई माँ बोली," चुप हो जा बेटे। हम कहीं नहीं जाएंगे। क्यों जाएंगे भला ? मैं हमेशा तेरे साथ रहूंगी।" उसके हाथों को अपने गालों से लगाती माँ जगतसिंह से बोली, "अभी ये जानने की उमर है उसकी ? बड़ा होकर अपने आप जान जाएगा।"

बालक फिर से शंकित हो उठा, "तुम झूठ बोल रही हो न ? यमदूत सबको ले के चले जायेंगे ?"

"नहीं। झूठ क्यों बोलूंगी भला ? वो कलमुये यमदूत आएंगे भी तो मैं कूटकर भगा दूँगी उनको।"

लड़के ने हिचकी लेकर कहा, "मैं उनको डंडे से मारकर भगा दूंगा।" और हाथ को ऐसे झटका मानो सच में किसी को मार रहा हो। उसका क्रोध उसके शब्दों में भर आया था।

माँ ने उसकी नज़र उतारी, "हाँ, मेरे लाल ! जा, मिट्टी में खेल। वो हमारी माँ है।" बालक पर इसका तुरन्त असर हुआ। मानो जीवन की नित्यता में उसके बालमन को विश्वास-सा हो चला हो। माँ ने अपनी आँखों के आंसू आँचल से पोंछ डाले।

बचपन की इस घटना के बाद से माधो को कभी किसी ने रोता नहीं देखा।

....

माधो मुंगेर पर अक्सर जाता था। नहाने नहीं बल्कि जल के प्रवाह को देखने। वहीं एक नटखट, चुलबुली लड़की उसे अक्सर मिल जाया करती थी। नाम था गौरा। गौरा उसके लिए हमेशा कुछ न कुछ लाती थी। कभी अपने बाड़े की खीरा, कभी अपने यहाँ के आड़ू। बदले में माधो उसके लिए कभी गुलेल बना देता, कभी तीतर या बटेर के अंडे ला देता।

गौरा को जब भी कभी सौदा लाने घाट के पार बाजार जाना होता, तो माधो उसके बदले कुलांचे मारता हुआ दौड़ कर कोस भर की चढ़ाई-उतराई पारकर हाँफते हुए सौदा ले आता। कुछ भी हो, माधो किसी का एहसान लेने वालों में नहीं।

लड़की पढ़ने में होशियार थी। साल दर साल आगे निकलती। और लड़के का मन पढ़ाई में रमता नहीं था, सो साल दर साल एक ही दर्जे से खिसकता आखिर स्कूल छोड़कर ही माना। और लड़कियों का ज़्यादा पढ़ाने की पहाड़ में तब रवायत ही न थी। सो आठवीं के बाद गौरा का भी स्कूल छुड़ा दिया गया।

लड़की अक्सर उसे चिढ़ाती भी, बिगड़ती भी और मान भी जाती और तब वह उसे छेड़ती- "तू अगर मुझे इसी तरह सताता रहा तो देखना, मैं ब्याह कर दूसरे गांव चली जाऊंगी। तब रहना।" लड़के का सरल हृदय उसे अपना एकमात्र सच्चा और अंतरंग मित्र मानने लगा था। उसके जाने का नाम से ही लड़का असहज हो जाता था और गौरा का सहज नारी हृदय मन के किसी कोने में तब भी इस बात को समझता अवश्य था।

एक बार गौरा की मेले से खरीदी गई पायल पहले ही दिन कहीं खो गई थी तब उसे रोता देख माधो से रहा नहीं गया। दौड़कर दो कोस दूर पंचोली के मेले से वैसी ही दूसरी पायल ले आया। बहुत पूछने पर भी उसने नहीं बताया कि पैसे आये कहाँ से। पर उस दिन के बाद से गौरा ने उसके हाथ में चांदी का धगला दुबारा नहीं देखा। बहुत पूछने पर बस इतना ही पता चला कि मेले में कहीं खो गया।

ग्यारह बरस का वह बालक अब इक्कीस बरस का बलिष्ठ युवा है। पर अतिरिक्त उम्र के और कोई बदलाव उसमे नहीं आया। वही अल्हड़पन, वही मस्ती, वही मिज़ाज अब भी था। बचपन का गम्भीर बालक अब हँसमुख युवा था पर वैसा ही बेमेल, अनमिला। बचपन की कुदाली का स्थान सचमुच के हल ने ले लिया था। गांव को नया हलवाहा मिल गया था।

बचपन की गौरा और अब की गौरा में पर ज़मीन आसमान का फर्क आ गया था। पहले की चुलबुली, नटखट लड़की अब बेल की तरह बढ़ गयी थी और अपने ही भार से मानो दबी, सहमी रहने लगी थी। वह चटख क्रीड़ा और बाल- विनोद न मालूम कहाँ गए। इन सब के बीच वह भोली बाला कहीँ खो गई । उसका बोलना भी कम हो गया और कल तक की वह छबीली लड़की, जिसकी नाक भी खूब बहती थी और जो बात बात पर गाली करती भी गांव की दुलारी बनी हुई थी ; उसका स्थान इस शांत सी किशोरी ने ले लिया था। उसका बेदाग सौंदर्य किसी भी युवा को मोहित कर सकता था और गांव के छोकरे जानते थे कि बस एक या दो बसन्त और बीते नहीं कि ये लड़की न जाने कितनों के होश उड़ाने वाली है।

इन सारे परिवर्तनों के बाद भी एक बात नहीं बदली थी - माधो अब भी अक्सर उसे मुंगेर पर मिला करता था।

....

गौरा माधो को मेले में चलने के लिए मना रही थी। पंचोली की डांग मेला लगा था। लोगों के व्यस्ततम जीवन मे से उल्लास के कुछ चुने हुए पलों में से एक- मेला। जिसे स्थानीय भाषा मे कौथिग कहते हैं।

बच्चे अपने हाथों में प्लास्टिक और लकड़ी के रंग-बिरंगे खिलौने और साजो-सामान के साथ लौट रहे थे। खिलौनों की कर्कश "पौं-पौं" भी पहाड़ों और वादियों के सीढ़ीदार खेतों की निस्तब्धता में गूँजकर बड़ी सुरीली हो रही थी। तिसपर दूर ही से रंग-बिरंगे कपड़ों में आते जाते रंग बिरंगे खिलौने और मालाएं हाथ में लिए लोगों का आवागमन भी खेतों की सौंधी मिट्टी और हरियाली के फर्श पर दूर से ही बड़ा मोहक लग रहा था।

कितने भागवान लोग हैं ! गौरी ने उधर एक नज़र डालकर फिर माधो की तरफ देखा। परन्तु जलसों और लोकसमूहों से घबराने वाला वह स्वछंदचारी जीव बिल्कुल निरासक्त था, जैसे कुछ देख ही न रह हो। सूँघने वाले तो कोसभर दूर से ही मिठाइयों की महक को महसूस कर लेते हैं और यह ऐसे बैठा है जैसे कुछ हुआ ही न हो।

"अकेले क्या तुझको कोई भूत खा जाएगा ?" माधो झुंझलाया।

"और क्या? मंदिर वाले अखरोट से गुजरते हुए मेरा तो कलेजा काँपता है।"

"तो वहाँ तक मैं पहुँचा दूँगा।"

"और आते वक्त ? उस समय तक तो साँझ हो जाएगी।"

"इतना मन था तो पुष्पा और कला के साथ क्यों नहीं गई ? और अब कहती है तू नहीं जाएगा तो मैं भी नहीं जाऊंगी। ये भी कोई बात है ? मैं चोटी से छलाँग लगाऊंगा तो क्या तू भी लगा देगी ?"

