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कल आज और कल

कल आज और कल

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"निशा! सोचो जरा, पुरानी चीजें जीवन से जाएंगी नहीं तो नई चीजें जीवन में कैसे अपनी जगह बनाएंगी?" सामने बैठी निशा को मैंने आज फिर वही सवाल किया जिसमें उसका रत्ती भर भी यकीन नहीं था, लेकिन मैं इतनी आसानी से हार मानने वाला नहीं था। निशा के दुःखों की जड़ ही उन बेजान चीजों में थी जिसे वह मन से लगाए बैठी थी। न जाने क्यों निशा को बचपन से ही मोह वश अपनी चीजों को संभाल कर रखने की ऐसी आदत हो गई थी कि उम्र के तीसरे पड़ाव में भी इन आदतों को छोड़ नहीं पा रही थी वह। मेरे सबसे खास दोस्त अमर के जाने के बाद उसकी पत्नी निशा के प्रति मेरी चिंता सहज ही बढ़ गई थी। उसके अकेलेपन को कब मैंने अपने अकेलेपन से ढक दिया, मैं ख़ुद भी नहीं जानता था। सच तो ये था कि मेरे मन में कहीं गहरे उसके लिए प्रेम का अंकुर भी पैदा हो गया था लेकिन उम्र के तीसरे पड़ाव की ओर बढ़ते हुए ऐसी बातों को कहने में भी झिझक होती है।


"समीर! तुम क्यों बार-बार मुझे एक ही बात कहते हो। तुम जानते हो कि अब यही मेरे जीवन का सहारा है, बेटे के खिलौने... पति के दिये हुए उपहार।" कहते हुए उसने फिर से पति का दिया एक उपहार उठा कर दिल से लगा लिया और नम आँखों से फिर अतीत के पन्ने पलटने लगी। वही यादें जिन्हें मैं कई बार सुन चुका था।

"समीर! बीस वर्ष की आयु रही होगी मेरी, जब मैं इस घर में 'अमर' की दुल्हन बनकर आई थी। और दो वर्ष बाद ही मुझे माँ बनने का सौभाग्य भी मिल गया था। मुझे तो जैसे सब कुछ ही मिल गया था। लेकिन नहीं... भूल गयी थी मैं कि जीवन के रास्ते बहुत अनिश्चित होते हैं। यहाँ कब अंधेरा होगा और कब उजाला, कोई नहीं जानता। पांच बरस का भी नहीं हुआ था कि मेरा 'मनु' जाने किस दिमागी बीमारी की चपेट में आ गया कि उसके इलाज में हम अपना सब कुछ हार बैठे थे। और ये, ये तो अपनी हिम्मत भी हार गए थे।”

निशा कहे जा रही थी और मैं ख़ामोश बैठा सुन रहा था हमेशा की तरह।


". . . समीर, तुमने बहुत कोशिश की थी उन्हें संभालने की, लेकिन कोई फायदा नहीं हुआ, एक दिन पहले मनु और उसके बाद ये भी मुझे अकेला छोड़ गए। इतने बड़े शहर में, अकेली ही तो रह गयी थी मैं। ऐसे में कोई सहारा था तो जैसे उनकी शेष रह गयी ये चीजें। और बस यही चीजें तो मेरे जीवन का आधार बन गई हैं, उनके सामान और तस्वीरों में ही उनको तलाश कर मैं जीती चली आ रही हूँ।"

“निशा मैं समझता हूँ तुम्हारा दुःख, लेकिन...।” मेरी बात के बीच में ही वह अपनी बात शुरू कर चुकी थी।


"हाँ अगर कोई मेरे दुःख को समझ सका तो वह तुम ही थे समीर। ऐसे समय में जब भी कोई समस्या आन पड़ती थी तो जाने कहाँ से तुम मददगार बनकर सामने आ खड़े होते थे। आज भी घर में पानी की मोटर खराब हो जाने से लेकर घर के व्हाइटवाश करवाने की समस्या हो या बिमारी में डॉक्टर से चेकअप करवाने की बात हो, तुम एक फ़ोन पर मेरे दरवाज़े पर हाज़िर हो जाते हो। कभी-कभी मैं ख़ुद भी नहीं समझ पाती हूँ कि तुम मेरे जीवन में कौन से पायदान पर आ खड़े हुए हो समीर! एक सहयोगी, एक मित्र या फिर एक अनचाहे से प्रेम का रुख़ लेकर एक. .।" 

