अर्पण
अर्पण
मैं पिछले ३० सालों से एक प्रतिष्ठित यूनिवर्सिटी में वरिष्ठ वैज्ञानिक के पद पर आसीन था। अचानक हुए इस तबादले के कारण मै और मेरा परिवार कुछ विक्षुब्ध थे। पर परिवार के गुज़र-बसर के लिए सब मंज़ूर था। ज़िंदगी का निर्वाह तो हर हाल मे करना ही था। इसलिए ज़रुरत की कुछ वस्तुएँ अपने साथ ला कर यूनिवर्सिटी के गेस्ट हाउस मे एक कमरा ले कर रहना शुरु कर दिया। यह गेस्ट हाउस एक फार्म के मध्य मे स्थित था। फार्म बहुत हरा भरा था। पक्षिओं कि चहचाहट और मयूरों का नाच अक्सर देखने को मिल जाता था। मयूरों के कई जोड़े और परिवार पास से गुज़र जाते थे। इस फार्म में एक संकरी पक्की सड़क बनी हुई थी जो फार्म के एक छोर से दूसरे छोर तक सीधी जाती थी । इस सड़क के दोनों ओर लगभग २ किलोमीटर तक तरह-तरह के फलदार वृक्ष लगे हुए थे। इन मे बेर, अमरुद, फालसा, शहतूत, बेलगिरी, और कीनू आदि के बाग थे। सुबह व शाम को मौसम बहुत सुहावना हो जाता था। घरों से लोग इन बागीचों मे विचरण को चले आते थे। मेरा भी कुछ दिनो मे ऐसा ही नियम बन गया। मैं घूमते हुए कुछ वक़्त इन्ही बगीचों मे बिताने लगा और अपना फोटोग्राफी का शौक भी पूरा कर लेता।
सवेरे-सवेरे हमारे नई जगह के नए मित्र डा। शर्मा जो उसी कैंपस मे रहते थे, प्रतिदिन सैर को निकलते थे। मन ही मन वो भगवान की माला जपते जाते थे और आसपास किसी से कोइ बात नहीं करते थे। जाप करते करते वो सड़क के किनारे लगे बेलगिरी के वृक्ष से कुछ पत्ते तोड़ लेते और घर को लौट जाते थे। उन की दिनचर्या का ये एक महत्वपूर्ण अंग था। मेरे मन में कई बार आया कि उन से पूछूं कि इन पत्तों का वो क्या करते हैं। एक दिन मेरे दिल की ये इच्छा भी पूर्ण हो गई। शर्मा जी मुझे देख कर खुद ही मुस्कुरा दिए। शायद वो मेरे मन की आतुरता भाप गये थे। मेरे पूछने पर बोले कि ये बेलगिरी के पत्ते शिवजी की पूजा में शिवलिंग पर अर्पित किए जाते हैं। और वो प्रतिदिन अपने परिवार के साथ मिलकर शिवजी कि आराधना करते हैं। मैने पूछा कि वो एक ही पेड़ से पत्ते क्यों तोड़ते हैं तो वह बोले कि ये पेड़ सड़क के बिल्कुल करीब है। मैंने महसूस किया कि जिस पेड़ के पत्ते प्रतिदिन पूजा में अर्पित किए जाते हैं वो पेड़ पत्ता-रहित होता जा रहा है। उस पर गंजापन और वीरानी छा रही है। जबकि फल सब वृक्षों पर भरपूर लगे हुए थे। मेरे मन में एक अजीब सा प्रशन उठा जो सहज ही किसी के मन मे उठ सकता है कि जिस पेड़ के पत्ते प्रतिदिन भगवान् के चरणो मे अर्पित होते हैं वह तो गंजा होता जा रहा है, उस की हरियाली विलुप्त हो गई है पर जिन पेङों के पत्ते कभी भी भगवान् की सेवा मे अर्पित नहीं हुए वह पेड़ भरपूर हरियाली लिए हुए मस्त लहरा रहे हैं, ऐसा क्यों? जग की रीत यही है क़्या? हर अच्छे प्राणी को सज़ा क्योँ मिलती है। क्यों बुरे प्राणी मज़े लूट रहे हैं? क्या ये ही कलयुग है? ऐसे ही सैंकड़ों प्रशन मेरे अंतर्मन में उठते रहे जिन का जवाब मेरे पास नहीं था। मन अपने प्रति भी निराश हो ग़या क्यों कि मैं भी बिन कसूर के सज़ा भुगत रहा था। ऐसे ही दिन और फिर महीने गुज़र गये। मौसम बदला। पर सब की वो ही दिनचर्या रही। बेलगिरी के पेड़ फलों से लद्द गये। फल पकने को तैयार थे। अर्पित पेड़ पर सिर्फ़ फल नज़र आ रहे थे पर पत्ते ना के बराबर थे। जबकि दूसरे पेड़ों पर पत्ते और फल दोनो अपनी छटा बिखेर रहे थे।
अचानक मौसम ने करवट ली और बेलगिरी के पेड़ एक पत्तों के गंभीर रोग की चपेट मे आ गये। देखते ही देखते हरे भरे पेड़ बीमार लगने लगे। फल सूखने लगे क्योंकि पत्तों के कीटाणु उन पेङों के फलों को भी हानि पहुंचा रहे थे। देखते ही देखते पेड़ों से फल गिरने लगे और चारों ओर वीरानी छा गई। इसी वक़्त के दौर मे एक ऐसी घटना घटी जिस ने मेरे हर प्रश्न का जवाब दे दिया। वह इकलौता पेड़ जिस के पत्ते जीवन भर पूजा को अर्पित हुए थे आज भी फलों से लदा पडा था। उस का हर फल आज भी पेड पर मौजूद था जिन पर बीमारी का नामोनिशान नहीं था। शायद इस लिए कि बीमारी पत्तों पर आई थी और इस पेड पर पत्ते नाममात्र थे जिस के कारण पेड आज भी स्वस्थ था। भगवान का आशीर्वाद आज भी उस के साथ था जिस ने अपने आप को उसको अर्पित कर दिया था। यह देख कर मेरे मन का सब मैल और आशंकायें छट गई। जो आज हम को दिखाई दे रहा है कि हमारे साथ बुरा हो रहा है, वक़्त के साथ मालूम होता है कि दरअसल ये हमरी भलाई के लिए ही हो रहा था बशर्ते कि हम ने भगवान को सदा अपने साथ माना हो। भगवान यह खेल बहुत दूर की सोच कर रचता है जहाँ तक हमारी नज़र और सोच नहीं जाती।
मेरे मन का भय अब निकल चुका था और मैं भी भगवान को अपने साथ लिए हुए उगते सूरज की इंतज़ार मे था। और फिर वो दिन भी आ गया जब मेरे प्रति सब के मन का मैल और दुर्भावनाए अचानक मिट गई, शायद ऊपर वाले ने कुछ घटनाक्रम ऐसा चलाया कि सब के मन का मैल धुल गया और मुझे वापिस अपने गंतव्य स्थान पर स्थांतरित कर दिए गया।