"और क्या ? बल्कि पहले लगा दूँगी।"

तभी एक ज़ोर का ठहाका गूँजा और वो भी इतने ज़ोर का कि पंचोली की डांग तक भी सुनाई दिया होगा। गौरा जल रही थी।

"मेरी समझ नहीं आता।"

थोड़ा संभलते हुए माधो बोला, "कि जब पुष्पा और कला तुझे बुलाने आयी थीं तब क्यों तूने मना किया ?"

"तब मेरा मन नहीं था।"

वह जानती थी कि ये मिट्टी का माधव कुछ नहीं समझने वाला। इसीलिए तो लोग इसे काठी कहते हैं।

"और अब मन हो गया है ?"

"हाँ।"

"खच्चरी।"

"तू खच्चर।" कहकर गौरा चल दी,

"अड़ियल खच्चर, बुद्धू खच्चर, गधा खच्चर।"

"गौरा !" उसने पीछे से पुकारा। गौरा ने देखा तक नहीं।

"अरी, सुन तो।"

"मुझे नहीं जाना तेरे साथ।" वह बिना मुड़े ही चिल्लाई पर रुक भी गई। इतने में माधो दौड़कर उसके निकट आ गया। और बोला, "तुझे लेके भी कौन जा रहा।"

"मुझे जाना भी नहीं तेरे साथ।" हालाँकि, मेले की रसभरी लाल जलेबियाँ और तिल के लड्डुओं के छूट जाने के नाम से ही उसका हृदय बैठा जा रहा था।

"पर बात तो सुनती जा।"

"क्या है ?"

"मेरे लिए एक सेर जलेबियाँ लेती आना। गरम गरम।"

"धत" गौरा समझ गई थी। लेकिन जलेबियों के नाम से उसका मुँह और भी स्वाद से भर गया था। माधो हँस रहा था।कुछ देर उसे देखकर आखिर गौरा ने वही पुराना जुमला उछाल दिया, "तू ठहर, देखना मैं किसी दिन व्याह कर दूसरे गांव चली जाऊंगी तब हँसना।"

माधो एकदम चुप हो गया। विजयी भाव से गौरा मुस्काई। उसकी मुस्कान का माधो पर तुरन्त असर हुआ। क्षणिक निराशा से उठकर वह भी मुस्कराया और बोला, "तो क्या हुआ ? ब्याह तो हर लड़की का होता है।"

"कितनी बार ?" गौरा ने विचित्र भाव से पूछा। इस उत्तर की उसे उम्मीद न थी। क्वार के बादल थे कि उमड़े ही जा रहे थे। किंतु गर्जना का कहीं नाम नहीं। ऐसी शांति छाई थी जैसी किसी विध्वंस के पूर्व छा जाती है। मानो अभी फूट पड़ेंगे। न मालूम ये बदल अचानक कहाँ से आ गए।

"और कितनी बार होगा ? एक ही बार तो होता है।"

"एक ही बार न ?" सहसा कुछ कहते कहते गौरा रुकी, "जाने दे। तुझे क्या ?"

"तेरी बारात जब दूसरे गांव जाएगी तो मैं भी तो तुझे छोड़ने आऊंगा।"

गौरी विचित्र दृष्टि से उसे देखे जा रही थी। आखिर ये मिट्टी का माधव बना किस मिट्टी का है ? क़्वार के बादल आखिर बरस ही पड़े, थमना मुश्किल हो गया था। लेकिन बिना आहट, बिना स्वर। और एक शिशु अपनी बड़ी बड़ी कजरारी आँखों से, द्वार पर खड़ा बस देखता ही रह गया। वह अपने घर पर शायद अकेला रह गया था। न भय, न आहट। विस्मय ही विस्मय।

कुछ कहते कहते माधो थोड़ा रुक गया। शायद अपनी भूल पर लज्जित हुआ। पर्दा डालने की बेजान सी कोशिश करते हुए बोला, "शादी-ब्याह तो खुशी के मौके होते हैं न ?"

"हाँ। खुशी के मौके होते हैं। बहुत खुशी के।" कहते कहते बिजली सी कड़की।

मानो बरसते बादलों के बीच बिजली कड़काकर आकाश भी हँसने का नाट्य कर रहा हो।

जिस रोज़ माधो के पिता का स्वर्गवास हुआ, उस रोज भी किसी ने माधो को रोना तो दूर एक बूँद आंसू गिराते नहीं देखा। सारी तैयारियां उसी के हाथ थीं। वह भागमभाग करता दिख रहा था। जब सारा काम निबट गया तब कहीं एकांत में वह केवल संज्ञाशून्य सा एकतट बैठा रहा। मरे हुए सागर की सी खामोशी थी। बाकी के घरवालों को तो मानो अपनी ही सुध नहीं थी। दोनों भाई और भाभियाँ पूरे वक़्त बस सिर पकड़े बैठी थीं। माँ और बड़ी बहन कृष्णा का तो रो रोकर बुरा हाल था। उसके मुँह पर उदासी थी-निराकार उदासी।

"बचपन से ही ऐसा है। निरा काठी।"

"अब इसमें उस बिचारे का भी क्या कसूर।"

प्रथानुसार सबसे बड़ा भाई सिर मुंडाकर नौ दिन तक शोक में बैठा रहा। वह चुपचाप अन्य लोगों का हाथ बँटाता रहा। लोगों से बातें भी की पर उसे देखकर कोई कह नही सकता था कि उसके यहां किसी की मौत हुई है। सामाजिकता का यह उसका सम्भवतः प्रथम ही अनुभव था।

लड़का शांत किन्तु अस्थिर था। जीवन की नित्यता से उसका विश्वास डगमगा गया था।

....

गांव में यह कोई पहली मौत तो न थी। गांव के इन पहाड़ों ने न जाने कितनी जानें ली थीं। किसी की बेटी, किसी की बहू, तो किसी की माँ - यहाँ असमय मरी थी। कोई पेड़ से गिरी, किसी का पाँव फिसला और खाई में गिरी। फिर भी ये पहाड़, ये डांडे-डांडियाँ, खेत, पशु, पक्षी,पेड़ - सब गांववासियों के सहचर थे। पहाड़ों की बर्फ लोगों को उतनी ही आकर्षित करती। सुबह पहाड़ों को घास के लिए चढ़ता औरतों का झुंड अपनी आपदा के गीत गाता और हाथों के हंसिये से राह बनाता यूँ ही चला जाता। उनके गीतों में भी पहाड़ होते, पहाडों पर पड़ने वाली धूप होती।

यहाँ इंसान का प्रकृति से अद्भुद तारतम्य था। विषमताओं से लड़ने का मनुष्य का साहस अदम्य था। जो आज उपजता, वही कल का आहार बन जाता। सब कुछ होकर भी फकीर हो जाने जैसा। कोदो पर बसर करने वालों के लिए गेंहु एक स्वप्न ही था। और फिर गेंहूं की स्वच्छ निर्मल कोमलता का स्वाद भी तो उसे ही है जिसकी जिह्वा ने कोदो की कर्कश कठोरता का स्वाद लिया हो। भूख और गरीबी का अंत नहीं पर फिर भी एक तृप्ति। खोली के गणेश और मोरी के नारायण के बिना अन्न का एक कौर गले से नही उतरता। सुख दुख के उसके साथी ये देवता उसके हर कारज में संग सखा हैं। कुछ न होकर भी अपने खेत तो अपने ही हैं न? फिर भी जीवन चलता जाता है, अपनी ही गति पर, निरन्तर।

एक बकरवाल अपनी बकरियों को हांकता दूर निकल जाता है। ऊंची बर्फ से ढँकी चोटियों की पृष्ठभूमि के चारागाह मैं। पहाड़ों की उन हरी तराईयों में उसका सोना बिखरा है। लोग आए और गए। पर पहाड़ों के ये दृश्य नहीं बदले। यही है पर्वतों के इन हिमालय-पुत्रों का जीवन।

ऐसे जीवन-प्रवाह में कोई विरक्त भी हो तो कैसे ? यह तो फकीरी की गुदड़ी में छिपे रत्नों का देश है। माधो भी ऐसा ही एक सरल, स्वछंद जीव है। कोई अलग तो नहीं।

....