अनायास ही निशा अपनी बात कहते-कहते चुप हो गई लेकिन उसके अधूरे शब्दों का कम्पन मुझे भीतर तक तरंगित कर गया। “तुम चाहे अपने जीवन में मुझे किसी भी पायदान पर रखो लेकिन मेरे लिए तो जीवन का हर क्षण ही तुम हो, बस तुम।” लेकिन मेरे शब्द मन की गहराई तक ही सिमट गये, ज़ुबान पर न आ सके।


बाहर का मौसम करवट ले रहा था, मौसम के एक गर्म सामान्य दिन के बाद शाम ढलने के साथ हवा ठंडी होने लगी थी। निशा ने उठकर खिड़की खोल दी, और मुझसे चाय के लिए पूछ कर चाय बनाने के लिए किचन में चली गई।

"निशा!” चाय के घूँट भरते हुए मैंने एक बार फिर से बात दोबारा छेड़ दी। “क्यों बार-बार उन्हीं बातों को दोहराकर अपना मन व्यथित करती हो। मैं जानता हूँ कि मेरी बातें तुम्हें हमेशा असहज कर देती हैं, लेकिन आख़िर कब तक इन चीजों के सहारे जीती रहोगी।"

"जब तक जिया जायेगा, तब तक समीर। आखिर इतना आसान भी तो नहीं है अपनों की चीजों को जीवन से निकाल देना, ये चाँदी के उपहार, पुरानी किताबें, बेटे के खिलौने और परिवारिक क्षणों को समेटे सुंदर फोटो फ्रेम!"


"कब तक इन कबाड़ होती चीजों को सीने से लगाये रखोगी निशा।" एकाएक जाने कैसे कठोर शब्द का प्रयोग कर गया मैं, कि तड़प उठी निशा।

"समीर...! आखिर कैसे कह दिया तुमने इन्हें कबाड़, क्या अपनों के जाने के बाद उन का सामान कबाड़ बन जाता है। नहीं समीर नहीं, मैं तुम्हारी जैसी निष्ठुर नहीं हो सकती जो अपने बीमार पिता के अंतिम दिनों में उनके जल्दी चले जाने की प्रार्थना करते थे, कोई कैसे अपने जीवनदाता के लिए ऐसा सोच सकता है भला।" उसने मेरे कठोर शब्दों का जवाब कठोर शब्दों से ही दिया था।


"पता नहीं। शायद निष्ठुर ही रहा होऊंगा मैं, लेकिन निशा, जीवन हमेशा ही वरदान नहीं होता और मौत हमेशा ही श्राप नहीं होती। देखो, मेरी और देखो...” कहते हुए मैनें निशा का चेहरा अपनी ओर कर अपनी आँखें उसकी आँखों में जमा दी। "यह पूरा संसार भी इसी नियम पर चल रहा है। जरा सोचो यदि सभी लोगों से मृत्यु नाम का श्राप हटा दिया जाये, हमारे पूर्वज भी हमेशा के लिए हमारे साथ विद्यमान हो जाए तो क्या होगा इस समाज का, क्या होगा इस स्रष्टि का?"

"मैं नहीं जानती ये बड़ी-बड़ी बातें समीर, लेकिन मेरी साँसों में बसे हैं मेरे अपने, कैसे निकाल दूँ उन्हें।" निशा की आँखें भीग गई।

हाँ निशा, यही तो मैं कहना चाहता हूँ। तुम्हारे अंदर बसे हैं तुम्हारे अपने, इतने सस्ते नहीं है वह कि उन्हें सामानों में खोजा जाए। मन की गहराईयों में छिपा कर रखों उन्हें।" कहते कहते कुछ क्षण के लिए रुका था मैं। "निशा लोग तो जीते जी जीवनसाथी बदलते हैं, मगर मुझे देखो, मेरी जीवनसाथी तो ने तो मुझे ही ज़िंदा सामान समझ कर.....।" अपनी ही बात अधूरी छोड़ सिसक उठा था मैं, चाहकर भी ख़ुद को संभाल नहीं पाया था।


"समीर...!" अनायास ही निशा ने मेरे हाथ को थाम लिया। “आई ऍम सॉरी समीर, मैंने तुम्हारा दिल दुखाया। मैं जानती हूँ कि तुम इतने भी असंवेदनशील नहीं हो। आखिर ला-इलाज़ दर्दनाक बीमारी झेलते पिता की पीड़ा को कब तक बर्दाश्त करते तुम, और जहां आशाएं ख़त्म हो जाती हैं वहां एक मुक्ति का ही तो आप्शन रह जाता है न।”

