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गलत धारणा

गलत धारणा

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कुछ समय पहले की बात है हम शुक्रवार का माता लक्ष्मी का व्रत -पूजन किया करते थे। ये पूजन एक तांबे के कलश में पानी भर के उसके नीचे लाल रुमाल और उसके ऊपर चावल का एक छोटा ढेर लगाया जाता है। उसी ढे़र पर पानी भरा तांबे का कलश रखा जाता है, उस कलश के ऊपर एक कटोरी रखी जाती है, जिसमें एक गुलाब का फूल और कोई एक सोने का गहना या एक सिक्का रख कर ये पूजा संपन्न की जाती है, और पूजा के बाद में ये कलश का जल तुलसी पर चढ़ा दिया जाता है, और चावल पक्षियों को डाल दिए जाते हैं। शुक्रवार की एक शाम हम पूजा करके कटोरी में चावल लेकर छत पर पहुंचे और वो चावल हमने छत के एक कोने में बिखेर दिए।

पलट कर हमने देखा कि कुछ चिड़ियाँ, कबूतर और कौवे सभी वहाँ पहले से ही उपस्थित थे क्योंकि गर्मियों के दिनों में हम लोग छत पर छाया में पक्षियों के लिए पानी रखते थे। 

ये देख हमें बहुत अच्छा लगा कि तभी सभी इकदम से उड़ गये। हमें विश्वास था कि यह पक्षियों का स्वभाव है। यह सोचते हुए हम छत की दूसरी तरफ़ जाकर टहलने लगे तभी देखा कि एक-एक करके सभी चिड़ियां लौट आयीं और चावल के दाने चुगने लगीं तभी हमने देखा कि एक छोटा कौवा उन सभी के बीच मैं ठीक से चुग नहीं पा रहा है। थोड़ी देर बाद सभी पंक्षी चावल चुग के उड़ गए पर वह छोटा कौआ वहीं बैठा रहा। हम यह सोचते हुए तुरंत जीने यानि सीढ़ियों से नीचे उतरे की थोड़े से चावल और ले आयें इस छुटकू के लिए। नीचे उतरे तो देखा की वो छोटा कौवा सामने मुंडेर पर बैठा हमारी तरफ देख रहा है।

हमने उसे एक रोटी का छोटा टुकड़ा दिया वो उस रोटी के टुकड़े को अपनी चोंच में दबा के उड़ गया। अब तो ये छोटा कौवा रोज़ सवेरे 9 बजे से 10 बजे के बीच में आने लगा। उसकी रोज की एक प्यारी आदत थी कि काँव-काँव करके अपने आने की सूचना मुंडेर पर बैठ कर तब तक देना जब तक उसे रोटी का टुकड़ा न मिल जाये। ताज्जुब तो तब हुआ कि जब मैं किसी जरूरी काम में उलझी थी और हमने कहा माँ आप यह टुकड़ा उसे दे दो। माँ ने उस टुकड़े को आंगन में रखी पानी की टंकी पर रख दिया पर फिर भी उसने अपनी काँव-काँव जारी रखी तो मैने कहा, ''जाकर देखती हूँ, जाकर देखा कि वह मुझे देख कर चुप हो गया जब मैने टंकी पर चढ़कर वह टुकड़ा मुंडेर पर रखना चाहा कि वह जमीन पर गिर कर गंदा हो गया, मैं टंकी से नीचे उतरी कि हमने देखा अरे! ये क्या वह जमीन का गिरा टुकड़ा खा रहा है। मां और पडोसी आंटी दूर से यह सब देख रहीं थीं, वह बोलीं दोस्ती पक्की है तेरे हाथ का गंदा भी मंजूर। हम सब हँस पड़े और कौआ उड़ चुका था। 

यह सब कब दिनचर्या में शामिल हो गया हमें पता ही ना चला। बस इसी तरह हमारी उस प्यारे छोटे कौवे से अच्छी दोस्ती हो गई। वो भी समय का इतना पाबंद था कि उससे हमने यह सीखा की देखो! उसके पास कोई घड़ी नहीं फिर भी समय पर आता है और एक हम हैं जो अपने काम को कभी- कभी ये कह कर टाल दिया करते हैं की समय का पता ही न चला लेट हो गए। सच कहें तो हम लोग अक्सर अपनी लापरवाही के कारण ही हर जगह लेट होते हैं। 