माधो के पिता की मृत्यु के एक मास के भीतर ही हालात बदल गए। घर का सारा सामान इधर का उधर हो गया। सभी कीमती चीजें दोनों बड़े भाई उठाते रहे और ले जाते रहे। बड़े बड़े भांडे-बर्तन अचानक कहीं 'गुम' होने लगा। अलमस्त योगी तब भी बेफिक्र रहा। उसने कभी किसी चीज़ का तकाजा नही किया। दोनों भाई ही आपस मे लड़ते रहे।

तीसरे-चौथे महीने ही खेतों और मकान का बंटवारा हो गया।काफी बवाल भी हुआ। लेकिन माधो यहाँ भी तटस्थ रहा। दो चार सूखे और बंजर पड़े खेत उसकी तरफ सरका दिए गए। रहने के लिए भी उसे पिता का कमरा ही मिला और एक गाय भी उसके हिस्से आयी। भांडे-बर्तनों में कुछ भी उसके हाथ न आया, कुछ कटोरे-गिलास ही मिल पाए। तमाम बड़े बर्तन तो पहले ही इधर-उधर हो गए थे। माधो शांत भाव से स्वीकारता चला गया। पिता की मृत्यु से क्षुब्ध इस जीव को लोगों ने केवल मुस्काते ही देखा। हँसते खिलखिलाते तो उसे उस दिन के बाद गौरा को छोड़ शायद ही किसी ने देखा हो।

लेकिन पिता की विरासत की एक चीज़ तो केवल माधो को ही मिली थी। और वह थी-जीवटता। उसकी मेहनत रंग लाई। दो ही महीनों में बंजर जमीन की कायापलट हो गयी। जहां केवल घास ही होती थी वहाँ गेंहू और चौलाई की वोटें फलने सरसराने लगीं। अपनी बाड़ पर उसने आड़ू, अखरोट और खुबानी लगाए जो अच्छे-खासे बढ़ने लगे। छायादार बनने और फलने में अभी बरसों का वक़्त था। ऊपर जंगल की तरफ के खेतों में जहां की फसलों को जंगली सुअर, सेही और लंगूरों से खतरा था, वहाँ उसने बांज और बुरांस लगाए।

माँ के मैत से चैत का कलेवा आया था। माधो ने माँ के हाथ में थमा दिया। माँ ने उसे माथे से और फिर सीने से लगाया। आँखें छलछला आईं। ये सोचकर कि उसके भाई अब भी उसे याद करते हैं। खुद वह कृष्णा की खबर पाने को आतुर थी। अपना कलेवा तीनों बेटों को थोड़ा थोड़ा बांटकर उसने कृष्णा के ससुराल भी कलेवा भिजवाने का निश्चय किया। अगली सुबह भाइयों की तरफ से माधो कलेवा लेकर निकल पड़ा।

....

माधो गौरा के समक्ष खड़ा मुस्कुरा रहा था। सुगठित देह और सुडौल स्कंध। निश्छल और निष्कपट व्यक्तित्व की सहजता उसकी मुस्कान में थी। साथ ही उन्मुक्त और स्वछंद जीवन का सरल प्रवाह, मधुर हँसी की व्यंजना थी। सरल जीवन दर्शन झलकता था, तरल प्रवाह लहकता था।

गौरा अपलक देख रही थी। कितना शांत था ! कितनी निर्भीक, निश्चिंत, और निश्चेष्ट हँसी थी। झरने की भाँति सारे कलुष धोती, अपने भी और दूसरों के भी। इतनी गम्भीर बात पर भी वह हँस रहा था। वह भी बालकों की सी हँसी। गौरा को आश्चर्य हुआ।

अजीब था यह उन्मुक्त योगी ! न दुख की पीड़ा, न गम का निशान। निर्निमेष दृष्टि, निर्मल द्रव्य। और जब भी सहानुभूति के दो बोल मिले भी तो उनपर भी वह ऐंठता प्रतीत होता था। गौरा आश्चर्य से देख रही थी। इतनी महत्वपूर्ण बात पर भी बालकों का सा अभिनय !

"तुम्हें हँसीं आ रही है ?"

"हँसूँ नहीं तो और क्या करूँ? तुमने बात ही ऐसी कही। मुझ जैसे अभागे को कौन अपनी लड़की देगा ? और फिर गृहस्थी में रखा भी क्या है ? आदमी को चैन की दो रोटी की गर्ज होती है। वो अगर वक़्त पर मिल जाये तो उससे बड़ा सुख क्या है ?"

"और प्यार ?" गौरा ने छूटते ही कहा। जीवन के प्रति उसका अपना एक दृष्टिकोण था। सरल और सीधा। एक प्यार भरा जीवन, जिसमे पैसे भले ही कम हों पर प्यार कम न हो। एक ज़रा सी उम्र ही तो कटनी है। और प्यार उसी से हो सकता था जो उस निष्ठा के लायक हो। माधो जैसा दूसरा मिट्टी का माधव हो नही सकता था। शायद ऊपरवाले के पास वैसा दूसरा साँचा ही नहीं बचा होगा जिसमें ऐसा सरल व्यक्तित्व ढल सके।

"प्यार ?" सहसा माधो का अन्तर्विवेक जागा।

"हाँ, प्यार। कोई ऐसा जो हमेशा तुम्हारा साथ दे। हमेशा साथ रहे..."

"हमेशा ?"

"हाँ, हमेशा।"

दूर किसी के घर हुड़के की थाप पर और कांसे की थाली की आवाज पर देव आवाहन हो रहा था। शाम की ढलती धूप और अंगड़ाती ठंड के बीच लोगों का काफिला दिन के काम निबटाकर पूजा में शामिल होने जुन्याल लेकर जा रहा था। एकाएक ही थापें बढ़ने लगीं और किसी के चीखने का स्वर हुआ। शायद किसी पर कोई देव या पित्र का औतार हुआ था। कोई मरा हुआ पुरखा प्रेत बन लोगों के बीच आ गया था। अपने सम्बन्धियों से लिपट लिपटकर रो रहा था।

कुछ देर की खामोशी को माधो ने ही भंग किया।

"हमेशा। कौन साथ रहा है ?"

"हमेशा तो कोई भी साथ नहीं रहा...।" गौरा अनमने ढंग से बोली। मौन गहराता चला गया। दूर उस घर पर आया प्रेत योनि का पित्र अपनी विवाह योग्य कन्याओं से लिपट लिपट कर रो रहा था, जिन्हें वह बाल्यावस्था में ही छोड़ गया था । उनमें सबसे छोटी को तो पिता की शक्ल तक याद न थी पर इतना दारुण दृश्य था कि सबकी आंखें छलछला आयीं थीं। इतने में एक बुजुर्ग महिला पछाड़ कहते प्रेत के शरीर वाली महिला को समझा बुझा कर शांत कर रही थी। और एक ने उसकी बिलखती विधवा के कांपते हाथों में जुन्याल थमा कर उसे अपने पति को प्रेत योनि से मुक्ति के लिए उछालने को कहा। थोड़ी ही देर में यह शोर शांत हो गया।

मौन गहराता चला गया। पत्ते पत्ते हिल रहे थे, शाखें डोल रहीं थी। सुहानी हवा चल रही थी, पर कोई शोर न था। यदि था तो केवल मौन। इस बार गौरा की आवाज़ आयी, "क्या सचमुच आदमी अकेला जी सकता है ?"

