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अनोखी जीत

अनोखी जीत

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हमें जंग लड़नी पड़ती है , क्यूंकि हमारे राजनेता जंग के सिवा कोई बेहतर हल नहीं जानते। बेहतर जबाब देने के लिए बेहतर तरीके से सवाल को समझना पड़ेगा। जिसे ना इस मुल्क के रहनुमा चाहते हैं ना पड़ोसी मुल्क के। मैंने तो हमेशा इंसानियत को जीतते देखा है और दरिंदगी को हमेशा हारते। जो इंसानियत की तरफ रहा है वो ही विजेता रहा है,आप इतिहास खंगाल कर देश सकते हो ? कोई देश जीतता या हारता नहीं है – ये इन्सान्यित और दरिंदगी ही जीत और हार तय करती है। कोई हार के भी जीत की राह को चुनता है और कोई जीतकर भी हार जाता है।

हिन्दुस्तानी फ़ौज हमेशा जीत है, और जीतती रहेगी क्यूंकि वो कभी भी दरिंदगी को नहीं चुनती। उसने इंसानियत का परचम सदा लहराया है।महीनों चीन की कैद में रहे मेजर जसबीर आज मिडिया से रूबुरू थे। सन १९६२ की लड़ाई में पड़ोसी मुल्क की सेना से लोहा लेकर भारतीय गौरव को बढ़ाने वाले मेजर पर सारी दुनिया को गुमां था। हर कोई हिंदुस्तान -चीन की जंग की चर्चा शुरू करता तो खत्म मेजर के अतुल्य साहसिक कारनामे पर ही रुकता। किसी के जीतने -हारने का जिक्र ना होकर बस इंसानियत की जीत की ख़ुशी थी। हारने वाले की हार गुम गई थी,जीतने वाले की जीत धुआं हो गई थी। सभी मेजर के मुहं से वो फ़साना सूनने को आतुर थे, मेजर भी खुद को और ना रोक आये उन्होंने इतिहास के उन पन्नो को जिन्दा किया जो होकर भी इतिहास की किताब का हिस्सा ना बन सके थे।

'मैं और मेरे साथी अनजान थे की अगले पल क्या होने वाला है। हम कई दिनों के भूखे थे, पानी का स्त्रोत देखकर जंग की तस्वीर को किनारे कर पानी पर टूट पड़े। मानो विधाता ने अंतर्मन की पुकार सुन ली हो। हमारे कई साथी आगे चलने की हालत में ना थे। हमारा अपनी बटालियन से संपर्क भी ख़त्म हो चूका था। दूर -दूर तक गर्द के सिवा कुछ नहीं दिखाई दे रहा था। जमीन अंगारी थी और आसमां को देखते तो अंगार बरसती ही दिखाई देती।. कुछ हलचल सी सुनी तो जो तन सकते थे तन गये। फिर मौत को ललकारते हम अपने हथियार ताने तैयार थे, बारूद को अपने जिस्म के फौलाद से भिड़ाने के लिए। जाने क्या था, शायद तोप का गोला या टैंक की मार। मैं निश्चित तौर पर नहीं कह सकता पर जमीन जमींदोज हो गई। मैंने खुद को और अपने साथियों को आग की सवारी करते देखा। मुझे याद है मेरे साथी का चेहरा - जो शान से खिला था, मुझे आवाज तो नहीं आई पर मैं उसके होठं देखकर बता सकता हूँ वो भारत माँ की जय बोलता हुआ अग्निरथ पर सवार था। एक और साथी की झलक मुझे याद है वो आसमान की तरफ लपका जा रहा था। मानो व्योम में तिरंगा लहराने चल निकला हो, मुझे मेरी चेतना मेरे शरीर से अलग होने के संकेत मिल गये थे। मैं आग की सवारी पर उड़कर अचेत हो गया था।