एक बार हमें परीक्षा देने कानपुर जाना पड़ा, हमने छोटे भाई से कहा की मेरे दोस्त का ध्यान रखना, ठीक है। जब हम कानपुर से लौटे तो भाई ने बताया कि वह कौवा बहुत देर तक चिल्लाता रहा। बाद मैं कूलर पर बैठ कर कमरे के अन्दर झांकता रहा। हमने उसको ब्रैड का दुकड़ा दिया पर फिर भी वो बहुत देर तक यूँ ही बैठा रहा। बाद में फिर ब्रैड का टुकड़ा लेकर उड़ गया। दीदी कल तो वो इतना चिल्लाया कि उसकी आवाज़ से अचानक ढ़ेर सारे कौवे इकट्ठा हो गए फिर बड़ी मुश्किल से हमने उन सब को उड़ाया।

छोटे भाई की ये सब बातें सुनकर हमें बहुत आश्चर्य हुआ कि ऐसा भी हो सकता है क्या ? उसका प्रेम देखकर हमारा मन भर आया और हमारी आँखें छलक उठीं। हम इधर-उधर देखने लगे कूलर की तरफ़ भी देखा फिर याद आया कि वो तो अब सुबह ही आएगा। उस रात ठीक से नींद भी न आयी कि कब सुबह हो और अपने दोस्त को देखूंँ। सुबह मेरा दोस्त अपने समय पर हाज़िर था जैसे हम दौड़कर उसके सामने पहुंचे वो हमको ही देख रहा था उस दिन महसूस हुआ कि सचमुच प्रेम बहुत महान है।

इस दोस्ती को कब दो साल बीत गए पता ही न चला। वो आज भी आता है उसके आने का समय निश्चित है, कभी सोचती हूँ कि यह कैसा अद्भुत संबंध है जिसमें बोली-भाषा की कोई आवश्यकता नहीं पड़ती। हम दोनों का एक नज़र देखना ही हजारों बातें कर लेने जैसा अनुभव करा देता है।

फिर कुछ ही दिन बीते कि मानो हमारी दोस्ती को किसी की बुरी नज़र लग गयी। मेरा दोस्त पूरे तीन दिनों से गायब था। मैं बहुत चिंतित थी आखिर! वह क्यों नहीं आया? हम बैचेनी से छत पर टहल रहे थे कि किसी की आवाज़ कानों में पड़ी कि रोड़ पर बिजली तारों पर दो मृत कौआ लटके हैं, पता नहीं किसके मूड़ यानि सिर पर गिरेगें, यह कहकर वह लोग अट्टाहास यानि हँस रहे थे। उन लोगों के यह शब्द हमें ऐसे लगे मानो किसी ने हमारे कानों में खौलता तेल डाल दिया हो। मेरा हृदय कांप उठा कि कहीं मेरा दोस्त तो....! मैं मन ही मन रो रही थी और हजारों प्रार्थनाएं मेरे मन में चलने लगीं कि भगवान उस मासूम को बचा लो। यही सब सोचते-सोचते हुये कब सुबह हो गई पता ही न चला और हम नितकार्यों में लग गये। सब घरेलू काम करते हुये मेरी नज़र तो बस घड़ी पर लगी रही और बुरे ख्यालों ने मेरे हाथ में कम्पन उत्पन्न कर दिया और तुलसी पर चढ़ाने वाला कलश हाथ से छूट कर वहीं फैल गया। पड़ोसन आंटी जो सामने वाले कमरे में रहतीं थीं। वह हँसते हुए बोली मौड़ी दीवानी भयी जात है बिल्कुल, आ जाये बो कहाँ जइये... उनकी बात भी पूरी नहीं हुई थी कि हमने देखा कि सामने कपड़े सुखाने वाले अरगनी यानि तार पर बैठ कर मेरा दोस्त काँव-काँव करने लगा। हमने अपनी आँखें मलीं और उसकी तरफ़ देखा तो हमारी खुशी का ठिकाना नहीं रहा। 