"क्यों नहीं ?"

"मैं तो नही रह सकती अकेली। मेरा तो जी चाहता है कि मैं सदा यहीं रहूँ। यहीं इन वादियों में दौडूं, खेतों में नाचूँ। यहीं मैं बचपन से खेली, पली, बढ़ी। इन्हें कभी छोड़ा जा सकता है भला ?"

माधो अवाक सा कुछ पल उसे देखता रहा, उसकी मासूमियत, उसका बचपना। उसकी नज़र में गौरा अब भी वही खेल करती बच्ची थी। काश ! कि उसमें इंसानों की परख होती।

"माधो ! क्या तेरा दिल भी नहीं चाहता कि हम दोनो सदा यहीं रहें, इन्हीं पहाड़ों के बीच, यहीं घर बना कर ?"

माधो उसके इस अतिरिक्त उत्साह को ठीक से समझने का प्रयत्न कर रहा था। बोला, "काश ! ऐसा हो पाता। कितना अच्छा होता न ?" कौतूहलवश उसने गौरा की ओर देखा। गौरा के चेहरे पर एक ही पल में कई रंग आये और गए।

"पर तुम्हें तो जाना पड़ेगा - दूसरे गांव। लड़की का घर तो वही होता है न?"

"ओह, मैं तो भूल ही गई थी।" लड़की अपनी भूल पर लज्जित हुई। कुछ कुंठित सी होकर वह उठी और चल दी। जाते जाते बार बार मुड़ मुड़कर वह उस निर्मल, निश्छल प्रवाह को देखती रही, जिसे धड़कनों का सिर्फ इल्ज़ाम था, और लोगों ने नाम दिया था- काठी।

ईश्वर ने भी कैसी कैसी रचनायें की हैं। न जाने क्या सोचकर अपनी मस्तक मणि को उतारकर धरती पर इस वेश में भेज दिया था और वह भी इन पहाडों के बीच, जहाँ कठोरता का ही साम्राज्य है !

....

माले सिंह-माधो का सबसे बड़ा भाई था, उससे छोटी थी कृष्णा, उसके बाद था भवानी सिंह, और सबसे छोटा था माधो। पिछले माह जब माले सिंह दाने दाने को तरस रहा था तभी माधो ने उसे बोरा भरकर कोदो का अन्न दे दिया था। माधो के आंगन में कद्दू की बेल खूब फली थी। एक दिन माले का छोटा लड़का हाथ मे सूखी रोटी लेकर खाते खाते ऊपर को आया। माधो अपनी माँ के साथ बैठा उस समय खाना खा रहा था। माँ उसी के साथ रहती थी। लड़का बाहर ही सीढ़ी पर बैठा सुखी रोटी को बड़े चाव से दांतों से कुतरने लगा। माधो पसीज उठा। इशारे से उसे भीतर बुला कर कद्दू का साग दिया। लड़का उसी की थाली में खाने लगा।

उस के दो भाई और भी थे। कुछ सोचकर माधो छत पर गया और पत्तों के बीच छिपा एक बड़ा सा कद्दू तोड़ लाया। उसे बालक के हाथों में सौंपकर बोला, "जा, इसे माँ को दे आ। कहना दादी ने दिया।"

माधो का हाथ क्या था, पूरा जगन्नाथ ही था। जो बोता, वही फलता था। उसकी बोई लौकियां तो तीन तीन फीट तक लम्बी निकलीं। उन्हें भी बाँट आया। माले और भवानी के लड़के लड़कियां तो उसके यहाँ खाते ही थे, घर भी ले जाते। आत्मीयता उसकी कमज़ोरी थी या ताक़त, कौन कह सकता था, पर आड़े वक़्त पर उसके काम कोई भी न आता।

उसके दोनों भाईयों और बहन का विवाह तो बहुत पहले ही होगया था। माधो सत मंगलिया था। उसके लिए कोई लड़की पूरे गांव तो क्या पूरी पट्टी में भी कहीं नही मिल पाई। पिता के रहते उसकी शादी हो गयी होती तो तब भी ठीक था। पर अब फिक्र भी किसे थी ?

बहरहाल, पिछले ही दिनों माधो ने बड़ी दरियादिली से अपने तीनों खेत माले सिंह को कमाने को दे दिए। गांव के दकियानुसों को गपशप के लिए नया किस्सा मिला। कौन देगा ऐसे फक्कड़ को लड़की ? भवानी सिंह की बहू ने तुरंत समझदारी दिखलाई और अपने क़र्ज़ की दास्तान माधो को सुनाई। तुरन्त असर हुआ।बाकी के खेत उस 'बदनसीब दुखियारी' के हाथ गए। कुछ समय कमाने को दिए गए इन खेतों को भाइयों ने अभी से अपना समझना शुरू कर दिया था। खतरा था तो इस बात का कि उसकी शादी न होने पाए। वरना, खेत गए हाथ से। भाइयों ने तिकड़में भिड़ा दीं। हर जगह रिश्ता बिगाड़ दिया।

माले सिंह का नया मकान बन रहा था। उसी जगह माधो का खेत था। बुनियाद को बढ़ाते बढ़ाते उसने आधा खेत मार लिया और ऊपर से रास्ते की मांग भी करने लगा। माधो चुप रहा।

....

"तूने अपने खेत अपने भाइयों को क्यों बाँट दिए ?" गौरा ने अत्यधिक स्नेह के साथ पूछा।

"वो बिचारे तकलीफ में थे। परिवार बड़ा होने से खेत छोटे पड़ गए थे।"

"और तू कहाँ जाएगा ?"

"मेरा क्या है ? मेरे और मेरी माँ के गुजारे के लिए तो मेरे बचे हुए खेत ही काफी हैं। और लोगों का हल लगाकर नगदी का इंतज़ाम भी हो ही जाता है।"

गौरी उसकी सरलता पर क्षुब्ध थी। जीवन मे पहली बार उसे उसकी सरलता पर क्रोध आया था। पर वो भी क्या करती, बेचारी ? ज़्यादा कुछ कहने का न उसे हक़ था और न कोई फायदा।

माधो अपनी माँ के साथ केवल एक ही कमरे में रहकर भी सुखी था। इससे बड़ा और क्या सुख था ? दिन भर इधर उधर फिरकर थककर माँ की गोद में सो जाओ, फिर क्या चाहिए ? माँ तो फिर भी माँ ठहरी। अँधेरे में डबडबाते भी खाना बना ही देती। आखिर माँ थी।

माँ जब उसके प्रति भाइयों के उपेक्षित व्यवहार को देखती तो कह उठती, "आज अगर इस बिचारे का भी ब्याह हो गया होता तो ये दिन देखना पड़ता ?" जिसने अपने सबकुछ अपने भाइयों से बाँट दिया था उसका आड़े वक़्त में कोई साथ देने वाला न था।

माधो बेज़ार था। हर दर्द हर तकलीफ से। शिद्दत से महसूस करता था, सिर्फ प्यार को अपनत्व को। सबकुछ लुटाकर भी जैसे का तैसा बना रहा। भाईयों की ठोकरें भी प्यार से उठाईं क्योंकि सबकुछ खोकर भी दुनिया की सबसे बड़ी निधि उसके पास थी, उसकी माँ।

लेकिन किस्मत भी कहाँ कम थी? इस बिचारे अलमस्त योगी का हर क्षीण सा अवलम्ब भी छीन लेने को आतुर थी।

....