जब मुझे होश आया तो एक बार तो यकीन ही नहीं हुआ की मैं इसी जहाँ में हूँ। पर सच को कैसे नकारता, मेरी आँखे जहाँ तक जा सकती थी जा रही थी बाकी का सारा बदन तो जड़ था। मेरे कानों में भयंकर चीख सुनाई पड़ी, एक औरत नि: संदेह उसकी माँ रही होगी, खुद आधी एक टूटे पिलर से दबी हुई थी पर भरसक कोशिश कर रही थी एक बच्चे को मलबे से निकालने की। एक और सीमेंट की बड़ी सीट उस बच्चे के ऊपर गिरने वाली थी। वो सीमेंट की सीट गिरी,उस माँ ने भरपूर जोर लगाया पर बच्चे तक ना पहुँच सकी पर उसका बच्चा महफूज था क्यूंकि वो सीमेंट की सीट गिरी तो जरूर पर एक हिन्दुतानी फौजी की पीठ प। मैं हैरान हूँ की ये कैसे हुआ।

मुझे मेरी मिट्टी पर और गुमां हो चला ये उसी की करामात रही होगी की एक शिथिल शरीर बिजली की चपलता से उस बच्चे की आड़ बना। वो औरत कभी होश में रहती कभी होश खो देती पर जितनी देर भी वो होश में रहती एक इशारा कर देती। मैं अपनी सारी शक्ति को समेट, तिरंगे लिए अपने साथी की तस्वीर को यादकर उधर बढ़ा। कई बच्चे,औरतें विक्षिप्त अवस्था में वहां ढेर लगाये हुए थे। उनके इर्द -गिर्द को सैनिक बिखरे पड़े थे।उनकी वर्दी उनके साथी वतन के होने का आभास करा रही थी। मुझे एक पल लगा की जल्दी से यहाँ से निकलूं मेरा मुल्क मेरी राह तकता होगा। पर मुड़ ही नहीं पाया।क्या कहूँगा अपने मुल्क की मिट्टी को की मैंने लाश बनते बदन को लाश हो जाने दिया। मेरी मिट्टी की फितरत तो मुझे ये इजाजत नहीं देती। उस पराई वर्दी ने भी मुझे उकसाया पर मुझे अपने तिरंगे के रंग दिख पड़े और बीच का चक्र मुझे पुकार रहा था की सांस बची हैं तेरी किसी के काम आने को और साँसे थमने से रोकने को यलगार करती हुई मुझे मेरे साथी की भारत माँ की गूँज सुनाई पड़ी।

मैंने उनको उस ढेर से निकालना शुरू किया। वहीँ पड़े सामान में से जो बन पड़ा उनका उपचार करने की कोशिश की। कुछ जो मेरा साथ दे पा रहे थे वो अपना सब कुछ झोंक मेरा साथ दे रहे थे। हमने २३ जाने थामी हुईं थी मेरे साथ तीन दिन तीन टूटे -फूटे साथी तैयार थे। हमने कहीं से मदद लेने की योजना बनाई। मेरे साथी मेरी बताई योजना से पास से कुछ भोजन सामग्री व् ढेर सारी जरूरी सामग्री का बंदोवस्त कर लाये। पर वो २३ जाने थी भी और नहीं थी। मैं लाचार होता पर उनके बदन की गर्मी मुझे फिर से प्रयास करने को जन्झोरती। हम ऐसी जगह पर थे जहाँ कुछ मकान तो मिले पर वो एक अलग ही दुनिया थी उसका अन्य दुनिया से कोई वास्ता नहीं था। ऐसे वो लोग मेरी और मैं उनकी भाषा को अच्छे से नहीं समझ पा रहे थे पर इंसानी जज्बात भाषा की सीमाओं से परे थे। मैंने उन जज्बातों के बंधन से ८ लोंगो का दल जुटा लिया।

