इण्डियन फ़िल्म्स - 1.3
इण्डियन फ़िल्म्स - 1.3
प्यार के बारे में
जब मैं बिल्कुल छोटा था, तो मुझे वेरोनिका अच्छी लगती थी। वो बगल वाले प्रवेश द्वार में रहती थी, और सफ़ाई कर्मचारी दाशा आण्टी मुझे इस प्रवेश द्वार में घुसने नहीं देती थ, क्योंकि मैंने सूरजमुखी के बीज फर्श पर बिखेर दिए थे। फिर मम्मा ने दाशा आण्टी को वाशिंग पावडर का डिब्बा दिया, और दाशा आण्टी मुझे अंदर छोड़ने लगी।
वेरोनिका के बाल काले थे और आँखें हरी। हम गैस स्टेशन पे घूमते और टी।वी। देखते। वैसे, हम एक दूसरे को बहुत प्यार करते थे, और सब लोग हमसे जलते थे, ख़ासकर हमारे कम्पाऊण्ड का एक लड़का ल्योशा रास्पोपोपव।
फिर मैं स्कूल जाने लगा। घूमने-फिरने के लिए अब कम टाइम मिलता था, और इसके बाद वेरोनिका दूसरे शहर चली गई। मगर, जब मैं बड़ा हो जाऊँगा, तो मैं उसे ज़रूर ढूँढ़ लूँगा और हम शादी कर लेंगे।
और मैंने अपना निबंध टीचर को दे दिया।
और हमारी क्लास में पढ़ती थी लीज़ा स्पिरिदोनोवा। वो भी ख़ूबसूरत थी, मगर मुझे वो ज़रा भी अच्छी नहीं लगती थी, क्योंकि उसे देखकर ही पता चल जाता था, कि वो दुष्ट है। तो, ब्रेक में लीज़ा स्पिरिदोनोवा टीचर की मेज़ के पास गई, मेरा निबंध पढ़ा और मुझे हुक्म देने लगी कि कहाँ अर्ध विराम होने चाहिए, और कहाँ नहीं। ऐसा, शायद, इसलिए, क्योंकि वो चाहती थी, कि दुनिया के सब लोग उसे प्यार करें, मगर मेरे तो जैसे माथे पर लिखा था, कि मैं उसे बर्दाश्त नहीं कर सकता। मेरे इस अज्ञान के लिए मुझे 3 नम्बर दिए गए, मगर लीज़ा स्पिरिदोनोवा को इससे भी चैन नहीं मिला। ऐसा तो नहीं है कि मैं सिर्फ अर्ध-विरामों के ही कारण उसे बर्दाश्त नहीं कर सकता!
अब मैं ग्यारह साल का हूँ। मैंने इन नोट्स को, जो आपने पढ़े, अपने एक दोस्त को दिखाया, और उसने कहा, कि ये दिलचस्प तो हैं, मगर बहुत संक्षेप में हैं। मतलब, कि मैंने बहुत कम-कम लिखा है। मगर, मैं तो सिर्फ वही लिख सकता था ना, जो वाकई में हुआ था, इसलिए मैं सोच में पड़ गया: अभी तक तो कोई ज़्यादा दिलचस्प घटनाएँ हुई नहीं हैं , मतलब, मुझे अभी मालूम नहीं है कि किस बारे में लिखना है। मगर दोस्त ने मुझसे कहा:
“ मगर, तू उस बारे में लिख, जो भविष्य में होगा।”
“ऐसा कैसे ?” पहले तो मैं समझ ही नहीं पाया।
“जैसे, तू ऐसा लिखता है,” – दोस्त ने मुझे समझाया (उसका नाम आर्तेम था), - “जब मैं इत्ते-इत्ते साल का था, तो ऐसा-ऐसा हुआ था। मगर अब ऐसा लिख : जब मैं इत्ते-इत्ते साल का हो जाऊँगा।।।और कल्पना कर कि क्या हो सकता है।”
मैंने फ़ौरन ये आइडिया पकड़ लिया और लिखने के लिए बैठ गया।
इस तरह इस छोटे से लघु-उपन्यास का दूसरा भाग प्रकट हुआ, जिसका शीर्षक है- जब मैं हो जाऊँगा।