उस दिन गौरा धार पर ही मिली।

"तेरे बाबा कहाँ हैं ?"

"पलधार गए हैं।"

"क्यों ?"

"मेरे रिश्ते की बात पक्की करने।" गौरा चौंकाने वाले अंदाज़ में बोली।

"झूठ।"

"झूठ क्या ? मैं क्या उम्र भर कुंवारी रहूंगी ?" बड़ी मुश्किल से स्वर को संयत रखकर वह बोली। उसकी इस मनस्तिथि पर भी माधो को असमय हँसी सूझी।

"तो गौरी रानी अब पलधार जाएगी।"

गौरी बुरी तरह बिफर पड़ी। उससे कुछ कहते न बना। फौरन दो कदम आगे गई और मुड़कर पुराने अंदाज़ में बोली," तूने बहुत सताया। अब मैं सचमुच में जा रही हूँ। फिर कभी नहीं आऊँगी।" फौरन तेज़ कदमों से ऊपर घर की ओर मुड़ी और चढ़ाई चढ़ने लगी।

न जाने क्यों आज उसकी बातों से माधो कुछ परेशान सा हो गया। फिर भी बड़ी लापरवाही से बोला, "चलो छुटकारा मिला। रोज़ कहती थी - चली जाऊंगी, चली जाऊंगी।"

उसका यह असमय मज़ाक गौरा को चुभ गया। क्रोध में वह ऊपर से ही चिल्लाई, "तो मैंने तुझे परेशान कर रखा था ? तुझे छुटकारा चाहिए था न ? ठीक है। अब मिल गया तुझे छुटकारा ?" कहते कहते वह रो पड़ी।

"अच्छी बात है। जा रही हूँ। फिर कभी तेरा मुँह नही देखूंगी।"

और वह सचमुच चल दी। माधो को सहसा यकीन नहीं आया। कल तक का यह खेल इस तरह एक दिन हक़ीक़त में बदल जायेगा ! गौरी चली जायेगी और फिर कभी नहीं आएगी ! सोचकर ही उसका सिर चकराने लगा। लगा अभी गिरा, तभी गिरा। गौरी कभी नहीं आएगी ! कैसा क्रूर सत्य है ! और अब से उसको इस सच्चाई के साथ जीना होगा। उसने सोचा भी नहीं था कि ये खेल इस तरह खत्म होगा। सारे खिलौने इस तरह रूठ जाएंगे। उसे पता ही नहीं चला कि गौरी कब बड़ी हो गयी, रूठने मानने वाली गुड़िया नहीं रही।

उसकी दृष्टि में एक दृश्य साकार हो उठा। एक नन्ही बालिका कह रही थी,

"मैं जब ससुराल चली जाऊँगी, तू किसके साथ खेलेगा ?" बालक उसके हास्य पर मुस्कुरा उठा।

....

माधो जब घर पहुँचा तो देखा, उसकी माँ चिमनी की रौशनी में आँखें गड़ाए कुछ सी रही है। पुश्तैनी पुराने घर की काली दीवारें झिलमिल रोशनी में हिल रही हैं।

"इस अँधेरे में क्या सी रही है माँ?"

"आँखें तो दिन में भी काम नहीं करतीं। मेरे लिये क्या अंधेरा, क्या उजाला ? तेरे कोट में बटन टाँक रही हूँ। तुझे तो होश है नहीं। कब से ऐसे ही खुली छाती लिए फिरता है।"

माँ के पास बोरी बिछा कर ज़मीन पर बैठते हुए बोला, "अब कहाँ जाना है माँ ?"

"ऋषिकेश जाना होगा बेटा। वहाँ तेरे मामा बीमार हैं। कुछ खोज खबर लेते आना। कोई तीमारदारी करने वाला भी नहीं। बोल, जाएगा ?"

"क्यों नहीं जाऊंगा, माँ। यहाँ तो वैसे भी अब मन नहीं लगता।"

माँ की गोद में सिर रखते हुए माधो बोला। उसके बालों को सहलाते हुए माँ ने कहा,

"तू बहुत भोला है। पता नहीं मेरे बाद तुझे कौन देखेगा ?" माधो चौंका। उसने माँ की आँखों मे देखा, एक क्षीण सी ज्योति थी जो निरन्तर बुझने के कगार पर थी। अचानक वह ज्योति कुछ झिलमिलाई। एक बूँद लुढ़ककर आने को थी। माँ ने पौंछ लिया। माधो को लगा कि वह बिल्कुल अकेला होने वाला है। अपनी माँ के मुँह से 'मेरे बाद' जैसे शब्द सुनकर वह बेचैन हो गया।

कितना बड़ा धोखा हुआ है उसके साथ ! उसकी माँ उसे एक दिन छोड़ देगी, ऐसा विचार तो सालों से उसके दिमाग मे आया ही नही था। अब वह अकेला हो जाएगा, निपट अकेला।

"तेरी शादी हो जाती तो मेरी चिन्ताएं दूर हो जातीं।" माधो ने कुछ अस्फुट शब्द सुने तो उसकी तन्मयता भंग हुई, लेकिन अंधकार और गहरा हो गया।

....

न जाने कैसे गौरा को भी पता चल गया। अगली ही साँझ वह फिर मुंगेर पर पहुंची। उसे जाने कैसे यकीन हो गया था कि माधो भी वहीं पहुंचने वाला है। जैसे किसी पूर्वनियत बात या अन्तःप्रेरणा से माधो भी वहीं था। देखा- अंधेरे में कोई परछाई खड़ी है। माधो ने अपनी शाल को ठीक किया। करीब जाकर देखा तो वह गौरा ही थी।

"गौरा ?" सुखद आश्चर्य से बोला।

"आना तो नहीं चाहती थी, पर आना ही पड़ा।"

"घर पर डर लग रहा था क्या ?" फिर वही बेमौका मज़ाक ! गौरा ने प्रतिक्रिया करते हुए उसकी नज़रों से नज़रें मिलाईं। एक ओर रोष था, एक ओर शांति। पर रणभूमि में युद्ध के बाद कि खामोशी की तरह यह शांति भी चीख पुकार कर रही थी।

"जानते हो न, जिस लड़की की शादी तय हो गयी हो, उसका इस तरह साँझ गए किसी गैर लड़के से मिलना क्या कहलाता है ?"

"पाप।"

"हाँ। और ये जानकर भी मैं मजबूर हूँ। जानते हो क्यों ?"

"नहीं जानता।"

"सिर्फ एक सवाल पूछने के लिए।"

फिर सहसा खुद को समझाते हुए बोली, "ओह नहीं। वह नहीं। अब कोई फायदा नहीं। हे भगवान !" फिर थोड़ा संयत होते हुए बोली,"सिर्फ इतना पूछने आयी हूँ कि तुम मेरी शादी में आओगे न ? तुमने वादा किया था कि तुम मुझे छोड़ने पलधार तक आओगे।"

कुछ सोचकर उसने कह दिया, "हाँ, आऊँगा।"

"नहीं तुम झूठ बोल रहे हो। तुम नहीं आओगे। मेरी शादी अगले हफ्ते है और तुम ऋषिकेश जा रहे हो।" माधो कुछ न बोल पाया। बस इतना ही समझ पाया कि गौरी ने उसको लगातार 'तुम' कहकर संबोधित किया था।

"यकीन रखो, मैं आऊँगा।"

"तुम नही आओगे। फिर भी इतनी विनती है। कम से कम एक बार मुझसे मिलने मेरे ससुराल ज़रूर आना।"

आगे वह कुछ बोल न पाई। भागकर ऊपर चढ़ गई। आँसुओं का वेग थोड़ा थम गया था। माधो हाथ सिकोड़े वहीं पर खड़ा रह गया।

"तेरे ब्याह में तो जलेबियाँ भी बनेगीं और तिल के लड्डू भी।"

उसने फिर से मज़ाक की कोशिश की। गौरा का क्रोध बढ़ गया। अब वह और न रुक सकी। घोर गर्जना हो रही थी। ज़ोर शोर से बारिश होने की संभावना भी थी।

काश ! वक़्त ने पलटकर देखा होता, पत्थर भी रोते हैं, सिर्फ आँसू ही नहीं निकलते।

....