वो मुझे संदेह की नजरों से नही देखते की ये दुसरे मुल्क का वासिन्दा क्यूँ ये जद्दोजेहद कर रहा है। हमारे पास एक दुसरे पर भरोसे करने के सिवा और कोई विकल्प भी नहीं था। हम लोग खुद जिन्दा थे उन २३ जानों को सहेजे हुए। इनमें १३ गैर मुल्क के फौजी अफसर थे जिन्होंने मेरे साथियों को मुझसे और इस दुनिया से अलग करने में अहम् भूमिका निभाई थी।. मेरे जहन में ऐसा नहीं की कभी उथल -पुथल ही ना हुई हो। मुझे कई बार ऐसा लगता की इन १३ को बचाकर में अपराध कर रहा हूँ और अपने वतन से गद्दारी। पर ये विचार ज्यादा देर नहीं टिकते , मेरे वतन की इबारते तो अलग ही कहानी कहने वाली थी। जंग के मैदान में वो मुझे जंगी होने को मजबूर करती पर वो पुराणी तारीखे चीख -चीख कर मुझे मानव धर्म को पालन करने को मजबूर करती। अब मुझे केवल लाल रंग दीखता सबका एक सा। कई बार मैंने इसी उहापोह में भरी मन भी उन्हें दवा लगाई। मन में उनके प्रति क्रोध होते हुए भी मेरे हाथ उनके जख्मों पर मरहम लगाते। अजीब दोहरेपण में मैंने कई दिन बिताये पर जैसे -जैसे उनकी हालत में सुधार आ रहा था मुझे मेरा धेय्य स्पष्ट होने लगा की मेरी जंग तो मेरे इस व्यवहार से है आज जीत गया तो फिर कभी नहीं हारूंगा। अपनी मिट्टी के शिरमोरों को याद करके, उनको नमन करके मुझे उर्जा मिलती और में सिमित संशाधनो में मुर्दों में जान फूंकने में लगा रहा।

एक बार जब मैं दवाई पीस कर तैयार कर रहा था एक फौजी मेरे ऊपर आकर गिर पड़ा। उसे होश आया होगा, उसने जब अपने आसपास के हालात देखें होंगे और मेरी वर्दी पर बना तिरंगा तो वो जितनी उसमें जान आई थी सब बैघा कर मुझपर टूट पड़ा। पर अभी इतना भर ही कर सका और मेरे ऊपर गिर कर फिर अचेत हो गया। जब उसे होश आया तो मुझे अपनी पट्टी बदलते पाया। हमारी आँखों में कुछ संवाद हुआ था उसे मैं शब्दों में व्यक्त नहीं कर पा रहा हूँ। जैसे उन अफसरों को कुछ होश आने लगा मेरी जान खतरे में पड़ने लगी। वो जख्मी शेर और मैं उनका शिकार, वो मुझे मार ही देते उनकी हिम्मत पर तो संदेह नहीं पर उनके शारीरिक बल ने उन्हें धोखा ही दिया। मेरे लिए तो शेर को जिन्दा करने जैसी कहानी हो गई। की अब इन्हें जिन्दगी दी तो ये मुझे नहीं छोड़ने वालें।उन्हीं की कौम के अन्य साथी भी मेरी तरफदारी करने की वजह से उनकी निगाहों में अखरने लगे थे। खून्कार शेरों के बीच में मैं और मेरे अन्य साथी अजब -गजब खेल का स्वाद ले रहे थे।

अचरज तो ये था की हम सब इस खेल में पीछे हटने का नाम नहीं ले रहे थे। खेल जितना खतरनाक हो रहा था हम सब उतने ही चोक्कने और जीतने को आतुर। एक दुसरे को मात देने के इस खेल में रोमांच बढ़ता ही जा रहा था। रोचकता अपनी पराकाष्ठा पर जब पहुंची तब उन्होंने मेरे साथियों को हराकर मुझे उस गाँव से खदेड़ दिया। उन्होंने मुझे जान से तो नहीं मारा, जाने क्यूँ पर मुझे दूर फेंककर चले गये। मेरे लिए तो ये बड़ी जीत थी। मुझे कोई झूंझलाहट ना थी। मेरे चेहरे पर अनोखी मुस्कान थी की इनके भेड़ियों को तो मैंने मार ही दिय है। तभी तो ये मुझे जिन्दा फेंक गये नहीं तो ये ऐसे तो कतई ना थे। पर वापस उस ओर जाने को लेकर मेरी और मेरे मन की घनघोर लड़ाई हुई। हुआ ये की मैं जहाँ था वहीँ ठहर गया। जब आप नेक रास्ते पर चलते हो तो ऐसा नहीं की सारा रास्ता खुद ही चलना होता है, मंजिल भी आपकी ओर चलती है।