हमने देखा आज तो दो दोस्त आयें हैं, ओह! अच्छा समझीं। हम मन ही मन सोचने लगे कि मेरा दोस्त इतना बड़ा हो गया। आज हमारा दोस्त पराया हो गया है। वाह! कैसे अपनी नयी नवेली दुल्हन कौवी के साथ बैठा नज़ाकत दिखा रहा है। मैं मन ही मन बहुत खुश थी। हमने कहा, '' आज हमारा दोस्त हमारी तरफ़ प्यार से देख भी ना रहा। जा अब तुझे हमारी क्या जरुरत? तेरी पत्नी जो आ गई है। पुरानी दोस्त को भूल गया। अब क्यूँ हमें देख कर खुश होगे तुम। अब तू हमारे धुले हुए गीले कपड़ों पर बैठ कर उनको गंदा करके हमें सतायेगा भी नहीं, है न। और हमको अपने पीछे डंडा लेकर दौड़ायेगा भी नहीं, हैं न। 

मैं लगातार उसकी तरफ़ देखकर मन ही मन में लड़ाई लड़ रही थी कि सच-सच बोलो अब। शादी क्या तीन दिन की थी तेरी? कहाँ था तू? जा मुझे तुम दोनों से कोई बात नहीं करनी है। तुम दोनों ने मुझसे ये बात क्यूँ छिपाई बोलो, जवाब दो? हाँ सच है इंसानों की रोटी खा कर तू भी इंसानों जैसा ही दगाबाज़ हो गया है। जा उड़ जा अब। 

हमारा इतना कहना था कि ये क्या हुआ हम तो सोच भी नहीं सकते थे। अचानक दोनों मेरे पास बिल्कल पास में आकर बैठ गए। इतने पास ऐसा लगा मानो यह कोई सपना हो। हमारे तो खुशी के आँसूं गालों पर नाच उठे। हम तुरंत दौड़ के रसोई मैं जाकप मिठाई ले आये और उन दोनों के सामने अपनी हथेली बढ़ा दी। देखते ही देखते दोनों की चोंच मेरी हथेली से टकराई मानो हम तीनों के एहसास टकरा गये। वह दोनों कब मिठाई खाकर उड़ गए, मुझे पता ही न चला। सच कहूँ तो ये वो अहसास था जिसको शब्दों मैं बयां कर पाना बहुत मुश्किल है।

दूसरे दिन सामने रहनेवाली आंटी जी बोलीं, ''बेटा आज एक भी कौवा नहीं आयेगा क्या ? हमने पूछा,''क्यों आंटी जी क्या बात है ? आंटी ने कहा,'बेटा आज ससुर जी का श्राद्ध हैं। मैंने खग्रास यानि कौवे को खिलाया जाने वाला भोजन, छत पर रख दिया है। कोई कौवा नहीं आया तो ये पूजा अधूरी मानी जायेगी, क्या करूँ? 

हमने देखा आज तो मेरे दोनों दोस्त भी नहीं आये। घड़ी देखी तो 10 बजने मैं एक मिनट कम था। हमने कहा आंटी जी चिंता न करो आपकी पूजा सफल होगी एक मिनट का इंतजार करो।

आंटी जी बोली आ गए,आ गए भोग लगा रहें हैं। हमने कहा आंटी जी दोनों है क्या ? आंटी जीने कहा,'"हाँ।' हमें कुछ अजीब लगा। ये तो सबसे पहले अपनी दोस्त के हाथ से खाता है। आज आंटी की पुड़ी -खीर, मिठाई के कारण अपनी दोस्त की रोटी भूल गया। हम यह सोच ही रहे थे कि अरगनी पर सामने दोनों बैठे नज़र आये।

हमने गुस्से में कहा, ''क्यूँ चख आये पूड़ी-खी, मिठाई अब क्यों बैठे हो जाओ उड़ जाओ। ये कहते ही आंख भर आयी। हम आँगन मैं खड़े होकर उनको उड़ाने लगे। तभी आंटी जी छत से बोलीं, ''क्यूँ चिल्ला रही हो बेचारों पर।'' ये तो बस तेरे ही हैं किसकी हिम्मत जो इनको पहले खिला सकें और हँस पड़ी। हमने कहा,'' क्या मतलब।