गौरा का ब्याह हुआ और बारात दूसरे गांव भी चली गयी। माधो जानबूझकर नहीं आया। दो सप्ताह बाद जब गांव लौटा तो माँ उसे खोह पर ही मिली। ओखली में धान कूट रही थी। वह दौड़कर माँ से लिपट गया।

"ला, मुझे दे। तू रहने दे।" माँ के हाथ से गन्जाली लेते हुए माधो बोला। उसकी दाढ़ी बढ़ गई थी। चेहरा भद्दा लगता था जैसे कई दिनों से ठीक से खाया पिया और सोया न हो।

"तू थककर आया है। तू रहने दे। तेरे मामा की तबियत अब कैसी है ?"

"अच्छी न होती तो यहाँ आता क्या ?वो तो मेरे जाते ही बिस्तर से उठ खड़े हुए थे।"

"तो इतने दिन कहाँ लगा दिए ? "

"मामा ने आने ही नहीं दिया। मैंने भी सोचा थोड़ा घूम घाम लूँ।" कहते हुए उसने ऊपर धार की ओर निगाह डाली, जहां से गौरा के मकान का एक हिस्सा दिखता था। वहाँ का वीराना उसे कचोटने लगा। इन दो हफ़्तों में सारा ताम झाम निबट गया था। बस बाकी बची लटकनें ही बीते पर्व की गवाही दे रहीं थी।

उसकी माँ की चाल से लगता था कि वो बीमार है। माधो से रहा नहीं गया। माँ को जबरदस्ती खींच लाया। माँ ने कहा, "अंदर थोड़ा मठ्ठा रखा है। कुछ खा ले।"

"भूख नहीं माँ।" माधो की नज़र एक बार फिर ऊपर गयी। माँ ने बताया, "बेचारी बहुत रोई थी। बड़ी मुश्किल से विदा कर पाए। अरे हाँ, याद आया। तेरी किताब लौटा गई है। अंदर तकिये के नीचे रखी है।"

"मेरी किताब ?" माधो चौंका। भीतर से किताब उठा लाया। किताब आठवीं की थी। बाहर स्याही से नाम लिखा था-गौरा। अंदर कुछ भी नहीं था। कुछ सोचकर जिल्द हटाई तो अंदर कागज़ था। उसे खोलकर पढ़ने लगा-

"माधो,

तुम जानकर भी अनजान बने रहे। मेरी किसी बात को गम्भीरता से नहीं लिया। खैर, अब जो बीत गया वह बचपना था। उसे भूल जाना। तुमने एक वादा तो तोड़ दिया, अब दूसरा भी मत तोड़ देना। एक बार मिलने ज़रूर आना। वही पहले वाला माधो बनकर।

गौरा।"

पत्र पढ़कर उसके दिल से एक बोझ सा उतर गया। लेकिन अभी एक कर्ज उतारना बाकी है।

"कैसा कागज़ है बेटा ?"

"कुछ नहीं माँ। यूँ ही।"

....

माधो को मौका तलाशना नहीं पड़ा, उसे खुद मिल गया। दूसरे-तीसरे दिन ही माँ ने उसे कुटा हुआ धान और दो चार दूसरे उपहार थमाते हुए कहा, "बहुत दिनों से कृष्णा की कोई खबर नहीं की।जा उससे मिल आ।"

माधो तुरन्त निकल पड़ा। मुंगेर से ऊपर जाते हुए रास्ते में गौरा के पिता हरिप्रसाद से भी भेंट हो गयी। उसके पलधार जाने की बात सुनकर हरिप्रसाद उसे घर ले गया और कुछ सामान थमाता हुआ बोला, "गौरी की खबर करने के लिए मैं आदमी भेजने ही वाला था। तुम जा ही रहे हो तो यह काम भी कर देना। उससे मिलते आना और हालचाल भी ले आना।" माधो ने राह ली। शाम तक पलधार पहुँच गया। रात बहन के यहाँ रहा। उसे देखते ही बहन ने पुचकारा, "मेरा भैय्या, कितना दुबला हो गया है।" किसी पुतले की तरह माधो भीतर गया। पूरे समय बहन उसे अपने आगे बिठाकर कभी चुपड़ी रोटी , कभी खाजा-बुखाणा, तो कभी दही-मठ्ठा ठूँस कर खिलाती रही।

अगले दिन ही गौरी से मिलने का भी संयोग बन गया। घर गया तो देखा, बड़े ठाठ थे उसके। माधो के दिल को तसल्ली हुई। सास बड़ी मायाली थी। खेत को जाने से पहले खूब खातिर करने को कह गई। घर पर अब गौरी अकेली थी। उसे देखते ही गौरी ने लम्बा सा आँचल सिर पर काढ़ लिया।

गौरी का तो रंग रूप ही बदल गया था। या शायद पहली बार उसने इस तरफ ध्यान दिया था। हिमालय से उतरी पहली धूप की झलकार मुखड़ी पर और भी गौरांगित हो रही थी। वास्तव में कुदरत ने उसे गढ़ गढ़कर सौंदर्य प्रदान किया था।

बिठाते हुए गौरा ने कहा, "चलो खुशी हुई। जिन्दगी में पहली बार तुमने कोई काम मेरी मर्जी का किया। मैं जानती थी तुम ज़रूर आओगे। पिताजी ने भिजवाया है ?"

"हाँ, मैं कृष्णा दीदी के यहाँ आ रहा था न..." सहसा कुछ कहते कहते वह रुक गया।

"कहो कहो। तुम में सयानापन अच्छा नहीं लगता। तुम वही माधो ठीक हो। मिट्टी के माधो। एकदम खरे। हीरे की तरह।"

ये वाली गौरी एकदम नई थी। इतनी विनम्र, इतनी क्षमाशील। माधो बोला, "नहीं गौरी। तुमसे झूठ बोल नहीं सकता।"

"अच्छा ? और इतने दिनों तक क्या बोलते रहे ?" विचित्र हँसी। माधो समझा नहीं।

"आज झूठ नहीं बोलूंगा। इन बातों का अब कोई मतलब तो नहीं पर...। आज मेरे पास धेला नहीं। जो खेती थी सब भाईयों को दे दी।दूसरों के हल चलाकर कितना गुजारा हो सकता है ? और वो भी कब तक ?" खामोशी छा गई। गौरी माधो की बातों को समझने की कोशिश कर रही थी। अंततः जैसे मन ही मन किसी नतीजे पर पहुँचते हुए माधो बोला, "बस इतना ही कहने आया हूँ कि कोई मैल न रखना। और भला बुरा कभी कुछ कह दिया हो तो माफ कर देना।" माधो के दोनो हाथ जुड़े थे। गौरी फूट पड़ी।मुँह छिपाकर सिसकने लगी।

अंततः माधो उठता हुआ बोला, "अब चलता हूँ।" चौखट पर झुक कर जूते पहनने की कोशिश करते माधो के कानों में आवाज आई, "मुझे भूल जाओगे?"