"कोई बात नहीं निशा! पर क्या करूँ पत्नी का अलगाव एक ऐसा ज़ख्म है मेरे जीवन का जो भर नहीं सका आज तक।" अपनी नम आँखों को पोंछते हुए मैनें ख़ुद को संभाला। “शायद उसने मुझसे विवाह ही केवल सुखों के अनुबंध पर किया था, तभी तो दुःखों की बारिश के दो चार छीटों ने ही मेरी गृहस्थी को भिगोना शुरू कर दिया था। अच्छा हुआ न जल्दी ही छोड़ कर चली गई, कम से कम वह तो अब अपना जीवन सुख से गुजार रही है। मैं जानता हूँ कि बहुत कठिन है अपनों को भूल कर आगे चलना लेकिन फिर भी सब भूल कर आगे देखना ही तो जीवन का वास्तविक मतलब है न।" अपनी बात कहते हुए मैं मुस्करा दिया।

"हाँ समीर शायद ठीक ही कह रहे हो तुम!” निशा ने मुस्कराते हुए आगे बढ़कर मेरी पलकों में छिपे आँसू पोछ दिए। “लेकिन जाने क्यों मुझे लगता है कि जब जीवन नितांत अकेला हो और संसार किसी भयावह जंगल की तरह लगता हो तो ये पुरानी बेजान चीजें भी बातें करने लगती हैं। जीवन को डराने वाली हर शै के आगे, जैसे एक ढाल बनकर खड़ी हो जाती हैं।" 


"निशा, ऐसा इसलिए होता है कि हम अक्सर अपने बीते हुए कल और आने वाले कल के बीच के आज को भूल जाते हैं। लेकिन मैं अपने अतीत को भुलाकर अपना आज जीना चाहता हूँ, आने वाले कल का निर्माण करना चाहता हूँ। मैं, मैं...” कहते हुए कुछ रुका लेकिन फिर अपने मन की बात कहता चला गया। “मैं अपना आज तुम्हारे नाम करना चाहता हूँ निशा, मैं तुम्हारी ढाल बनना चाहता हूँ, मैं अपने आने वाले कल को तुम्हारे साथ जीना चाहता हूँ... लेकिन तुम्हारी हाँ के बाद निशा।"


“. . . “ निशा खामोश थी, उसका हाथ अभी भी मेरे हाथों में था। सहसा मैंने आगे बढ़कर निशा को अपने करीब कर लिया। "निशा मैं जानता हूँ कि ‘अमर’ तुम्हारी साँसों में है और अंतिम साँसों तक भी वह तुम्हारे साथ रहेगा। ये कोई बेवफ़ाई नहीं होगी, न अमर के साथ और न मेरे साथ। हम संसार के इस भयावह जंगल में दो अलग-अलग जीने वाले तन्हा इंसान है जिन्हें एक दूसरे की जरूरत है और हम साथ-साथ रह सकते हैं... अगर तुम चाहो!"


". . ." वह अभी भी खामोश थी!

बाहर मौसम पूरी तरह बदल गया था लेकिन शायद निशा का मन अभी भी उलझा ही हुआ था। एक अंतहीन चुप्पी सी छा गई थी मेरे शब्दों से। आपसी रिश्ते, लगाव, और प्रेम कभी भी जबर्दस्ती के मोहताज नहीं होते, दिल से पैदा होने वाले रिश्तों को दिल से ही निभाया जा सकता है। मैं और अधिक अब कुछ नहीं कहना चाहता था। निशा काफी देर तक कमरे में सजी पति की निशानियों को देखती रही।

"समीर, तुमने ठीक कहा। प्रेम के रिश्ते इतने सस्ते नहीं होते कि हम हमेशा उन्हें पुरानी चीजों में ढूँढते रहें।" अंतहीन चुप्पी को भंग करते हुए निशा उठ खड़ी हुई थी। "सच में हमें एक आज की जरूरत है, हमें एक-दूसरे की जरुरत है। मैं तुम्हारे साथ एक और जीवन शुरू करना चाहती हूँ। क्या तुम मेरे साथ इन पुरानी निशानियों को समेटने में मदद करोगे?" 


". . .”

मैंने कोई जवाब नहीं दिया लेकिन खड़े होकर निशा का हाथ थाम लिया। मेरे हाथों का दवाब, मेरे प्रेम की शीतलता का अहसास निशा को करवा रहा था। वह मुस्करा दी।

बाहर मौसम की पहली बरसात शुरू हो गई थी और खिड़की से ठंडी और ताजी हवा हमारे नए जीवन की घोषणा कर रही थी।



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