कहाँ गए वो दिन
कहाँ गए वो दिन
हर रात घड़ी में अलार्म लगाना ताकि सुबह जागने में देर न हो और सुबह अलार्म की घण्टी सुनते ही मुँह पर तकिया रख लेना। माँ के बार बार जगाने पर भी नहीं उठना। जी हाँ ये बातें हैं उस दौर की जब ज़िंदगी में कोई जल्दबाज़ी नही थी। हर रात यही सोचकर सोते थे कि कल सुबह वक़्त पर उठना है और फिर हर रोज़ वही रवैय्या। शायद वही समय अच्छा था- हमारा बचपन, जब कोई फ़िक्र नही थी। मन मेँ सिर्फ डर होता था तो अध्यापक से डॉट सुनने का ,जीवन एक ही लय में बीत रही थी । न कोई लालच था और न कोई दिखावा, न कोई छल और न कोई दबाव। अभी हम बड़े हुए ही थे की अचानक एक दिन हमसे हमारा सबसे खूबसूरत दौर छिन गया, जीवन के इस बदलाव को हम समझने ही वाले थे कि हमारे ऊपर लाखों जिम्मेदारियों ने दस्तख दे दी। ढूंढ़ते रहे हम हमारा बीता हुआ कल और यही सोचते रहे की बचपन में तो बस स्कूल बैग का बोझ था और अब पूरे दुनिया का जंजाल। इन सभी बातों से हम बहुत अंजान थे और वक़्त के साथ साथ इतने आगे निकल चुके थे कि अब बस वो यादें ही रह गयी। जीवन का यही नियम है और यही कायदा कि जो चीज़ हमें अच्छी लगती है वो बहुत जल्दी दूर चली जाती है। इस प्रश्न के तलाश में अब और समय नहीं जायर करना कि " कहाँ गए वो दिन"।