"कोशिश करूंगा।"

"और मेरी एक बात मानोगे?

माधो रुककर प्रतीक्षा में उसका मुँह देखने लगा।

"दुनिया मे केवल घर नहीं देखे जाते, दिल देखे जाते हैं। वहाँ जगह होनी चाहिए। मैं तो समझा न सकी। शायद कोई और समझा सके। उसके साथ अन्याय मत करना।"

"कोशिश करूंगा।"

गौरी द्वार पर ही खड़ी थी। अब थोड़ा सम्हल गई थी। बोली,"मैं जानती हूँ तुम अब यहाँ कभी नहीं आओगे।"कहते कहते आँखों मे फिर बादल मंडराने लगे थे। बचपन का प्यार रह रहकर आवाज दे रहा था।

वह एक बार फिर हँसकर बोला,"शायद।" और मुस्कराने लगा। फिर वही स्वच्छता, फिर वही निर्मलता। प्रभात हँस रहा था, निशा रो रही थी।

दस बरस बीत गए। माधो नहीं बदला। नीचे खद्दर-से मोटे पतलून के ऊपर खाकी कमीज़ पर पड़ा मोटा टाट का कोट। सिर पर हमेशा पड़ी रहने वाली नीले रंग की पहाड़ी टोपी। अब यही उसका पहनावा है। बस एक बात- पहले के मुकाबिले गुड़गुड़ी ज़्यादा गुड़गुड़ाने लगा है। जीवन मे जीने लायक कुछ खास रहा नहीं, बस ढोते जाना है। लोगों के खेतों में हल चलाकर गुजर होता । कोल्हू का बिल पिस रहा होता पर तेली केवल तेल देखता, तेल की धार देखता।

माधो था भी ऐसा ही। दिन भर चाहे जैसा काम कर लो। हट्टे कट्टे शरीर का अच्छा भला जवान था । लेकिन अत्यधिक श्रम से कम ही समय मे शरीर और चेहरे का रंग बदलने लगा था। साथ वालों से अधिक उम्र का नज़र आता था। लेकिन ग्वाड़ से लेकर ठाँगधार तक उसके जैसा कोई हलवाहा था भी नहीं। और सिर्फ हलवाहा ही क्यों? समझदारी में भी उसका कोई सानी नहीं था। लोग संटवारा करने और नेक सलाह के लिए उसी के पास आते। माधो कम बोलता है पर तोल-तोलकर बोलता है। जिंदगी ने बहुत तज़ुर्बे दिए हैं।

पर यह फक्कड़ फ़क़ीर आज भी जैसा का तैसा बना हुआ है। वस्त्रों का नाम पर तन ढँकने का एक प्रसाधन, खाने के नाम पर पेट भरने का सामान और ज़रूरत पड़ने पर गुड़गुड़ी। कुल यही तीन ज़रूरतें। इनके लिए भी क्या किसी के आगे हाथ फैलाये।

माँ के साथ खाना छोड़ दिया। अब खुद ही बनाता है। पर माँ को कैसे छोड़े ? माँ खुद ही उसके साथ खाने से मना कर देती है। कहती है,"मेरे दो और भी हैं। फिर तुझे चिंता करने की क्या ज़रूरत है ?" इस लताड़ में भी कितना लाड़ छिपा है! माधो की डबडबायी आँखों से क्या छिपा ? माधो को चाहे कूटो, पीटो, लताडो; खुद से स्नेह रखने वालों से वह दूर हो ही नहीं सकता।

प्रायः निष्चेष्ट और निष्प्राण सी देह की माटी लिए फिरता है। कंधे पर हल उठाये, इस खेत से उस खेत तक। हल चलता। मिट्टी से मट्टी मिलती। कटता। खरोंचें भी आती पर मिट्टी में दब जातीं। मात्रवत्सला के पास हर साध्य इलाज था। इतने बरसों में कभी बीमार नहीं पड़ा। एक छींक तक नहीं। पीछे केवल एक माँ है। जब तक रहेगी, जीने की उत्कंठा भी है। बाकी, न आगे कोई, न पीछे कोई। एक बहन है जो महीना दो महीने खबर लेने किसी को भेजती ज़रूर है। माँ की देखभाल के लिए तो फिर भी दो भाई हैं। पर इस निरा अक्खड़ को कौन पूछे। उम्र भी अभी कुछ खास नही, कुल तीस बत्तीस बरस ही तो थी।

दस बरस गए वह उन दिनों को नहीं भूला। भूलता भी कैसे। जीवन का पहला प्यार और पहली निष्ठा भी कोई भूलने की बात है भला ? इतने दिनों में गौरी की कोई खबर नहीं की। यहाँ तक कि बहन से मिलने भी गया तो उधर का रुख नहीं किया। पर सुना ज़रूर है, कि गौरी ने इस अर्से में तीन जीवों को जन्म दिया था और शीघ्र ही मातृत्व का गौरव फिर से पाने को थी।

....

संग्रह से घृणा करने वाले माधो के पास केवल दो ही चीज़ें अपवाद थीं - एक तो गौरी की दी हुई किताब, और दूसरी माँ की दी हुई हँसुली। माँ ने उसे चुपके से देते हुए कहा था, "इसे रखे रह। किसी को दे मत देना। कभी भी बुरे वक्त में काम आएगी। मैं न रहूँगी, तब तेरे भाई पता नहीं तुझे किस हाल में रख छोड़ें। और तो न तेरे पास कुछ, न मेरे पास ही देने को।" उस वक़्त और भी कोई निधि होती तो माँ वह भी उसे ही देती। फिर भी उसे इस बात का भय बना रहा कि कहीं रौ में आकर माधो इसे भी किसी को दे ही न दे।

परसाल जब ओलों ने फसलें खराब कर दी थीं, तब माधो को न अपने खेतों पर कुछ मिला न दूसरों के यहाँ मज़दूरी लायक काम ही मिला। फ़ाक़ा पड़ने की नौबत आ गयी। माँ के लाख कहने पर भी वह माँ के साथ खाने की राज़ी न था। वह अन्न भाइयों ने माँ के लिए दिया था। उसका छूना भी पाप था। माँ बेचारी बड़े जतन से उसके लिए भी खाना बना देती पर माधो कहाँ मानता ? एक ही कमरे में माँ खाना खाये और जवान बेटा भूखा रहे, ऐसा कैसे होता ? कम से कम बिल्ली ने तो लाभ कमाया। एक ही महीने में घर के चूहे भूखों मरने लगे।

एक दिन माँ ने सन्दूकची में देखा, हँसुली वैसी की वैसी पड़ी थी। उसे बेचने की हिम्मत नहीं जुटा पाया था। माँ अपने बेटे की काबिलियत उसी वक़्त आँक गयी। पड़े पड़े भी ख्याल आता रहा,' पता नहीं इस बेचारे का क्या होगा ? किसी के आगे हाथ फैलाना तो दूर , दो मीठे बोल नहीं बोल सकता। काम धंधा कुछ है नहीं। ज़मीन जायदाद भी टीका लगाकर भाइयों की दान दे दी। औलाद नहीं , घर बार नहीं। क्या खायेगा ? कैसे जीएगा ? परमात्मा भी जाने कब सुधि ले ले। मर भी पाऊंगी ? हे भगवान! माधो की देखभाल करना। निरा भोला है बेचारा।' रहरहकर आँसू भर आते। तकिया गीला हो जाता।