आंटी जी बोली,'ऊपर आ।' हम छत पर पहुंचे तो देखा कि वहां बहुत सारे कौवे थे। हमारी समझ नहीं आया कि कौन सा कौवा हमारा दोस्त है। वहां सभी एक जैसे ही नज़र आ रहे थे। हमने नीचे झांक कर देखा तो वो दोनों नीचे कपड़े सुखाने वाले तार पर बैठे थे। आंटी जी मुस्कुराई और बोलीं, ''नहीं पहिचान सकती न।'' 

आज मुझे अपनी गल्ती का अहसास हुआ कि इतने सारे कौवों में से हम अपने दोस्त को पहचान तक नहीं पा रहें।

ये मेरा कैसा प्यार है? वो हमको पहिचान लेता है और हम नहीं, कितनी बड़ी बात है ये। 

सच कहूं तो यह कोई साधारण बात नहीं थी। ये सोचती हुई खुद को हारे हुये जुआरी की तरह खुद को लिये सीढ़ियों से नीचे उतरी तो देखा हमारे दोनों प्यारे दोस्त हमारी तरफ देख रहें हैं। उन दोनों का मासूमियत से मुझे देखना ऐसा लगा मानो मेरा आत्म यानि मेरा भगवान् आज मुझको देख रहा हो। सचमुच इंसान के प्रेम से जीवों का प्रेम महान है जो कभी बनावटी हो ही नहीं सकता। 


आज हमने अपने दोस्तों से दिल से माफी मांगी और पूरी ईमानदारी से अपनी गल्ती स्वीकार ली। हमने सोचा कि सचमुच ये हम इंसानों कि मनगंडत गलत धारणाएँ हीं आज हमारे अकेलेपन का कारण सिद्ध हो रहीं हैं।

अपने दोस्तों के बारे में हम ऐसा सोच ही रहे थे कि तभी दोनों ने शरारत करना शुरू कर दिया। तार पर टँगी हुई पापा जी की सफ़ेद रंग की कमीज़ पर दोनों बार-बार बैठ जाते। हम दोनों के पीछे भागे। पीछे से माँ बोलीं बेटा, "ये लो रोटी खिला दे इनको।'' हमने उन दोनों की तरफ़ देखा तो वह मां के हाथ से रोटी खा रहे थे। हमने कहा, अरे! वाह! ''क्या बात हैं, दोस्तों! माँ को भी दोस्त बना लिया। ले लो भाई, माँ के हाथ की सोंधी रोटी का श्वाद। फिर हमने और आंटी ने दोने में खीर रखी तो दोनों चटोरे खीर में जुट पड़े। आंटी जी हँसते हुए बोली, ''पक्के दोस्त तो ये तेरे ही रहेगें'' तभी अचानकर वह दोनों मेरे गाल के पास से पंख फड़फड़ाते हुए उड़े, उनके पंखों का एहसास अद्भुत था। हमारा तो मन मयूर नाच उठा। 

आज भी सोचती हूँ कि सचमुच प्रेम की भाषा अद्भुत है। सामने वाला वो जीव हो या फिर चाहे मानव बिन बोले ही दिल की आवाज़ को सुन और महसूस कर सकता है। माँ सच कहती हैं कि किसी के बारे मैं इतनी जल्दी गलत राय नहीं बनानी चाहिये। एक गलत सोच अच्छे रिश्ते को भी टूटने के कगार पर ला सकती है। आज जो समाज में रिश्तों की चिताएं जल रहीं हैं उसके पीछे कहीं न कहीं गलत सोच, गलत धारणा ही है सम्भवता।

आइये ! धारणा बदलें और एक मौका दें ख़ुद को ख़ुद से मिलाने का ताकि हम मुस्कुरातें रहें और हमारा समाज भी मुस्कुराये जिससे प्रकृति भी खिलखिलाए। 


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