उस खेलमे में हालत बिगड़े, उन्होंने खूब कोशिशे की पर जब ६ लोग फिर से जिंदगी की उलटी साँसे गिनने लगे तो जो जंग इस दौरान मैंने लड़ी थी। उन फौजिओं ने भी लड़ी और जीते भी वो बैर को भुला मेरे पास आये, जाने ऐसे मौको पर शब्दों को क्या हो जाता है। चाहकर भी फूटते नहीं। इंसानी जज्बात शब्दों वाली भाषा से नहीं गूथे होते, इस पर तो मुझे पक्का यकीन हो गया था। वो अपनी आँखों की नमी को छुपाने की कोशिश कर रहे थे पर इन हालातो से में कुछ रोज पहले निकल कर आया था। मैं सुन पा रहा था जो वो नहीं बोल रहे थे। चुप्पी हमारे क़दमों की आहट से टूटी और हम सब उस केम्प जैसी जगह तेज क़दमों से पहुंचे। मैंने कम शब्दों का प्रयोग किये कुछ निर्देश दिए पर हिंदी -मंदारिन एक अलग सूत्र से एक होकर अर्थ पा रही थी और हम सब लगे थे कुछ साँसों को और वक्त देने।

हमने जल्दी उनकी हालत में सुधार महसूस किया। दवाई से ज्यादा सदभावना से भरे माहोल का असर जान पड़ा। २५६ दिन लम्बी चलने वाली इस जंग में सभी जीते थे। सभी अब खुद से अपना काम करने लगे थे अब मुझे लगा की मुझे मेरी मिट्टी की खुशबू की जरूरत है। हम खानाबदोश चलने लगे। वो मेरी ढाल बनते और मुझे अपने साथ ही रखते, अगले ३६ दिन हम लोग सहयात्री बन अद्भूत यात्रा का लुफ्त ले रहे थे।हमने जंग के कई किस्से एक -दुसरे को सुनाएँ। सारे तो झूठ बोल रहे थे क्या -कोई भी तो किसी अनजान को मारने, किसी का घर उजाड़ने , किसी की अस्मत से खेलने को लेकर नरम दिल नहीं था। फिर भी हम लड़ते हैं, ये प्रश्न हम सब से अनसुलझा था। पर चलते -चलते हमने एक दूजे से कहा तो नहीं पर जब इन २५६ दिनों को अपने जेहन से होकर गुजरने दे रहे थे तो सारे जबाब मिलते गये। पर कोई किसी से ना बोला, इंसानियत को किन शब्दों में जाहिर करते और इसकी जरूरत भी नहीं थी। हमारी आँखों की चमक हमारी अनोखी जीत को बयां कर रही थी, हम सबने खुद पर जो जीत हासिल कर ली थी अपनी -अपनी झूठी सीमाओं, रंग,भाषा व् झूठे आदर्शो से परे थी।

उन्होंने मेरी मेरे वतन पहुँचने में भी मदद की और आज मैं आप सबको ये सब बता रहा हूँ क्यूंकि मैं चाहता हूँ की सब जीतते रहें। ये अनोखी जीत ही हम सबकी जरूरत है। अभी मुझे लगता है की मुझे आराम की जरूरत है। मैं आप लोंगो से और बात नहीं करूँगा। उन दिनों की याद मुझे कुछ कहने से रोक रही है। मुझे जाना चाहिए, मेजर साहब भीगीं पलकें लिए अपने कमरें में चले गये।

मिडिया कर्मी भी अबोले हो गये थे इस अनोखी जीत की कहानी सुनकर। बादलों ने उन्हें वहां से जाने का संकेत दिया। सभी के दिल सैनिकों को सलाम कर रहे थे। सैनिक ही ऐसे फ़साने का किरदार हो सकता है। एक साथ सबका स्वर गूँज उठ- सलाम हर सैनिक को, दिल से सलाम।


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