पर भगवान कब इतना दयालु रहा ? एक दिन आखिर बुढ़िया दोनों हाथ छाती पर रखे सिधार गई। रह गया माधो। विश्वास चूर हो गया। आखिरी सहारा भी गया। अब किसके लिए जीना था ? कौन अपना था ? ऐसी बिजली गिरी की सन्न रह गया। मुँह से एक बोल नहीं फूटा। पर अंतर्मन अशांत था। मिट्टी की काया आखिर मिट्टी हो गयी। छूकर, दुलारकर, प्यारकर, अपनी ममतामयी गोद मे खिलाया, हाथों से सहलाया, और आज शांत हो गयी। सारे नाते कितनी सहजता से टूट गए ! विधि विधान लिख गयी। मनुष्य देखता रह गया।

माधो की करुणा का सागर लहक गया, पर आश्चर्य! एक अश्क नहीं छलका, एक मोती नहीं फूटा। पीड़ा ने आवाज़ दी मगर एक स्वर नहीं ढलका, एक बोल नहीं छूटा।

रह रहकर खुद को धिक्कार उठा। आखिर उसने क्या सुख दिया माँ को। एक टीस लेकर ही मरी। कैसा वज्रपात हुआ होगा ! परमात्मा का वह अटल सत्य एक झटके में सारे बन्धन तोड़कर अलग कर देना चाहता होगा और ममता की एक नाज़ुक सी डोर उसे रोकती होगी। पर क्रूर सत्य ने झटके से प्राणों को खींच लिया। डोर टूट कर रह गई। प्राणभार मुक्त हो गए ।

दोनों भाई और बहुएँ फफक कर रोयीं। कृष्णा तो और भी पछाड़ खा कर रो रही थी, "हाय मेरी माँ, हाय मेरी माँ !" पर वह काठी काठी ही रहा। भीतर ही भीतर उसे रोने की आदत सी पड़ गई थी। अश्क तो दिखावा हैं। रोता तो हृदय है। और माधो को इसी तरह का रोना आता है।

अपनी निराशा के आखिरी कुछ पलों में उसे एक सहारा मिला -

गौरी के तीन बच्चे हुए थे। चौथे की प्रसव पीड़ा में उसकी मृत्यु की खबर भी इसी वक्त आनी थी ! क्रूर काल की विडंबना तो देखो, अभी माधो की माँ को मरे एक सप्ताह ही बीता था। माधो उस समय क्रिया में ही बैठा था। साँझ का समय था। माधो निःशब्द था। पिछले चार दिनों से उसका बोलना बिल्कुल बन्द हो गया था। लोग किसी तरह उससे कुछ बुलवाने के सारे प्रयत्न कर चुके थे। रोता नहीं , कुछ शब्द तो निकाले। एक सप्ताह से भूखा प्यासा सिर्फ पानी पी कर ज़िंदा कैसे था ? आँखों मे न शोक, न विषाद। केवल शून्य ही शून्य। झकझोरने पर ऐसे देखता मानो किसी अनजाने लोक में हो।

उसी समय खबर पहुँच गई। कुछ लोग हड़बड़ी में हरिप्रसाद के घर के लिए उठे। हल्ला हो गया। माधो की तो मानो श्रवण शक्ति ही जाती रही। यही आखिरी शब्द थे जो उसने सुने-"...गौरी नहीं रही।"

कृष्णा की नज़र सबसे पहले माधो के मुख पर पड़ी। उसे कुछ आभास हुआ। भाइयों ने उसे झकझोरा। आवाज़ भी दी पर उसने सुना ही नहीं। उद्दीप्त दृष्टि में मानव कराह रहा था। मानस रो रहा था। केवल आवाज़ न थी। पीड़ा थी, पर शब्द न था।

....

अँधेरा गहरा गया। भीतर भी , बाहर भी। रात हो गई थी। एक एककर सब सोने चल दिये। लेकिन तब भी एक बालक जग रहा था। वह कुदाली से बगीचे में हल चला रहा था। उसके पिता की आवाज़ आई, "क्या रे ! बल्दों को आराम नहीं देगा क्या ?"

"मिट्टी में खेलने वाले पलीत होते हैं क्याv?" बालक पूछ रहा था।

फिर अस्फुट स्वर में आवाज़ आई, "मैं हमेशा तेरे साथ रहूँगी।"

बालक कह रहा था, "मैं उनको डंडे से मारकर भगा दूँगा।"

फिर एक लड़की मुस्कराती पर्दे पर आई।बड़ी चंचल और शोख हिरनी सी ।आँखें नचाकर बोली, "तू अगर ऐसे ही मुझे सताता रहा तो देखना मैं किसी दिन दूर चली जाऊँगी।"

स्वप्न चल रहा है। लड़का अब बीस बरस का है।

"...मैं जा रही हूँ। सच्ची। भगवान कसम। अब कभी नहीं आऊंगी।" माधो चीखा, पर आवाज़ न निकली। न आँसू ही आये। उद्दाम क्रंदन कुलांचे मार रहा था पर कोई दीवार रोक दे रही थी, कोई पर्दा आड़े आ रहा था।

साढ़े पाँच फुट का गठीला जवान, किसी भी आम पहाड़ी जैसा। उन्मुक्त हँसी। बाँकी उमर। अभी कुल बत्तीस बरस का वय। अपने पास जो था, दयावश बाँट दिया। माँ की दी हँसुली, जो उस अभागे के लिए अनमोल थी, उसे मिट्टी के मोल छोड़े जा रहा था। वह, जिसके जीवन में प्रेम की परिभाषा ने गौरी नाम पाया था - जो उसे अक्सर मुंगेर पर मिल जाती थी। उसके जीवन के ऊबड़-खाबड़ धरातल पर दो पुलिंदे बाँध एक छाँव तैयार करना चाहती थी। पर ये हो न सका। उसका डोला उठकर दूसरे गाँव भी चला गया और तब वह वहाँ भी अपनी भूल की माफी मांगने चला आया। जीवन की डगर अब सूनी थी। कँटीले रास्तों पर अब उसे अकेला चलना था। यही उसके जीवन का सार था। यही कहानी थी। लेकिन इसमें भी बस वही एक बात - प्रेम। यही वो ललक थी जिसने कंगले को कंगाल बनाया।

सबकुछ समाप्त हो गया था। ज़िन्दगी और मौत की उठापटक में जीवट का यह प्राणी हार रहा था। बस एक बार दिल खोलकर चीखना चाहता था।

अभी सुबह के आखिरी पहर, जब चिडियों तक की आँख बंद थी, तभी ज़ोर ज़ोर की चीख़ मची। पहले ऐसा लगा जैसे कोई गाय रंभा रही हो। फिर लगा, कोई आदमी है। लोग दौड़े दौड़े गए। देखा- माधो सिंह के कमरे का द्वार खुला था। माधो ज़मीन पर बैठे ही बैठे चिल्ला रहा था। कृष्णा का रो रोकर बुरा हाल था। बगल में दिया जल रहा था जिसके ऊपर दीवार काली पड़ गई थी। तेल खत्म हो रहा था। दिया तिल तिल बुझ रहा था। प्रकाश क्षीण हो रहा था। दीपक की लौ दपद्पा रही थी।

गाँव भर में बात फैल गई - माधो सिंह पगला गया है। माँ को मरे आठ दिन बीत गए, आज जाकर उसका रोना सुना गया। वह भी ऐसा वीभत्स !

लोगों ने टटोला, हिलाया। दिया बुझ गया। तेल खत्म हो गया। आवाज़ आनी बन्द हो गयी। केवल एक घुटी हुई आह रह गई थी। ज्यों ही उसे औंधाया गया - गले से हल्की आवाज़ आई, "गर्रSSS"


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